राधाकृष्ण की कहानी 'एक लाख सतानब्बे हजार आठ सौ अट्ठासी'।

  



राधाकृष्ण 



कोई एक संख्या भी कहानी का शीर्षक हो सकती है। मसलन 'एक लाख सतानब्बे हजार आठ सौ अट्ठासी।' आपको देखने में भले ही यह केवल संख्या लगे लेकिन अपने मूल में यह केवल एक संख्या ही नहीं बल्कि वह दस्तावेज है जो इतिहास में दर्ज हो चुका है। बकौल कहानीकार 'यह एक लाख सतानब्बे हजार आठ सौ अट्ठासी व्यक्तियों की अकाल मृत्यु की करुण कहानी है। इसी कारण इस कहानी का शीर्षक ऐसा है।' यह वह संख्या है जिसे मानव समाज की त्रासदी के रूप में चित्रित किया जा सकता है। वस्तुतः यह कहानीकार राधाकृष्ण की कहानी का शीर्षक है। हिन्दी में ऐसे शीर्षक देने की परम्परा आम तौर पर नहीं है। इसलिए यह कहानी कहानीकार की टिप्पणी के साथ छपती रही है जिसे हम यहां भी उद्धृत कर रहे हैं। अपने समय के बेहतरीन कथाकार राधाकृष्ण के बारे में प्रेमचंद ने कहा था 'अगर हिंदी के उत्कृष्ट कहानीकारों की संख्या कांट छांट कर पाँच भी कर दी जाये तो उसमें एक नाम राधाकृष्ण भी होगा'। यह कहानी महामारी और भुखमरी  पर मर्मस्पर्शी कहानी है। कहानीकार अरुण कुमार असफल लिखते हैं 'खुद राधाकृष्ण का जीवन संघर्षों से भरा हुआ था। एक वकील के पेशकार के रूप में उन्होंने अपनी आजीविका की शुरुआत की। फिर बस में कंडक्टरी करने लगे। बाद में उन्होंने आकाशवाणी के पटना और राँची केन्द्रों पर बतौर ड्रामा प्रोडयूसर भी काम किया।' कल राधाकृष्ण का जन्मदिन था। उनकी स्मृति को नमन करते हुए आज पहली बार पर हम प्रस्तुत कर रहे हैं राधाकृष्ण की कहानी 'एक लाख सतानब्बे हजार आठ सौ अट्ठासी'।



समय व्यतीत होता जा रहा है और यह कहानी अभी तक चल रही है। मगर इस कहानी के शीर्षक को लेकर भ्रम हो जाता है, क्योंकि शीर्षक के साथ कहानी की संगति नहीं बैठती। अतएव, लगता है कि इस कहानी के शीर्षक के सम्बन्ध में एक टिप्पणी की आवश्यकता है। सन 1942-43 का समय था, जब बंगाल में अकाल से और मिथिला में मलेरिया और भुखमरी से लोग मरते जा रहे थे। बंगाल में मरने वालों की कहानियाँ उजागर हो रही थीं, लेकिन बिहार की बातों पर ब्रिटिश सरकार के आतंक से एक पर्दा-सा पड़ा हुआ था। उस समय केवल एक 'इण्डियन नेशन' था जो मिथिला के बारे में तब तक लिखता रहा, जब तक कि उसके प्रधान संपादक को अपनी नौकरी से हाथ नहीं धोना पड़ा। उस समय बिहार सरकार के सलाहकार थे श्री वाई. एस. गौडबोले। उन्होंने एक प्रश्न के उत्तर में बतलाया था कि मलेरिया आदि से मिथिला में मरने वालों की संख्या है - 'एक लाख सतानब्बे हजार आठ सौ अट्ठासी।' इसी वक्तव्य को देख कर यह कहानी लिखी गई थी। यह एक ही परिवार की कहानी नहीं, बल्कि यह एक लाख सतानब्बे हजार आठ सौ अट्ठासी व्यक्तियों की अकाल मृत्यु की करुण कहानी है। इसी कारण इस कहानी का शीर्षक ऐसा है। पहले यह कहानी गौडबोले साहब के वक्तव्य के साथ ही छपती थी। कालान्तर में उद्धृत करने वालों ने वक्तव्य को छोड़ दिया। उसके बाद यह कहानी इसी रूप में छात्रों को पढ़ाई जानी लगी। 

('राधाकृष्ण की प्रतिनिधि कहानियाँ', नए संस्करण में लेखक द्वारा दी गई टिप्पणी)



'एक लाख सतानब्बे हजार आठ सौ अट्ठासी' 


राधाकृष्ण



(एक)


