सरला माहेश्वरी की कविताएं

 




कवि कर्म दूर से चाहें जितना आसान दिखाई पड़ता हो, यह उतना आसान होता नहीं। कवि के सामने चुनौती होती है कि वह अपने समय के सामाजिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक मुद्दों से टकराते हुए, खुद को उससे जोड़ते हुए ऐसे लिखे कि वह सार्वजनीनता का भाव लिए दिखाई पड़े। और अगर कवि एक्टिविस्ट हो तो उसकी लेखनी और प्रभावी बन पड़ती है। कवि की वैचारिकी उसे और पुख्ता बनाती है। सरला माहेश्वरी ऐसी ही कवयित्री हैं, जो एक्टिविस्ट तो हैं ही, उनकी अपनी राजनीतिक प्रतिबद्धता भी है। इसीलिए उनकी चिन्ता के केन्द्र में वह राजनीति है जो तमाम छल छद्मों से भरी हुई है और निर्मम है।  जिनके लिए नैतिकता का कोई मूल्य नहीं। वे गज़ा के उन बच्चों के लिए चिन्तित हैं जिनका युद्ध ने सब कुछ छीन लिया है और दुनिया मूकदर्शक बने केवल तमाशा देख रही है। हाल ही में सूर्य प्रकाशन मन्दिर बीकानेर से उनका एक नया कविता संग्रह 'ओ शरद के चांद' प्रकाशित हुआ है। इसी संग्रह की कुछ कविताएं आज हम पहली बार के पाठकों के लिए प्रस्तुत कर रहे हैं।


सरला माहेश्वरी की कविताएं



फ़लस्तीन के बच्चों के लिये दीपावली पर दुआ


फ़लस्तीन के बच्चों के लिये दीपावली पर दुआ


छोटी सी आइजा कहती है

फ़लस्तीन के बारे में मुझे और बताओ!

अच्छा बताओ

अस्पताल को अगर गिरा दिया तो 

फिर इलाज कैसे होगा?

पता है मेरी क्लास में एक लड़के को डेंगी हो गया और वो 

कितने दिन से अस्पताल में भर्ती है!

वो डेंगी की पूरी कहानी सुनती है और फिर इसी तरह 

फ़लस्तीन की कहानी सुनना चाहती है!

कहती है मुझे वहाँ की पिक्चर दिखाओ!


छोटी सी आइजा को कैसे सुनाऊँ फ़लस्तीन की कहानी 

कैसे दिखाऊँ मासूम बच्चों की लहूलुहान लाशें?

कैसे बताऊँ कि ये सत्ताएँ इतनी क्रूर क्यों हो जाती हैं 

मच्छर तो नहीं जानते कि वे कितने खतरनाक हैं 

कि वे इंसान के लिये जानलेवा हो सकते हैं

लेकिन इंसान सब कुछ जानते हुए भी 

इंसान के लिये इतना खतरनाक हो जाता है कि 

सुरक्षा के नाम पर लाखों बेगुनाह लोगों को मार देता है 

एक पूरे शहर को, देश को तबाह कर देता है! 

इस तबाही की कहानी कैसे एक बच्ची को समझाऊँ!

कैसे एक बच्ची की जिंदगी को ऐसे भयावह आतंक से भर दूँ कि 

जिंदगी भर उससे उबर ही न पाए!


लेकिन खुद को सभ्य और जनतांत्रिक कहने वाले लोग 

मौत का ये खेल खेल रहे हैं और अपनी पीठ भी थपथपा रहे हैं 

दुनिया चुपचाप ये सब देख रही है!


फ़लस्तीन के बच्चों! कैसे देखूँ तुम्हारी आँखों में? 

काश तुम्हारी आँखों में कोई जादुई शक्ति होती कि इन 

राक्षसों को देखते ही भस्म कर देती! 

इस दीपावली की रात 

तुम्हारे लिये बस ये ही दुआ कि 

मेरे बच्चों 

तुम्हारी जिंदगी में चैन आए 

वह खुशियों से जगमगाए!



