हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं

 

हर्षिता त्रिपाठी 



समय सतत गतिशील है। अलग बात है कि हम अपने रोजमर्रे में कुछ इस कदर मशगूल हैं कि समय की गतिशीलता महसूस ही नहीं हो पाती। लेकिन समय किसी की परवाह नहीं करता। युवा कवयित्री हर्षिता त्रिपाठी समय के इस मिजाज से भलीभांति वाकिफ हैं। वे लिखती हैं  : 'जीवन महसूस होता रहा/ एक यात्रा की तरह/ जो चलता चला गया/ दूर तलक/ जहाँ नही मिला कोई स्टेशन/ न सुख का/ न दुःख का/ मिले तो लोग मिले/ भीड़ मिली/ और मिला दूर तक पसरा/ खामोशी का एक भयानक सन्नाटा'। 

'वाचन पुनर्वाचन' शृंखला की यह शृंखला आठवीं कड़ी तक पहुंच चुकी है। इस शृंखला में हम प्रज्वल चतुर्वेदी,  पूजा कुमारी, सबिता एकांशी, केतन यादव, प्रियंका यादव, पूर्णिमा साहू और आशुतोष प्रसिद्ध की कविताएं पहले ही प्रस्तुत कर चुके हैं। 'वाचन पुनर्वाचन' शृंखला के संयोजक हैं प्रदीप्त प्रीत। कवि बसन्त त्रिपाठी की इस शृंखला को प्रस्तुत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। कवि नासिर अहमद सिकन्दर ने इन कवियों को रेखांकित करने का गुरुत्तर दायित्व संभाल रखा है। तो आइए इस कड़ी में पहली बार पर हम पढ़ते हैं हर्षिता त्रिपाठी की कविताओं पर नासिर अहमद सिकन्दर की महत्त्वपूर्ण टिप्पणी और कवि हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं।



भाव-प्रवण जमीन पर संवेदन बीज बोतीं हर्षिता की कविताएं


नासिर अहमद सिकन्दर 


हर्षिता त्रिपाठी की ‘‘देवकी आजी’’ शीर्षक कविता जिस कथ्य पर आधारित है, उस पर शायद ही किसी समकालीन कवि ने कविता लिखी हो अथवा कविता लिखने का जोखिम उठाया हो, क्योंकि हमारी भारतीय सामाजिक संरचना आजादी की शुरुआत में जो बनी उसे शनैः शनैः ध्वस्त किया गया। इस कविता को पढ़कर मुझे अनायास ही दो घटनाएं यार्द आइं। एक तो मेरे बचपन की- पिता के एक दोस्त थे राम जी दूबे। वे ईद में हमारे घर आते तो पिता मेरे, माँ से कहते, देखो नई प्लेट में सेवईयाँ परोसना। ये आदर और सद्भावना का तरीका वर्ष इकहत्तर-बहत्तर का है। दूसरा वाकया है- जब राजेश जोशी जी से मैंने एक साक्षात्कार 1987 में लिया और उनसे उनके बचपन के बारे में पूछा तो उन्होंने अपने जवाब में कहा- ‘‘आजादी के अनकरीब मतलब अट्ठारह जुलाई उन्नीस सौ छियालिस को मेरा जन्म हुआ, भोपाल स्टेट के विलीनीकरण के बावजूद एक लंबे समय तक भोपाल में नवाब का प्रभुत्व बना रहा। मध्य प्रदेश की राजधानी बनने से पहले तक के भोपाल में साम्प्रदायिक सद्भाव का भी एक ढंग था, और साम्प्रदायिक कटुता का भी।’’


हर्षिता की ये कविता मुझे बचपन में ले गई। दरअसल ये कविता दो सहेलियों की है, जो अलग-अलग वर्ण, जाति की हैं पर भारतीयता का स्वप्न आक्रामकता और साम्प्रदायिकता का नहीं है अपितु उस सामाजिक ढंचे का है जो बरसों से चला आ रहा है-