यह मिथिला है। देखिए, गाँव के किनारे से कोसी नदी बहती जाती है। सामने एक बूढ़ा पीपल है। पीपल के नीचे कभी का तालाब है। वहाँ पक्का घाट है। पुराने ज़माने के किसी ज़मींदार ने इस घाट को बनवाया था। अब के ज़मींदार तो मुक़दमा लड़ते हैं, मैनेजर और रण्डी रखते हैं, शराब पीते हैं, और बंगला बनवाते हैं। घाट-वाट बनवाने के फेर में नहीं पड़ते। सो घाट की ईंटें दरक गई हैं, पलस्तर छूट गया है, टूटी सीढ़ियों में काई जमी रहती है। यह घाट हमारे काम का नहीं। वहाँ तो, बस, स्त्रियाँ नहाती हैं । हम बाल-गोपाल घाट की बगल से नदी में उतरते हैं। वहीं गाय और भैंसों को धोते हैं, छपाछप खूब स्नान करते हैं और सर्र-सर्र पानी में तैरते हैं। उस पीपल पर, कहते हैं, भूत है। भूत भी ऐसा कि ब्रह्मपिशाच । गाँव वाले कहते हैं कि 'रात को वह घाट पर बैठा रहता है। अगर कोई उधर जा निकला तो उसे मार डालता है'। हम लोग रात में कभी उधर गए ही नहीं। जाने की कभी ज़रूरत ही नहीं पड़ी। पता नहीं, ब्रह्मपिशाच की बात कहाँ तक सच है।


बस्ती हमारी बड़ी है। यहाँ ताड़ के पेड़ हैं। पासी अपने पैर में फन्दा लगा कर उसके ऊपर तक चला जाता है और लबनी में भर कर ताड़ियाँ उतार लाता है। खजूर के पेड़ हैं और रसीले आम के पेड़ भी हैं। हमारे यहाँ के आम को आप लोग दरभंगिया आम कहते हैं। आम समूची मिथिला में होता है; लेकिन आप लोग हमारे आम और महाराजाधिराज को सिर्फ़ दरभंगा का ही बतलाते हैं। दरभंगा तो सिर्फ एक शहर है! वहाँ कचहरी है, महाराजाधिराज का किला है। उस शहर में डिप्टी और वक़ील लोग रहते हैं और मुक़दमा हुआ करता है। हमारे गाँव से बहुत-से लोग सत्तू-पोटली बाँध कर बगल में काग़ज़ों का बस्ता ले कर मुक़दमा लड़ने के लिए दरभंगा में जाया करते हैं। दरभंगा यहाँ से दूर है। हमारे यहाँ जिस तरह सूरज का उजाला होता है, वहाँ रात में उसी तरह बिजली जगमग करती है। वहाँ आग और पानी से चलने वाली रेलगाड़ी भी है, मोटरों को लोग एक दुर्गन्धित तेल से चलाते हैं; लेकिन उन बातों की विशेष जानकारी मैं आपको नहीं दे सकूँगा, क्योंकि एक तो मैं लड़का हूँ, दूसरे मैं कभी दरभंगा गया ही नहीं।


मैं आपको अपनी बस्ती की भी पूरी जानकारी नहीं दे सकता। यह बहुत बड़ी बस्ती है और मेरा ख़याल है कि यहाँ सात कोड़ी से भी अधिक घर होंगे। इसी गाँव में भूखन साह रहते हैं। उनके यहाँ की औरतें रंगीन साड़ी पहनती हैं, आँखों में सुरमा माँजती हैं और सोने-चांदी के आभूषण पहन कर झमाझम चलती हैं। उन्हीं की लड़की की शादी में हमने पहले-पहल हाथी देखा था। गाँव में सूदन झा, लखन झा, बिरजू झा आदि बड़े-बड़े पण्डित हैं। ये लोग छान कर पानी पीते हैं और रोज़ रोहू मछली छोड़ कर दूसरी मछली बिलकुल नहीं खाते। टेमन साव, टेसा साव, सकूर मियाँ आदि यहाँ बड़े-बड़े महाजन हैं। उनके यहाँ आदमी को पाँच कोड़ी तक कर्ज़ मिल सकता है। मास्टर इसी गाँव के रहने वाले हैं, जिनकी विद्या का तो कहना ही क्या। वे अँगरेज़ी भी जानते हैं और किताबों को शुरू से आख़िर तक पढ़ जाते हैं। सुचित झा इसी गाँव के नेता हैं, जो कहते थे कि हमको स्वराज्य लेना ही होगा । वे बड़े अच्छे आदमी थे और बहुत सी बातें बतलाया करते थे। हर हफ्ता उनके पास एक अख़बार आता था। उसमें वनस्पति घी और स्वराज्य की अच्छाई के बारे में बहुत सी बातें थे। हर हफ्ता उनके पास एक अख़बार आता था। उसमें वनस्पति घी और स्वराज्य की अच्छाई के बारे में बहुत सी बातें लिखी रहती थीं। प्रति सप्ताह उसमें दाद की दवा और डोंगरे के बालामृत का वृतान्त छपता था। काका सुचित झा उसे आदि से अन्त तक पढ़ते थे और पूछने पर कुछ हम लोगों को भी बतला देते थे। उन्हीं दिनों की बात है कि सुचित झा इस गाँव में एक बहुत बड़े नेता को बुला लाए थे। आने वाले उस नेता की मूँछें घुटी हुई थीं, भारी-भरकम शरीर था। वे चश्मा लगा कर गैंदा फूल की माला पहने हुए थे। उस दिन आम की बगिया में दरी बिछाई गई थी और बड़ा समारोह हुआ। हम सभी लड़के इस घटना से बहुत प्रसन्न थे और ऊँची आवाज़ में 'जय-जय' चिल्लाते थे । उस नेता ने बहुत बड़ा भाषण दिया। वह युद्ध का विरोध करते और हर एक आदमी को चरखा चलाने का उपदेश देते थे। मगर काका सुचित झा को छोड़ गाँव में दूसरा कोई चरखा चलाने वाला नज़र नहीं आया । लोग कहते थे इसमें मज़दूरी कम है। अगर दूसरा कोई काम करता है, तो दो पैसा ज़्यादा मिल जाता है


