सन्तोष कुमार चतुर्वेदी की कविताएं
कविता लिख कर
कविता लिखने का कोई पाठ्यक्रम नहीं
कविताई की कोई कक्षा नही
कोई अध्यापक तक नहीं बता पाता
कैसे लिखी जाए
कि बन जाए कविता
यहाँ तक कि कोई तय मानक तक नहीं
कविता लिखने का
कविता लिख कर आप एक मनुष्य तो बन सकते हैं
लेकिन आजीविका नहीं चला सकते
हाँ, कविता लिखने के जुर्म में
आपको देशद्रोही जरूर ठहराया जा सकता है
जेल हो सकती है
देश निकाला हो सकता है
फांसी पर झूलना पड़ सकता है
फिर भी दुनिया भर में
तमाम लोग लिखते रहते हैं आज भी कविताएँ
डर के ख़िलाफ़ कविता डंट कर खड़ी हो जाती है दुनिया भर में कहीं भी
अलग अन्दाज़ की वजह से ही
कविता के लिए तयशुदा जैसा
कुछ भी नहीं
यह अनगढ़पन कविता की ज़िद है
कविता किसी भी कवि को ज़िंदा रखने की एक आदत जैसी है।
बातें
आपस में बातें करने की कला
आदमी को इंसान बनाती है
जब तक बने रहते हैं बातों के पुल
आवाजाही बनी रहती है
मनुष्यता की सड़क जाम होने का अंदेशा नहीं रहता
कभी-कभी ऐसा कुछ होता है
कि एक दिन हम किसी कारणवश अचानक
आपस में बातें करना बन्द कर देते हैं
और जब भी ऐसा होता है
अपने ही बारे में कमियों से हम अवगत नहीं हो पाते
शिकायतें सुन पाने का धैर्य खत्म हो जाता है
और जब भी ऐसा होता है
हम भूलने लगते हैं
खुद को ही धीरे धीरे
अकेले बातें नहीं की जा सकती
और अगर आपने कभी ऐसी कोशिश की
तो लोग कहते हैं भुनभुना रहे हैं महाशय
या फिर कुछ गुनगुना रहे हैं
आमने सामने बातें करने के लिए
होनी चाहिए नज़र आमने-सामने
यानी होनी चाहिए हमारी दिशाएं एक दूसरे के विपरीत
इस तरह विपरीत भी जोड़ता है हमें
जी हुजूरी करने के लिए यह जरूरी नहीं
कि हम आमने सामने हो
पीछे रह कर भी आप आराम से कर सकते हैं यह काम
बातें हमें हमेशा कुछ न कुछ बताती हैं
बातें हमें हमेशा कुछ न कुछ सिखाती हैं
बातें सन्नाटा खत्म करती हैं
और गुलजार होता रहता है वातावरण
ध्यान रहे बातों का अपना सौन्दर्य होता है
और जब भी इस सौंदर्य से
छेड़ छाड़ की जाती है
बातें बतंगड़ बन जाती हैं
दुर्गंध
चारो तरफ़ भयावह दुर्गंध फैली हुई है
ऐसी दुर्गंध कि सांस लेना तक मुश्किल
कहीं जातिवाद की नाली बह रही है
कहीं धर्म का कूड़ा बजबजा रहा है
कहीं नस्लीय श्रेष्ठता का सड़ा चूहा जीने नहीं दे रहा
जिन्हें मनुष्य होने तक का सलीका नहीं मालूम
वे हमें राष्ट्रद्रोही ठहरा रहे हैं
मुझे कोई सफाई नहीं देनी
यह जानते हुए भी कि
एक भौगोलिक चौहद्दी के बावजूद
राष्ट्र एक अमूर्त टर्म है
मुझे अपने यहाँ की फसलें पसन्द हैं
पेड़ पौधों, फूलों, पत्तियों को बेइंतहा चाहता हूँ
राष्ट्र मेरा पड़ोस है
जिसे बदल पाना सम्भव ही नहीं
दुर्गंध है कि बढ़ती ही जा रही है
लेकिन मैं जाऊँ कहाँ
दुर्गंध की जमीन पर ही
खिल रही है हरियाली
फूले हुए हैं फूल
दुर्गंध में रहते हुए ही यह सीखा जाना
कि दुर्गंध में रह कर भी
दुर्गंध से अलग कुछ सोचा जा सकता है
बचकाने सवाल
चांद पर कुल कितने देश हैं
मेरे इस बचकाने से सवाल के जवाब में
हंसते हैं बच्चे और बताते हैं
कि जब वहां कोई जीवन ही नहीं
तो फिर कैसा राष्ट्र
कैसी जाति कैसा धर्म
कैसी बोली कैसी भाषा
यानी जीवन से ही चलती है सब की दुकान
जीवन से ही बनता है सबका मानचित्र
वही बात तो दोहरा रहा हूं मैं न जाने कब से
जिससे पहले से ही कहते आ रहे हैं
चंडीदास, कबीर, रहीम, गुरुनानक
यानी कि मनुष्य के जीवन से बड़ा कुछ भी नहीं।
बचकाने सवालों के जवाब भी बचकाने हों
जरूरी नहीं
लेकिन ऐसा कई बार हुआ है
कि बचकाने सवालों ने ही
बदल दिया इस दुनिया की सूरत
वर्णान्धता
सुख में तो आती ही है
दुःख में भी अक्सर दखल देती है हँसी
वर्णान्ध होती है हँसी
इसलिए भेद नहीं कर पाती जरूरत वाले चेहरों के बीच
लाइलाज बीमारी है यह
इसलिए इसके ठीक होने की उम्मीद करना
बेमानी साबित होता है
वर्णान्धता जारी है निरन्तर
इसीलिए जिन चेहरों को हँसी से गुलज़ार होना चाहिए
वे मायूसी से भरे दिखते हैं
और जिन्हें हँसी का मोहताज होना चाहिए
वे हँसते हँसते लोटपोट हो रहे हैं
कहा नहीं जा सकता कि कब तलक चलेगा यह सब
और कब तक हँसी जरूरतों को पहचानने का शऊर सीख पाएगी
गढ़ना
सूरज हर रोज एक नया दिन गढ़ता है
एक नई सांझ गढ़ कर रात ख़ुद को कुछ और जवान कर लेती है
गढ़ना खुद को रोज नया करना है
प्रतिबिंब में खुद को देखना है
क्या देखा है तुमने कभी किसी बढ़ई को कुर्सी गढ़ते हुए
हर आराम की इमारत पसीने के गारे के दम पर खड़ी होती है
क्या तुमने देखा है किसी कुम्हार को सुराही गढ़ते
हर सुराही पानी की भरपूर उम्मीद रचती है
दुनिया का सबसे आसान काम है
किसी पर कोई आरोप लगा देना
वैसे मनुष्य की हत्या करना भी अब दुनिया के सरलतम कामों में शुमार हो चुका है
आज के सत्ताधीश कुछ अलग मिजाज के हैं
वे अपनी राह में किसी तरह का कोई अड़ंगा बर्दाश्त नहीं करते
वे चाहते हैं हर दिशा उनके जयकारे से गुंजायमान रहे
वे काम के इस कदर पक्षपाती हैं कि किसी के भी आराम को बर्दाश्त नहीं कर पाते
वे गढ़ना चाहते हैं अपने मनमुताबिक दुनिया
लेकिन ऐसा गढ़ना भी किस काम का
जो पीड़ा के अतिरिक्त्त किसी को और कुछ दे पाने में अक्षम दिखे
मैं जानता हूँ कि तपाक से उठाए जा सकते हैं सवाल
कि फिर कैसे गढ़ी जाती है दुनिया
अगर जानना ही है गढ़ाव को
तो जाकर देखो किसी माँ से
जो बिना चिढ़े अपने नवजात को रोज ही सिखाती है कुछ न कुछ
जो तुम्हारे लिए तो पुराना या कह लें घिसा पिटा हो सकता है
लेकिन उस नवजात के लिए बिल्कुल नया होता है
हो सके तो जाओ मिलो
किसी किसान से
जो बिना ऊबे हर साल धान, गेहूँ, चना, मटर, मक्के सरीखे अनाजों को अपने खेत में उगाने का जतन करता है
क्या तुम्हें पता है कि अनाज का एक एक दाना उगाना
भूख के ख़िलाफ़ किसान का एक प्रतिरोध है
भूख का चेहरा समूची दुनिया में एक सा होता है
और किसान इस तरह के चेहरों पर उम्मीद रोपने की हरचंद कोशिश करता है
पेड़ जहाँ भी होते हैं
रचते हैं छाँह हमेशा
यह सोचे बिना कि राहगीर
किस बोली, भाषा, जाति, धर्म या नस्ल का है
हर ध्वंस एक दिन खुद ही ध्वंशावशेषों में तब्दील हो जाता है
अन्तिम सच नहीं
मनुष्यता की परिभाषा नहीं हो सकता कभी यह
गढ़ना ही है तो गढ़ो कोई नया शब्द
जिसके मायने समझ सके लोग बिना किसी समझाईश के।
स्टेपनी
हर जगह कोई न कोई ऐसा व्यक्ति होता है
जो हर बार पंक्ति में सबसे पीछे खड़ा होता है
और सबसे ज्यादा चुप रहता है
हर जगह कोई न कोई ऐसा व्यक्ति होता है
जो प्रायः उपेक्षित होता है
और सबकी सब कुछ सुनता रहता है
हर जगह कोई न कोई ऐसा व्यक्ति होता है
जिस पर किसी की नज़र नहीं जाती
हालांकि वह अदृश्य नहीं होता वह
हर जगह कोई न कोई ऐसा व्यक्ति होता है
जो अलसाया हुआ सा लगता है
और लगता है कि इसके बिना भी
चल रहे हैं दुनिया के सारे काम धाम
सुचारुपूर्वक
ऐसा व्यक्ति जो जीवन में सबसे पीछे होता है
अनुभव में पूरी तरह सीझा होता है
जीवन भर जीवन पर रीझा होता है
ऐसे लोगों को भरोसा होता है खुद पर
और जब सभी हाथ खड़े कर देते हैं
सारे उपाय मौन साध लेते हैं
अन्ततः यही काम आते हैं
यही बात बस इनकी अपनी है
ये स्टेपनी हैं
लात के देवता
इनकी कहीं कोई विरुदावली नहीं मिलती
इनका कहीं कोई लोक नहीं
किसी धर्मग्रंथ में बंध नहीं पाए ये
कहीं कोई उपासना स्थल तो छोड़िए
इनकी तस्वीर तक नहीं मिलती
फिर भी ये देवताओं की कोटि में शामिल कर लिए गए
देवता होना हमेशा आदरणीय या कह लें
सम्मानजनक ही नहीं होता
कभी कभी यह अपमान का बायस भी बन जाता है
अब इन्हें अंग प्रत्यंगों से किसने जोड़ा
इसके बारे में कोई बात करना फिजूल है
लेकिन आज भी ये लात के देवता ही कहे जाते हैं
दरअसल ये वे होते हैं
जिनके लिए कोई सम्मानजनक संबोधन नहीं होता लोगों के पास
दरअसल ये वे होते हैं जिनके जन्म तक के बारे में
मनगढ़ंत बातों को बड़े यकीन से कहा करते हैं लोग
लेकिन ये वे मनुष्य हैं
जिन्होंने अपने श्रम से इस पृथिवी को
