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आशीष सिंह का आलेख 'जीवन की खातिर लगातार जीवन से संघर्ष करती कहानी'

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  अमरकांत समाज मनुष्य की मूलभूत जरूरत है। हर मनुष्य इससे जुड़ कर ही आगे का रास्ता तय करता है। लेकिन समाज उसी मनुष्य को तवज्जो देता है जो उसके लिए विशिष्ट होता है। सामान्य मनुष्य  की उपयोगिता जब तक बनी रहती है, समाज के लिए वह उपादेय बना रहता है। जैसे ही वह व्यक्ति अनुपयोगी दिखाई पड़ने लगता है, समाज उसे अकेला मरने के लिए छोड़ देता है। लेकिन मौत पर भी चाहतों का वश कहां होता है। 'जिन्दगी और जोंक' अमरकांत की ऐसी यादगार कहानी है जो अपने लिखे जाने के सत्तर साल बाद भी प्रासंगिक बनी हुई है। अपने आलोचनात्मक आलेख में आशीष सिंह अमरकांत के आत्मकथ्य के हवाले से लिखते हैं ' सदियों से उसे इतिहास ने इतना ही दिया है और उसी पूंजी को कलेजे से चिपकाये वह जीवित रहने का ढंग सीख गया है। समाज में ऐसा भयंकर अन्तर्विरोध क्यों है। रजुआ सपना देख सकता है। वह उसे रोज देख सकता है। घंटों उसके बारे में सोचता अपने अन्दर दूर-दूर तक देखता और चारों ओर कष्ट घोर अन्धकार में एक रोशनी टिमटिमाती नजर आती है। कैसी रोशनी थी वह! उसके अन्दर परिवर्तन की प्रक्रिया की शुरुआत हो गयी थी। वर्षों वह प्रक्रिया चलती रही.. ‌....

सुभाष पंत से आशीष सिंह की बातचीत

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  सुभाष पंत  कल 7 अप्रैल 2025 को प्रख्यात कथाकार  सुभाष पंत के न रहने की खबर मिली।  हिंदी की नई कहानी आंदोलन के प्रमुख हस्ताक्षर सुभाष पंत पिछले पांच दशकों से निरंतर रचना-कर्म में सक्रिय थे।  सुभाष पंत मूलतः वैज्ञानिक थे। उन्होंने  सन् 1961 में भारतीय वन अनुसंधान (एफ.आर.) डॉक्युमेंट्री से अपने राजकीय सेवा की शुरुआत की थी और सन् 1991 में भारतीय वन अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद् कम्पनियों के।वरिष्ठ वैज्ञानिक पद से वे सेवानिवृत्त हुए।  उनकी पहली कहानी 'गाय का दूध' वर्ष 1973 में 'सारिका' के विशेषांक में प्रकाशित हुई थी और काफी चर्चित हुई। इस कहानी का अंग्रेजी सहित कई भाषाओं में अनुवाद हुआ एक दौर में वह रंगकर्म से भी जुड़े रहे। सुभाष जी को पहली बार की तरफ से नमन और हार्दिक श्रद्धांजलि।  युवा आलोचक आशीष सिंह ने पिछले दिनों सुभाष पंत से एक लम्बी बातचीत किया था। उनकी टिप्पणी के साथ हम आज पहली बार पर इस बातचीत को प्रस्तुत कर रहे हैं।   कहानीकार उपन्यासकार सुभाष पन्त नहीं रहे। जब से यह खबर मिली है मन विचलित है। विजय गौड़ के  के बाद सुभाष जी के निधन ने...

गौरीनाथ से आशीष सिंह की बातचीत

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  'कर्बला दर कर्बला' गौरी नाथ द्वारा लिखा गया हमारे समय का एक महत्वपूर्ण उपन्यास है। यह महज उपन्यास ही नहीं बल्कि समय का एक जीवन्त दस्तावेज भी है। गौरी नाथ उन रचनाकारों में से हैं जो फौरी तौर पर ही कोई रचना नहीं रच देते बल्कि उसके पीछे उनका एक सुदीर्घ चिंतन और ग्राउंड लेवल का शोधकार्य भी होता है। यह उपन्यास पढ़ते हुए पाठक को खुद ब खुद महसूस होने लगता है उपन्यास प्रकाशित होने से पहले गौरी नाथ जी ने पांडुलिपि  भागलपुर के वरिष्ठ पत्रकार, संस्कृतिकर्मी डॉ. चंद्रेश को भेजी। अपनी टिप्पणी में  चंद्रेश जी  लिखते हैं -  लेखक-पत्रकार गौरीनाथ का लिखा 'कर्बला दर कर्बला' एक अलग क़िस्म का दस्तावेज़ी उपन्यास है, जो यथार्थ की खुरदुरी ज़मीन और कल्पना की रूमानी उड़ान के बीच संतुलन की जोखिम के बीच ताना-बाना बुनने की एक ईमानदार कोशिश है। पश्चिमी देशों में लीक से हट कर डॉक्युड्रामा, दस्तावेज़ी उपन्यास लिखने का चलन कोई नया नहीं है, हमारे यहाँ के लेखक इस तरह के जोखिम से थोड़ा परहेज करते हैं। गौरी नाथ ने बिहार के भागलपुर शहर को केन्द्र में रख कर लगभग दस साल के कालखण्ड में हुए उन चर्चित ...