यह सब बहुत दिनों की बात है। अब तो हमारे नेता सुचित झा भी जेल में बन्द हैं। पुत्र-शोक में घुल-घुल कर उनकी माँ ने दम तोड़ दिया। मरने के बाद घर में कफ़न के लिए कौड़ी भी नहीं थी । केले के पत्ते से ढाँप कर उनकी लाश उठाई गई। सुचित काका की स्त्री आजकल पिसाई करती है और पैबन्द लगी साड़ी पहनती है। उसने बताशा बेचने का काम भी किया था; लेकिन चीनी के अभाव में वह काम बन्द कर देना पड़ा। पिसाई के अलावा वह गुड़िया बनाती है और गाँव की लड़कियों के हाथ धेले-पैसे में बेचा करती है। सब जानते हैं कि सुनैना काकी बड़ी मुसीबत में है लेकिन कोई उसकी मदद नहीं करता। टेमन साव और टेसा साव के पास बहुत पैसे हैं, लेकिन वे उसे कर्ज़ भी नहीं देते। अगर सुचित काका किसी भाँति स्वराज्य ले लें तो उससे इन्हीं अमीरों का ज्यादा लाभ होगा। मगर वे लोग हैं, जो सुनैना काकी की कोई मदद नहीं करते। हम लोग तो छोटे-छोटे लोग हैं । हम लोग क्या कर सकते हैं। हमारी सुनैना काकी बेचारी एक शाम खाती है, दूसरी शाम उपवास से रह जाती है। पूछते हैं तो कहती है कि बेटा रात के समय मुझे भूख नहीं लगती। क्या जाने उसे भूख क्यों नहीं लगती। मुझे तो रात को भी ऐसी भूख लगती है कि क्या पाएँ और खा जाएँ ।


उसी सुनैना काकी की बगल में मेरा घर है। जाति के हम लोग सुनार हैं। बाबू जी का गहना गढ़ने में नाम है। कंगन, बिछिया, हँसुली-हार आदि वे बड़ा बढ़िया बनाते हैं। मगर गाँव में गहना गढ़वाने का शौक नहीं है। तो क्या किया जाय? थोड़ी-बहुत खेती है, उसी से गुज़ारा है। गाय का दूध है, भैंस की छाँछ है, गुड़ की मिठाई है। गाँव में हम लोग खाते-पीते अच्छे हैं। छम्मी मेरी छोटी बहन है। कभी-कभी वह ज़िद मचा देती है कि हम घी की मिठाई खाएँगे। लेकिन मेरा तो दावा है कि घी की मिठाई दरभंगा छोड़ कर और कहीं बन नहीं सकती। छम्मी छोटी है। उसे अक़्ल कहाँ?





(दो)


सुचित काका का जेल में जाना था कि गाँव में काया-पलट हो गई। हम हैरान थे कि क्या हो गया। गुड़ की भेली, जो हम पैसे में दो लेते थे, वह अब तीन पैसे में सिर्फ़ एक मिलने लगी। भूखन साहू ने अपनी दुकान बन्द कर दी। अब न वे हल्दी देते थे, न धनिया ही बेचते थे । सीधे कह देते थे कि है ही नहीं, लेकिन मैं जानता हूँ कि सारी चीजें उनके यहाँ थीं। ख़ुद मेरे बाबू जी उनके यहाँ जाते थे और चिरौरी करके किरासन तेल ले आते थे। कहते थे कि बारह आने बोतल लगता है। लगता होगा। अम्मा के लिए एक ही साड़ी बारह रुपयों में आई थी। इसके लिए बाबूजी को सवा मन चावल बिक्री करना पड़ा था। फिर हमारे लिए धोती चाहिए। छम्मी मचलती है कि वह तो लाल साड़ी लेगी। एक लालटेन ख़रीदने की भी सख़्त ज़रूरत है। इसके लिए हमारे तमाम गेहूँ बिक गए। चावल का एक दाना भी नहीं रहा, पुआल के बिना गाय भूखी रहने लगी। सिर्फ़ कपड़ा-लत्ता और लालटेन ख़रीदने के पीछे ही हम लोगों की लेई-पूँजी साफ़ हो गई। पिताजी उदास रहने लगे कि अब क्या होगा!