"दूर से चप्पल उतारते हुए

लंबे समय के बाद मिलने की

मुस्कुराहट को समेटे

‘‘कहाँ हौ बहन जी’’

आवाज देते

बैठ जाती है बड़े प्यार से 

नीचे जमीन पर

अम्मा का पैर न छूकर

जमीन को छूते हुए

जय राम कर लेती है

अम्मा चारपाई में बैठकर 

थैली लेकर पान लगाती है

दूर से देकर पूछती है

‘‘और कुछ चहि’’

हंसते हुए खोल देती है

बचपन की बातों की गठरी"

(देवकी आजी)


हर्षिता त्रिपाठी के काव्य बिंब का तरीका अलग सा है। वे प्रकृति के बजाए उन लोक मुहावरों और शहरी चित्रों के बिंब बनाती हैं, जहां जीवन संवेदना की भरपूर संभावना होती है-


"जीवन महसूस होता रहा

एक यात्रा की तरह

जो चलता चला गया

दूर तलक

जहां नहीं कोई स्टेशन"

(उम्र का सन्नाटा)


हर्षिता त्रिपाठी अपनी कविताओं के ज्यादातर काव्य शीर्षक भी इसी तरह के बिंबों की जीवन संवेदना में रचतीं हैं। इस संदर्भ में ‘टूटता हुआ तारा और तुम’ शीर्षक कविता पढ़ सकते हैं।


हर्षिता त्रिपाठी अपनी कविताओं की कहन शैली में तथा बिंबों के चयन में, अपने अनुभव में बहुत छोटी होकर भी जीवनानुभव में बहुत बड़ी लगती है। ‘टूटता हुआ तारा और हम’ शीर्षक कविता का उल्लेख किया जा चुका है। ‘‘उम्र का सन्नाटा’’ का बिंब भी देख चुके हैं। अब उनकी कविताओं में प्रेम के अभाव के प्रकृति संबंधी बिंब से बना अंतर्मन का कथ्य भी देखें। जब वे कहती हैं- ‘‘एक प्रेम वहां भी है जहां कोई गुमसुम’’ (प्रेम के अभाव से)


‘‘यादें’’ और ‘‘अक्सर जो प्रेम नहीं हेाते’’ जैसी कविताएं उनके अपने काव्य-शिल्प के तलाश की कविताएं हैं, कहा जा सकता है अपने मौलिक शिल्प के इजाद की कविताएं है।


‘‘अवांछनीय एकांतवास’’, ‘‘यादें’’, ‘‘अक्सर जो प्रेम नहीं होते’’, ‘‘मैनें कई बार पाया तुम्हें’’, ‘‘शरद की चांदनी’’ जैसी कविताएं भी प्रेम के अंतर्मन की सशक्त कविताएं हैं। कहा जा सकता है वे भाव-प्रवण जमीन पर संवेदशील बीज बोती अंतर्मन की प्रेम अभिव्यक्तियों के साथ अपनी कविताओं में उपस्थित होती हैं। 


हर्षिता को पढ़ते हुए सहसा मुझे 1964 में ज्ञानपीठ से प्रकाषित इंदु जैन के प्रथम काव्य संग्रह ‘‘चौंसठ कविताएं’’ में संकलित कविताएं याद आ गईं। 


सम्पर्क 

नासिर अहमद सिकंदर

मोगरा 76, ‘बी’ ब्लाक, तालपुरी

भिलाईनगर, जिला-दुर्ग छ.ग.

