श्रीराम त्रिपाठी का आलेख 'मूल प्रश्न'

श्रीराम त्रिपाठी लेखक के वजूद में पाठक की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। भले ही लेखक स्वांतःसुखाय लिखने का दावा करता है लेकिन उसे मान्यता तो तभी मिलती है जब पाठक उसके लेखन को स्वीकार करता है। पाठक की स्वीकृति के बिना लेखन का कोई मोल नहीं। लेखन का मूल प्रश्न वाकई यही है। श्रीराम त्रिपाठी हमारे समय के गम्भीर आलोचकों में से हैं। उनके आलोचन का तरीका औरों से बिल्कुल अलहदा होता है। लेखक पाठक संबंधों की कड़ियों को एक आलेख के माध्यम से बड़े रुचिकर तरीके से उन्होंने खोलने का प्रयास किया है। यह आलेख एक अरसा पहले अक्तूबर 2002 में 'समय माजरा' पत्रिका में प्रकाशित हुआ था। लेकिन इसमें उठाई गई बातें आज भी समीचीन हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं श्रीराम त्रिपाठी का आलेख 'मूल प्रश्न'। 'मूल प्रश्न' श्रीराम त्रिपाठी “अच्छा तू ही बता, कोई इन्सान कविता-कहानी क्यों लिखता है?... दूसरों की छोड़। अपनी बता। क्यूँ लिखता है तू?” मैं कुछ नहीं समझ पाया। दोस्त के अचानक हुए सवाल से मैं अचकचा गया। दोस्त से हमारी बातचीत तो देश के हालत पर हो रही थी कि अचानक उसका यह सवाल अचकचा देने के लिए का...