पिता जी चिंता में दुबले होने लगे कि एक दिन दोपहर के समय बुरी तरह कांपने और हांफने लगे। उन्हें बड़े जोर का बुखार आया था कि रात भर वे मुँह फाड़ कर पड़े रहे। बार-बार पानी मांगते थे और अर्र-बर्र बोलते थे। सबका मिजाज बदहवास हो गया। रात भर बाबू जी बुखार में पड़े रहे, अर्र-बर्र बोलते रहे। जब चुप रहते थे, उस समय मुँह फाड़े रहते थे। रात भर के बाद दूसरे दिन जैसे ही सूरज निकला कि बाबू जी के शरीर से पसीना छूटने लगा। सारा शरीर पसीने से सराबोर हो गया। बुखार छूट गया, सिर्फ कमजोरी बाकी बची। सबका ख्याल था कि अब बुखार से पिंड छूटा; लेकिन दूसरे दिन फिर शाम को बाबू।जी के साथ वही तमाशा हुआ, उसी तरह शरीर दलदलाने लगा। बुरी तरह कांपने लगे। रजाई दी गयी, कम्बल दिया गया। मेरा, छम्मी का, अम्मा का, सबका ओढ़ना-बिछाना उनके शरीर पर लड़ दिया गया; लेकिन कंपकंपी ऐसी थी जो नहीं छूटती थी. उसके बाद भयानक बुखार आया और पिता जी ने आँख बंद कर के अपना मुँह फाड़ दिया। हमने तो समझा कि बाबू जी मर ही गए। सुचित काका की अम्मा मरी थी तो इसी भांति आँखें बंद थीं। इस बात से मुझे बहुत ही डर मालूम हुआ. अम्मा से अपना संदेह प्रकट किया तो वह मुझ पर चांटा मर बैठी। रोता-सिसकता मैं सो गया। फिर सबेरे उठ कर देखता हूँ कि बाबू जी के पसीना छूट रहा है और बुखार उतर रहा है।


अम्मा के गहने बिक गए, बर्तन बंधक रख दिए गये। कुछ दिन के बाद एक दाढ़ी वाला आदमी आया और हमारी तमाम गायों को खूंटे से खोल ले गया। हम रोने लगे, ढेला ले कर मारने के लिए दौड़े। पिताजी ने डांट दिया। बोले, हमारी गायें उन्होंने खरीद ली हैं।


मैंने रोते हुए कहा- यह तो कसाई है। हमारी गायों को काट देगा।


तब बाबू जी ने मुझे जोर से डांटा कि मैं सहम उठा. शायद यह सच्ची बात कहना मुझसे कहर हो गया था। यह मेरा कैसा अपराध था। अपनी सूनी गौशाला के कमरे में बैठ कर मैं सुबक-सुबक कर रोने लगा.


माँ खाना खिलाने के लिए आई तो मैंने साफ जवाब दे दिया- जब तक मेरी गएँ नहीं आयेंगी, तब तक मैं नहीं खाऊंगा।


मगर मेरी टेक निभी नहीं।


बाबू जी का वही हाल था। रोज बुखार आता और सबेरे छूट जाता। दुबले-पतले कंकाल-सरीखे दिखाई देते थे। सारा शरीर काला पड़ गया था। आँखें भयावनी हो गयी थीं।


बाबू जी की बीमारी में एक दूसरी नयी बात सुनने में आई। उन्हें एक दावा मिलती नहीं थी। उस दवा का नाम है कुनैन। पता नहीं यह कैसी अचम्भे वाली दवा है। बाबू जी ने तमाम सुराग लगाया, हर जगह छान मारा; लेकिन उन्हें वह दावा मिली ही नहीं। पहले मैंने सुना था कि लोगों को सांप की मणि नहीं मिलती। दूसरे मैंने सुना था कि सोने के पहाड़ को खोद कर भी नहीं पा सकता। तीसरे मैंने यही देखा कि हजार कोशिश के बाद भी कुनैन नाम की चीज नहीं मिल सकती।


मगर थोड़ा-सा खटका बना ही रहा। एक दिन मैंने सुनैना काकी से कहा - ऐसा तो हो ही नहीं सकता कि कुनैन कहीं नहीं होगा। दुनिया में कहीं-न-कहीं बहुत-सा कुनैन जरूर होगा।


सुनैना चाची ने धीरे-से हंस दिया।


मैंने कहा- दरभंगा में जो बड़ा-सा सरकारी अस्पताल है, जहाँ से लोग पढ़-पढ़ कर डाक्टर बनते हैं, क्या वहां भी नहीं होगा? मैंने कहा- हमारे महाराजाधिराज के यहाँ तो जरूर होगा. अगर उनके यहाँ नहीं हो तो उनके राजराजेश्वर हैं, उनके यहाँ तो जरूर होना चाहिए। चची, वे लोग कुनैन क्यों नहीं बांटते?