ग़ज़ा का बच्चा कहता है


गज़ा का बच्चा कहता है

हम बड़े नहीं होते, हम शहीद होते हैं!

आसमान से बारिश नहीं मौत बरसती है

यहाँ धूल, धुआँ, आग, भूख और प्यास है

चारों तरफ़ लहूलुहान लाशें है

हमारी आँखें मौत का ये मंजर देखती हैं

और फिर बंद हो जाती हैं

हमेशा के लिये!

हमें नहीं देखनी तुम्हारी ये दुनिया!

गज़ा का बच्चा ! बल्कि हर बच्चा पूछना चाहता है

जिंदगी को उजाड़ कर

कौन सी जिंदगी के लिये लड़ रहे हो तुम युद्धबाजों?



ग़ज़ा! यानी मौत!


चारों तरफ़ बस लाशें ही लाशें 

जहाँ जिंदगी सिर्फ मौत का इंतजार है 

बम! भूख! प्यास! डर! सब मोर्चे पे तैनात हैं!


सात साल का मासूम बच्चा मौत माँग रहा है 

कहता है वो जीना नहीं चाहता 

पास में उसके न खाने को रोटी न पीने को पानी 

माँ-बाप पहले ही मौत की भेंट चढ़ चुके हैं 

चारों तरफ़ मौत का ये डरावना मंजर वो कैसे देखे 

वो रात-रात भर डर से काँपता है!


ये एक बच्चे की नहीं ग़ज़ा के हजारों बच्चों की यही कहानी है!


दुनिया के निगेहबानो! 

जाने किन निगाहों से 

मासूम लोगों को यूँ मरते देख रहे हो 

न जाने कैसे इन अनाथ बच्चों की कहानियों को सुन रहे हो 

कैसे एक पूरे देश फ़लस्तीन को यूँ मिटते देख रहे हो!

आतंकवाद के नाम पे कैसी ये लड़ाई लड़ रहे हो?


अपनी ही जमीन पर रहने के अधिकार की कैसी ये सजा है! 

तुम सबकी ये कैसी रजा है!



ओ शरद के चाँद!


ओ शरद के चाँद!

बहुत दिन हो गये ये बच्चे मुस्कुराए नहीं है!


बच्चे मलबे में खोज रहें हैं अपनों को 

अपनी अम्मी, अब्बू को 

अपनी छोटी सी बहन को 

दोस्तों को 

अपने घर को 

उनके चारों ओर मलबा ही मलबा है 

उनकी आँखों में भी बस ये मलबा है!


ये बच्चे रात-रात भर सो नहीं पाते

थकी हुई आँखें अगर झपक भी जाती हैं तो 

डर की चीख के साथ फिर खुल जाती हैं 

क्या होगा इन बच्चों का?


ग़जा के ये बच्चे! भुगत रहे हैं कैसी ये सजा! 

क्या इन डरते हुए बच्चों के हाथ में

कोई फिर पकड़ा देगा बम, पिस्तौल! 

क्या आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई का 

ये खूनी खेल ऐसे ही चलेगा?


ओ शरद के चाँद! 

क्या तुम भी चुपचाप देखोगे ये खेल? 

नहीं! तुम नहीं करोगे ऐसा!

आज की रात तुम ग़ज़ा की इस धरती के और क़रीब आ जाना

इन बच्चों को अपनी गोद में लेना 

इन्हें सुंदर सी कहानी सुनाना 

सुबह जब ये बच्चे उठे तो 

इनकी आँखों में मीठे सपने हों 

इनके चेहरों पर मुस्कान हो!


बहुत दिन हो गये ये बच्चे मुस्कुराए नहीं हैं! 

ओ बच्चों के चंदा मामा! 

इन बच्चों के लिये इतना तो करना!



मुनव्वर राना!


ये अधूरे क़िस्से ही जिंदा रहेंगे

आवाज़ दे कर तुम्हें बुलाते रहेंगे

याद तुम्हारी लिये न जाने कितने रंगों में, खिलेंगे

देखकर उन्हें तुम भी खिलखिलाओगे मुनव्वर राना !