490006

मो.नं. 98274-89585




कवि परिचय


नाम - हर्षिता त्रिपाठी

जन्म - 17/07/2004

जन्म स्थान - सरसवां, कौशांबी 

स्नातक - इलाहाबाद विश्वविद्यालय (2021- 2023)

परास्नातक - तृतीय सेमेस्टर, इलाहाबाद विश्वविद्यालय 

पत्रिका – समकालीन जनमत, हस्तलिखित, वनमाली कथा में प्रकाशित।



हर्षिता त्रिपाठी की कविताएं



1. देवकी आजी


दूर से चप्पल उतारते हुए 

लंबे समय के बाद मिलने की 

मुस्कुराहट को समेटे 

"कहाँ हव बहन जी"

आवाज देते 

बैठ जाती हैं बड़े प्यार से

नीचे जमीन पर 

अम्मा का पैर न छू कर

जमीन को छूते हुए

जय राम कर लेती है 

अम्मा चारपाई में बैठ कर 

थैली ले कर पान लगाती है 

दूर से दे कर पूछती है 

"और कुछ चहि"

हस्ते हुए खोल देती है बचपन की बातों की गठरी 



ढेढिया 

कबड्डी 

पुलुलुवा (खो खो)

पहटा 

साथ मे खेले गए सभी खेल 

की यादों का जमघट लग जाता है 

दोनों अब बूढ़ी हो गयी है 

बचपन चला गया 

बुढ़ापे ने दस्तक दे दी है 

बदलते समय के साथ

जिस तरीके रह जाते है 

अन्छुवे समाज के कुछ पहलू

उन्ही पहलुवों में समाज ने

इन्हें अछूता छोड़ा हुआ है 

छू जाने पर कपड़े न बदलना पड़े 

इसलिए बिना छुवे ही एक दूसरे को 

जता लेती है उतना ही प्रेम 

जितना जता लेती थी 

साथ मे खेलने पर



2. टूटता तारा और तुम


दिसंबर की अंधेरी सर्द रात में

दूर कहीं खेतों के उस पार

एक तारा टूट रहा था

मैं खेतों के पास छत पर खड़ी 

देख रही थी उस टूटते तारे को 



वह अधजला तारा 

ठंड से काँप रहा था 

और खोज रहा था कि 

धरती पर कोई तो उसे बचा ले



उसके आशा भरे नेत्र 

जब मुझ पर आ पड़े 

वह और ज्यादा चमकने लगा 

उसे लगा मैं बचा लूंगी उसे



तभी मैंने उससे तुम्हें मांग लिया 

उसकी चमक में उदासी छा गयी 

वो मायूस हो कर मुझे तकने लगा 

और घुटने लगा 

मेरे अंदर के कमीनेपन से



दिसंबर की ठंड और

उस घुटन ने

उसकी चमक को 

धीरे धीरे मार दिया

और फिर वह बुझ गया



मैं जब कभी तुमसे मिलने आऊँगी

लाऊँगी एक तोहफा तुम्हारे लिए 

दूँगी तोहफे मे वही 

बुझा बुझा उदास तारा 

तुम अगर उस तारे को पहनोगे 

तो शायद

उसकी चमक वापस आ जाए 

वह फिर से चमकने लगे



3. उम्र का सन्नाटा


मन लथेड़े खाता रहा 

गिरता रहा 

लड़खड़ाता रहा

निचाट अकेलापन हवसी बन

चूसता चला गया ज़िन्दगी को



जीवन महसूस होता रहा 

एक यात्रा की तरह

जो चलता चला गया 

दूर तलक

जहाँ नही मिला कोई स्टेशन 

न सुख का 

न दुःख का

मिले तो लोग मिले

भीड़ मिली