चाची बोली- लड़ाई है बेटा, उसी कारण कुनैन नहीं मिलता।


बात मेरी समझ में नहीं आई। मैंने कहा- जब लड़ाई ही करनी थी तो थोड़ा कुनैन अपने पास जरूर रख लेना चाहिए था। ऐसी लड़ाई किस काम की कि पास में मारने की सब चीजें हैं और जिलाने की कोई चीज नहीं। अगर इस गाँव में हर किसी को बुखार हो जाये तो सरकार का ही तो नुकसान होगा। हम लोग भी सरकार के ही आदमी है न चाची! पिछले महीने में रामरतन फ़ौज में भरती हो कर चला गया। हम भी बड़े होंगे तो हम भी भरती होंगे। मगर हमें बुखार लग जाये तब तो हमसे क्या लड़ाई होगी !


चाची ने कहा- जो सबसे बली है; वही सरकार जिसको जो चाहे, सो कर सकती है। अगर सरकार कुनैन नहीं रखती तो इसके लिए कुछ भी नहीं कह सकते।


मैंने कहा- क्यों नहीं कहूँगा, बेशक कहूँगा।


चाची ने झुंझला कर कहा- तुम्हें भी जेल चला जाना पड़ेगा, समझ लो।


मेरा दिल दहल गया। जेल, सुनते हैं कि वहां से आदमी निकल ही नहीं सकता। सुनते हैं कि एक जिला है भागलपुर। सो वहां की जेल में सरकार ने गोली चला दी। भगवान जाने, जेल में हमारे सुचित काका कैसे होंगे। जेल का नाम सुनते ही मेरा मुँह सूख गया।


फिर भी विश्वास नहीं होता था। बोला- सिर्फ जरा सी बात कहने के लिए सरकार जेल नहीं देगी।


चाची ने कहा- तुम्हारे काका ने क्या किया था? उन्होंने सिर्फ गाँधी जी की जय कही और उन्हें जेल में डाल दिया गया। बोलो, इसके सिवा उन्होंने और क्या किया था?


चाची ने समझाया- बेटा, ऐसी बात नहीं कहते।


ठीक है, मुझे समझना चाहिए था। अब कभी नहीं कहूँगा।


गाँव में केवल हमारे ही बाबू जी बीमार नहीं थे. रामधन का भी यही हाल था.एल। शिवटहल महीनों से इसी बीमारी को भुगत रहा था। जानकी तो इसी बीमारी से मर गया।


और दिन आ रहे थे और दिन जा रहे थे।


घर की हालत क्या बतलावें। बाबू जी ने अनाज इसी भरोसे बेच दिया था कि सस्ती होगी तो खरीद लेंगे। मगर सस्ती कहाँ तक होगी कि रूपये में सवा सेर का चावल बिकने लगा. अगहन का महीना आया; लेकिन मेरे घर में धान बिलकुल ही नहीं आया। पूछने पर अम्मा ने बतलाया अबकी धान भूखन साहू ले जायेंगे।


क्यों?- मैंने पूछा।


-क्योंकि तुम्हारे बाबू जी ने दवा कराने के लिए रुपये लिए हैं-अम्मा बोलीं।


मैंने क्रोध से कहा- वे अपने रूपये लेंगे कि हमारा धान भी ले लेंगे?


अम्मा बोली- वे अपना रुपया भी लेंगे और धान भी लेंगे। खेत उनके हाथ में जरपेशगी दी गई है।


तब हम खायेंगे क्या?


अम्मा रोने लगी- बेटा, तुम्हारे बाबूजी अच्छे हो जायेंगे तो फिर सब हो जायेगा। अभी दुःख के दिन हैं सब्र करो।


शाम को मैं सुनैना काकी के पास गया। उनसे पूछने लगा- चाची, सब्र करने से क्या फल होता है?


चाची बोली- बेटा, सब्र का फल बहुत मीठा होता है।


तब मैंने ख्याल किया कि मुझे सब्र ही करना चाहिए। अपने लिए नहीं तो बाबू जी के लिए तो मुझे जरूर सब्र करना चाहिए।


इधर घर में मुझे छूछा भात मिलने लगा। दूसरे शाम वह भी नदारद हो गया। मैं अम्मा की गोद में दुबक कर सो जाता था। मुझे मालूम था कि सब्र का फल मीठा होता है। मेरी छोटी बहन छम्मी नासमझ थी। वह भूख-भूख रटती थी। आप परेशान होती थी और अम्मा को भी परेशान कर देती थी। छम्मी नहीं जानती कि सब्र करने का फल क्या मिलता है।


खाने के लिए छूछा भात हो गया। माड़ में थोड़ी-सी हल्दी मिला देने से वह दाल का मजा देती थी. तरकारी के नाम पर जरा-सी चटनी हो जाय तो वही बहुत है।


ऐसे इस तरह के दिन भी आने लगे और जाने लगे।


कि, लो, अब अम्मा का भी वही हाल हो गया. सबेरे के पहर उनके शरीर में कंपकंपी होने लगती। दिन भर बुखार में पड़ी रहती।


