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कैलाश वानखेड़े की कहानी 'आज कल, कल, कल आज'

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कैलाश वानखेड़े   आज के अधिकाँश कहानीकार जब वर्णनात्मकता को ही कहानी का मुख्य आधार बनाए हुए हैं युवा कहानीकार कैलाश वानखेड़े ने अलग राह अपनाते हुए कहानी-कला में अपना खुद का एक नया शिल्प विकसित किया है। प्रतीकों, बिम्बों के सहारे कैलाश वे बातें कह जाते हैं जो आम तौर पर वर्णनात्मकता के दायरे में नहीं अंट पातीं। “आज कल, कल और आज” नामक कहानी में आप उनके शिल्प को स्पष्ट रूप से देख सकते हैं। यह कहानी एक वृद्धाश्रम के एक वृद्ध और एक बुढ़िया की मानसिक स्थितियों के इर्द-गिर्द बुनी गयी है । विघटित होते जा रहे परिवारों की यह आज की एक बड़ी त्रासदी है । इसी क्रम में आज पहली बार पर कैलाश वानखेड़े की कहानी “आज कल, कल और आज” से रु-ब-रु होते हैं।         आज कल , कल , कल आज कैलाश वानखेड़े   बचपन की गली में माँ का धुंधला सा चेहरा याद आते ही माँ की बात याद आती रही। माँ हमेशा सुनाती थी कि मेरे को पैदा इसलिए नहीं किया कि मस्‍त होके खाये-पिये। तू तो काम करने के लिए पैदा हुआ है लेकिन दो कौड़ी का काम नी करे। नालायक इतना बड़ा हो गया लेकिन धेले भर की अकल न...