सुप्रिया पाठक का आलेख 'उम्मीद की किरण : भारत में प्रमुख पर्यावरणीय आंदोलन'

 

सुप्रिया पाठक 


आज पर्यावरण एक बड़ी समस्या के रूप में हमारे सामने है। इसे सुरक्षित संरक्षित बनाए रखने की तरकीबों के बारे में लगातार विमर्श आयोजित किए जा रहे हैं। इसी क्रम में पर्यावरणीय आंदोलन के ऐतिहासिक एवं समाजशास्त्रीय विश्लेषण की परंपरा हाल के वर्षों में विकसित हुई एक प्रवृत्ति है। पर्यावरण से जुड़े आंदोलनों में महिलाओं का योगदान विशिष्ट रहा है हालांकि उन्हें वह श्रेय नहीं दिया गया जिसकी वे हकदार रही हैं। इसे पर्यावरणीय नारीवाद की संज्ञा देते हुए अब इस पर गम्भीर विमर्श की शुरुआत की गई है। सुप्रिया पाठक के अनुसार 'वस्तुतः पर्यावरणीय नारीवाद इस अवधारणा को स्थापित करता है कि स्त्रियों और प्रकृति के बीच एक गहरा रिश्ता है क्योंकि दोनों की चारित्रिक विशेषताएं लगभग एक हैं परंतु दुर्भाग्यवश दोनों के लिए ही मानव समाज में न्यूनतम सम्मान की भावना है। साथ ही, उनको दिया गया स्थान समाज में किए गए उनके योगदान के अपेक्षा न्यूनतम है। उनकी उत्पादक तथा पुनरुत्पादक भूमिकाओं को हमेशा से ही कम करके अथवा उसे अदृश्य करके आंका गया है। उदाहरण के लिए एक गर्भवती स्त्री के साथ आधुनिक चिकित्सा पद्धति के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए व्यवहार, उसके गर्भ में पल रहे शिशु को मनमाफिक लैंगिक पहचान तथा उसमें प्रजनन की नयी तकनीकों के माध्यम से अन्य विशेषताओं को शामिल करने की उनकी कोशिश दरअसल प्राकृतिक प्रक्रियाओं को मानव नियंत्रण लाने का एक प्रयास है। यह कृत्य बिल्कुल उसी तरह है जैसे किसी बगीचे में वनस्पति विज्ञान के वैज्ञानिकों द्वारा दो पौधों को संयोजित करा कर किसी नए किस्म की प्रजाति को उगाना। दरअसल यह दोनों ही प्रवृतियां स्त्री एवं प्रकृति पर एक साथ नियंत्रण पाने तथा उस पर हमेशा नियंत्रण बनाए रखने की पितृसत्तात्मक कोशिशें हैं जो अपनी पूरी प्रवृति में ही हिंसक तथा मानव अधिकारों का हनन करने वाली हैं।' आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सुप्रिया पाठक का सुविचारित एवम महत्त्वपूर्ण आलेख 'उम्मीद की किरण : भारत में प्रमुख पर्यावरणीय आंदोलन'।



'उम्मीद की किरण : भारत में प्रमुख पर्यावरणीय आंदोलन'


सुप्रिया पाठक 

भारत में पर्यावरणीय आंदोलन के ऐतिहासिक एवं समाजशास्त्रीय विश्लेषण की परंपरा हाल के वर्षों में विकसित हुई एक प्रवृत्ति है जो द्वितीय विश्वयुद्ध के उपरांत एक अलग विधा के रूप में हमारे सामने आई। आधुनिकता ने अपने साथ जिन दो महत्वपूर्ण परियोजनाओं से शुरुआत की, उसमें एक था यूरोप में पूंजीवाद का उदय और दूसरा औपनिवेशीकरण के जरिए गैर यूरोपीय देशों में अपनी जड़े फैलाना। इन दोनों की तरह की प्रवृतियों को प्रश्नांकित करते हुए अकादमिक अध्येताओं ने पूंजीवाद तथा औपनिवेशीकरण के प्रत्युत्तर में उत्पन्न अंतहीन प्रतिरोधों तथा जन आंदोलनों को समझने का प्रयास किया है। इस तरह के अकादमिक कार्यों ने निम्नवर्गीय प्रतिरोध तथा पर्यावरणीय क्षरण की प्रक्रियाओं को सिलसिलेवार ढंग से अपने एजेंडे का हिस्सा बनाया है। इस विनाशकारी यात्रा के विश्लेषण की दो प्रमुख दृष्टियां हैं। 


पहला, इसके संरचनात्मक स्वरूप को समझते हुए पूंजीवाद, साम्राज्यवाद तथा उभरते हुए नए राष्ट्र-राज्य की कल्पना को समझना है। चार्ल्स टिली जो इस प्रकार के सामाजिक परिवर्तनों के गहरे पैरोकार और अध्येता हैं, वे यह मानते हैं कि इन परिवर्तनों के कारण विभिन्न सामाजिक वर्गों तथा पारिस्थितिकी पर चिरस्थायी रूप से पड़ने वाले भयानक दुष्परिणामों तथा उसके प्रतिरोध में उत्पन्न विभिन्न आंदोलनों की प्रवृत्तियों को समझना बेहद महत्वपूर्ण है। 