दिन में बाबू जी रसोई बनाते थे और रात को अम्मा बाबू जी के पैर दबाती थी।


सिर्फ कुनैन के बिना? सुनते है कुनैन जापानियों के हाथ में है। मैं पूछता हूँ सिर्फ कुनैन के लिए ही जापानियों को नेस्तनाबूद क्यों नहीं किया जाता? सबसे पहले कुनैन मिलना चाहिए। पहले कुनैन की लड़ाई हो। फिर बाकी लड़ाई पीछे होती रहेगी। रात के समय मैं सोचा करता था, मैं जापानियों से जूझने जा रहा हूँ। मेरे पीछे बहुत बड़ी सेना है। तमाम जापानी मारे जाते हैं। अब पृथ्वी पर एक भी जापानी नहीं, अब कुनैन निर्बंध है। मैं पुकारता-आओ। कुनैन ले जाओ। सभी दौड़ते हैं। कितने लोग हैं, क्या मैं कभी इन्हें गिन भी सकता हूँ...! अम्मा मेरी बलैय्या लेती है, पिता जी मुझे आशीर्वाद देते हैं। मगर भूखन साहू को मैं कभी कुनैन नहीं दे सकता। वह हमारा सारा धान उठा कर ले गया।


गर्मी के दिन किसी-किसी भांति बीत गए। अब बरसात आई है। झमाझम मुसलाधार वृष्टि हो रही है। रात का समय। बाबू जी बुखार में पड़े हैं, अम्मा की तबियत भी अच्छी नहीं है। तमाम घर में अँधेरा छाया हुआ है। अब तो न किरासन का तेल है और न उसे खरीदने के लिए पैसे हैं।





(तीन) 


आजकल तो मैं ही घर में कमाने वाला हूँ। दिन के समय लड़कों के साथ कोसी में मछलियाँ मारता हूँ। शाम होते ही किसी की फुलवारी में घुस कर कुछ फल और सब्जी का जुगाड़ करता हूँ। इसी से घर चलता है। उस दिन भूखन साहू के यहाँ एक बैलगाड़ी खड़ी थी। उसमें चावल के बोरे लदे थे। अपने साथियों के साथ मिल कर हम लोगों ने एक पूरा बोरा ही उड़ा लिया। गाड़ी वालों को खबर भी नहीं हुई। इसमें मुझे तेरह सेर चावल का लाभ हुआ था। छम्मी भी समझदार हो गई है। उसने भी अब सब्र करना सीख लिया है। अब वह लाल साड़ी पहनने के लिए ज़िद नहीं मचाती। फटा-पुराना चिथड़ा लपेट कर इधर-उधर जलावन के लिए सूखी लकड़ियाँ खोजती है। माँ को दिन भर बुखार लगता है, बाबू जी उठने-बैठने से लाचार हो गए हैं। छम्मी खुद बनती है। उसे बनाना भी नहीं आता। सब्जी में वह नमक भी नहीं डालती। पूछता हूँ तो कह देती है कि घर में है ही नहीं तो क्या करूँ। अब उस नासमझ को कौन समझाए? भूखन साहू के यहाँ बोरा-का-बोरा नमक पड़ा रहता है। जरा नजर इधर-उधर हुई कि एक मुट्ठी गायब कर दिया. कौन देखता है। इतने ही से काम चल जाता. बिना नमक के खाना बेस्वाद मालूम होता है।


रात का समय है। घर में अँधेरा छाया हुआ है। बाबू जी बुखार में बेहोश हैं, छम्मी सो रही है. अम्मा और मैं जग रहा हूँ। आज मेरी तबियत सुस्त है। आज मुझे जमींदार के भंडारियों ने मारा है। हम लोग रहर और सरसों चुरा रहे थे कि साला बिसेसरा किधर से आ गया। और लड़के तो फुर्र हो गए, केवल मैं ही पकड़ लिया गया. इसके बाद उसने छड़ी से, घूंसे से, थप्पड़ से मेरी खूब मरम्मत की। तीन बार थूक कर चटवाया तब तब जान छोड़ी। उस समय तो उसने जान छोड़ दी, लेकिन अभी मालूम होता है जैसे जरूर जान चली जाएगी। सारा शरीर घाव की तरह दर्द कर रहा है। डर से कराहता भी नहीं कि अम्मा सुनेगी तो पूछेगी। अम्मा से कहने की यह बात नहीं है, कहा भी नहीं। अगर बाबू जी से कह दूँ, तो बिसेसर के छक्के छुड़ा दें। अब वे अच्छे हो जाएँ। बीमारी की हालत में यह बात सुनेंगे तो रोने लगेंगे।


तमाम सन्नाटा है। मालूम होता है जैसे सारा गाँव मर गया। बरसात का पानी बरस रहा है। बस झमाझम उसी की आवाज है। इसी समय एक भयानक आवाज सुनता हूँ छम्मी की अम्मा!


अम्मा चिहुंक उठती है, मैं डर जाता हूँ- मालूम होता है जैसे कोई औरत चिल्ला रही है और कै कर रही है। मैंने धीरे-से कहा- चुड़ैल!