इतना सुन्दर बना दिया है
ये वे मनुष्य हैं
जो रोज ही घर बनाने में लगे रहते हैं
और खुद आजीवन खानाबदोश रह जाते हैं
ये वे लोग हैं
जो रोजाना अनाज उगाने में लगे रहते हैं
और खुद आजीवन दाने दाने के लिए मोहताज रहा करते हैं
ये वे लोग हैं
जो रोजाना कपास उगाते हैं
और खुद के उघार को तोप ढंक नहीं पाते कभी
ये लोग ही ऐसे देवताओं की श्रेणी में
जबरिया शामिल कर लिए जाते हैं
ये देवता हो कर भी
मनुष्य तक का सम्मान हासिल नहीं कर पाते
कौन बताए इन्हें कि
लात न रहे तो चलना मुश्किल हो जायेगा
और ये लोग न रहे
तो इस पृथिवी पर जीना असंभव हो जाएगा
हताश मत होना कभी
चाँद अपनी अंधेरी रातों के दौरान
रोज बरोज थोड़ा थोड़ा कटता है
और एक रात तो ऐसी भी आती है
जब समूचे आसमान में
चाँद का कहीं पता तक नहीं चलता
ध्रुव तारा से ले कर सप्तर्षि तक इसके गवाह हैं
जो मान चुके होते हैं कि चलो चाँद का किस्सा ख़त्म हुआ
तभी उनकी उम्मीदों को पलीता लगाते हुए
रातें फिरती हैं
हँसिये की आकार का चाँद
आसमान में अपनी उपस्थिति दर्ज कराता है
और रोज बरोज और बड़ा
कुछ और चमकीला होता चला जाता है
और जब अपनी देह धजा पर इतराते हुए वह अपनी समूची आभा पा लेता है
वह उसकी आखिरी रात होती है
सब दिन, सारी रातें
एक जैसी नहीं होतीं
हताश मत होना कभी
पिताजी जब छोटे हो जाएंगे
(बिटिया नव्या के लिए)
बिटिया नव्या
अभी महज चार साल की है
सच कहूं तो इस समय जीवन के ककहरे सीख रही है
नौकरी से छूट कर जब भी आता हूं घर
वह जिद करती है
घुमाने के लिए
उसे इस बात का तनिक भी पता नहीं
कि उसके पिता थकान से भरे हैं इतने
कि एक कदम चलना भी मुहाल है
बोलती रहती है जरूरत से ज्यादा
हम जब चुप रहने को कहते
तब भी वह कुछ न कुछ बोलती रहती
ऐसे ही टहलते हुए एक दिन
उसकी बड़ी बहन काव्या ने पूछा
पिताजी टहलाते समय आप हमेशा
हमारी उंगली क्यों थामे रहते हैं
तपाक से जवाब दिया नव्या ने
एक दिन पिताजी जब छोटे हो जाएंगे
तब हम अपनी ऊंगली पकड़ उन्हें टहलाएंगे
इसीलिए
मैं निरुत्तर था
अब सचमुच ऐसा लगता है
बच्चे जैसे जैसे सयाने होते हैं
हम छोटे होते चले जाते हैं
वर्णमाला के आधे अक्षर
हर अक्षर अपने पूरेपन में अपना वह आधापन भी छुपाए होता है
जो वर्णमाला में खोजने पर
कहीं भी नजर नहीं आता।
दरअसल यह आधा अपने में वह पूरापन लिए होता
जिसके बिना तमाम शब्दों की सूरत और सीरत दोनों गड़बड़ा जाती
और शब्द लाचारी में इन्हीं की तरफ देखते
जब ये आधे अक्षर आते
तभी शब्द मुक़म्मल हो पाते
एक लम्बी तादाद थी इनकी
जैसे आधा 'प' के बिना
लाख जतन करो
प्यार को लिखा ही नहीं जा सकता
और अगर किसी ने इस आधे 'प' के बिना प्यार को लिखने की ढिठाई की भी
तो वह सफल नहीं हो पाया कभी
और तो और शब्द की ही सूरत देख लीजिए
कि कितना लाजिमी है इसमें
आधे ब का आना
आधे क के बिना क्यों की सूरत कभी नहीं बन पाई
जिसकी जिज्ञासा ने
आखिर बदल कर रख दिया हमारी दुनिया के चेहरे को
शक्ल सूरत में भी दिखने वाले ये वे आधे अक्षर थे
जो शब्दों की दुनिया मे कहीं भी आते थे ठाट से
कभी बिल्कुल शुरुआत में
कभी बीचोबीच में
और कभी कभी तो शब्द के अंत के ठीक पहले
लेकिन किसी भी शब्द के आखिर में कभी नहीं आते ये
जैसे बचा लेना चाहते हों जीवन के बीज
और ख़त्म होने से पहले ही छींट देना चाहते हो
उस मिट्टी में
जिसके पास जीवन को गढ़ने का माद्दा हमेशा बचा रहता
और जिनसे मौसमों की हर जमाने मे एक तरतीब बनती थी
वर्णमाला में जगह न होने के बावजूद बचे रहे ये
आधे अधूरे अक्षर
जैसे बार बार की निराई गुड़ाई के बाद भी बची रही दूब
हरियाली की अमरता कायम रखते हुए
जैसे बार बार की हताशा पर
भारी पड़ी
उम्मीद की एक किरण हमेशा
बचे रहे ये आधे अक्षर
इसलिए भी
क्योंकि इनका कोई विकल्प नहीं था हमारी भरी पूरी देवनागरी
के पास
ये जब और जहाँ आते
अपनी ज़िद और ठसक के साथ आते
ये जहाँ भी आते
ठीक ठीक वैसे ही आते
जैसाकि ये दिखाई पड़ते
(बाँदा, 24 फरवरी 2018)
दूब
(काव्या के लिए)
जब लोगों की खुसफुसाहट खत्म न होने वाले
शोर में बदलने लगी
और बात बात में यह बात आने लगी
कि पत्थर पर दूब नहीं उग सकती
ठीक उसी वक़्त
अपनी समूची हरियाली के साथ
आयी हमारे जीवन में
और दीप्त हो गया घर का कोना कोना
दूब का उगना
एक तसल्ली है
दूब का उगना
एक आवाज है
बंजरपन के खिलाफ
दूब का उगना
सन्नाटे भरे कोरे कागज पर
शब्द का खिलना है
जैसे धरती महसूसती है
दूब की नरम छाँह
तुम्हारी बदौलत
वैसा ही कुछ महसूस किया हमने
जैसे पाँव महसूसते हैं
कुदरती छत
तुम्हारी बदौलत
वैसा ही कुछ ऊँचा खुद को
महसूस किया हमने
तुम आयी
तो धरती का इंतज़ार ख़त्म हुआ
बादल झूम झूम कर बरसे
और न जाने कब से प्यासे पपीहे की प्यास बुझी
स्वाति नक्षत्र की बारिश जो ठहरी
धान अपने प्राण के साथ
खेतों में समवेत गीत गाने लगे
मकई के अंकुर
मिट्टी को भेद कर
बाहर निकलने लगे
चिरई चुरूंग, कीड़े मकोड़े, पशु पक्षी सब
गीत गुनगुनाने लगे
तुम्हारे होने भर से
बदल गया घर आँगन का व्याकरण
तुम्हारे होने भर से
जगरमगर हो गया
हमारी किताब का आवरण
तुम्हारे होने भर से
मिट गए हमारे सारे गम
तुम्हारे होने भर से
बदल गया समूचा मौसम
जिस समय का पर्याय बनता जा रहा है सुखाड़
उस समय को हरी रोशनी दिखाते हुए
बढ़ो
कभी ख़त्म न होने का संगीत रचते हुए
बढ़ो
कविता की लय
बनते हुए
बढ़ो
और छा जाओ समूची धरती पर
उम्मीद का हस्ताक्षर बन कर
ओ मेरी दूब
शून्य
मेरी बनावट ही है कुछ ऐसी
कि उलट पुलट कर भी देखो
तो कोई बदलाव नज़र नहीं आएगा
हाव भाव, काया साया
सब कुछ जैसे का तैसा
जगहें बदल जाती हैं
लेकिन नहीं बदलता मेरा कुछ भी
एक जैसे हालत में
देखा जा सकता है
कहीं भी मुझे।
निर्वात के लिए कोई जगह नहीं
(नामवर सिंह के लिए)
एक लम्बा रास्ता
जो तमाम काँट कुश से भरा था
जिस पर चलने से बचा करते हैं लोग
सहज भाव से अपनाया ख़ुद के चलते रहने के लिए
राह कोई और भी हो सकती थी
जो छोटी होती
आरामदेह होती
लेकिन जिन्हें चलने का शौक होता है
जिसे ख़ुद पर यक़ीन होता है
और चुनौतियों से जूझने का साहस होता है
वे अपनी पसन्द का रास्ता चुनते हैं
उन्हें पता होता है
कि यह जोख़िम भरा कदम है
लेकिन जो ख़ुद लीक बनाते हैं
वे जोख़िम की परवाह भी तो नहीं करते
जहाँ कदम कदम पर रोकती हैं जड़ जमायी परम्पराएं
जहाँ लीक से अलग चलना
पागलपन के अलावा कुछ भी न समझा जाता हो
वहाँ दूसरी परम्परा की खोज़ करना
बालू से तेल निकालने सरीखा ही है
एक भरा पूरा जीवन
उस जाहिलपन से जूझता रहा आजीवन
जो मौत से लड़ने सरीखा ही होता है
अन्धकार की प्रतिच्छवियाँ अब कुछ और लम्बी होती जा रही हैं
उजाले में अब एक अजीब सा सन्नाटा और खालिस मौन है
कुछ भी कहना ख़तरे से ख़ाली नहीं
फ़िर भी तुम कहते रहे निडर भाव से वह सब
जो कहा जाना चाहिए था
बोलते रहे ठसक से वह
जो जरूरी था
जमाने के मद्देनज़र
चारो तरफ धूल गर्द बेख़ौफ़ उड़ रही है
और घरों तक में बेधड़क चली जा रही है
ऐसे में जब कि सब तरफ काईयाँपन की काई तेजी से फैलती जा रही है
तुमने कहा था एक बार
आज के हालात देख कर भी
जो पागल नहीं हो पाता
समझो संवेदनाएं मर चुकी हैं उसकी
और पागलों पर जी भर हँसने वाले लोग
स्वार्थी लोग हैं
जिनके स्वार्थों ने उन्हें पागल होने से बचाए रखा है
वैसे राज़ की एक बात बताऊँ पृथिवी पर मनुष्यता को बचाए रखा है उन लोगों ने ही
जिनमें पागलपन की हद तक जाने का जज़्बा है।
अपना सफ़र पूरा कर
अपनी जगह ख़ाली कर दी हमने
आगे की पीढ़ियों के लिए
मेरे जाने को इस नज़रिए से
देखा जाना चाहिए।
निर्वात के लिए कोई जगह नहीं
हवा का एक झोंका आएगा
और कोने कोने से गायब हो जाएगी उमस
हकीकत का मिथक
(दूधनाथ सिंह के लिए)
दर्पण इस मामले में अनोखे होते हैं
कि जब भी हम उसमें निहारते हैं
हमेशा हमें अपना ही चेहरा दिखाई पड़ता है
कभी भी नहीं देख पाते हम
दर्पण का चेहरा
और तो और
सामान्य रूप से कभी भी नहीं देख पाते हम वह कलई