दूसरा दृष्टिकोण है, राजनीतिक-सांस्कृतिक परिदृश्य में वृहद आर्थिक परिवर्तनों को स्वीकार करते हुए उसके विविध पक्षों की पडताल करना। कहा जाता है कि अर्थतंत्र सामूहिक क्रियाओं को निर्धारित करने वाला महत्वपूर्ण कारक है, इसलिए कई किसान तथा मजदूर जो हाशिए पर अपना जीवन गुजार रहे हैं उनके आर्थिक दृष्टिकोण को समझना वस्तुतः प्रतिरोध के वैचारिक पक्ष को समझना है। किसी भी किस्म के आंदोलन सामाजिक व्यवस्था में राजनीतिक वैधता, वर्चस्व तथा अधीनता के स्वरूप में समझने की संघर्ष गाथा है।  सभी आंदोलनों के दार्शनिक पक्षों तथा उनके सांस्कृतिक प्रतीक यह स्पष्ट रूप से बताते हैं कि लड़ाई हमेशा इस बात की रही कि अधीनस्थ वर्गों की वैधता के आधार क्या हैं? उनकी स्वीकार्यता का बिन्दु क्या है और किस तरह उनसे उनके हिस्से की तमाम चीजें ले ली गईं एवं प्राकृतिक संसाधनों तक उनकी पहुँच का लगातार क्षरण होता रहा। बावजूद इसके, हम आर्थिक क्षरण की इस प्रक्रिया को अनिवार्य सामाजिक-आर्थिक परिवर्तन की प्रक्रिया के रूप में समझते हैं, इस प्रक्रिया के अंदर से ही इसके प्रतिरोध के बीज भी प्रस्फुटित होते हैं। जो यह स्थापित करता है कि दरअसल प्रतिरोध तभी जन्म लेते हैं जब वैधता, अधिकार, स्वायत्तता तथा शक्ति के बीच संघर्ष की स्थितियां उत्पन्न होती हैं। प्रमुख समाजशास्त्री एवं चिंतक रामचंद्र गुहा इस पूरी प्रवृत्ति को समझने के लिए दो तरह के पाराडाइम एवं दृष्टिकोण की चर्चा करते हैं: राजनीतिक-सांस्कृतिक पाराडाइम तथा संरचनात्मक एवं संस्थात्मक पाराडाइम। 


पर्यावरणीय आंदोलन को पर्यावरण के संरक्षण या पर्यावरण के प्रति झुकाव वाली नीति के लिए एक सामाजिक आंदोलन के रूप में परिभाषित किया जा सकता है। दूसरे शब्दों में, सार्वजनिक नीति में परिवर्तन के माध्यम से पर्यावरण की रक्षा के लिए होने वाले प्रतिरोध को पर्यावरणीय आंदोलन कहा जा सकता है। भारत में अधिकांश पर्यावरणीय आंदोलन विकास के उन प्रतिमानों के जवाब में उभर कर सामने आए जिसे देश ने आजादी के बाद अपनाया था। ये सभी आंदोलन आजीविका, भूमि, जल और पारिस्थितिक सुरक्षा से संबंधित मुद्दों पर केंद्रित हैं। विश्व भर में पृथ्वी को रहने योग्य बनाने के लिए किए गए समस्त आंदोलन जैसे भारत का चिपको आंदोलन, यूरोप औए यूएस का सैन्य विरोधी आंदोलन, केन्या का ग्रीन बेल्ट आंदोलन, इत्यादि को ‘पर्यावरणीय’ आंदोलन के नाम से जाना जाता है। 


इन आंदोलनों को ले कर उल्लेखनीय बात यह है कि इनमें से कई आंदोलनों ने गांधीवादी प्रविधि अपनायी है। जैसे, सविनय अवज्ञा, तटीय रेत में खुद को दफना लेना, जल सत्याग्रह, लंबी पैदल यात्रा, भूख हड़ताल, राजनीतिक और सामुदायिक नेताओं की भागीदारी, अधिकारियों के पास आवेदन भेजना, वैज्ञानिकों और सरकारी अधिकारियों के साथ बातचीत और सर्वसम्मति बनाने के लिए ऑल पार्टी बैठकों का आयोजन करना। इस तरह के आंदोलनों के कई नेता सामाजिक परिवर्तन के प्रश्न पर गांधी और उनके दृष्टिकोण से प्रेरित थे। पर्यावरणीय आंदोलन अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए लोगों की प्रतिक्रिया के रूप में उभर कर सामने आए जो  मिट्टी, पानी और वन जैसे महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण के प्रति चिंतित थे। आर्थिक वैश्वीकरण के बाद, जिसमें कॉरपोरेट्स द्वारा अत्यधिक खनन कार्य किया जा रहा है, ऐसे आंदोलनों की तीव्रता और बढ़ी। पश्चिमी देशों में शहरी मध्य वर्ग पर्यावरणीय आंदोलनों का नेतृत्व करता है लेकिन भारत में ऐसे आंदोलन में शामिल अधिकांशतः आर्थिक रूप विपन्न तबका रहा है। उनकी लड़ाई अस्तित्व और आजीविका के मुद्दों पर केंद्रित होती है। हालांकि, इस तरह के आंदोलनों के समर्थन में प्रायः समाज से सभी वर्गों के लोग आगे आते हैं। पर्यावरणीय आंदोलन मुख्य रूप से निम्नलिखित मुद्दों के इर्द गिर्द हुए: 


1. वन आधारित वन नीति, वन संसाधनों का उपभोग।

2. भूमि उपयोग औद्योगीकरण और खेतिहर भूमि की हानि, अंधाधुंध रासायनिक सामग्री को लोकिप्रय बनाना, भूमि का क्षय, खनिज संसाधनों का दोहन।

3. बड़े बांधों के पास ऐसे जनजातीय और गैर-जनजातीय लोगों के अनैच्छिक विस्थापन की समस्या, जो नदी की धारा के प्रतिकूल दिशा में रहते हैं का विरोध।