अम्मा ने मुझे अपनी छाती से चिपका लिया।


छम्मी की अम्मा!- फिर आवाज सुनाई पड़ी. मालूम हुआ जैसे सुनैना काकी की आवाज है।


माँ उठ कर बाहर गयी। थोड़ी देर के बाद वापस आ कर बोली- उन्हें हैजा हो गया है। कै और दस्त हो रहे हैं। तू चुप सो जा। मैं उनकी सेवा को जा रही हूँ।


सवेरे तक सुनैना काकी की मृत्यु हो गई थी और मेरी अम्मा को कै होने लगे थे। अंजन में ही दस्त निकल जाता था. जब मैंने उन्हें देखा तब उनकी पिंडलियाँ ऐंठ रही थीं। बार-बार तेज हिचकी आती थी। शरीर कांप उठता था। मुझे देख कर उनकी आँखों से आंसू बहने लगे।


मैंने समझाया- ठहरो अम्मा, घबराओ नहीं, मैं लोगों को बुलाए लाता हूँ।


और मैं दौड़ा हुआ बाहर निकला.


जगेसर के यहाँ गया। उसने बतलाया मुझे खेत में जाना है। सीताराम के तीन बच्चे इसी बीमारी में पड़े हैं। रामधन की माँ ने इसी बीमारी से दम तोड़ दिया है। मालूम हुआ कि तमाम गाँव में हैजा फैल गया है। घर-घर में लोग बीमार हैं और मर रहे हैं। सामने सारा गाँव था लेकिन हमारे लिए कहीं कोई नहीं था। सबको अपनी-अपनी पड़ी थी। कोई भी आने को तैयार नहीं हुआ।


आखिर मेरा मित्र रामनाथ काम में आया। वह मुझसे उम्र में बड़ा है। सात महीना दरभंगा में रह आया है। वह बहुत-सी बातें जानता है और बड़ा हिम्मत वाला आदमी है। उसने दो-चार दोस्तों को और जमा किया। सबके साथ जिस समय हम घर पहुंचे उस समय देखा कि माँ की दोनों आँखें खुली हैं, एकटक। सारा शरीर ऐंठ गया है। बदबू के मारे आँख नहीं दी जाती। वे बरामदे में पड़ी हुई थीं और उनके सारे शरीर पर मक्खियाँ भिनभिना रही थीं।


रामनाथ ने कहा- यह तो मर गयी!


मैं चौंक उठा।


छम्मी बोली- अभी थोड़ी देर पहले तक तो पानी मांगती थी।


नहीं, मरी नहीं है। सुनैना काकी भी तो इसी तरह पड़ी हुई हैं।


रामनाथ ने कहा- अरे नहीं पगली, यह मर गयी. अब इन्हें ले चलना होगा।


रामनाथ ने एक चारपाई पर सुनैना काकी और अम्मा को सुला दिया। हम चारों-पाँचों उन्हें ले गए। बाबू जी में तो इतनी शक्ति भी नहीं थी कि वे बिस्तर से उठ सकते। राह में रामनाथ बहुत ही आश्चर्यजनक बात कर रहा था मरने पर आदमी की लाश भारी हो जाती है। जब तक आदमी जिन्दा रहता है तब तक हल्का रहता है।


इसी तरह की बातें करते हुए हम श्मशान पहुंचे. रामनाथ के साथ रहकर हम लोग निश्चिन्त थे। वह हम लोगों का अगुआ था।


श्मशान में पहुंच कर हम लोगों ने देखा, कुछ चिताएं जली हुई हैं, कुछ बुझी हुई हैं। वहां हमने टेसा साव को देखा। उनकी लड़की मर गयी थी. सूदन झा, लखन झा, बिरजू झा आदि सभी बड़े-बड़े पंडित उनके साथ मसान में आये थे। दो-तीन और लाशें थीं। ऊपर चील मंडरा रहे थे। तमाम चिरायंध गंध फैली हुई थी। हम लोग बैठ गए और विचार करने लगे कि अब क्या हो। इसी समय हमने रघु चमार को देखा। वह खुद ही हम लोगों के पास आया और कहने लगा- महामारी के दिनों में लाश नदी में बहा दी जाती है। ऐसे समय लकड़ी कहाँ खोजते फिरेंगे। तुम लोग भी यही करो।


यह सीख देने के वह ठहरा नहीं। अपने घर की ओर वापस चला गया। उसे अपनी मौसी और बच्चों की खबर लेनी थी। रामनाथ ने मुझसे कहा- तुम भी ऐसा ही करो।


सबको यही राय जंच गई।


पहले सुनैना काकी की लाश बहाई गई। मैंने उनकी डूबती हुई लाश को देख कर कहा- जाओ काकी, दुनिया में तुमने कष्ट किया है, लेकिन भगवान के दरबार में तुम्हें सुख मिलेगा।


