हेरम्ब चतुर्वेदी के उपन्यास हमीदा बानो बेगम का एक अंश
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इतिहास में कुछ व्यक्तित्व ऐसे भी हैं जिनकी भूमिका महत्त्वपूर्ण होने के बावजूद वे हमेशा हाशिए पर ही खड़े रहे। इतिहासकार का काम यही होता है कि ऐसे व्यक्तित्वों को वह रेखांकित करे और अपनी लेखनी से उस व्यक्तित्व को जीवन्त कर दे। मुगल काल भारतीय इतिहास का एक चमकदार अध्याय है जिस दौरान भारत न केवल सांस्कृतिक रूप से बल्कि समृद्धि के तौर पर दुनिया के अग्रणी देशों में से एक हुआ करता था। इस काल में कई ऐसी महिलाएं हुईं जिनकी भूमिका शासन सत्ता या सांस्कृतिक रूप से काफी महत्त्वपूर्ण थी। नूरजहां, मुमताज महल, जहां आरा के नाम ऐसे नामों में अग्रणी हैं और इन पर काफी कुछ लिखा भी गया है। लेकिन हमीदा बानो बेगम के बारे में हमें ज्यादा जानकारियां नहीं मिलती। भारतीय इतिहास में हमीदा बानो बेगम एक रहस्य की तरह ही दिखाई पड़ती हैं। इस रहस्य पर से बखूबी पर्दा उठाया है प्रोफेसर हेरम्ब चतुर्वेदी ने। हेरम्ब जी इतिहासकार होने के साथ साथ मंजे हुए साहित्यकार भी हैं। वे कल्पना की उड़ान तो भरते हैं, लेकिन इस उड़ान की मूल जमीन तथ्यपरकता को कभी विस्मृत नहीं करते। यही खूबी उन्हें अन्य रचनाकारों से अलग खड़ा कर देती है। हाल ही में उन्होंने हमीदा बानो बेगम की जीवनी लिखी है जो वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है। यह जीवनी लिखते हुए बकौल यश मालवीय 'हेरम्ब जी कल्पना के स्तर पर स्वयं भी हुमायूं हो उठे हैं। हुमायूं के एंगल से लिखते हुए भी उनका अंडरटोन में चलता हुआ स्त्री विमर्श कहीं छूटा नहीं है बल्कि और भी सघन रूप में अभिव्यक हुआ है।' आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं हमीदा बानो बेगम उपन्यास पर यश मालवीय की टिप्पणी के साथ हेरम्ब चतुर्वेदी के उपन्यास का एक अंश।
हुमायूं का सच होता सा एक सपना : हमीदा बानो बेगम
यश मालवीय
हमीदा बानो बेगम, यह एक और शाहकार है मशहूर इतिहासकार और उपन्यासकार प्रोफेसर हेरंब चतुर्वेदी का। हमीदा बानो, हुमायूं का सच होता सा एक सपना थी, जिसे राजमाता मरियम मकानी के रूप में भी देखा गया। बादशाह हुमायूं केवल अपने राज्य पर ही नहीं, हमीदा के दिल पर भी हुकूमत करना चाहता था, जिसमें वो कामयाब हुआ। उसने हमीदा को निकाह के लिए भी राज़ी कर लिया। इसी बीच वो फारस के लिए रवाना हो गई। हुमायूं को शेरशाह से मिली पराजय का दंश गहरे तक साल रहा था। यह वो ज़ख़्म था, जिसपर हमीदा की मोहब्बत ही मरहम का काम कर सकती थी। इस चोट को भूलने में, उसे हमीदा के तसव्वुर ने सहारा दिया। हमीदा हुस्न की मलिका थी, तो हुमायूं इश्क़ का जीता जागता पुतला। दोनों धुन के पक्के थे और अपने ख़राब चल रहे वक़्त से