4. उद्योगों द्वारा उत्पन्न किए गए प्रदूषण का विरोध ।

5. समुद्री संसाधनों का अति दोहन का विरोध।


माधव गाडगिल


देश के प्रारंभिक पर्यावरण आंदोलनों में महिलाओं की भूमिका विशेष रूप से दिलचस्प है। यह आंदोलन कम से कम डेढ़ सदी पहले शुरू हुआ था। विभिन्न देशों के पर्यावरण आंदोलन अलग-अलग कारणों से सामने आए हैं। यह मूल रूप से इलाके की प्रचलित पर्यावरणीय गुणवत्ता एवं प्रकृति के कारण हुआ। उत्तर में पर्यावरण आंदोलन मूल रूप से जीवन की गुणवत्ता के मुद्दे पर है जबकि दक्षिण में पर्यावरण की हलचल कुछ अन्य कारणों से जैसे प्राकृतिक संसाधनों पर नियंत्रण एवं साझेदारी के लिए संघर्षों के रूप में पैदा हुई। उत्तर भारत में पर्यावरण आंदोलन में भाग लेने वाले मध्यम वर्ग और उच्च वर्ग की महिलाएं हैं, जिन्हें प्रकृति की चिंता है लेकिन धरना प्रदर्शनों में आम तौर पर सीमांत आबादी हैं – जैसे पहाड़ी किसान, आदिवासी समुदाय, मछुआरे और अन्य वंचित लोग। हमारे अपने देश में विभिन्न पर्यावरणीय आंदोलन समर्थन इन्हीं तबकों के लोग करते हैं। जिसका उदाहरण हमें चिपको, नर्मदा आंदोलन, मिट्टी बचाओ आंदोलन, कोयलकारो आंदोलन और हरित पट्टी आंदोलन में देखने को मिलता है। यही कारण है कि उत्तर के पर्यावरणवाद को ‘भरा पेट" पर्यावरणवाद और दक्षिण के पर्यावरणवाद को ‘खाली पेट’ पर्यावरणवाद के नाम से जाना जाता है।  


बाद के सालों में इन आंदोलनों ने एक व्यापक परिस्थितिकीय सरोकार का रूप धारण कर लिया और जंगल को बचाने के लिए कई सामूहिक सुरक्षात्मक उपाय प्रबंध के स्तर पर किए गए। चिपको आंदोलन सिर्फ जंगलों को बचाने तक ही सीमित नहीं था, बल्कि यह प्राकृतिक संसाधनों पर सामुदायिक अधिकारों के हनन के प्रतिरोध में उपजा हुआ आंदोलन था जो प्रारंभ में जंगल के इर्द-गिर्द सीमित थी परंतु धीरे धीरे इसने खनिज लवण तथा जलीय संसाधनों पर भी सामुदायिक अधिकारों की वकालत शुरु की। इनमें से अधिकतर संघर्ष गरीबों और अमीरों के बीच हुआ। जंगल के लिए लड़ाई लड़ने वालों में से बहुसंख्यक पहाड़ों के ग्रामीण लोग थे। जहां बड़े-बड़े बांध बन रहे थे, वहां उनका विरोध जंगल के आदिवासी समुदायों ने किया। जहां बड़ी-बड़ी परियोजनाएं, फैक्ट्रियां और कंपनियां स्थापित की जा रही थीं वहां उसके विरुद्ध लड़ाई उस इलाके के स्थानीय परंपरागत समुदाय के लोगों द्वारा की गई। भारत में पर्यावरण के लिए हुए संघर्षों के कारणों को तलाशने के क्रम में यह पता चला कि दरअसल यह लड़ाई प्राकृतिक संसाधनों पर स्वामित्व और अधिकारों की लड़ाई थी। विकास प्रक्रिया ने आम आदमी को पिछले कुछ समय से एकजुट होने तथा विकास को पर्यावरण संरक्षण आधारित करने के लिए अनेक आंदोलन चलाने को प्रेरित किया है। 


रामचंद्र गुहा 



माधव गाडगिल तथा रामचंद्र गुहा भारतीय पर्यावरणीय आंदोलनों में मुख्यतः तीन वैचारिक दृष्टिकोण रेखांकित करते हैं। गांधीवादी, मार्क्सवादी और उपयुक्त तकनीकी दृष्टिकोण। 


गांधीवादी दृष्टिकोण पर्यावरणीय समस्याओं के लिए मानवीय मूल्यों में हो रहे ह्रास तथा आधुनिक उपभोक्तावादी जीवन शैली को जिम्मेदार मानते हैं। इस समस्या की समाप्ति के लिए वे प्राचीन भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों की पुनः स्थापना पर जोर देते हैं। यह दृष्टिकोण पुनः ग्रामीण जीवन शैली की ओर लौटने पर जोर देता है जो सामाजिक तथा पर्यावरणीय सौहार्द पर आधारित था। 


दूसरी ओर मार्क्सवादी दृष्टिकोण में पर्यावरणीय संकट को राजनीतिक तथा आर्थिक पहलुओं से जोड़ा जाता है। इसका मानना है कि समाज में संसाधनों का असमान वितरण पर्यावरणीय समस्याओं का मूल कारण है। अतः मार्क्सवादियों के अनुसार, पर्यावरणीय सौहार्द पाने के लिए आर्थिक समानता पर आधारित समाज की स्थापना एक अनिवार्य शर्त है। तीसरी ओर उपयुक्त तकनीकी दृष्टिकोण उद्योग और कृषि, बड़े तथा छोटे बांधों, प्राचीन तथा आधुनिक तकनीकी परम्पराओं के मध्य सामंजस्य लाने का प्रयत्न करता है। यह दृष्टिकोण व्यवहारिक स्तर पर गांधीवादी तकनीकों तथा रचनात्मक कार्यों से बहुत मेल खाता है। इन तीनों दृष्टिकोणों की एक झलक हमें चिपको आंदोलन में देखने को मिलती है।  


