महेश चंद्र पुनेठा का आलेख 'लोक जीवन और शिक्षा का अंतर्संबंध'
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महेश पुनेठा |
भारतीय समाज आमतौर पर एक श्रमशील समाज माना जाता है। इसके मूल में वह कृषि है जिसके चलते भारत को लम्बे समय तक कृषि प्रधान देश माना जाता रहा। इस तरह यह समाज लोक से आप्लावित है। लोक का मतलब वह श्रमशील जन है, जिसने अपने परिश्रम के बलबूते हमारे समूचे परिदृश्य को बदल कर रख दिया है। लेकिन दुर्भाग्यवश हमारी शिक्षा प्रणाली छात्र छात्राओं को शारीरिक श्रम से जोड़ पाने में असमर्थ रही है। शारीरिक श्रम हमारे शारीरिक मानसिक विकास के लिए बहुत जरूरी है। मोबाइल कल्चर ने स्थिति को और खराब कर दिया है। इस प्रवृत्ति के चलते शारीरिक श्रम को हिकारत की दृष्टि से देखा जाने लगा है। यह मानसिकता हमें उस लोक से काटती जा रही है जो भारतीय जीवन ही नहीं बल्कि संस्कृति की प्राण रही है। कवि महेश पुनेठा का मानना है कि लोक की सबसे बड़ी शक्ति उसकी सामूहिकता, सहभागिता, सादगी, स्वाभाविकता, प्रकृति से जुड़ाव और कठिन परिस्थितियों से संघर्ष की जीवटता है। मेरी नजर में ये लोक में निहित सबसे बड़े मानवीय मूल्य हैं, जिन्हें नई पीढ़ी तक अवश्य पहुंचाया जाना चाहिए। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं महेश चंद्र पुनेठा का आलेख 'लोक जीवन और शिक्षा का अंतर्संबंध'।
'लोक जीवन और शिक्षा का अंतर्संबंध'
महेश चंद्र पुनेठा
आधुनिक शिक्षा लगातार नई पीढ़ी को लोक से काटने का कार्य कर रही है, जो जितना अधिक शिक्षित होता जा रहा है, वह लोक जीवन और प्रकृति से उतना ही अधिक दूर होता जा रहा है। मैं इस बात को आगे बढ़ाने से पूर्व यह स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि लोक से मेरा क्या आशय है? बहुधा "लोक" शब्द का प्रयोग ग्रामीण अंचल और वहां रहने वाले लोगों के संदर्भ में किया जाता रहा है, लेकिन मेरे लिए "लोक’ शब्द व्यापक अर्थ को समेटे हुए है। यह उस दुनिया का पर्याय है, जो श्रमशीलों से जुड़ी है। अभिजनोें से भिन्न है। सामूहिकता, सादगी, स्पष्टता, पारस्परिकता, निःश्चलता, बेवाकी, प्रकृति से निकटता उसकी विशेषता है। गाँव या शहर जैसा भेद इसमें नहीं आता है। जो पेड़, फूल-पत्ती, नदी, पहाड़, पशु-पक्षी और गाँव या अंचल को ही लोक मानते हैं, वे लोक की अवधारणा को सीमित करते हैं। लोक व्यापक जन-जीवन का प्रतीक है, जो बंधा नहीं है और नितांत निजी, संकुचित और अस्थाई लक्ष्य तक सीमित नहीं है, बल्कि प्रतिरोध और संघर्ष इसका प्रमुख गुण है। लोक सिर्फ गाँव के लोकगीतों-नृत्यों या कलाओं में ही नहीं है। किसान और श्रमिक अर्थात अपने श्रम से आजीविका चलाने वाले सभी जन ’लोक’ के अंतर्गत आते हैं। इससे कोई अंतर नहीं पड़ता है कि वे गाँव में रह रहे हैं या शहर में। नगर में रह रहे हैं या महानगर में।
इसे संक्षेप में इस तरह कह सकते हैं कि लोक वह पूरा समूह है, जो शारीरिक श्रम से जुड़ा हो, वह चाहे नगर में रहता हो या गांव में। सामूहिकता, सहभागिता, सहयोग और प्रकृति से गहरा लगाव जैसे जीवन मूल्यों पर न केवल गहरा विश्वास रखता हो बल्कि इन मूल्यों को आत्मसात भी करता हो।