लड़ना जानते थे। हमीदा की यह जीवनी इतिहास का एक छुपा पृष्ठ है, जिसे अपनी खोजी इतिहास दृष्टि से हेरंब जी ने सम्भव बनाया है और इसे लिखते हुए कल्पना के स्तर पर वो स्वयं भी हुमायूं हो उठे हैं। हुमायूं के एंगल से लिखते हुए भी उनका अंडरटोन में चलता हुआ स्त्री विमर्श कहीं छूटा नहीं है बल्कि और भी सघन रूप में अभिव्यक हुआ है। ग़ज़ब का इतिहासबोध है चतुर्वेदी जी में। कथानुरूप उनकी बहती हुई भाषा भी पाठक को अपने आप में बहा ले जाती है। मध्य काल की तो जैसे उन्हें सिद्धि है। वो अपनी कलम से परिवेश रचते हैं और आपको बीते हुए कालखंड में ले जा कर खड़ा कर देते हैं। आप अपनी आंखों से वो सब कुछ देख पाते हैं, जिसे वो लिख रहे होते हैं। विलक्षण पठनीयता में आप बंध जाते हैं, ऐसा रसपरिपाक करते हैं कि आप मंत्रमुग्ध से पृष्ठ दर पृष्ठ पढ़ते चले जाते हैं। इतिहास को साहित्य का चेहरा देते हुए भी वो कोई मनमाना लेखकीय लाइसेंस नहीं लेते, एक विश्वसनीयता निष्पादित करते हैं। यथार्थ में कल्पना के रंग भरते हुए भी वो ऐतिहासिक ज़मीन नहीं छोड़ते, कथावस्तु के साथ न्याय करते हैं। और यह तभी सम्भव हो पाता है, जब लेखक, अपने पाठक की बांह थाम कर साथ साथ ले कर चले। कथोपकथन का तो कहना ही क्या, ऐसे संवाद कि आपको कहानी का सिरा पकड़ाते हैं । जीवनी ऐसी ही होनी चाहिए, ऐसी ही लिखी जानी चाहिए। यह एक मानक जीवनी है, जिसमें ज़िंदगी की सलवटें हैं, उसके पेचोखम हैं और ऐसा बहुत कुछ है, जो इतिहास को ज़िंदा बनाता है। इसे लिखना निश्चित ही एक चुनौती, एक चैलेंज रहा होगा, हेरंब जी के लिए, जिसे रचते हुए एक प्रतिसंसार सा ही रच दिया है उन्होंने। यह कृति उनके लिए भी एक आइना है, जो इतिहास को कूड़ादान समझते हैं। हमें अपने आज को, अपने वर्तमान को समझने के लिए भी इतिहास की शरण में जाना होता है। इतिहास, इतिहास होता है, उसे महज़ अतीत समझने की ही भूल नहीं करनी चाहिए। कमलेश्वर जी तो आगामी अतीत की बात करते हैं। हेरंब जी ने इस ऐतिहासिक जीवनीपरक उपन्यास में प्रेम और जीवन का एक झिलमिलाता हुआ सच अन्वेषित किया है। बाक़ी मैं कथा को खोल नहीं रहा हूँ, ताकि आपका आनंद कतई कम न हो । आपको हमीदा बानो बेगम के किरदार की रोशनी में वो अंधेरा भी जगमगाता हुआ दिखेगा, जिसकी प्रायः अनदेखी कर दी जाती है। वाणी प्रकाशन ने जीवनी श्रृंखला क्रम में, इस किताब को पूरी गरिमा के साथ प्रकाशित भी किया है।
आसमानी हूर का नूर
हेरम्ब चतुर्वेदी