माँ की लाश डुबाते समय तो मेरी आँखों से आंसू बहने लगे। बहुत ही ढाढ़स के साथ मैंने माँ को आश्वासन दिया- तुम सुख से जाओ, मेरी कोई चिंता नहीं करना। अब से बाबू जी की देख-रेख मैं ही करूँगा। छम्मी को सुख से रखूँगा। वह बड़ी होगी, तो उसकी शादी कर दूंगा। तुम हम लोगों की जरा भी चिंता नहीं करना।


और उसके बाद मैं बिलख-बिलख कर रोने लगा।


घर लौटने में मुझे देर हो गई थी। राह में मेरे मित्र रामनाथ के साथ अलग हो गए थे। मुझे देखते ही पिता जी ने चिल्ला कर कहा- तू कहाँ चला गया था? देखता नहीं, मुझे कै और दस्त हो रहे हैं। ला, पानी ला; थोड़ी-सी चावल की मांड दे दो। श्रीराम वैद्य को बुला ला।


मैं व्यग्र हो कर फिर रामनाथ के यहाँ दौड़ा।


रात के समय में रामनाथ और छम्मी बाबू जी की लाश लेकर श्मशान जा रहे थे। घर में मुर्दा नहीं रखना चाहिए। रामनाथ का कहना था कि इससे बीमारी और दुर्गन्ध फैलती है। बाबू जी का लाश अम्मा की भांति भारी नहीं थी। फिर भी छम्मी कहती थी-बड़ा भारी है, मुझसे चला नहीं जाता।


श्मशान में पहुँचते ही छम्मी ने कै किया और कांपने लगी। उसने बतलाया कि घर पर ही मुझे तीन-चार दस्त हो चुके थे। लेकिन मैंने डर से किसी को नहीं बतलाया।


रामनाथ ने पूछा- किसका डर रे पगली?


मरने का! - छम्मी ने कहा. काकी, बाबू जी और अम्मा को मरते देख कर मुझे बहुत डर लगता था. थोड़ा पानी दो।


रामनाथ उसके लिए पानी लेता आया। मुझसे बोला- सुनता है रे, इस छम्मी को भी हैजा हो गया।


तब? - मैंने पूछा।


चलो, किसी पेड़ के नीचे बैठ जाएँ। अगर किसी तरह इसे घर में ले भी जायेंगे, तो मरने के बाद फिर लाना पड़ेगा। इससे अच्छा है कि इस बरगद के नीचे बैठ जाएँ। अभी पानी भी नहीं है. आसमान में चाँद निकल आया है। तू जा कर एक लोटा ले आ।


रामनाथ की बात ठीक थी। घर भी श्मशान से कम नहीं था। जो आराम घर में था वही आराम इस बरगद के नीचे भी दिखाई देता था। बाबू जी की लाश को रख कर छम्मी को लिए हुए बरगद के नीचे चले गए। फिर मैं लोटा लाने के लिए दौड़ गया।


लोटा ले कर जब वापस आया तो मालूम हुआ कि छम्मी के दस्त कम हो गए हैं, लेकिन प्यास बहुत है। पानी पीती है और कै कर देती है। कहती थी, शरीर में बहुत जलन है और वह बड़ी तेज़ी से चिल्ला उठती थी। दाँत किटकिटाती थी और हम लोग कुछ कहते थे तो सुनती ही नहीं थी।


फिर वह सुस्त हो गई। सिर्फ़ कराहती थी और किसी बात का कोई जवाब नहीं देती थी।


मैंने रामनाथ से पूछा - यह ऐसा क्यों करती है ? बोलती क्यों नहीं ?


रामनाथ ने इस बात का कोई जवाब नहीं देकर कहा - राम-राम कहो।


और उच्च स्वर में राम-राम पुकारने लगा।


मैंने घबरा कर पूछा - रामनाथ सच बतलाओ, यह क्या हुआ ।


रामनाथ ने कहा- यह मर रही है।


छम्मी भी मर रही है! माँ मर गई, बाप मर गए, सुनैना चाची भी मर गई और अब छम्मी मर रही है; अब मैं कैसे रहूँगा? मैं रोने लगा। रोते-रोते पुकारा - छम्मी!


कोई उत्तर नहीं।


छम्मी!


फिर भी कोई उत्तर नहीं। हाय, अब किसके साथ रहूँगा? किसके लिए मछली मारने जाऊँगा और किसके लिए अमरूद चुरा कर लाऊँगा? छम्मी बोलती क्यों नहीं? मैंने बिलखते हुए कहा- दुनिया में जिसका राज्य है, वह हमारी नहीं सुनता; लेकिन स्वर्ग में तो भगवान का राज्य है, वे सबकी सुनते हैं। उनसे तू हमारे बारे में कहना। छम्मी, तू उनसे हमारे दुखों के बारे में ज़रूर कहना।


क्या छम्मी ने भगवान् से हमारे बारे में कुछ कहा होगा? कुछ कहा होगा तो भगवान ने भी अभी तक... जाने दो, मैं अपना क़िस्सा ख़त्म करता हूँ।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)

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