कुछ दशकों पहले पर्यावरणीय नारीवाद की शुरुआत चिपको आंदोलन के साथ ही हुई जिसने यह इस स्थापना दी कि स्त्रियों के शोषण तथा प्रकृति के दोहन के बीच एक रिश्ता है। मुख्य रूप से इसकी शुरुआत तीसरी दुनिया के देशों से हुई जहां विविध प्रकार के पर्यावरणीय मुद्दे तथा समस्याएं विद्यमान थीं। अकाल, बाढ़, तूफान, जंगलों की लगातार होती कटाई इत्यादि इन सभी प्राकृतिक एवं मानव निर्मित घटनाओं का असर वहां के स्थानीय लोगों खास तौर पर महिलाओं के ऊपर ज्यादा गहरे रूप से पड़ रहा था। भारत के प्रमुख स्त्रीवादी चिंतक तथा पर्यावरणीय मुद्दों के लिए लगातार सक्रिय व्यक्तित्व वंदना शिवा ने भी बाद के सालों में इस आंदोलन को बहुत जोर शोर से उठाया तथा इस आंदोलन को एक पर्यावरणीय स्त्रीवादी दृष्टि प्रदान करने में बेहद खास भूमिका निभाई। जंगल कटाई के साथ साथ उन्होंने स्थानीय समुदाय के मुद्दों को भी लड़ाई का मुद्दा बनाया जिसमें उन्होंने उन तमाम जनसांख्यिकीय नीतियों का विरोध किया जो महिलाओं को जनसंख्या बढ़ाने तथा इसके कारण हो रही पर्यावरणीय त्रासदी के लिए जिम्मेदार मानते थे। इस दृष्टि से उन्होंने जनसंख्या नियंत्रण नीतियों का पुरजोर विरोध किया, जिसमें भारतीय सेना की मदद से उन्होंने कई महिलाओं के गर्भपात को रोकने की पहलकदमी की। लैटिन अमेरिका के देशों में इसे वुवेनविविर (vovenvivir) की अवधारणा के साथ जोड़ कर देखा जाता है। जिसे वहां के स्थानीय लोगों ने विकसित किया है। यह भी एक दृष्टि है जो यह मानती है कि महिलाएं प्रकृति और मनुष्य के बीच स्नेहपूर्ण संबंधों को बनाए रखने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं, जिसकी वजह से जीवन की गुणवत्ता तथा हमारे जीवन में वस्तुओं की उपयोगिता का स्तर बढ़ जाता है।


वन्दना शिवा


1970-80 के दौर में पूरी दुनिया नाभिकीय अस्त्रों की पैरवी तथा उसके प्रतिरोध के वैश्विक विमर्श से जूझ रही थी तथा शीत युद्ध के दौरान नाभिकीय अस्त्रों को एक जरूरी औजार के रूप में मान्यता देने की होड़ मची हुई थी। संयुक्त राज्य अमेरिका में पेंटागन के इलाके में लगभग 2000 औरतें इकट्ठी हुईं और उन्होंने न्यूक्लियर पावर स्टेशन के इर्द-गिर्द 1979 में लगभग 3 मील का प्रतिरोध मार्च किया। वे औरतें समाज के राजनीतिक समीकरण के विरुद्ध अपना प्रतिरोध दर्ज कर रही थीं। इसी प्रकार ब्रिटेन में भी महिलाओं ने एक शांति मार्च का आयोजन किया जो नाभिकीय मिसाइल स्टोरेज प्रोजेक्ट के विरुद्ध था। शांतिपूर्ण आंदोलन उन महिलाओं द्वारा आयोजित किया था गया था जो युद्ध का विरोध कर रही थीं, जो अपने बच्चों को जिंदा देखना चाहती थीं और उससे भी बढ़ कर जो इस धरती पर मानवता और मानवीय संबंधों को जीतते देखना चाहती थीं। यह आंदोलन अमेरिकी लिबरेशन के सिद्धांतों पर आधारित था।  साथ ही, उसने आध्यात्मिक अवधारणाओं को भी शामिल करते हुए यह सिद्धांत प्रस्तुत किया कि हमारी संस्कृति में पुरुष को ईश्वर और प्रकृति को स्त्रियों के साथ जोड़ कर देखा गया है। लेकिन इस संस्कृति में बहुत सारी महिलाएं ऐसी भी हैं जिन्हें सदियों से डायन एवं चुड़ैलों के नाम पर अभिशप्त कर मारा जाता रहा है।  इतिहास, कहानियों  एवं कविताओं में हमें इन मारी गई महिलाओं के वृतांत देखने-सुनने को मिलते हैं। 