जो खुद का अस्तित्व ख़त्म कर
हमेशा एक दृश्य रचती है
हालाँकि दर्पण को जानने का दावा करने वाले उसके बारे में
तमाम बातें करते हैं
सबका अपना अपना सच होता है
जिसमें उसका अपना अपना झूठ भी मिला होता है
कम लोग जानते हैं कि
दुनिया की कोई भी तस्वीर खुद अपने में सामूहिकता लिए होती है
एक दस्तावेज की तरह ही
तस्वीर में तमाम शब्द होते हैं
जिनके अपने अपने अर्थ होते हैं
तस्वीर के साथ नत्थी उसका समय होता है
हर तस्वीर अपनी सादगी में
तमाम रंगों को घुलाए होती है
और हर रंगीनियत में भी
छुपी होती है एक सादगी
वे एक दर्पण थे
जिसमें हमेशा ही बदल जाते थे शब्द
कोई भी लिखावट उसके सामने रखो
वह हमेशा ही किसी अनजान सी लिपि की तरह कुछ उलट पुलट सी जाती थी
2
कोई सीधी परिभाषा नहीं थी उनके पास
क्योंकि अपने परिवेश में ही
परिभाषाओं के चेहरे अलग अलग हुआ करते थे
ठीक उस दर्पण की ही तरह
जिसे देख कर लोग भ्रम में पड़ जाते
और कोई भी अन्तर नहीं कर पाते
जैसे जब कोई कहता
इलाहाबाद में अब कुछ भी नहीं बचा
वे तपाक से जवाब देते
इलाहाबाद में संगम है
जो हमेशा उसे इलाहाबाद बनाए रखेगा
कि इलाहाबाद में एक तीसरी नदी भी
अपनी लहरों के साथ आज भी बहती है
जिसे सामान्य आँखें नहीं देख सकतीं
कि इलाहाबाद को समझ सकता है वही
जो नदी को जीने और उसे पार करने का जज्बा रखता हो
इलाहाबाद को वे जीते थे इतना
कि इलाहाबाद में ही मरना भी चाहते थे
कि इलाहाबादी मिट्टी में ही खाक होना चाहते थे
कि चाहते थे कि उनकी चिता से उठा धुँआ
समूचे शहर के जाम को अँगूठा दिखा कर
सभी के नथुनों से गुजर कर हो आए
तल्खी का अहसास करा जाए
3
एक कलाकार ही तो थे वे
कि जब किसी वाकये के बारे में बताने लगते
तो कहानी गढ़ने लगते
जैसे यह जीवन भी एक कहानी हो
इसे इस तरह भी समझा जा सकता है
कि हकीकत को कल्पना
और कल्पना को हकीकत से कुछ इस तरह मिलाते
कि अन्त में एक खूबसूरत सा ताना बाना तैयार हो जाता
यहाँ भी वे खुद को मिटा देते
कहानी में घुला देते
एक दर्पण जैसे फिर तैयार हो जाता
हकीकत का मिथक दिखाने के लिए
इस मिथक में दो छोर होते
दोनों के बीच एक रस्सी तनी होती
और चल देते उस रस्सी पर फौरन
जैसे इस खेल को साध लिया था उन्होंने जीवन की तरह
इस खेल को वे इतनी तल्लीनता से खेलते
कि वही जीवन्त लगने लगता
उनकी हँसी खिलखिलाहटों भरी दिखती
कि जैसे दूर दूर तक दुःख का नामो निशान नहीं था उनके पास
कि वे जहाँ भी दिखते
तमाम कवि गण
तमाम कहानीकार
तमाम पाठक
तमाम नाटककार
आस पास एक घेरा बनाए मिलते
यानी कि अकेले कहीं नहीं
जबकि भीड़ में भी वे बेहिसाब अकेले होते थे
यहीं उनका कलाकार दिखता था
वे अपने जख्मों के साथ कभी नज़र नहीं आए
वे कभी दीन हीन नहीं दिखे
जब भी दिखे हँसमुख दिखे
जब भी दिखे बेतकल्लुफ दिखे
एक सरलता जो दिखती थी चेहरे पर
उनके यहाँ जीवन जितनी ही जटिल हो जाती थी
इसीलिए वे हमेशा अलग दिखे
भीड़ में भी अलग
चार यारों में भी अलग
कहानी में भी अलग
जीवन में भी अलग
और अन्त वहाँ पर होता उस कहानी का
जिसे वे तल्लीन ही कर सुनाते
जहाँ हम मंत्र मुग्ध हो कर
कुछ और सुनने की आस लगाए होते
कि ज़िंदगी एक चोट की तरह समाप्त हो जाती
जो अपने हरेपन में
हमेशा अपना अहसास कराता है
और जब पुराना पड़ता है
हल्का सा ही सही
एक निशान छोड़ जाता है
4
उनका अपना सच था
जिसे वे जीते थे
अपनी शर्तों पर
कुछ इस तरह
कि औरों को उसमें गल्प दिखने लगता
कि अपने अपने सच के साथ उन्हें सब जीते
कि उनके बारे में
कॉमरेड सुधीर का भी एक सच था
कवि अनिल का भी एक सच था
हमारा भी एक सच था
इसी तरह समूचे इलाहाबाद का
उनके बारे में
एक अपना एक सच था
कि सबके पास अथाह यादें थीं
और इन यादों में फिर वही दर्पण था
जो सब कुछ वही नहीं दिखाता
जो हम महसूस करते हैं
जो हम दिखते हैं
इशारों पर चलाने वाला हमेशा असफल रहा
नियन्त्रित नहीं कर पाया कोई लगाम
हमेशा ही रचते आए जैसे आख़िरी क़लाम
मुर्दे
अपनी जाति जनजाति का नियम उपनियम भलीभांति जानते हैं मुर्दे
यह पता है कि उन्हें बिना हिले डुले पड़े रहना है कुछ इस तरह
कि लोगों को लगे कि सोया है अचेत यह
मुर्दे हमेशा हड़बड़ी में होते हैं
मुर्दे अपना अस्तित्व ख़त्म करने के लिए सन्नद्ध रहते हैं
उन्हें अपनी मिट्टी ख़राब होने का भय हर पल सताता है
इसलिए वे बाट जोहते हैं जिन्दा दिल लोगों के कन्धों की
मुर्दे न तो कुछ देखते हैं, न ही कुछ सुनते हैं
उन्हें कोई फ़र्क नहीं पड़ता कौन शोकाकुल है कौन खुश
वे हमेशा अपने में मगन रहते हैं
मुर्दों को चाहिए एक अदद कब्र या श्मशान
इससे अधिक की कुछ भी चाहत नहीं इनकी
जैसे फ़क़ीर की भी कोई ख़ास चाहत नहीं होती
क्योकि वे भूल जाते हैं बोलना
क्योकि वे भूल जाते हैं सोचना
एक अन्तहीन नींद है उनके पास
दिन रात, अंधेरे उजाले में फर्क न कर पाने वाली
धीरे धीरे वे जागना भूल जाते हैं
वे भूल जाते हैं धीरे धीरे देखना सुनना, हिलना डुलना
हँसना रोना, चलना फिरना
और जब भी भूल जाता है यह सब आदमी
मुर्दा होने लगता है
मेरे देश में आजकल कब्रगाह या फिर श्मशान
क्यों अचानक गुलज़ार होने लगे हैं।
तिथिविहीन
कई बार ऐसा हुआ
कि कविता आयी मेरे पास
शब्दों की बैसाखी बिना
जैसे कोई गौरेया आती है
अचानक ही पंख फड़फड़ाते
यूं ही लावारिस पड़े अनाज के दाने के पास
तिथिविहीन इस घटना का
एक तारतम्य है मेरी कविता के साथ
कि अक्सर ही छूट जाती हैं तिथियां
मुट्ठी से रेत की मानिन्द
जैसे जीवन में अतीत होती चलती हैं तारीखें
शब्द लगातार कोशिश करते हैं
कविता की एक चारदीवारी खींचने की
लेकिन दरअसल होता यह है कि
शब्दों की सीमाओं से पार
हर पल कविता में कुछ न कुछ घटित होता रहता है
और पल प्रतिपल बदलती रहती है कविता
गोया समय में तब्दील हो गयी हो करीने से
घड़ी की टिकटिक में अनुगूँज सुनता हूँ कविता की
जो हर निरंकुशता को अतीत कर देती है एक दिन
जो हर वर्चस्व को ख़त्म कर देती है एक मोड़ पर
तमाम घरों में कैलेण्डर नहीं पहुँच पाए
तमाम हाथों तक नहीं पहुँच पायीं घड़ियाँ
तमाम नाम विस्मृत कर दिए गए याददाश्तों से
मैंने कभी कोई तिथि नहीं डाली
किसी कविता के नीचे
इस दुविधा में
कि किस पल को दर्ज करूं
किस पल को छोड़ दूं
कि मेरे लिए सबने बेहतर करने का प्रयास किया था
और जो नाकामयाबी है
वह सब मेरी अपनी है
बहरहाल अपनी कविताओं पर तिथि का डिठौना लगाना नहीं चाहता
जो इतनी नाजुक हों
कि बुरी नज़रों को नजरअंदाज तक नहीं कर सकतीं
तो माफ कीजिए
उनका न होना ही मुनासिब
आसन्न घटनाएँ गूंजती रहती हैं
और मैं जब तलक पूछताछ करता हूँ किसी से
घटित हो गयी होती है घटना
आखिर इसे किस तिथि के नाम दर्ज़ करूँ
समय के धरातल पर आहिस्ते से अपनी राह चलते चले जाना चाहता हूँ
कविता की तरह ही तिथिविहीन रहना चाहता हूँ
इसलिए भी कि दुनिया की तमाम घटनाएँ, लोग
और तस्वीरेँ तक
तिथिविहीन ही रची गयी हैं।
भाईचारा
न तो वह मुझे जानता था
न ही मैं उसे पहचानता था
सफ़र में यूँ ही खराब हो गयी थी बस
और निर्जन हो चली बेला में
ढूंढ रहा था मैं कोई खेवनहार
जो ऐसे ठिकाने तक पहुंचा दे
जहाँ आवाजाही की गुंजाइशें हों
आखिरकार कब तक निहारता प्रकृति की खूबसूरती को
कब तक परिन्दों के खेल देखता
रात जब आँचल पसारती है
सब खेल थम जाता है
और नींद का भी तो एक वक्त होता है
उचट गयी अगर
फिर नहीं आती
मनुहार करने पर भी
यह भी कोई जगह है
जहाँ पीने के लिए पानी नहीं
एक दुकान तक नहीं
ऐसे पेड़ पौधे भी नहीं
जिन पर झूल रहे हों फल
यह भी कोई जगह है
फिर दुहराया बरबस ही मैंने
जहाँ कोई मानुष नहीं
घर नहीं
फसलें नहीं
लेकिन हमारे कहने से क्या फर्क पड़ता है
नहीं होना चाहिए
फिर भी है
होने की ठसक की ही तरह
जब कि इसे न होने की धुंध में विलीन हो जाना चाहिए था
तभी एक राहगीर दिखा उम्मीद बन कर
और इस उम्मीद को आजमाने के लिए बेझिझक मैंने हाथ दिया
इशारों के साथ साथ चेहरे भी
बहुत कुछ कह देते हैं
राहगीर ने जैसे पढ़ लिया था
