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विजेंद्र

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विजेंद्र जी हमारे समय के न केवल एक बड़े कवि हैं अपितु वे एक बेहतर चित्रकार एवं विचारक भी हैं. हम सब ‘कृति ओर’ में उनके सम्पादकीय आलेख पहले से ही पढ़ते आ रहे हैं जो हमेशा एक नए तरीके से सोचने के लिए हमें बाध्य करते हैं. प्रस्तुत आलेख में मार्क्सवाद की विवेचना करते हुए विजेंद्र जी ने यह साबित किया है कि आज 21 वी सदी में मार्क्सवाद ही एक मात्र ऐसा रास्ता बचा है जो हमें सामंती पूँजीवादी नारकीय जीवन से उबार सकता है। तो आईये पढ़ते हैं विजेंद्र जी का यह चिंतनपरक आलेख     इक्कीसवी सदी और कार्ल मार्क्स समाजवादी सोवियत संघ के दुर्भाग्यपूर्ण पतन के बाद दो तरह के लोगों को खुशी हुई होगी। एक तो पथभ्रष्ट- मौकापरस्त-मार्क्सवादी-दुनियादार लोग। उन्हें यह कहने का मौका मिला कि वे दूरदृष्टि संपन्न हैं। अतः समाजवादी ढाँचे के खसकने से पहले ही उन्होंने मार्क्सवाद से अपने हाथ धो लिये। हिंदी में सत्तर के आस पास मार्क्सवादी कहे जाने बाले प्रमुख आलोचक नामवर सिंह ने मार्क्सवाद त्याग कर ‘ अमरीकी नई समीक्षा ‘ का रूपवाद अपना लिया था। यह एक प्रकार से एक तथाकथित मार्क्सवादी द्वारा मार्क

सुनील गंगोपाध्याय

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बांग्ला के सुप्रसिद्ध कवि और कथाकार सुनील गंगोपाध्याय का विगत २३ अक्टूबर को निधन हो गया. उनकी स्मृति को याद करते हुए हम प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी अंतिम लिखी-प्रकाशित कविता ‘बकुल गंध सरीखा.’ जो मूल रूप से बांग्ला में छपी है. इस कविता का हमारे लिए हिन्दी अनुवाद किया है युवा कवि निशांत ने. कविता के साथ निशांत की एक टिप्पणी भी प्रस्तुत है.     बकुल गंध सरीखा (बकुल पीले रंग का सुगन्धित फूल है, जो बंधुत्व का प्रतीक है ) सुनील गंगोपाध्याय खडा हूँ मैं पर्वत शिखर पर अकेले वृक्ष की तरह सभी दूर खड़े हैं यह गोधूली, मेघ, उदास सूर्यास्त. मैं जानता हूँ- कोई मुझे नहीं बुलाएगा. पृथ्वी की सारी हवा जूठन की तरह मुझे महसूस होती है. इस दृश्य के सारे देवता असहाय हो खड़े हैं. बस स्टाप पर मैं अकेला खड़ा हूँ जैसे पर्वत शिखर हो दिवंगत दोस्तों का चेहरा बीच-बीच में बहुत याद आता है जैसे मैं कभी वादा नहीं निभा पाया हूँ उनका. ढेर सारी किश्तें उधार की नहीं चुका पाया हूँ उनका 'हम लोग पृथ्वी की सारी देनदारियां चुका आये हैं भाई’ उन्होंने कहा   ‘यहाँ तक कि प्रेमिक