अश्वेत नारीवादियों का तर्क है कि जलवायु में परिवर्तन श्वेत वर्चस्ववादी पूंजीवादी पितृसत्ता की जहरीली अभिव्यक्ति है। दुनिया भर में महिलाएं, नारीवादी और समलैंगिक समूह के  लोग दशकों से यह दावा कर रहे हैं कि जलवायु संकट की जड़ें पितृसत्तात्मक हैं। चाहे वे खुद को इको फेमिनिस्ट कहें, क्लाइमेट फेमिनिस्ट, या इको-क्वीयर्स सभी नारीवादी कार्यकर्ता जलवायु परिवर्तन के प्रति गंभीर चिंता पर जोर दे रहे हैं। आज जलवायु संबंधी न्याय के लिए महिलाएं एक अंतरराष्ट्रीय समूह बन गई हैं। स्टैंडिंग रॉक सेक्रेड स्टोन कैंप की  महिलाओं की  एक्सएल डकोटा एक्सेस पाइपलाइन के खिलाफ जीत दुनिया भर में महिलाओं के नेतृत्व में खनन परियोजनाओं के खिलाफ अनगिनत स्थानीय लड़ाईयों का प्रतीक बन गई है। ला वाया कैम्पेसिना की किसान महिलाएं अंतर्राष्ट्रीय  स्तर पर किसान आंदोलन, घरेलू पितृसत्तात्मक संरचनाओं का सामना करने और उन्हें नष्ट करने के लिए सामुदायिक अभियान चला रही हैं और वैश्विक औद्योगिक कृषि के खिलाफ एक किसान के रूप में उनकी अंतर्राष्ट्रीयवादी सक्रियता देखने योग्य है।  


इसके बाद अफ्रीका की पर्यावरणीय नारीवादियों का समूह है जो बहु-राष्ट्रीय और वैश्विक नवउदारवाद का विरोध करते हुए सामुदायिक संसाधनों पर सबकी साझेदारी की वकालत करती हैं। कुर्द महिला आंदोलन जो रोज़ावा में एक पारिस्थितिक नारीवादी समाज के निर्माण में लगी हुई  हैं। इसी प्रकार जर्मन एंटी-कोयला एक्शन एंड गेलैंड में क्वीर पिंक ब्लॉक भी है, जो पितृसत्तात्मक व्यवस्था को बनाए रखने वाली एक अंतरराष्ट्रीय जलवायु की सीआईएस-हेट्रोनोर्मेटिव संरचना को चुनौती देता है। ये स्थानीय पारिस्थितिक नारीवादी कार्रवाइयों के कुछ उदाहरण हैं जिन्होंने दुनिया भर में अंतरराष्ट्रीय एकजुटता कायम की है। 


वस्तुतः पर्यावरणीय नारीवाद इस अवधारणा को स्थापित करता है कि स्त्रियों और प्रकृति के बीच एक गहरा रिश्ता है क्योंकि दोनों की चारित्रिक विशेषताएं लगभग एक हैं परंतु दुर्भाग्यवश दोनों के लिए ही मानव समाज में न्यूनतम सम्मान की भावना है। साथ ही, उनको दिया गया स्थान समाज में किए गए उनके योगदान के अपेक्षा न्यूनतम है। उनकी उत्पादक तथा पुनरुत्पादक भूमिकाओं को हमेशा से ही कम करके अथवा उसे अदृश्य करके आंका गया है। उदाहरण के लिए एक गर्भवती स्त्री के साथ आधुनिक चिकित्सा पद्धति के वैज्ञानिकों द्वारा किए गए व्यवहार, उसके गर्भ में पल रहे शिशु को मनमाफिक लैंगिक पहचान तथा उसमें प्रजनन की नयी तकनीकों के माध्यम से अन्य विशेषताओं को शामिल करने की उनकी कोशिश दरअसल प्राकृतिक प्रक्रियाओं को मानव नियंत्रण लाने का एक प्रयास है। यह कृत्य बिल्कुल उसी तरह है जैसे किसी बगीचे में वनस्पति विज्ञान के वैज्ञानिकों द्वारा दो पौधों को संयोजित करा कर किसी नए किस्म की प्रजाति को उगाना। दरअसल यह दोनों ही प्रवृतियां स्त्री एवं प्रकृति पर एक साथ नियंत्रण पाने तथा उस पर हमेशा नियंत्रण बनाए रखने की पितृसत्तात्मक कोशिशें हैं जो अपनी पूरी प्रवृति में ही हिंसक तथा मानव अधिकारों का हनन करने वाली हैं। 


पाश्चात्य देशों में 1970-1980 के दशकों से लगातार पर्यावरणीय सरोकारों को ले कर अत्यंत महत्वपूर्ण कार्य हो रहे हैं जिन्हें दुनिया में शांति, स्त्रीवादी तथा पारिस्थितिकीय आंदोलनों के रूप में देखा जा सकता है। विशेष तौर पर भारत में पर्यावरणीय क्षरण को ले कर प्रतिरोधी संघर्षों की संख्या लगातार बढी है जिसमें इस बात पर बहुत जोर दिया गया है कि जाति, वर्ग तथा लैंगिक प्रश्न अंतर्संबंधित हैं क्योंकि वनों एवं पर्यावरण के साथ इनका रिश्ता आजीविका के साथ-साथ प्रतिदिन की आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु अनिवार्य है। पर्यावरणीय स्त्रीवादी नेस्त्रा किंग के अनुसार:

     

“Ecofeminism is about connectedeness and wholeness of theory and praxis … (It sees) the devastation of the earthand her beings by the corporate warriors, and the same masculanist mentality which would deny us our rights to our own bodies and our own sexuality and which depends on multiple systems of dominance and state power to have its way” (king 1983)