मेरे चेहरे की वर्तनी को
वह रुका
जैसे हाथ मिलाने के लिए रुकते हैं लोग
जैसे साथ देने के लिए रुकते हैं लोग
जैसे बात करने के लिए रुकते हैं लोग
ठीक वैसे ही वह रुका
और मैं सवार हो गया बिना कुछ सोचे विचारे
उसकी गाड़ी में
मुझे नहीं पता
कि किस जाति, किस धरम, किस भाषा, किस बोली का था वह
ठीक वैसे ही उसे भी
मेरे बारे में एक हर्फ तक नहीं मालूम
हम एक दूसरे का नाम तक नहीं जानते थे
फिर भी एक भाईचारा था
हम दोनों बिल्कुल एक मनुष्य की तरह दिख रहे थे
मनुष्य की तरह दिखना भी आज के समय में एक बड़ी नेमत है
कुछ मौसम के बारे में बारे में बातें हुईं
कुछ सड़कों की बदहाली के बारे में
फिर हमने नाम साझा किए आपस में
फिर एक दूसरे को बताया रोजी रोजगार के बारे में
बात की राह में कब मेरा ठिकाना आ गया
पता ही नहीं चला
उसने गाड़ी रोकी
और मैं सहज ही उतरा
राहगीर को शुक्रिया कहते हुए
उसने भी थोड़ा झेंपते हुए कहा
कोई बात नहीं
फिर हम बढ़ चले अपनी अपनी राहों पर
तो समय गुजर गया
अब तो स्मृति के कागज़ पर वह चेहरा भी कुछ धुंधला हो गया है
हम कभी नहीं मिल पाए फिर
और अब जब कि
सब कुछ भूलने के साथ अपने हक़ के बारे में
कुछ भी न भूलने का आक्रामक समय है यह
हमारी स्मृति में था आज भी वह राहगीर किसी बिल्कुल अपने जैसा
जिसका नाम गाम धाम, धरम, करम सब कुछ अलग था
मेरे नाम धाम से
लेकिन इतना याद है मुझे अच्छी तरह
कि वह हमारे इस अमानुष समय में सचमुच का एक मनुष्य था।
कोष्ठक के अन्दर
कई बार ऐसा होता है
कि वाक्यों की राह से गुजरते हुए
कोष्ठक मिल जाते हैं
निहायत ही जरूरी रूप में
इनके होने से हम थोड़े सुकून से भर जाते हैं
इनके होने से ऐसा लगता
हमारा भी ध्यान रखने वाले
इस दुनिया में कुछ हैं
वाक्यों की संरचना को
मुकम्मल बनाने के लिए
जरूरी होते हैं कुछ चिन्ह
मसलन पूर्ण विराम, अर्द्ध विराम,
प्रश्न चिन्ह और भी तमाम चिन्ह
और इसी कड़ी को कुछ और समृद्ध करते हैं कोष्ठक
खुद में इनका कोई अर्थ नहीं
लेकिन वाक्यों के बीच आ कर
अर्थहीन रहते हुए
बारम्बार
अर्थ सिरजते हैं
हमारे समय के एक शासक को
कुछ नया करने का उन्माद था
वह लिपि में भी उन्माद को
कुछ इस तरह घुला देना चाहता था
कि आने वाली पीढ़ियों को याद रहे केवल अक्षर
शासक को सारे चिन्ह विजातीय लगते थे
सो एक दिन उसने घोषित कर दिया यह आदेश
कि अक्षरों के देश में
विधर्मी यानी कि विजातीय चिन्हों का प्रवेश प्रतिबंधित रहेगा
कुछ नवजात लिपिविदों ने
शासक के सुर में सुर मिलाया
और पुचकार की वर्तनी में
तत्काल अपनी पूंछ हिलाया
कोष्ठको को तत्काल हटा दिया गया उनकी जगह से
सरकारी कागजों से
सरकारी दस्तावेजों से
अब भाषा में केवल शब्द थे
अब वे बिल्कुल आसपास दिख रहे थे
अब उनके पास शुद्धतावादी जीवन के आभास थे
लेकिन एकाएक गड्डमड्ड हो गए थे सारे अर्थ
एक खालीपन महसूस होने लगा था उन जगहों पर
जहाँ कभी कोष्ठक हुआ करते थे
लोगों ने भी सवाल उठाना शुरू कर दिया
कि जिनका लिपि से कुछ भी नहीं लेना देना
वे भला क्यों पीछे पड़े हैं कोष्ठकों के
क्या वे कोष्ठकों का मतलब भी समझते हैं
वैसे भी तो एकरूप जैसा कुछ भी नहीं
हवा, पानी, जीवन से ले कर देह तक की बनावट में
जातीय के साथ साथ शामिल हैं तमाम विजातीय तत्त्व
वर्णमाला की दुनिया से हटाए जाने के बाद भी
लुप्त नहीं हुए कोष्ठक
वे उन किताबों में महफूज़ थे
जो हटाए जाने की घोषणा के पहले ही
हजारों हजार लोगों के घरों में पहुँच चुकी थी
वे उन स्मृतियों में थे
जो पहुँच जाती हैं एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तलक
सपनों की तरह
और घास से तो उनकी पुरानी दोस्ती ही थी
जो उनकी बनावट में दिखती थी
तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद
कोष्ठक बचे थे
जीवन में जीवन की तरह
घर में आँगन की तरह
वैसे भी जीवन में बची रहनी चाहिए कुछ ऐसी जगहें
जहाँ बची रहें छायाएँ
जहाँ बची रहे जीवन भर की धूप
और मनुष्य होने के सुबूत।
संघर्ष का रंग हरा हुआ करता है
सड़क किनारे खड़े हुए
बाग बगीचे में कुछ हिले मिले
गाँवों और शहरों में हरियाली की रोशनी जलाते हुए
मिल जाते हैं हर जगह रोज ही पेड़
पौढ़ होने के पहले ही ईंधन बन जाती हैं डालियाँ
मुग्ध होने के पहले ही तोड़ लिए जाते हैं फूल
भूख प्यास से जूझने वाले ये पेड़ अपना फल नहीं भख पाते कभी
जीवन को बनाए बचाए रखने में हर घड़ी मशगूल रहने वाले
इन पेड़ों की देह पर
जब मन आए
घूम सकती हैं आरियाँ
उछल कूद मचा सकती हैं कुल्हाड़ियां
जीवन की गझिन बुनावट करने वाले ये पेड़
इतिहास से हमेशा बाहर रहे
वैसे हमारे समय मे
चर्चाओं के दायरे में इतनी अधिक चीजें शामिल होतीं
कि अमूमन छूट ही जाते ये
किसी भी तरह की चर्चा परिचर्चा से
दुनिया को तमाम रंगों से भरते हैं
हमारी कल्पनाओं को उमंगों से भरते हैं
स्वाद की तमाम परिभाषाएं रचते हैं
लेकिन बेस्वाद होने से हमेशा डरा करते हैं
एक बात भरोसे से कही जा सकती है
कि जब तलक बचे हैं इस पृथिवी पर पेड़
तब तलक बची रहेगी जीवन की मेड़
अपने इर्द गिर्द बचाए रखेंगे वह मिट्टी
जिस पर टिकी रहती है
उम्मीद की भित्ति
सुख का ही नहीं
दुःख का भी अपना एक रंग होता है अलहदा
और जब भी रंगों की बात आती है
ये शामिल होते हैं
दर्शकों की तरह
मंच से कुछ दूरी बना कर
खड़े हैं ये पेड़ अपने संघर्ष भरे रंगों के साथ
हमारी पृथिवी के हर कोने हर अंतरे में
और यह बात तो मालूम ही होगी आपको
कि संघर्ष का रंग हरा हुआ करता है
जैसे कि ज़ख्म का रंग हर जगह लाल हुआ करता है
ब्लैक बोर्ड
तमाम बार
तमाम इबारतें लिखी गयीं इस पर
मिटा मिटा कर
यहाँ इबारतें आती थीं
जीवन की तरह
कह लें
जीवन को परिभाषित करती हुई।
किसी रिकार्ड बुक में अंकित होने से हमेशा बचता रहा
जैसे कि अपना खेत जोतते हुए किसान बचता है
हराई के आँकड़े सजोने से
जैसे पेड़ बचते हैं ढोल बजाने से
धूप में परछाई की वर्तनी सिरजते हुए
इन्हें मालूम है कि आँकड़े भ्रम पैदा करते हैं
और सच से इनका सम्बन्ध हमेशा संदेहास्पद होता है
ये ब्लैकबोर्ड थे
सामान्य परम्परा में काले कजरारे
ख़ुद पर इतराते
कहीं भी खड़ा हो जाने वाले
नई पौध को पानी देते
धूप दिखाते
रास्ता बताते
शब्दों का मायने समझाते
हमेशा की तरह कोरा रह जाने वाले
यानी कि कोरेपन का कोरस पेश करने वाले
आसान से आसान
कठिन से कठिन
सभी तरह के शब्दों के लिए
जगह थी यहाँ पर
चित्र थे
बोली और भाषा को उनकी ध्वनि के रंग से रंगते हुए
सभी के लिए एक सा सम्मान था
एक सा बर्ताव
लिखते लिखते चाक खत्म हो जाते थे
लिखने वाले बदल जाते थे
डस्टर घिस जाते थे
शब्द मिट जाते थे
लेकिन ब्लैकबोर्ड उस रीढ़ की तरह बने रहते थे
जिससे एक आकार बना करता है
और जिसके बिना खड़े होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती
अभी अभी एक बच्चे ने ककहरे का पहला अक्षर लिखा है
दुनिया कुछ इसी तरह इसी अन्दाज़ में शुरू होती है
रेलवे क्रासिंग
यहाँ कोई विश्रामालय नहीं
कि रुक जाऊँ थकान मिटाने के लिए
यहाँ नहीं कोई मन्दिर
जहाँ देवताओं को मूर्ति बने देख सकूँ
कोई जलपानगृह भी नहीं यहाँ
कि चाय की चुस्कियों के साथ
समय काटा जा सके
पहाड़ की कोई श्रृंखला भी नहीं
कि निरखा जा सके
उसकी सुघड़ता को
एक अवरोध है
जो बार-बार अचानक ही सामने आ जाता है
समय, बेसमय
और हम इंतज़ार की भाषा
में मशगूल हो जाते हैं
एकाएक धड़ धड़ धड़ धड़ की तेज़ आवाज़ होती है
ध्यान टूटता है
नीरवता का
इंतज़ार का दौर खत्म होता है
अवरोध हटता है
और रास्ता खुल जाता है
शहर के रास्ते से गुजरते हुए
जो आँखे बेसब्री से अपने लिए
एक मुकम्मल जगह की तलाश करती हैं
उन्हें यहाँ माकूल समय और जगह मिल जाती है
जो पीछे छूट गए होते हैं
उनके साथ हो लेने का समय होता है
ड्राइवर लम्बी यात्रा की थकान
उतारता है
एक लंबी सी जम्हाई ले कर
जो मुसाफिर बैठे बैठे ऊब गए हैं
वे टहलने का आनन्द लेने उतर गए हैं
क्रॉसिंग बन्द हुए देर हुई
क्या बात है?