अधूरा कोई क़िस्सा करने पूरा फिर आओगे।






साक्षी मलिक! ये आँसू साक्षी रहेंगे!


ये जूते साक्षी रहेंगे!

आज नहीं ये कल फिर दौड़ेंगे! लड़ेगें! 

डराने वाले इनसे डर कर नंगे पाँव भागेंगे!



ऐसा अभिभावक कभी न बनाना हे भगवान!


ऐसा अभिभावक कभी न बनाना हे भगवान! 

देखकर बच्चों का ज्ञान, थपथपा न सकूँ उनकी पीठ, 

गाता रहूँ बस अपना ही गीत!

दे न सकूँ बच्चों को भी प्रीत!



सोनम वांगचुक! लद्दाख की आवाज़!


हिमालय की बर्फीली वादियों में

सुदूर लद्दाख में, हड्डियों को चीर देने वाली ठंड और

बर्फ की बरसात में वो कर रहा है असली तपस्या

बारह दिन से अनशन पर बैठा है वो

लगा रहा है गुहार कि विकास के नाम पर

इस हिमालय को नहीं बनने दूँगा कॉरपोरेट घरानों के मुनाफे का ग्रास

पूरा लद्दाख खड़ा है आज उसके साथ!

वो सोनम वागंचुक! शिक्षा और अभिनव खोजों के क्षेत्र का एक चमकता सितारा!

श्री इडियट फ़िल्म का प्रेरक हीरो!

बचाना चाहता है अपनी धरती के इस अनुपम सौन्दर्य को

अपनी झीलों, पहाड़ों और अपनी संस्कृति को

चाहता अपनी इस भूमि में शांति से रहना

ये लड़ाई सिर्फ़ उसकी नहीं, हम सबकी है

विकास के नाम पर विनाश को रोकने की है

इस सुंदर पृथ्वी को, जल, जंगल, जलवायु को बचाने की है!

आइये आज हम सब मिल कर उसकी आवाज में आवाज मिलाएँ!



नदी को निर्बंध बहने दो


निर्बंध बहना ही उसका धर्म है 

नदी कभी भूलती नहीं अपना रास्ता! 

वर्षों नहीं सदियों तक नहीं भूलती!


लाख अवरोधों को, 

तुम्हारे अतिक्रमण को तोड़कर वो फिर 

अपने पुराने रास्ते को खोज ही लेगी!

कहते हैं उसकी याददाश्त हमेशा पानी की तरह ताज्जा रहती है! 

दुष्यंत कुमार ने इस खतरे से आगाह भी किया था-

"बाढ़ की संभावनाएँ सामने हैं, 

और नदियों के किनारे घर बने हैं।"


तुम नदियों से उनका घर मत छीनो! 

नदी अपनी हक़ वापस ले कर रहेगी!



आओ पढ़ लें छोटा सा प्रेम का ये पाठ!


आओ पढ़ लें छोटा सा प्रेम का ये पाठ! 

जिंदगी है प्रेम का दूसरा नाम 

इसका तो है यही ठाठ 

आओ मिल कर लें इसे बाँट


प्रेम नहीं मुहताज किसी नाम और मज्जहब का 

प्रेम नहीं मानता कोई हद-बेहद! 

क्या हुआ जो नाम उसका बाबा भाई है! 

बेसहारा सविता का वो भाई है!


बहन की बेटियाँ उसकी बेटियाँ हैं 

आज इन बेटियों की शादी के वक्त 

गले लग कर रो रहा है जैसे रोता है एक पिता! 

प्रेम की तो यही अनमोल रीत! 

बजता इसी में जीवन का संगीत!



ओ शरद के चांद (कविता संग्रह)

सरला माहेश्वरी 

सूर्य प्रकाशन मन्दिर, बीकानेर

पहला संस्करण 2025

पृष्ठ 138, मूल्य रु. 300/




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