अर्थात, स्त्री मुक्ति का स्वप्न अकेले संभव नहीं है जब तक कि इसे व्यापक स्तर पर पृथ्वी तथा प्रकृति को बचाने वाले पर्यावरणीय आंदोलनों से न जोडा जाए। यह बहुल दृष्टिकोणों का समुच्चय होना चाहिए जिनकी लडाई वर्चस्वशाली विमर्शों से है। उदाहरण के लिए ‘चिपको आंदोलन’ के मूल में यह व्यापक मूल्यबोध निहित है कि स्त्री शोषण के पितृसत्तात्मक नियंत्रण जिम्मेवार तत्व है जो स्त्री एवं जंगल का शोषण एक ही प्रकार से करता है। कुछ स्त्रीवादी चिंतकों जैसे कैरोलिन मर्चेंट ने पर्यावरणीय नारीवाद को उदारवादी, रेडीकल, तथा समाजवादी ढांचे में बांट कर देखने का प्रयास किया। इस संदर्भ में भारत में जो पर्यावरणीय आंदोलन हुए उन पर भी दृष्टिपात करना आवश्यक है। यह भी देखना अत्यंत रोचक होगा कि किस प्रकार इन आंदोलनों में जाति, वर्ग एवं जेंडर के मुद्दे आपस में गुंथे हुए थे। 


सुन्दर लाल बहुगुणा 



चिपको आंदोलन 

सन 1973 में उत्तरांचल के चमोली जिले में वनों को कटने से बचाने के लिए ‘चिपको आंदोलन’ की शुरुआत हुई। इस आंदोलन का नामकरण हिन्दी भाषा के शब्द ‘चिपको’ के आधार पर हुआ है जिसका अर्थ है ‘चिपक जाना’ पेड़ों को कटने या गिरने से बचाने के लिए लोग पेड़ों से चिपक जाते थे। अहिंसक और सत्याग्रही प्रवृत्ति के इस आंदोलन की ‘पेड़ नहीं काटेंगे, पेड के पहले हम कटेंगे’ की घोषणा ने सरकार, वन मंत्रालय, मीडिया, ठेकेदार, राजनीतिक दल, गांवों के अनपढों से ले कर विश्वविद्यालय तथा वैज्ञानिकों तक का ध्यान अपनी तरफ खींचा । जंगल से जुडे हर वर्ग को इस आंदोलन ने किसी न किसी तरफ प्रभावित किया। यह आंदोलन सन 1973 में एक सुबह शुरु हुआ जब चमेली जिले के सुदूर पहाड़ी कस्बे गोपेश्वर में इलाहाबाद की खेल का सामान बनाने वाली फैक्ट्री के लोग देवदार के दस वृक्ष काटने के उद्देश्य से पहुँचे । आरंभ में ग्रामीणों ने अनुरोध किया कि वे वृक्ष ना काटें परन्तु जब ठेकेदार नहीं माने तब ग्रामीणों ने चिन्हित वृक्षों का घेराव किया और उससे चिपक गए। पराजित ठेकेदारों को विवश होकर वापस जाना पड़ा। लगभग 300 वर्षों पूर्व राजस्थान के बिश्नोई समाज के 363 लोगों ने इसी शैली में अपने जीवन का बलिदान ‘खेजर’ नामक वृक्ष को बचाने के लिए दे दिया। जोधपुर के महाराज के वृक्ष काटने के आदेश का विरोध करते हुए वे वृक्षों से चिपक गए थे। चिपको आंदोलन को इसी इतिहास की निरंतरता में देखा जाता है।


भारत में जंगल को ले कर दो तरह के दृष्टिकोण विद्यमान हैं। पहला है जीवनोत्पादक तथा दूसरा है जीवन विनाशक जिसे दूसरे शब्दों में 'औद्योगिक भौतिकवादी दृष्टिकोण' (industrial  material standpoint) भी कहा जाता है। जीवनोत्पादक दृष्टिकोण जंगल तथा नारीत्व के दर्शन से बंधा हुआ जंगल के संसाधनों को निरंतरता में तथा नवीन संभावनाओं के साथ चाहता है ताकि भोजन तथा जल संसाधनों का कभी ना खत्म होने वाला भंडार बना रहे है। जीवन विनाशक दृष्टिकोण कारखानों तथा बाजार से बंधा हुआ है जो जंगल के संसाधनों का अधिकाधिक दोहन अपने व्यावसायिक लाभ के लिए करना चाहता है। संसाधनों का अधिकाधिक दोहन उसके नवीनीकरण की संभावनाओं को समाप्त करता है। जब ब्रिटेन ने भारत को अपना उपनिवेश बनाया तो उनका सबसे पहला निशाना यहां के जंगल तथा उससे प्राप्त होने वाले बहुमूल्य संसाधन (मसाले, महंगी लकडी, जडी-बूटी तथा औषधीय पौधे) बने। उन्होंने यहां के स्थानीय निवासियों के समृद्धि तथा जंगलों के बारे में उनके समृद्ध ज्ञान परंपरा को नजरंदाज किया। उनके अधिकार, उनकी आवश्यकताएं तथा उनकी समझ को क्षीण करते हुए उनके जीवन के प्राथमिक आधार को जंगल से 'जंगल खदान' में बदलना शुरु कर दिया।