कहते हुए लोग जब तरह तरह के कयास लगाने लगते हैं
कि जब बेसब्री थक कर चूर हो जाती है
तभी सहसा अपनी पूरी आवाज के साथ आती हुई रेल
पल भर में पार कर जाती है क्रॉसिंग
हम दर्शक बन रेल का खेल देखते हैं
अब भीड़ में जहाँ तहां खड़ी गाड़ियों और लोगों के बीच से हो कर गुजरने का रास्ता बनाना होता है
यह रेलवे क्रॉसिंग है
यहाँ एक हो कर गलबहियाँ करते हैं रेल और सड़क
बतियाते हैं, थमते हैं, थामते हैं
एक दूसरे का हाल चाल जानते हैं
आपाधापी का समय है
कोई कहीं अनर्गल रुकना नहीं चाहता
किसी के पास निमिष भर के लिए भी वक़्त नहीं
ऐसे में क्रॉसिंग रोकती है
और बताती है कि
चाहें जितनी भी तेजी हो
हमें अपनी हिफ़ाज़त के लिए
कुछ पल के लिए रुक ही जाना चाहिए
कि जब किसी के इंतज़ार तक का वक़्त नहीं किसी के पास
हमें रुक जाना चाहिए इंतज़ार करने के लिए
कि जो पीछे छूट गए हैं
उन्हें साथ ले कर चलने की तहज़ीब सीखनी चाहिए
गाड़ीवान टोला
कई एक दृश्यों में होती हैं तमाम अदृश्यताएँ
कई एक नामों में होती हैं तमाम व्यंजनाएँ
कई अकेलापन अकेले रहते हुए भी
सिरजते हैं विविधता की वर्णमाला
एक समय के बाद शब्द भी अपना मतलब बदल लेते हैं
गाड़ी का आशय सौ साल पहले
वही नहीं रहा होगा
जो आज है
गाडियाँ तब भी थीं
लेकिन आज जैसी अफरातफरी नहीं थी
आज जैसा प्रदूषण नहीं था
आज जैसी दुर्घटनाएँ नहीं थीं
सुबह सुबह बैलों के गले में बंधी घण्टियों की आवाज़ से
कभी यह मुहल्ला गुलज़ार हुआ करता था
सुबह सुबह गाड़ीवान बैलों को नाद पर चढ़ाते
उन्हें जम कर खिलाते
ध्यान रखते हर वक़्त
कभी मौके बेमौके अपने बैलों से बतियाते
रोज़ वक़्त निकाल कर उनकी देह सुहराते
तब शहर का हर घर इनका एहसानमन्द होता
हर घर की ईंट, बालू, चूना, सुर्खी में
कहीं न कहीं मिला होता
बैलों का श्रम
और गाड़ीवान लोगों का पसीना
इस मुहल्ले को गाड़ीवान लोगों के नाम से ही जाना गया।
बैल अपनी अदृश्यता के साथ
रचते रहे दृश्य
दृश्यों में भरते रहे रंग
अब जबकि समूचा शहर आधुनिक होने के पागलपन में मुब्तिला है
तब भला कैसे पीछे रहता यह गाड़ीवान टोला
अब एक भी गाड़ी नहीं
गाड़ीवानों ने भी उन गाड़ियों को अपना लिया
जो दूरी को समय मे बदल देती थीं
समय बदल गया
लोग बदल गए
धन्धा बदल गया
लेकिन जैसे का तैसे रहा नाम मुहल्ले का
जो पूरे शहर का नाम बदलने में लगे हुए थे
उन्हें भी गाड़ीवान टोला नाम से कोई आपत्ति नहीं थी
एक बड़ा कैनवास था इस नाम का
कि यहाँ अब तक जो रहते आए थे
उनका मूल धर्म, जाति, गोत्र और पन्थ सब गाड़ीवान ही था
और इस नाम को सुन कर
तत्काल जो तस्वीर बनती थी
उसका कोई इबादतखाना भी नहीं था
कहते हैं जब एक ढाँचा ढहाया गया
इलाहाबाद की जमीन भी कुछ हिली थी
कहीं कहीं एक सी दिखने वाली जमीन में तत्काल ही
दरारें दिखने लगी थीं
गाड़ीवान टोला भी
तब कुछ हिन्दू
तब कुछ मुसलमान हुआ था
तब तक मुहल्ले का नाम ही नहीं
लोगों का धर्म तक रचने वाली
बैलगाड़ियां परिदृश्य से गायब हो चुकी थीं
जो अपने साथ लेती गईं थीं सदिच्छाएँ भी
और जहाँ संवेदनाओं का अकाल पड़ जाता है
वहाँ की जमीन में दरारें ही नहीं पड़तीं
वे कुछ और चौड़ी
वे कुछ और गहरी हो जाती हैं
जब तक बैलों के गले मे बँधी रहीं घंटियां
जब तक घण्टियों की गूँजती रहीं आवाजें
तब तक यहाँ के लोगों ने
बुलन्द किया यह नारा
कि मनुष्य से बड़ा कुछ भी नहीं
न कोई धर्म बड़ा,
न कोई जाति बड़ी
लोग इस बात को फख्र से बताते
मनुष्य ख़ुद ही एक मुकम्मल धर्म है
तब भला किसी और धर्म की क्या जरूरत
आज के इलाहाबाद में भी वह गाड़ीवान टोला है
वह शहर जैसे होते हुए सोता है आजकल
कुम्भ की बयार में
इस मुहल्ले की दीवारों पर भी रचा जा रहा है आर्ट
पड़ोसियों के बीच बढ़ती जा रही हैं दूरियाँ
इस बीच अखबारों में रोज़ पढ़ता हूँ यह इश्तहार
कि अपना शहर भी हो रहा है स्मार्ट
कुछ लोग तैयार कर रहे हैं अर्ज़ी
कि गाड़ीवान टोला नाम से
पिछड़ेपन की बू आ रही है
बदल दिया जाए इसे
अन्त की शुरुआत
कुछ सिरफिरी हरकतों से ही हुआ करती है
तो क्या मान लिया जाए
कि गाड़ीवान टोला को अब अलविदा कह देना चाहिए
कटे फटे नोट
तब इनका भी एक जमाना था
तब ये भी कडकड़िया कहे जाते थे
अपने बच्चों की शादियों के लिए
लोगों ने जतन से बचा बचा कर रखा था इन्हें
लेकिन जीवन तो जीवन है
और इस जीवन की अपनी एक चाल है
हम जहाँ कल्पना तक नहीं कर पाते
जीवन वहाँ भी
एक अरसे से
फल फूल रहा होता है
जीवन की तमाम धूप छाँव
देखी इन्होंने भी
तमाम हाथों से
तमाम जेबों से हो कर गुजरे
कहीं किसी ने तहिया कर रखा
तो किसी ने गुमेट कर ही डाल लिया जेब में
क्योंकि किसी भी हाल में
इनका मूल्य जस का तस बने रहना था
किसी जरूरतमंद की जेब में जब जब आए
अपने जीवन पर खुल कर इठलाए
लेकिन जब किसी रिश्वतखोर के
बिस्तर में छुपा कर रखे गए
तो अपने होने पर ही पछताए
मूल्य चाहें जो भी हो
वक्त कहां कभी किसी के लिए ठहरता है
एक दिन ऐसा भी आया
जब किसी दुर्घटनावश फट गए
जब किसी बच्चे ने खेल खेल में इनकी दुर्गति कर दी
या किसी के गुस्से का शिकार हो कर फाड़ डाले गए
यह इनके ढलने के दिन थे
गन्दे चिक्कट पुराने धुराने
शक्ल भी दिक्कत से पहचाने जाते
तब किसी हुनरमन्द हाथ ने
तरकीब से इनके चेहरे सँवारे
चिपकाए गए इत्मीनान से
फटे नोट के हिस्से
कुछ इस तरह
कि चित्र से चित्र मिल जाए
अंक में अंक
बारीक नज़रें भी इनका जोड़ देख न पाए किसी तरह
नोटों की गड्डी में रख कर चलाए गए
अपनी कीमत पर ही
क्योंकि वचनबद्ध थे ये
इन्हें धारक को हर हाल में अदा करना था पूरा पूरा मूल्य
हर कोई अब इनसे बचने की कोशिश करता
तब भी किसी न किसी के गले ये लग ही जाते
और तब अगले की तरक़ीब भी यही होती
कि जितना जल्दी हो सके
ये दूसरे हाथ
दूसरी जेब तक पहुंच जाएं
कई जगह अलगाए जाते
कई जगह दुत्कारे जाते
फिर भी अपने मूल्य की बदौलत
उतनी कीमत पर ही स्वीकारे जाते
अपना वजूद ख़त्म होने तक इसी तरह
अपने पूरे मूल्य के साथ चलते रहते आजीवन
एक प्रेमी की तरह ही मुस्कुराते
ढंकते हुए दिल की अपनी चोट
ये कटे फटे नोट
असुविधा पैदा करती हैं बड़ी नोटें
काफी अधिक मूल्य की होती हैं कुछ नोटें
ये कुछ लोगों की जेबों का ही चक्कर काटती रह जाती हैं आजीवन
छोटी नोटें खूब घूमती हैं
तमाम लोगों की खुशियों
तमाम लोगों की जरूरतों
तमाम लोगों की तृप्ति से हो कर
ये रोजाना चैन से सोती हैं
असुविधा पैदा करती हैं बड़ी नोटें
छोटे लोगों के लिए विस्मयकारी होती हैं
एक साथ ज्यादा गंवाने की आशंका होती है इनके साथ
और जब आशंका हो तो नींद गायब हो जाती है
इसलिए प्रायः बड़ी नोटों से बचते हैं सामान्य लोग
छोटी जगहों के दुकानदार
बड़ी नोट देख कर अक्सर मुंह बिचकाते हैं
और तुरन्त ही फुटकर मांगते हैं
बसों के कंडक्टर सारी बोल कर
लौटा देते हैं बड़ी नोटें
और फुटकर के लिए कहते हैं
आम तौर पर सब्जी वाले के यहां
नहीं होती बड़ी नोटों के लिए जगह
मजदूर मांगता है
छोटी नोटों में ही अपनी पगार
ऑटो वाले बड़े जतन से बचाए रखते हैं फुटकर
ताकि वक्त जरूरत काम आ सके
किसी किसी दुकान पर यह लिखा होता है
फुटकर ले कर ही आएं
छोटे छोटे पेड़ पौधों
अनेकानेक रंगों और सुगंधों वाले फूलों
छोटी छोटी पक्षियों
और छोटे छोटे शब्दों से ही
गुलजार है यह धरती
एक रचनाकार ने अपने अनुभव
साझा करते हुए यह लिखा
कि असरकारी होते हैं
छोटे छोटे वाक्य
ये बने रहते हैं
लम्बे समय तक स्मृति में
बड़े वाक्य आतंक पैदा करते हैं
वे अंट नहीं पाते हैं स्मृति के दायरे में।
निश्चिंत रहता हूं
कि खाली हाथ वापस नहीं लौटना होगा कहीं से
जेब में जब तक फुटकर है।
ओ हमारे
(परशुराम नाई के लिए जो हमारे लिए भईया थे।)
पतझड़ के इस मौसम में
जब सारे पेड़
अपनी पत्तियों को विदा करते हुए
कुछ उदास उदास से हैं
तुम अपने फूलों के साथ खड़े हो
जैसे कि ज़िद पर अड़े हो
कि हार नहीं माननी
किसी भी कीमत पर
दूर जंगलों में खिल कर भी
लगते हो बिल्कुल आसपास
ओ हमारे अपने पलाश
अपने बीच का कैसा नेह नाता है यह
कब की है मन में अटकी रह जाने वाली यह पहचान
कि हमारे देह में बहते हुए ख़ून की एक एक बूँद
समूचे वेग के साथ
तुम्हारे इन रक्तप्लावित फूलों की तरफ
दौड़ना चाहती है
और तुम्हारी आवाज़ में आवाज दे कर
नारा लगाना चाहती है
एक साथ
ओ हमारे भाई पलाश
सारे सम्बन्ध अब जैसे मुँह चिढ़ा रहे हैं
घर से ले कर बाहर तक
निचाट अकेला होता जा रहा हूँ
अपने विचारों के नाखून से
ख़ुद आहत होता जा रहा हूँ
दूसरे इतने आक्रामक हैं
कि घोर चुप्पा बनता जा रहा हूँ
अपने बढ़े हुए बेतरतीब नाखूनों के साथ वे जितने हिंसक हैं
उतने ही देशभक्त दिखते जा रहे हैं
उनके ख़िलाफ़ भर बोलना
देशद्रोही होना है
ऐसे में मुझे परशुराम भईया के
नोहरनी की याद आती है
जो सख़्त नाखूनों को भी
सबक सिखाती थी
उस्तादगी के साथ
ओ हमारे मित्र पलाश
कविता ही एक ऐसी जगह है
जहाँ न जाने कब से
बेखटके
मन की कह लेता हूँ
मन की रख लेता हूँ
मन की सुन लेता हूँ
और इस तरह कविता से हो कर
ख़ुद को गुन लेता हूँ
कविता बेचैन कर देती है
शोर नहीं मचाती है
जब जब अवसादित होने को होता हूँ
कविता मुझे भरपूर बचाती है
इसीलिए अपना सा लगता है तुम्हारा साथ
ओ हमारे पथप्रदर्शक पलाश
अब जबकि रंग भी
बेमानी होने लगे हैं
अब जबकि लम्पट भी
भागवद कथाएँ कहने लगे हैं
अब जबकि ख़त्म होने लगे हैं
मासूम पशुओं के चारागाह
अब जबकि संसद बनने लगी है
क़त्लकारों की ही शरणगाह
अंगारे सरीखे तुम्हारे दहकते फूलों ने
क़ायम रखा है हमारा विश्वास
ओ हमारे पुरखे पलाश
आग के पास अपनी आवाज़ होती है
न खिलने की इच्छा रखने वाला खिला फूल कहीं देखा है क्या?