सिर्फ़ वो कमसिन निगाहें, वो सुता हुआ बदन, अपने से बड़े उम्र वाले के लिए जायज़ अदब के साथ सामने से हटती हुई लड़की ही हर ओर नज़र आती रही। वो लड़की बला की खूबसूरत तो थी है मगर उस पर भी चार चाँद लगा रही थी – उसकी नीची नज़र, हिरन जैसी चपलता वाली चाल और नजाकत टपकाती हुई हर हरकत। उसकी हर अदा निहायत ही बेहतरीन तमीज़ और तरबियत वाले सलीके को जाने-अनजाने बयाँ करती हुई सी थी, वह जवानी की दहलीज़ को छूने वाले शबाब से लबरेज़ – कैसे देखते ही देखते हुमायूँ की आँखों से तो ओझल हुई पर दिल में बहुत भीतर तक समा गई और हुमायूँ की नींद उड़ा गई! कहाँ अपने तख़्त और ताज को वापस पाने के सपने और कहाँ नींद और सपने उड़ाने वाली यह बला की नादान, शोख लड़की....... गुलाब की पंखुड़ी से भी नाज़ुक बदन मगर सधे हुए क़दमों वाली चाल इतनी सी उमर में ऐसी शख्शियत.... ज़ाहिर ही कोई हूर ही हो सकती है..... पूरी रात ये ही सब सोचते करवटों में हुमायूँ की रात न जाने कब बेसब्री और अजब सी बेचैनी में कट गई...।
गुलबदन बेगम लिखती हैं कि जैसे ही हुमायूँ की नज़र हमीदा बानो पर पड़ी भर थी कि उसका दिल इतने जोर से धड़का और उसके चेहरे की रंगत ही बदल गई......। उसका अपने दिल और जज़्बात पर कोई नियंत्रण ही नहीं रहा। जब बेबस हुमायूँ ने यह जानना चाहा कि वह कौन है तब, हमीदा बानो ने खुद ही पूरे इत्मीनान, शालीनता, संयत ढ़ंग और तमीज़ से संक्षिप्त सा जवाब दिया “मीर बाबा दोस्त की बेटी”। हुमायूँ जो अभी सिर्फ़ सुन्दरता का कायल हुआ था उसके इस परिष्कृत अंदाज़ और उसकी तरबियत से भी बहुत प्रभावित हुआ। उसको इतना तो समझ आ गया था कि जिसे इस उम्र में अपने बड़े के सामने कैसे तमीज़ से बोलना चाहिए या एक बादशाह की उपस्थिति में किस अदब से पेश आना चाहिए यह सब उसकी शिक्षा, संस्कार और खानदानी होने के सबूत थे!
वैसे तो छोटे से जवाब से हमीदा बानो ने अपनी तरफ से संवाद समाप्त कर दिया था और वह चलने को हुई लेकिन हुमायूँ ने “मीर बाबा दोस्त की बेटी” सुना तो जाती हुई हमीदा को सुनाते हुए सामने खड़े छोटे भाई, मिर्ज़ा मुअज्ज़म (गुलबदन बेगम और मिर्ज़ा हिंदाल का सगा छोटा भाई) से कहा, “बहुत जल्दी ही यह (मीर बाबा दोस्त) मेरा अपना ख़ास रिश्तेदार होगा”! इतना ही नहीं वह एक सांस में यह भी कह गया “यह (हमीदा बानो) तो रिश्तेदारी में है ही”, यानी आशय साफ़ था कि रिश्तेदारी तो है ही अब जल्दी ही यह और नजदीकी एवं प्रगाढ़ होने वाली है।
इतनी लम्बी रात तो निर्वासन काल में भी हुमायूँ की कभी नहीं कटी थी - जितनी वो रात जो बीतने का नाम ही नहीं ले रही थी। वही चेहरा रह-रह कर हर करवट पर दिलो-दिमाग पर छा जाता। मन ही मन उसे कभी हूर कहता कभी नूर! बंगाल में जब शेरशाह के पलायन के बाद वह अपना दरबार लगाता था, तब मुकुट से पर्दा हटवाते समय यही नारा बुलंद करवाता था “नूर प्रकट हुआ!” अब जब उसी शेरशाह से हार कर हिंदुस्तान छोड़ने को मजबूर हुआ था तब उसे उस रात लगा था कि वो बेवजह मुकुट में नूर देख रहा था? नूर या कि आसमानी हूर का नूर ही नूर होता है..... जो उसने दिन में देखा था और रात की नींद हरम हो गई!