स्त्रियों के जीवन निर्वाह के साधन जंगलों ने ब्रिटिश उपनिवेशवाद की व्यावसायिक अर्थव्यवस्था का स्थान ले लिया। मालाबार के 'टीक', मध्य भारत के 'शाल' तथा हिमालय के 'शंकु वृक्ष' का उपयोग ब्रिटिश उपनिवेशकों ने अपनी सेना, छावनी तथा रेलमार्गों के निर्माण के लिए किया। हालांकि जंगलों को नष्ट करने का दोषारोपण हमेशा से स्थानीय लोगों के ऊपर लगाया जाता है। परंतु सत्य यह है कि व्यावसायिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही हमेशा बडे पैमाने पर वनों की कटाई की जाती है। हिमालय के क्षेत्रों में व्यापक पैमाने पर हुई वनों की कटाई इस बात का सबूत है कि ब्रिटिश साम्राज्य की जरुरत के लिए यह वनोन्मूलन किया गया था। प्राचीन भारतीय संस्कृति की परंपरा के तहत भारतीय जंगलों की अहमियत को समझते हुए उसके संरक्षण के लिए हमेशा प्रतिबद्ध रहे हैं। चिपको आंदोलन के दौरान महिलाओं ने इसी परंपरा के तहत जीवन विनाशक दृष्टिकोण का पुरजोर विरोध किया था। हालांकि चिपको आंदोलन को महिला आंदोलन के रुप में देखा जाता है परंतु फिर भी इसका श्रेय कुछ पुरुषों को ही दिया जाता है। प्रायः किसी भी सामाजिक या राजनीतिक आंदोलन के विकास की प्रक्रिया को नजरंदाज करते हुए उसके अंतिम परिणामों को महत्व दिया जाता है। इस आंदोलन में महिलाओं का संघर्ष एवं उनके योगदान का इतिहास अब तक अदृश्य है। बावजूद इसके कि, इसका इतिहास अदम्य साहसी स्त्रियों के दृष्टिकोण का इतिहास है। प्राचीन भारतीय परंपरा में जंगलों की अहमियत को समझते हुए उसके संरक्षण के लिए हमेशा प्रतिबद्ध रहने की बात की गयी है। चिपको आंदोलन के दौरान महिलाओं ने इसी परंपरा के तहत जीवन विनाशक दृष्टिकोण का पुरजोर विरोध किया था। इस पर्यावरणीय आंदोलन का इतिहास में मील का पत्थर साबित होना स्त्रियों के नैतिक सरोकार तथा पर्यावरणीय दृष्टि था। आजीविका के सवाल को ले कर पैदा हुए चिपको आंदोलन ने बाद में चल कर वन संरक्षण आंदोलन का रुप धारण कर लिया। यह आंदोलन जिस समय शुरु हुआ उस समय विकासशील दुनिया में पर्यावरण को ले कर कोई आंदोलन शुरु नहीं हुआ था। 


तुलसी गौड़ा



वंदना शिवा ने अपनी कृति 'स्टेइंग एलाइवः वुमॅन, इकोलॅजी एंड सरवाइवल इन इंडिया' में चिपको आंदोलन के इतिहास की चर्चा करते हुए लिखा कि स्त्री शक्ति को उभारने तथा उनमें पर्यावरणीय सरोकारों को जगाने में कई घटनाओं तथा व्यक्तियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। गौरी देवी, सरला बहन, विमला बहन, हिमा देवी, गंगा देवी, इतवारी देवी तथा अन्य कई पहाड़ी स्त्रियों ने चिपको के दौरान प्रतिरोध की संस्कृति की मशाल जलाई। इसके अतिरिक्त चंडी प्रसाद भट्ट, सुंदर लाल बहुगुणा, घनश्याम सैलानी आदि पुरुषों ने भी महत्वपूर्ण योगदान दिया। आंदोलन कुमाऊं गढ़वाल से होता हुआ उत्तराखंड के विभिन्न भागों में फैलने लगा। हर जगह वहाँ की स्थानीय महिलाओं ने इस आंदोलन का नेतृत्व किया। इस आंदोलन ने लगभग सभी पहाड़ी स्त्रियों को एक सूत्र में बांध दिया था। घनश्याम रतूडी के लोकगीतों तथा भट्ट, बहुगुणा, नेगी जैसे पर्यावरणीय कार्यकर्ताओं ने चिपको के संदेश तथा घटनाक्रम को गांव-गांव में पहुंचाया।


पहाड़ी इलाकों में स्त्रियों के जीवन की सारी गतिविधियां जंगलों से जुड़ी होती है इसलिए जंगलों का लगातार होता क्षय तथा बढ़ता हुआ जल संकट उनके जीवन से जुड़ा हुआ मसला था। हजारों की संख्या में स्त्रियों ने उन व्यावसायिक कम्पनियों के विरूद्ध आंदोलन छेड़ा दिया था। जल, जंगल, जमीन जैसे प्राकृतिक संसाधनों से न सिर्फ उनका अधिकार छीन रहे थे बल्कि अपने व्यापारिक हित के लिए उसे नष्ट भी कर देना चाहते थे। चिपको आंदोलन की शुरूआत उत्तर प्रदेश में बढ रहे पर्यावरण दोहन पर प्रतिबंध लगाने की मांग के साथ हुई। पहाड़ी इलाकों में हर जगह के बहुतायत संख्या में काटे जाने के कारण पहाड़ों में कटाव और भू-स्थलन की घटनाएं लगातार बढ रही थीं। 1975 तक 300 से ज्यादा गांव इन पहाड़ी हादसों का शिकार हो चुके थे। उत्तरकाशी में मतली तथा धराली, टेहली में पिल्खी तथा नांदागांव, चमोली में चिमटोळी तथा खिंझानी, अल्मोढा में बाघर तथा जागेश्वर जैसे कई इलाकों में पहाड़ों के भूस्खलन के कारण असंख्य जानें गई थीं। महिलाओं ने इन कम्पनियों पर पूर्णतः प्रतिबंध लगाने की मांग शुरू की।