राहगीरों के न चलने की इच्छा रखने वाले रास्ते भी होते हैं क्या?
शब्द से अर्थ को अलग कर देने से
शब्द भर भी रह पाता है क्या शब्द?
मनुष्य होने के नाते इतना जरूर जानता हूँ
कि मुमकिन कर सकता हूँ नामुमकिन को भी
विनाश की कामनाएं लिए हुए
सृजन की चिकनी चुपड़ी बातें
सहजता से कर सकता हूँ
शुक्र है कि दुनिया में
सब एक जैसा नहीं सोचते
सब समवेत स्वर में अपनी आवाज़ नहीं मिलाते
असहमति की एक आवाज
सर्वसम्मति के भ्रम को तोड़ कर रख देती है
प्रतिरोध की आवाज़ उठती आयी है शताब्दियों से
यह जानते हुए भी
कि प्रतिरोध पसन्द नहीं ताकतवरों को
सत्तावरों को
आगे भी उठती रहेंगी ये आवाजें
क्योंकि तपिश ही नहीं बल्कि
आग के पास अपनी आवाज़ भी होती है
चट चट चट चीटिर चीटिर चीटिर
इसे कुछ इस लिपि में पढ़ा जा सकता है
ख़त्म होता जा रहा घनघोर तिमिर
तमाम अनकही यातनाएँ
कारागारों की मारक वेदनाएँ
और अकेले पड़ जाने की
घातक संभावनाएं भी कम न कर सकीं
प्रतिरोधी आवाज़ की तल्ख़ी को
जैसे जैसे समय बीता
जैसे जैसे कोशिशें हुईं ख़त्म करने की
वैसे वैसे और फफन कर बढ़ी घास
कह लीजिए कुछ और बढ़ी यह प्रतिरोधी आवाज़
वैसे भी कब तलक किसको किसको
रोका जा सकता है
नदी है यूँ ही बहती रहेगी
आग है यूँ ही जलती रहेगी
प्रतिरोध की यह आवाज़ जब तलक है
समृद्ध बने रहेंगे दुनिया भर के शब्दकोश
लड़की का मोबाइल नम्बर
किसी की माँ
किसी की बहन
किसी की पत्नी होने के साथ साथ
समाज के लिए
आखिर एक लड़की है वह
अलग बात है
कि उसके अनेक आयाम हैं
तमाम बंदिशें हैं
फिर भी वह है कि
अपने मन की लिखती है
फिर भी वह है कि
खुल कर बोलती है
बेबाक प्रतिक्रियाएं व्यक्त करती है
पढनिहार लिखनिहार लड़की जो ठहरी
बार बार उसे बताया जाता है
बार बार उसे अहसास कराया जाता है
कि अन्ततः एक लड़की है वह
और इस समाज में
हर लड़की की अपनी सीमाएँ होती हैं
इसलिए भलाई इसी में
कि एक लड़की की तरह ही
अनबोलता रहे
अनकहा रहे
उसके इधर उधर होने पर खतरा है
समाज के बहकने का
वैसे भी वह
तमाम और लड़कियों को
बहकाने का जुर्म पहले भी कर चुकी है
उसके सिर पर तमाम लड़कियों को
फुसलाने के भी इल्ज़ाम हैं
उस लड़की के पास
अपना एक मोबाइल नम्बर है
जो उसके परिचय के साथ साथ
तमाम पत्र-पत्रिकाओं में छपता रहा है
उम्दा लेखन के लिए
उसके पास सराहनाओं भरे फोन आते हैं
मौके पर आवाज़ उठाने के लिए
तारीफों भरे मैसेज आते हैं
वह हरेक फोन उठाती है
और शिद्दत से जवाब देती है
मोबाइल में सुरक्षित नम्बर ही नहीं
अननोन नम्बर के भी
पड़े हों अगर मिस्ड कॉल
तो मौका मिलते ही
तुरंत कॉल बैक करती है
हालांकि एक लड़की का मोबाइल नम्बर
सार्वजनिक होने के तमाम खतरे हैं
ऊलजुलूल फोन ही नहीं
कामुकता की सड़ांध से भरे लोगों के
अश्लील मैसेज दर मैसेज आते हैं
और ऐसे मामले में
वह वही करती है
जो एक लड़की को करना चाहिए
नहीं भूलना चाहिए
कि हमारा ही नहीं
उस लड़की का भी समय और समाज है यह
दस नम्बरों पर ही टिका है
अंकों का यह अनन्त संसार
लड़की के मोबाइल नम्बर में भी दस डिजिट
जिसमें समाहित हैं उसकी अनन्त आकांक्षाएं
लेकिन अपने समाज का
आईना देख देख कर
कई बार खुद झिझकती है
कई बार सोचती है गम्भीरता से
कि सार्वजनिक न करे वह
अपना मोबाइल नम्बर
कई बार कई अनचाहे फोन
उसे कई-कई दिन तक के लिए डिस्टर्व कर जाते हैं
कई बार कुछ फोन
उसे अपने ही घर वालों की नज़रों में इतना संशयग्रस्त कर देते हैं
कि परिवार में ही
दुश्मन दिखने लगती है
लेकिन तभी सोचती है
क्या ठिकाना
किसी अनचाही कॉल में ही
कहीं छुपी न हो वेदना भरी गाथा
किसी अनचाही कॉल में ही
कहीं मिल न जाए उसे वह कविता
जिसे लिखने के लिए
वह न जाने कब से सोच रही थी
वह जानती है
उसकी कई समस्याओ के मूल में उसका लड़की होना ही है
लेकिन आखिर क्या करे वह
उस चाहत का
जिसमें अपने स्त्रीत्व के साथ
भरपूर जीना चाहती है
वह अपनी ज़िंदगी
फिर एक रोज
खुद से ही प्रतिप्रश्न करती है
एक लड़की को कितना सीमित रखना चाहिए
अपना मोबाइल नम्बर
क्या उतना ही
जितना यह समाज
किसी लड़की को
घर की चौहद्दी में
सीमित रखना चाहता है
या फिर उतना ही सार्वजनिक कर देना चाहिए
जितना कि वह खुद होना चाहती है
क्यों न इस सवाल को अब लड़कियों के हवाले ही कर दिया जाए
कि कितना गोपनीय
कितना सार्वजनिक रखे वह अपना मोबाइल नम्बर
हवा सम्बन्ध
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वे हवा में एक ऐसा नक्शा बनाना चाहते हैं
जो उनके मन के माफ़िक हो
वे चाहते हैं
हवाएं चलें उनके इशारों पर
और रुकें उनके इरादों पर
हवा बहे
तो सीमाओं का ध्यान रखे
हवा बहे
तो बातों का ख्याल रखे
पड़ोसी मुल्क की हवा
न आने पाए अपने यहाँ
किसी भी सूरत में
अपने मुल्क की हवा
जाने न पाए पड़ोसी मुल्क
किसी भी जरूरत में
लेकिन हवाएँ इसीलिए जानी जाती हैं
क्योंकि वे हवा हैं
उसके अपने नीति नियम हैं
उसकी अपनी भाषा
उसकी अपनी वर्णमाला है
उसकी अपनी अभिलाषा
घोषित कर दे देशद्रोही
इसकी कोई परवाह नहीं
बहते ही रहना है हरदम
थमने का कोई नाम नहीं
हवा होना आसान कहाँ
इसका भी है अपना एक जहाँ
बिना शब्द की भाषा जानती है हवा
इसीलिए दुनिया के सभी जीवधारियों की
साँसों से बेरोकटोक गुजरती है
और कोशिकाओं को जीवंत कर देती है
तुम रक्त संबंध की बात करते हो
मैं हवा सम्बन्ध में यकीन करता हूँ
वैसे जब चाहे
पत्थर हुआ जा सकता है
लेकिन हवा होना आसान नहीं
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चाहें जितने मजबूत बना लो किले
चाहें खड़ी कर लो ऐसी दीवारें
जो दबावों में भी न हिलें
रोक नहीं पाओगे हवा को
आने से, जाने से
बहने से, गाने से
लोग जब कहते हैं
कि पत्ता तक नहीं हिल रहा
धीरे से बहती है हवा
तूफान आता है
तब भी लगता है
जोर से बह रही है हवा
हवा आ जाएगी आहिस्ते से
ऊपर से, नीचे से
दाएँ से, बाएँ से
एक महीन छेद या दरार में भी
ठाट से अपना रास्ता बना लेती हैं हवाएँ