वो जैसे-तैसे रात के काटने का बेसब्री से इंतजार करने लगा..... उसने रात भर में फैसला कर लिया था कि सुबह होते ही अपनी मां (सौतेली ही सही) की शरण में जाएगा और दिल की बात कह कर राहत के अलावा अपनी इस कमसिन की चाहत को पायेगा! कहाँ इतने महीनों से पास में ही शिविर डाले पड़ा हुआ था और नहीं सोचा कि उस मां के प्रति आदर प्रकट कर आये और, फिर मिर्ज़ा हिंदाल से बात करने की मजबूरी में गया तो दूसरे ही रोज़ फिर से हाज़िर होने की सोची और वह भी सुबह-सुबह.... न जाने क्या और कितनी बेताबी ने उसे घेर लिया था! रात भर में उसने अपनी योजना बना डाली थी कि कैसे हमीदा बानो को हासिल करना ही है। कैसे पैगाम भेज कर उससे निकाह करना ही जैसे उसकी ज़िन्दगी का मकसद हो? शायद मुगलिया तख़्त वापस पाने की शुरुआत की यह पेश आगाही है क्या? कोई अच्छा सगुन है क्या? वैसे भी इतने महीनों से भक्कर में मिर्ज़ा हिंदाल से थोड़ी दूर पर ही अपना शिविर लगाये मौजूद था, तब तक तो न उससे बात करने की ज़रुरत महसूस की और न ही सौतेली मां, दिलदार बेगम के सामने हाज़िर हो कर एक फ़रज़न्द की तरह अदब के साथ सलाम करने का होश था और अब जब गए तो होशो हवाश खो बैठे? ज़रूर दिन बदलने की शुरुआत होगी वरना सिंहासन और मुगलिया सुल्तनत यूँ हारने के बाद सिर्फ़ परेशानी और तकलीफ़ के सिवा हासिल ही क्या हुआ? और कल तो जैसे जन्नत की हूर जो जाने-अनजाने, चाहे-अनचाहे रूह तक को सुकून दे गई, भले ही चैन-नींद सब छिन गई हो.... यह अजब सा एहसास उसको हुआ और वो बेबस, बेताब और बेसब्र! अपना तख़्त और सुल्तनत हारा हुआ बादशाह अब अपना दिल भी यूँ हार बैठा!
हिंदुस्तान हार चुके बादशाह को लगा कि जब वह फिर से कुछ हासिल कर के एक स्थायी आधार पा सके तो क्या बेहतर हो और इसीलिए वह भक्कर में ही हिंदाल से मिलने पहुंचा था और दिख गई मेरे बाबा दोस्त की बेटी – क्या यह कोई अच्छी शुरुआत थी? ज्योतिष में शिद्दत से भरोसा करने वाले हुमायूँ के लिए यह कुछ वैसा ही लगा। जब ज़िन्दगी में कुछ अच्छा होने वाला होता है तब पहला क़दम इसी तरह का अच्छा वाकया घटता ही है। उसने इसे उम्मीद की पहली किरण ही माना था। अगर हमीदा को अपनी बेगम बनाने में कामयाब हो गया तब कामयाबी की शुरुआत हो जाएगी और वह अपना खोया तख़्त और जलाल सब वापस पा लेगा...। दूसरी तरफ उसे समझ आ रहा था कि सियासी माहौल उसके कितना खिलाफ़ है। शेर शाह के डर और सैन्य दबाव के चलते सिंध का शासक उसको अपने इलाके से खदेड़ देने के लिए तैयारी करता हुआ खुली चेतावनी दे रहा था; हुमायूँ को लगता था कि मिर्ज़ा हिंदाल की सेना के साथ मिल कर वह सिंध जीत सकता है जबकि, कांधार बहुत दूर की कौड़ी है लेकिन हिंदाल और यादगार दोनों न जाने क्यों पास के और मुमकिन दिख रहे इलाके को छोड़ कर दूर कांधार जीतने पर जोर दिए पड़े थे......।
तो क्या हमीदा को बेगम बना लेने के बाद उसकी मुश्किलों का हल निकलने लगेगा और उसके दिन बहुरने लगेंगे? क्या आखिर में हिंदाल मान जायेगा? क्या सिंध यूँ हासिल हो जायेगा जैसा वह सोच रहा है? क्या उसके बाद गुजरात और फिर वापस हिंदुस्तान का तख़्त? मगर पहला पड़ाव तो मेरे बाबा दोस्त की लाड़ली बेटी का हाथ माँगना है.....। शायद उसी को पाने के बाद किस्मत के दरवाज़े खुलते जायेंगे? हुमायूँ जितना-जितना सोचता और इस सारी जटिलता के साथ करवटें बदलता, वैसे-वैसे उसे पक्का सा लगने लगता कि एक छोटी सी कामयाबी बड़ी कामयाबियों की पहली सीढ़ी है! बादशाहत खो चुका हुमायूँ बस इसी छोटी सी कामयाबी को किसी अच्छे सगुन की तरह देखने लगा था! काबुल में तो सौतेला भाई कामरान अपने सगे भाई अस्करी के साथ अपनी ताकत बढ़ा रहा था वह चौसा के युद्ध के बाद निजाम प्रकरण के बाद हुमायूँ से नाराज़ हो कर ही काबुल लौट गया था; और अब हुमायूँ के साथ दिख कर शेरशाह से अदावत के लिए कत्तई तैयार नहीं था? इसीलिए हुमायूँ के पास सीमित विकल्प थे? लेकिन हर विकल्प से पहले तो दिन में जो ख्याल परेशान कर गया है उसे हासिल करना पहली और फ़ौरन ज़रूरी था!