वनों के समाप्त होने का संकट दरअसल औद्योगिक भौतिकवादी दृष्टिकोण का परिणाम था जिसने जंगल को मिट्टी तथा जल के प्राकृतिक संरक्षक की बजाय उसे ‘लकड़ी खदान’ के रुप में देखना शुरु कर दिया था। वनों के जीवन प्रदान करने वाले तथा जीवन को बनाए रखने वाले कार्य को विभाजित करना व्यावसायिक हितों की अनिवार्यता थी परन्तु इस दृष्टिकोण के कारण जंगल तथा वृक्षों की पारिस्थितिकीय प्रक्रियाओं को नष्ट किया जाने लगा। किसान, आदिवासी तथा महिलाओं का संघर्ष जंगल के इसी जीवन प्रदान करने वाली व्यवस्था को नष्ट करने के विरोध में था। निश्चित रुप से महिलाएं आंदोलन की प्रणेता थी और उनके लिए यह प्राकृतिक संसाधनों तथा जीवन के बचाव का आंदोलन था। आंदोलन के आरंभिक दिनों बाहरी ठेकेदारों को भगाने में स्थानीय ठेकेदारों ने भी इनका भरपूर सहयोग किया क्योंकि इनके व्यावसायिक हित भी बाधित हो रहे थे, परन्तु उनके जाने के बाद एक सरकारी निकाय (द फॉरेस्ट डेवेलपमेंट कारपोरेशन) ने फिर वहाँ के स्थानीय ठेकेदारों की सहायता से लकड़ी कटाई का कार्य शुरु किया। स्त्रियों ने यह देखते हुए अपने आंदोलन को आगे बढ़ाते हुए जंगल के दोहन के विरूद्ध अपना संघर्ष जारी रखा। उनके लिए यह महत्वपूर्ण नहीं था कि जंगल बाहरी लोग काट रहे थे या स्थानीय लोग। उनकी तकलीफ यह थी कि जंगल कट रहे थे, जलस्तर लगातार नीचे जा रहा था। वे जंगलों के बारे में वे इतना जानती थीं कि जंगल के पास क्या हैं? मिट्टी, जल और शुद्ध वायु और मिट्टी, जल और मिट्टी, जल और शुद्ध वायु पृथ्वी को सदा हरा भरा रखते हैं।


सुनीता नारायण


पर्यावरण के संरक्षण में महिलाओं की भूमिका सबसे महत्वपूर्ण रही है। हमारे आस पास कई ऐसे उदाहरण मौजूद है जिससे पता चलता है कि भारत में पर्यावरण संरक्षण को महिलाओं ने ही पीढ़ी दर पीढ़ी बखूबी आगे बढ़ाया हैं और इस मुद्दे को आंदोलन का रुप दिया है। हमारे आस पास ही अनेक उदाहरण हैं, जहां हम यह देख सकते हैं कि महिलाएं प्रकृति के संरक्षण में महती भूमिका अदा करती हैं। जैसे- वंदना शिवा, सुनीता नारायण और तुलसी गोडा आदि। इन सभी महिलाओं ने पर्यावरण के संरक्षण में बढ चढ कर हिस्सा लिया है और समाज को प्रेरणा प्रदान की है। प्राचीन समय से महिलाएं पर्यावरण के संरक्षण के लिए काम कर रही हैं। हमेशा से महिलाएं पर्यावरण की पक्षधर रही हैं। हर घर में तुलसी, केले का पौधा होना और पीपल के पेड़ का होना ये सभी महिलाओं के पर्यावरण से जुड़ाव को ही दर्शाता है। पर्यावरण संरक्षण में महिलाएं इस दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती आ रही हैं, जहां भी पर्यावरण को हानि पहुंचाने का काम हुआ है, महिलाओं ने उसका पुरज़ोर विरोध किया है। भारतीय इतिहास में ऐसे कई पर्यावरण संरक्षण आंदोलन हुए हैं, जिनमें महिलाओं का पूरा योगदान रहा है।  जहाँ भी पर्यावरण को हानि पहुँचाने का कार्य हुआ है, उसा मुखर विरोध हमारी पर्यावरणविद महिलाओं सहित सभी ने किया है। भारतीय इतिहास में ऐसे कई पर्यावरण संरक्षण आन्दोलन हुए हैं जिनकी प्रणेता महिलाएँ रही हैं।  चिपको आन्दोलन की एक मुख्य बात थी कि इसमें स्त्रियों ने भारी संख्या में भाग लिया था। इस आन्दोलन का प्रारंभ 1970 में भारत के प्रसिद्ध पर्यावरणविद् सुन्दर लाल बहुगुणा, कामरेड गोविन्द सिंह रावत, चण्डी प्रसाद भट्ट तथा श्रीमती गौरा देवी के नेतृत्व में हुआ था। 


पर्यावरणीय आंदोलन का इतिहास में मील का पत्थर साबित होना स्त्रियों के नैतिक सरोकार तथा पर्यावरणीय दृष्टि था। आजीविका के सवाल को लेकर पैदा हुए चिपको आन्दोलन ने बाद में चल कर वन संरक्षण आन्दोलन का रुप धारण कर लिया। यह आन्दोलन जिस समय शुरु हुआ उस समय विकासशील दुनिया मे पर्यावरण को लेकर कोई आन्दोलन शुरु नही हुआ था । वर्तमान में इसे पर्यावरणीय समाजवादी आन्दोलन से अधिक पर्यावरणीय स्त्रीवादी आन्दोलन के रुप मे जाना जाता है। चिपको आंदोलन के इतिहास की चर्चा करते हुए उन्होंने लिखा कि स्त्री शक्ति को उभारने तथा उनमें पर्यावरणीय सरोकारों को जगाने में कई घटनाओं तथा व्यक्तियों की महत्वपूर्ण भूमिका रही। मीरा बहन, सरला बहन  विमला बहन, गौरा देवी, हिमा देवी,गंगा देवी, इतवारी देवी तथा अन्य कई पहाडी स्त्रियों ने चिपको के दौरान प्रतिरोध की संस्कृति की मशाल जलाई।

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