हवाएँ पल भर में गिरा देती हैं
मजबूती का दावा करने वाले किलों को
अकड़ कर अरसे से खड़ी दीवारों को
इशारों पर नाचने वाले
भूधराकार घरों को
चाहें जितना भी जतन कर लो
हवा को पालतू नहीं बना सकते
उतने सीधे तो रास्ते भी नहीं होते
जितना सीधे दिखते हो तुम
उतनी सीधी-सपाट तो नहीं होती ज़िंदगी भी
क्या जड़ों से हो कर गुज़रे हो कभी
वे टेढ़ी मेढ़ी होती हुई जुटी रहती हैं
अपने बिरवे, अपनी गाँछ को
धरती पर खड़ा रखने के लिए
सीधापन एक भ्रम सरीखा होता है हमेशा
जिसके लिए इंची टेप और साहुल-सूत की ज़रूरत पड़ती है
रास्ते भी घूमते-फिरते ज़िंदगी का एक वितान रचते हैं
जिससे हो कर रोज़ ही गुज़रते हैं हम
जितने सीधे दीखते हो तुम
उतने सीधे तो रास्ते भी नहीं होते साथी
बरगद की ऐंठी हुई घुमठी हुई बरोहें जो लटकती हुई
चल पड़ती हैं पृथिवी से मिलने
साफ़-साफ़ दिखाती हैं आईना
वैसे अपनी यह पृथिवी भी झुकी है अपने अक्ष पर
और इसी की बदौलत किसिम-किसिम के मौसमों से दो-चार हो पाते हैं हम
वरना सीधापन इसे एकरंग बनाने से कभी नहीं चूकता
कांटे
काँटों से बिंधी काया कौन चाहता है भला इस दुनिया में
लेकिन चाहतों-अचाहतों का फ़र्क़ कहाँ पड़ता है जीवन पर
वह तो अपनी चाल से चलता चला जाता है
बुझते-बुझते समूची आभा के साथ कभी जल उठता है
तो दौड़ते-दौड़ते अचानक ही कभी थम जाता है
अवांछित से लगते-दीखते काँटे हैं ये
तीक्ष्ण अंदाज़ कड़वे स्वाद वाले
पूरी देह से लिपटे-चिपटे
अपनी हरी-भरी डालियों के जीवंत हिस्से हैं
अमूमन दूरी से ये सिहरन पैदा करते हैं
एक चुभन-सी होने लगती है मन-मस्तिष्क में
हर क्षण मुस्तैदी से जुटे रहते हैं ये
अपने फूलों फलों और टहनी की हिफ़ाज़त के लिए
अपनी डाली से अलग हो जाते हैं फूल खिल कर
अपने शाख़ से टपक जाते हैं फल पक कर
लेकिन ये काँटे हैं
जो ताज़िंदगी बने रहते हैं अपनी टहनी के साथ
ज़िम्मेदारी उठाए चलते हैं ये दुनिया की
जैसे इसी के लिए रचा-गढ़ा गया हो इन्हें ख़ास तौर पर
इन्हें देखने के लिए जाना पड़ेगा
बेर, बबूल, मकोय, सिरफल, जंगल-जलेबी, बोगेनबेलिया से ले कर कैक्टस प्रजाति के देश तलक
किसान अक्सर रोप देते हैं इन्हें अपने खेतों की मेड़ों पर
और इनके भरोसे ही छोड़ देते हैं अपनी फ़सलें
देह ही नहीं मन तक को बचाने में क़रीने से लगे रहते हैं रात-दिन
दानों के गोटाने में इन काँटों की एक मौन-भूमिका है
जो अलक्षित ही रहता आया हर आँख से हर ज़माने में
तो भला कोई कवि इन पर कविता क्यों लिखे
जाननी है काँटे की अहमियत तो पूछो कभी साही से
जिससे ज़्यादा कोई समझ नहीं सकता है काँटों के मतलब को
अपनी पीठ पर सजा लेती है वह इन्हें
और इतराती फिरती है बाग़-बगीचे
दुनिया-जहान में बेफ़िक्री से
काँटे हैं ये
असीमित विस्तार में फूले गुब्बारों की
पूरी हवा निकाल देते हैं क्षण भर में ही
काँटे हैं ये
हर किसी का कड़ा इम्तिहान लेते हैं
बेख़ौफ़ हो कर चलने की छूट नहीं देते कभी किसी को
बल्कि देख कर चलने की तहजीब सिखाते हैं
मुश्किलों से हर संभव बचना सिखाते हैं
हमारे ही वंशक्रम में आने वाले
उपेक्षित कर दिए गए इन काँटों से
ख़ून के रिश्ते आज भी क़ायम है
तभी तो चुभा नहीं कहीं देह में
कि छलछला आती हैं फ़ौरन ही ख़ून की बूँदे
हमारी इसी धरती
हमारे इसी लोक की सृष्टि हैं ये
काँटे ही काँटे हैं ये
जिन्हें काट नहीं पाया कोई हँसिया
जिन्हें उन्मूलित नहीं कर पाई कोई खुरपी कोई कुदाल
आरामगाह नहीं ज़िंदगी के टेढ़े-मेढ़े रण हैं
जीने के कठिनतम प्रण हैं
अभावों में पले-बढ़े और
अभावों में ही रहने-जीने के आदी
नहीं जानते क्या अधिक क्या कम है
काँटों से समूचा भरा हुआ
यह भी एक जीवन है
अभागिनें
पेड़ पौधे, चिरई चुरङ्ग जैसे दिखते हैं
वैसे नहीं दिखता यह प्रत्यक्ष
एक अमूर्तन है यह
इसलिए इसका अस्तित्व भी सन्देह के दायरे में
हालांकि एक शब्द के रूप में
शामिल है दुनिया के तमाम जनकोश में
इंसान होते हुए भी
उन्हें हर पल यह बताया जाता
उनके साथ यह जताया जाता
कि वे अभागिनें हैं
और अचरज यह कि
इस शब्द से भी वे जल्द ही प्यार करने लगतीं
जैसे कि यही उनकी फितरत हो
वे काम की चक्की में पिसती रहतीं
वे अपशब्दों की बौछार झेलती रहतीं
वे सिमटती रहतीं पल प्रतिपल
खुद के अस्तित्त्व की परिधि बनाते हुए
कुछ नहीं मिलता तो वे अपनी अँगुली को ही कूँची बना लेतीं
और जमीन पर खींचने लगती रेखाएँ
जैसे वे खींच रही हों अपने तकदीर की रेखाएँ
वैसे वे फूल थीं
हमेशा खिली खिली रंग में रहने वाली
माहौल को हमेशा खुशनुमा बनाने वाली
पत्तों ही नहीं
काँटो तक से सामंजस्य बिठाने वाली
घास फूस और जंगलातों के बीच
रास्ता बनाने वाली
लेकिन दिक्कत यह कि
उनका रंग कोई और कब्जा लेता
उनका सामंजस्य कोई और चुरा लेता
उनका रास्ता
उनको छोड़ सबका रास्ता बन जाता
वे अभागिनें थीं
जिसे देख कर लोग महज सहानुभूति व्यक्त करते
जिसे सुन कर लोग केवल खेद जताते
किसी के भी पास देने को ऐसा कुछ भी नहीं
जो उन्हें पल भर को ही सही
सुकून दे सके
एक शब्द कैसे जीवन में हू ब हू उतर आता है
एक झूठ कैसे जमाने का सच बन जाता है
घुट घुट कर जीना कैसे रोज की
दिनचर्या में शुमार हो जाता है
उनको देखते हुए यह जाना समझा था हमने
जैसे सचमुच वे इस लोक की नहीं
नर्कलोक की हों
और वे इंसान होना तो उन्हें नसीब ही नहीं
उनको देख कर हमने जाना
कि उनका हँस-हँस कर बात करना
कि उनका जबरन खुश रहने की कोशिश करना
खुद भूखे रह कर दूसरों को खाना खिलाना
और प्यासा रह कर
दुनिया की प्यास बुझाना
एक छलावा था
जिससे वे खुद को छलती रहतीं थीं
और जीवन की तस्वीर बनाती रहती थीं
वे प्यार की दरिया में डूबने वाली
जोगिने नहीं
दरिया में उतरा कर जीने वाली
सचमुच की अभागिनें हैं
महाकुम्भ 2025
(एक अनाम नागरिक की व्यथा कथा)
1
बहुत पहले बिजली कटी थी
अभी तक नहीं आई
जब यह शिकायत दर्ज कराई मैंने बिजली घर
तो जवाब मिला
जनाब आपको मालूम नहीं क्या?