और मिला दूर तक पसरा 

खामोशी का एक भयानक सन्नाटा

कुछ कठोर तीखे व्यंग मिले

जिनका भार अब

शरीर की नसों ने उठा रखा है 



चुभती नजरें बार-बार 

किसी न किसी 

नए प्रश्न के साथ

डंक मार जाती हैं

चढ़ा जाती हैं स्मृति का विष

मन अचानक कुंठित होने लगता है

अक्सर लोगों का दूर जाना 

उतना दुःखदायी नही रहा

जितना लोगों का बदल जाना

सुख क्षणिक रहा

दु:ख दीर्घकालिक बन कर ठहर सा गया



ज़िंदगी में कुछ चीजें 

अधूरी ही रह गयी 

और उम्र का सन्नाटा 

धीरे-धीरे निगलता चला गया।






4. प्रेम के अभाव से


नदी के किनारे

सरसों के खिले फूल

इठला कर बता रहे

बसंत आ गया है

प्रेमी प्रेमिकाएं

एक दूसरों के

कानों में खोंसते फूल

कोयल की आवाज को सुनते हुए

अपने प्रेम की गहराई में उतर चुके हैं



एक प्रेम वहाँ भी है

जहाँ कोई बैठा है गुमसुम

अपने प्रेमी के इंतजार में

पैर लटकाए रेत के पास

जिसके पास कोई कंधा नहीं

उसने भी कानों में

फूल लगा रखा है

खुद से प्रेम करते हुए



बसंत सिर्फ प्रेमी युगलों के लिए नहीं आता

आता है उनके लिए भी

जो अपने प्रेम के साथ हो कर भी

कभी प्रेम ना पा सकें

उनके लिए भी

जो अपने प्रेम को छोड़ के

उनकी स्मृतियों से प्रेम करते रहें

बसंत आता है

प्रेम ले कर

उन सब के लिए

जो वंचित रहे

प्रेम के अभाव से



5. अवांछनीय एकांतवास


तुम आये 

कुछ पल ठहरे 

और चले गए 

मैं तुम्हारा हाँथ थामे 

हर मोड़ तक चलती रही 

तब तक जब तक था

तुम्हारा हाँथ मेरे हाँथों में



तुम्हारे साथ रहते हुए

तुम्हारे हाँथो में हाँथ रखते हुए भी 

मेरी नीरस हाथेलियों के हिस्से आयी 

निर्जनता



जब कभी पकड़ोगे 

तुम मेरी हथेलियाँ 

तब महसूस करोगे

कितना रुखापन है

मेरी हथेलियों में



बारिश की इंतजार में

जिस तरह नदियों के किनारे

की मिट्टियाँ होने लगती है 

कठोर

बंजर 

पथरीली

मेरी हथेलियाँ भी 

प्रेम की खोज में 

कठोर धरा बन गयी हैं



तपती गर्मी में

बरसात का इंतजार कर रही हैं 

उसके सावन ने ही

उसे रेगिस्तान बना दिया है

एक दिन सावन आयेगा

झूम कर गाने लगेंगे पपीहे भी



पर शायद

तब मेरी लालसा

प्रेम नहीं होगी

तब मेरी हथेलियाँ 

प्रेम न स्वीकार कर

स्वीकार करेगी 

एकांतवास 

हाँ, एकांतवास।






6. यादें


यादों का भी एक 

क्रम होता है 

ज्यादा 

कम 

बहुत कम

बहुत ज्यादा

कभी शून्य



धीरे-धीरे खत्म हो रही हैं सारी इच्छाएं।

यादें कब्रगाह में 

पैर लटका के बैठ गयी हैं

एक दिन सब दफना दी जाएगी...