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उसने मां दिलदार बेगम को सलाम करने के बाद ही बिना लाग-लपेट के लगभग याचक भाव से अर्ज़ किया: “शेख अली अहमद जामी, जिन्हें हम सब मेरे बाबा दोस्त पुकारते हैं वे हैं तो हमारे रिश्तेदार ही, अगर उनकी बेटी से हमारा निकाह पढवा दें तो बहुत मेहरबानी होगी और मुग़ल खानदान के लिए भी बेहतर होगा। आप चाहेंगी तो आसानी से हो भी जायेगा।” दिलदार बेगम कशमकश में पड़ गयीं। एक तरफ उसका बड़ा (सौतेला ही सही) बेटा, जिसने बादशाह रहते उनके मान-सम्मान में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ी थी और हमेशा माँ का दर्ज़ा ही दिया; फिर वह बाबर का वैध उत्तराधिकारी के रूप में बादशाह भी रहा था उसने हमीदा बानो से शादी का सारा दारोमदार दिलदार बेगम को सौंप दिया था – एक अजब सी ज़िम्मेदारी! दूसरी तरफ मीर बाबा दोस्त के कमसिन सी बेटी, हमीदा बानो जो दिलदार बेगम के ऊपर पूरी तरह से आश्रित थी. दिलदार बेगम क्योंकि मिर्ज़ा हिंदाल के हरम की सर्वेसर्वा थीं और इसी नाते हमीदा उनके संरक्षण में और उनकी ही ज़िम्मेदारी थी? दिलदार बेगम संरक्षिका और हमीदा बानो उनकी आश्रित....। वे बेहद संजीदा, संयमी, ममतामयी महिला थीं और हमीदा भी संजीदा, संस्कारी और संयमी।
हुमायूँ के ऐसा कहने की वजह से दिलदार बेगम जैसी निहायत परिष्कृत और सुलझी सी स्त्री एक अजब सी परिस्थिति में खुद को पा रही थी? उनकी ममता और उनका दायित्व-बोध गवारा ही नहीं कर रहा था कि वह किस मुंह से एक मासूम सी लड़की के लिए एक अधेड़ उम्र के आदमी से ब्याह का पैगाम दे पाएंगी? ऊपर से यह अधेड़ उम्र का आदमी तो न केवल राज्य हारा था बल्कि निर्वासित शासक हो कर भटक रहा है और अब सिर्फ़ नाम का शासक रह गया है जिसका अब अपना कोई निश्चित ठिकाना भी नहीं है? क्या वह कभी सिंध या गुजरात या कांधार जीत भी पायेगा? क्या हिंदुस्तान को दोबारा हासिल कर पायेगा या जिंदगी भर यूँ ही भटकेगा? जब अपना ठिकाना नहीं तो अपनी नई ब्याहता मासूम सी लड़की को कहाँ, किस हाल में रखेगा? किस भरोसे पर वह हुमायूँ का पैगाम अमल करवाए और किस मुंह से? एक तो कमसिन सी लड़की और कहाँ एक खासी उमरदार वाला हुमायूँ? दिलदार बेगम की हालत सांप-छछूंदर वाली हो गई! वो सोच में पड़ गई कि न जाने किसकी सूरत देख कर उठी है जो सुबह-सुबह ऐसे पशोपेश में पड़ गई?
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