प्रयागराज में महाकुम्भ का वैश्विक आयोजन है
इतने बल्ब जल रहे हैं
जिसे आप गिन नहीं सकते
रात में वहां दिन का उजाला है
आखिर प्रयागराज की प्रतिष्ठा का मामला है
कुछ तकलीफ तो आप लोग सह ही सकते हैं
जहां सुनने की कोई परम्परा ही न हो
वहां, कोई मतलब नहीं था
हमारे कुछ कहने का
फिर भी हमने कहा
श्रीमान, तकलीफ़ सहने की तो हमारी आदत ही बन चुकी है
लेकिन जहां दिन ही रात में तब्दील हो जाती हो
वहां एकाध बल्ब तो जलने ही चाहिए
कुम्भ के उजाले का साक्षी
इलाहाबाद का रहवासी भी बने
इसमें भला किसी को क्या दिक्कत हो सकती है
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प्रयागराज की ये वही सड़कें हैं
जिससे गुजरे हैं अनगिनत बार हम बेरोकटोक
और अब घर के बाहर की गली से गुजर पाना मुश्किल
जिन्होंने संगम का कभी मुंह भी नहीं देखा
वही हमें साधिकार संगम का रास्ता बताते हैं
पैदल चल कर हारे थके तीर्थ यात्री पूछते हैं
आखिर संगम कितनी दूर है
एक पुलिसवाला बताता है
बस कुछ कदम ही दूर है
मैं पूछता हूं
भाई, यहां से तो संगम की दूरी अच्छी खासी है
फिर आप ऐसा क्यों बता रहे किसी अनजान को
हंसते हुए बोला पुलिस वाला
हमें खुद नहीं मालूम कितनी दूर है यहां से संगम
लेकिन हमें यही रटाया गया है
व्यवस्था को बनाए रखने के लिए यह झूठ जरूरी है
तो क्या सच बोलने से व्यवस्थाएं गड़बड़ा जाती हैं
बोल उठा मैं सहज ही
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जिन रास्तों से हम सहज ही गुजरते थे
वही अब दुर्गम हो गए हैं
लग गए हैं वहां बैरियर
मुस्तैद खड़े हैं वहां पुलिस वाले
वे बताते हैं दूसरा रास्ता
जो काफी दूर हो कर जाता है
बताता हूं मैं
भई, इसी मुहल्ले का हूं
बच्चे के लिए दवा लेने जा रहा हूं
पुलिस वाला व्यंग्य से मुस्कुराते हुए कहता है
हमें कुछ नहीं सुनना
सबके लिए नियम एक जैसे हैं
थक हार कर बढ़ता हूं उस रास्ते
जो दूरी को कई गुना बढ़ा देती है
और उस नियम को हिकारत से देखता हूं
जो जी का जंजाल बन जाते हैं
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कुम्भ सबके लिए आता है
लेकिन स्थितियां कुछ ऐसी हैं
कि वे असहनीय बन गई हैं
संगम तट आरक्षित है
गणमान्य लोगों के लिए
थोड़ा बहुत जुगाड़ियों के लिए
थोड़ा बहुत उन श्रद्धालुओं की जिद्द के लिए
जो येन केन प्रकारेण पहुंच ही जाते हैं संगम तट
हम न तीन में
न ही तेरह में
फिर कैसे पहुंच पाए संगम तट
छछन गए संगम की झलक पाने के लिए
नहाने की बात ही और है
फोन कर बाहर के लोग कहते
आप लोगों की तो मौज ही होगी
नहा लिए होंगे संगम
कमा लिए होंगे पुण्य
उन्हें क्या पता हकीकत
कि दिए तले अंधेरा होता है
तेरही के कॉर्ड
बिल्कुल साधारण होते हैं ये
इनकी अपनी कोई खास डिजाइन नहीं
इनकी कोई खास साज सज्जा नहीं
ये इतने खुले खुले से होते हैं
कि किसी लिफाफे में अंट तक नहीं पाते
किसी की मौत की सूचना लिए अचानक आते हैं
शुरू करते हैं अपनी कहानी 'हरि इच्छा बलीयसी' से
और फिर सूचित करते हैं वह तारीख
जिस दिन मृतात्मा के श्राद्ध का आयोजन होना है
इसमें किसी बच्चे की दिलकश मनुहार नहीं होती
उसकी परंपरागत तोतली भाषा में
जूलूल जूलूल आने की
दर्जनों नाम नहीं होते दर्शनाभिलाषीयों के
बस शोकाकुल परिवार होता है
संजो कर नहीं रखता कोई इन्हें
जैसे ही हाथ में आते हैं
तत्काल ही फाड़ डाले जाते हैं
घर की दहलीज तक नहीं लांघ पाते
इनकी नियति ही है
जैसे चिन्दी चिन्दी हों जाना
यही इनका धर्म है
यही इनका निर्वाण
खबर पहुंचा कर अक्सर
हो जाते हैं ये निष्प्राण
खबर दे कर
विलीन हो जाते हैं
हर बार निचाट अंधकार में
जैसे यही उनका जीवन हो
ले कर जाते हैं जो नेवतने
उन्हीं के प्रतिरूप बन जाते हैं
ये तेरही के कॉर्ड हैं
और
जीवन कुछ ऐसा ही होता है
थोड़ा सा खाली
थोड़ा सा अधूरा
हर पल बस एक ही धुन
कैसे हो यह पूरा
कहीं कुछ जोड़ना होता है
कहीं कुछ घटाना होता है
कहीं कहीं रुकना होता है
कहीं कहीं दौड़ना होता है
ऐसी दौड़ है यह
जिसमें ऐसी कोई सुनिश्चित लकीर नहीं
जहां पहुंच कर धावक रुक जाए
यहां तो अक्सर
बूझने के पहले तेज रोशनी
हमें भ्रम में डाल देती है
एक एक पल
एक एक दिन
मिटने के बाद भी उमड़ आती है भूख
लाख पीछा छुड़ाओ
कम ही नहीं होता दुनिया का दुःख
आम में एक बार फिर
लग गए बौर
मिले सबको सुकून
ढूंढता हूं वह ठौर
खटकती है कहीं कुछ कमी
इसीलिए चाहता हूं
कुछ और
कुछ और
आवारा कुत्ते
गली कूंचे
सड़क पगडंडी
गाँव शहर
हर जगह दिख जाते हैं ये
ये आज़ाद पक्षी हैं
हर बंदिशों को तोड़ कर
दिख जाते हैं हर जगह
कोई पट्टा नहीं इनके गले में
जो मुनादी करे इनके पालतू होने की
ये खुद ब खुद थामते हैं अपने को
ये खुद ब खुद संभालते हैं अपने को
घास की तरह ही धीरे से उग आते हैं
रौंदे जाने के बावजूद उठ खड़े होते हैं
हर पल मौत से जूझते हुए भी
अपना वजूद बनाए रखते हैं
पालतू की तरह नहीं है
इनका कोई नाम
इसलिए जब कोई चुचकारता है
ये दौड़े चले आते हैं
दुरदुराहट की कर्कश ध्वनि को दुत्कार कर
फिर लौट आते हैं ये
उस किसान की तरह
जिसका खेत दबंगों के कब्जे में चला गया है
और जिसका घर जमींदोज कर दिया गया है
आदिम साथी हैं मनुष्यों के
उनसे लड़ते झगड़ते हैं
और उन्हीं के बीच रहते हैं
आवारा कहे जाने के बावजूद
अपनी जगह नहीं छोड़ते कभी
रात की खामोशी को तोड़ते हैं
और बताते हैं कि अकेला नहीं है अंधेरा
और पूरी पूरी रात लड़ते हैं
नहीं जानता कि
मनुष्य के दांतों से भला
इनका क्या सम्बन्ध हो सकता है
लेकिन जब भी मसूड़ों पर उगे
अतिरिक्त दांत
उन्हें कुकुरदांता ही कहा गया
बारिस के बाद जहां तहां
उग आए छतरी वाले पौधों को भी
इनसे जोड़ कर कहा गया कुकुरमुत्ता
कटते गए जंगल
घटते गए जंगल
तमाम जानवर चले गए अतीत के पन्नों में
तमाम अपनी खाल में ही सिमट कर रह गए
लगातार हारते रहे
फिर भी हार नहीं माने
जीते रहे अपने बूते
ये आवारा कुत्ते
सिर्फ एक सब्जी का नाम नहीं
वैसे एक रंग का नाम
इनके नाम से जाना जाता है
ये बैंगन हैं
इनकी कोई रीढ़ नहीं
इसीलिए सीधे खड़ा होना
सीखा ही नहीं इन्होंने
लुढ़कने में महारत हासिल है इन्हें
किसी भी दिशा में लुढ़क सकते हैं
अक्सर इन्हें भी नहीं पता होता
कि किस तरफ लुढ़क रहे हैं
यही इनका ईमान है
यही इनका धरम
कोई पछतावा नहीं लुढ़कने का
उछल उछल कर कहते हैं ये
जो नहीं लुढ़कते
वे सब्जी कुल द्रोही हैं
उन्हें भेज देना चाहिए
किसी और ग्रह पर
कोई दाग कोई धब्बा तक नहीं
जिससे इसके खराब होने का कोई
रंच मात्र भी अन्देशा हो
आकर्षक हैं बाहर से देखने में इतने
कि अनदेखा नहीं किया जा सकता इन्हें
कोई धोखा खा सकता है
यहां तक कि सब्जी उगाने वाले भी
सिर्फ एक सब्जी का ही
नाम नहीं होता बैंगन
पारदर्शी
होना चाहिए यही
कि जैसा हम बाहर दिखते हैं
वैसा ही अन्दर भी दिखें
बहुत मुश्किल होता है यह
मुंह में राम बगल में छुरी मुहावरे को
अच्छी तरह चरितार्थ करता है हमारा समय
अक्सर कातिल निकलते हैं हसमुंख चेहरे ही
पिता जी बताते कि बिरले साधक ही
कर पाते हैं इस तरह की साधना
और साधना में कोई भी चूक
जानलेवा साबित होती है
लोहा मजबूत होता है
लेकिन होता है अपारदर्शी ही
मजबूती की यह अपनी दिक्कत होती है
सोना होता है मूल्यवान
लेकिन डरता है वह भी अपने मूल्य से
और वैसे भी आजकल जमाना खराब है
फिर सोने की कहां ये हिम्मत
कि दिखा सके वह अपने अंतस को
शीशा होता है क्षणभंगुर
और उसकी नाजुकी के क्या कहने
आजीवन संभल कर रहना होता है इसे
हाथ से छूटा नहीं कि टूटा
तमाम खतरों के बावजूद
बचाए रखी है इसने अपनी पारदर्शिता
जो पारदर्शिता के खिलाफ होते हैं
वे लगा देते हैं इसकी दूसरी तह पर कलई
फिर भी उम्मीद नहीं छोड़ता शीशा
और फौरन ही बन जाता है आईना
दुनिया के सारे हथियार अपारदर्शी ही होते हैं
नहीं कही जा सकती विचारों के बारे में
ठीक यही बात
इसीलिए बात में बची रहती हैं
हमेशा अकूत संभावनाएं
बाबा का सुनना
यह कहना कि हमारे बाबा बहरे थे
आज भी अटपटा लगता है
जबकि उन्हें गुजरे एक जमाना बीत गया
अपनी भाषा में कहने की अगर इजाजत दी जाए
तो कह सकता हूं कि वे थोड़ा ऊंचा सुना करते थे
ऐसा जन्म से ही नहीं था
अब भले ही आज यह सुनना अटपटा लगे
लेकिन दादी ने यह बताया था
कि तब वे हल्की फुसफुसाहट भी अच्छे से सुन लेते थे
अब इस बात के ब्यौरे में जाना मुनासिब नहीं
कि कब कहां क्यों कैसे और किस तरह हुआ
क्योंकि आम लोगों के लिए नहीं बने ये शब्द
या कहा जा सकता है यह कि
जीवन की आपाधापी ही कुछ ऐसी
कि हम तारीखें दर्ज नहीं कर पाते
और इतिहासकारों की कलम हमें पकड़ ही नहीं पाती
बहरहाल एक दिन उनका सुनना कम होने लगा
अब यह तो भरोसे के साथ नहीं कह सकता कि
सुनने वाली मशीन का तब इजाद हुआ था या नहीं
लेकिन यह बात निश्चित तौर पर कह सकता हूं
कि यह मशीन उनके खर्च के दायरे से बाहर थी
और बाबा खुद इसे
फिजूलखर्ची का दर्जा दिया करते थे
अपनी सुविधा के लिए बाबा यह कहा करते
कि अब फिजूल का शोर बहुत बढ़ गया है
बेमतलब की बातें होने लगी हैं
जो नहीं सुनाना चाहिए
उसे सुनाने की होड़ मची है
तो अब यह सब
फालतू सुनने का क्या मतलब
खैर अब उन्हें सुनाने के लिए
जोर जोर से बोलना पड़ता है
इस क्रम में औरों को अक्सर ही
यह भ्रम हो जाता
कि बात करने वाला डांट रहा है उन्हें
लेकिन बाबा तब सुन समझ लेते बात
और जरूरी होता तो
वे अपनी असहमति भी दर्ज कराते
अब हालात यह है
कि जिन्हें सुनना चाहिए
वे बातों को सिरे से अनसुना कर दे रहे हैं
या बहरा होने का स्वांग कर रहे हैं
उन्हें कोई भगत सिंह चाहिए
जो उन्हें उन बातों को सुना सके
जिसे उन्हें दरअसल सुनना ही चाहिए था
सच कहूँ तो भावनाओं के इस महत्वपूर्ण दस्तावेज तक अनायास पहुँच गई. कितनी सादगी से सभी रचनाओं को उकेरा गया. प्रेम से भरी दूब बहुत अच्छी लगी तो लात के देवता सबसे मरमांतक लगी. आभार और ढेरों शुभकामनायें आदरणीय कविराज 🙏🙏
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