आत्मा प्यास की वजह से 

दमतोड़ रही होगी

यादों का जत्था 

मिट्टी में मिल गया होगा 

तब...तक

मन भी खोखला हो जाएगा



खोखले मन को ठोकते हुए 

ठन ठन की आवाज के साथ

निकलेगा भीतर से यादों का प्रेत 

जो करेगा स्मृतियों को वश में 

और देगा 

अनवरत.. क्रम बनाने का प्रलोभन

पर घुन लगे मन से

क्रम बनाती स्मृतियां, 

इतना ही दोहरा पाएगी 

कि यादों का भी एक क्रम होता है



7. अक्सर जो प्रेम नही होते 


अक्सर लगा 

तुम्हारे साथ रहते हुए

दुनियां मुस्कुराहटों से 

भरी है



मैंने देखा है 

तुम्हारी उस मुस्कुराहट को

जिसके पीछे तुमने

हरदम छिपाये रखे

अपने मन में उमड़ते 

हजारों प्रश्नों को

छोटी छोटी मुलाकातें

कितना कुछ दे के 

उससे ज्यादा ले जाती हैं।



तुम्हारी हथेलियों के

स्पर्श से ही लगता रहा 

कि रास्ते कितने सरल हैं

लेकिन न जाने क्यों

हर वक्त लगा कि

तुम दफ़्न कर देते हो

अपनी ख़्वाहिशों को

जो कभी शब्द बन कर 

बाहर न आ सकें।



चहेरे पर झलकती 

एक चुप्पी

जिसे देख मैं हमेशा

प्रश्नों के जमघट से घिरी रही

तुम्हारी मुस्कुराहट से

मेरे मन में उमड़ता

दुःख का सैलाब 

हमेशा ठहर सा जाता था

और जीवन कुछ पल के लिए

आसान लगने लगता था।



मैं बचती आयी 

तुम्हारे पूछे गए

उन सभी प्रश्नों के उत्तरों से

जिनके जवाब के लिए

मेरे शब्द कभी तत्पर्य नही रहे

उन गलतियों के बाद

मैंने देखा है तुमको

खुद को खुद के लिए बचाते हुए

छुड़ाते हुए मेरा हाँथ अपने हांथो से 

जिन्हें कभी अचानक तुम

रास्तों में पकड़ लिया करते थे।



छोटी-छोटी गलतियों के अक्सर 

बड़े-बड़े साइड इफेक्ट पड़ते है

जब खामोशियाँ नही टूटती तो

टूटने लगते है 

विश्वास पर खरे उतरते रिश्ते 

चलने लगता है 

अंतर हृदय में एक युद्ध

मन अक्सर सोचने लगता है

की क्यों ध्वंस होने के लिए

बन जाते हैं ये रिश्ते 



तुम्हारे साथ रहते 

नदी की लहरों को

देखते हुए लगता रहा कि

कही किसी की स्मृति के साथ न रुक कर

निरंतर बहते रहना ही 

वास्तविक स्थिरता है



मैने कई बार पाया तुम्हें 

रोता हुआ

अपने अतीत की स्मृतियों को समेटे 

जिसमे गुजार दी है तुमने

पूरी की पूरी रात तन्हाइयों से लड़ कर 

ज़िन्दगी में बहुत कुछ पाया मैंने 

साथ रहते तुम्हारे

हर सफर कुछ न कुछ सिखाता गया

और धीरे-धीरे जुड़ता गया

जिंदगी का एक पहलू 

तुम्हारे साथ



मन हर वक्त सोचता है तुम्हें

शायद एक टूटी आवाज के साथ न बुला सकूँ 

मैं तुम्हें कभी पीछे से 

तुमसे कितना कुछ कहना है

शब्दो के साथ न देने की वजह से 

कितने प्रश्न मन मे ही उलझ गए हैं

कभी वक्त मिले तो बताना 

हम मिलेंगे वहीं जहां रोज मिलते थे

वहां जहाँ तुम सुन सको मुझे।।






8. शरद की चांदनी 


शरद की चाँदनी 

उज्ज्वल चमकता चाँद 

कुंठित मन 

उदासी भरे हुए

कहता है 

उठो, करो बातें चाँद से 



जो आकाश में 

सोलह कलाओं के साथ 

कर रहा है झिलमिल रोशनी की वर्षा

और बिखेर रहा केसरी रंग की 

चमकती हुई चाँदनी 

जिसमें सराबोर 

हो रहा पूरा का पूरा संसार 



मन अक्सर पुकारता है तुम्हें 

तुम आओ मेरे पास

दो क्षण के लिए ही 

आओ हम चले कुछ क्षण साथ

वहाँ जहाँ अपन

खुशबू को बिखेरते 

गिरे हों 

हरसिंगार के औंधे गिरे फूल



उन्हीं फूलों के पेड़ के नीचे

बैठ कर मैं खिलाऊँ तुम्हें

अपने हाथों से

रौशनी से निचोड़ी अमरता की खीर

और तुम सुनाओ शरद गीत

अपनी मीठी आंखों से

शरद पूर्णिमा की रात 

बने एक प्यारी कविता 

हमारे अधूरे रिश्ते के नाम



9. क्रांति 


वो आयेंगे और

कानों से गले तक भर जायेंगे तुम्हारे

तब तुम क्या करोगे?



कैसे छेदेंगी 

तुम्हारी नुकीली कीलियाँ 

उनकी आवाजों को 

जो तुम्हारे कानों में गूंज रही है 



उनका पहुंचना नहीं उनका चलना ही

क्रांति है

फिर कैसे रोक पाएंगे 

तुम्हारे बड़े बड़े लोहे के बैरियर 

उफनाते उनके हुजूमों को



उनके नारे हिला देंगे 

लाल क़िले की दीवालों को भी 

तुम्हारा तख्त कब तक बचेगा



ये गेहूं की बालियां हैं

जहां भी गिरेंगी

सिर्फ गेहूं होगा



बसंत इस बार रंग बिरंगे फूलों में नहीं

आसूं गैस से भरे गोले में

धुआं बन कर आया है




10. छांव 


गुलमोहर और अमलतास की छांव से भले हम गुजरते रहे

पगडंडियों पर साथ साथ हम चलते रहे 

परंतु समय ने हमें एक दूसरे का नहीं होने दिया 



तुम्हारी मीठी आवाज के मीठे गीत और 

तुम्हारी मुस्कुराहट दोनों अब कल्पना मात्र हैं 

तुम्हारी तरह ही 



जाने के बाद जाना तुमको

कि फिर जानने का कोई

अर्थ नहीं होता 

सिर्फ याद होती है और चंद गुजारी शामें 



बदली दुनिया में कितना कुछ बदला 

लोग जगह सब कुछ

मैंने सब को छोड़ा

परंतु तुम आज भी गाते हो मेरे भीतर

एक गीत राग भैरवी में 



मैं आज भी तुम्हें सुनना चाहती हूं

उसी अंदाज में 

जिस अंदाज में तुमने मुझे पहली बार सुनाया था 

मेरी आंखों में एकटक देखते हुए 

एक लोकगीत



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क 


ग्राम पोस्ट - सरसवां 

तहसील - मंझनपुर 

जनपद - कौशांबी (उत्तर प्रदेश)


ईमेल - tanutiwari5500@gmail.com


टिप्पणियाँ

  1. बढ़िया कविता हर्षिता ,बधाई

    जवाब देंहटाएं
  2. बधाई हर्षिता ✍️

    जवाब देंहटाएं
  3. सुंदर, शब्दों की मितव्ययिता के कारण कविताएं बिल्कुल चुस्त दिख रहीं हैं। प्रकृति से गहरा जुड़ाव है।एक साथ मनुष्य को प्रवृत्ति और प्रकृति का संयोजन है।
    कवि को स्नेहाशीष और शुभकामनाएं।
    ललन चतुर्वेदी

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत सुंदर लिखा है हर्षिता। ख़ूब आगे जाओ।

    जवाब देंहटाएं
  5. इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. बहुत अच्छी प्रस्तुति!
      बहुत परिचित किंतु उतनी ही जटिल विषयों को आधार बनाकर रची गई सुंदर कविताएँ हैं ये। इसमें नयापन तो है ही, गाँवों की गमक भी है। हमारी पुरनियों की पीढ़ी बहुत टटके अंदाज़ में इसमें पिरो दी गयी है। प्रेम जैसे कोमल और शाश्वत विषय पर बहुत बारीकी और कलात्मक ढँग से लिखा है हर्षिता ने।
      हर्षिता को बहुत बधाई!💐
      एक बात यह भी कहना चाहता हूँ कि वर्तनी की बहुत-सी अशुद्धियाँ इन कविताओं का रस लेने में बाधा देती प्रतीत होती हैं; उस पर भी काम किया जा सकता है।

      -हिमांश धर द्विवेदी

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