आज देखने में आ रहा हैं कि शिक्षा प्राप्त करने के बाद व्यक्ति इस लोक से लगातार दूर होते जा रहा है। शिक्षा, शारीरिक श्रम और उससे जुड़े जीवन से व्यक्ति को अलग करने का काम कर रही है। शिक्षा व्हाइट कॉलर जॉब प्राप्त करने का माध्यम मानी जा रही है। दूसरे शब्दों में, शिक्षा हासिल करने का एकमात्र उद्देश्य ही ऐसी नौकरी प्राप्त करना बन गया है, जिसमें कम से कम शारीरिक श्रम करने की आवश्यकता हो। शिक्षित व्यक्ति खेती, किसानी, बागवानी, पशुपालन, दस्तकारी, कारीगरी जैसे परंपरागत कार्यों को करने में शर्मिंदगी महसूस करने लगे हैं। इतना ही नहीं शारीरिक श्रम करने वालों के प्रति एक हिकारत का भाव उनके भीतर पैदा हो गया है। अपनी जमीन, अपने समाज, अपनी बोली भाषा और प्रकृति से उनका अलगाव बढ़ता जा रहा है। स्थिति यह हो गई है कि देश दुनिया के बारे में तो उनके पास बहुत सारी जानकारियां हैं, लेकिन अपने लोक के बारे में वह बहुत कम या नहीं के बराबर जानते हैं। दुनिया के किस हिस्से में कौन सी वनस्पति पैदा होती है और कौन से जीव जंतु रहते हैं? इसकी तो जानकारी है लेकिन अपने घर के पास उगने वाली घास और आंगन में रोज फुदकने वाली चिड़िया का नाम तक पता नहीं है। ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभावों से तो परिचित है लेकिन अपने आस-पास सूखते जा रहे नौलों धारों, गाड़ गधेरों की कोई सुध नहीं है।
आज की पढ़ाई कक्षा कक्ष पाठ्यपुस्तक और अधिक से अधिक स्कूल की चौहद्दी तक सीमित होकर रह गई है। स्कूल से बाहर के जीवन से बच्चों का कोई संबंध नहीं रह गया है। यहां तक की गृहकार्य, जिसे बच्चों के घर से जुड़ना चाहिए था, वह भी स्कूल की किताबें तक सीमित हो कर रह गया है। बच्चा स्कूल.. घर ..ट्यूशन फिर.. स्कूल के बीच चक्करघिन्नी की तरह घूमता रह गया है। अब तो स्कूल की जगह भी कोचिंग संस्थान लेने लगे है। छोटी कक्षाओं से ही बच्चे कोचिंग संस्थानों में प्रवेश लेने लगे हैं। डमी स्कूल जैसी नई अवधारणा अस्तित्व में आ गई है, जहां बच्चों का केवल नामांकन होता है और स्कूल उन्हें प्रमाण पत्र देता है। परीक्षा में अच्छे अंक प्राप्त करना और उसके लिए सूचनाओं और तथ्यों को रटना बच्चों का लक्ष्य बन गया है। अंकों की दौड़ में बच्चे आज इतने व्यस्त हो गए हैं कि उन्हें लोक जीवन को देखने और उसमें भाग लेने का अवसर भी नहीं मिल रहा है। पहले बच्चे स्कूल से लौट कर खेती किसानी के कामों में अपने मां बाप का हाथ बंटाते थे और गांव के सामूहिक आयोजनों में भाग लेते थे। लोक ज्ञान और लोक संस्कृति वाचिक परंपरा के रूप में एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में हस्तांतरित होती रही थी। ग्रामीण समाज में समय-समय पर होने वाले लोक पर्वों, मेलों, लोक आयोजनों में भागीदारी करते हुए इसे सीखती जाती थी। लेकिन आज यह सब छूटता चला जा रहा है।
स्थिति की भयावता को व्यक्त करने के लिए मैं अपने पहाड़ी समाज का एक उदाहरण यहां पर देना चाहता हूं। एक दौर था जब विवाह योग्य उम्र होने पर माता-पिता अपने पुत्र-पुत्री के लिए जीवनसाथी की तलाश करते थे तो कन्या पक्ष की प्राथमिकता में रहता था कि वर पक्ष की जमीन, जायदाद, पशु धन कितना है और उससे जुड़ा कारोबार कैसा है? वर पक्ष की प्राथमिकता में रहता था कि कृषि और पशुपालन से जुड़े हुए कार्यों का कन्या को कितना अनुभव है? लेकिन इधर बड़ा बदलाव आया है। दोनों पक्ष यह देखते हैं कि लड़का या लड़की कौन सी सरकारी नौकरी करता/करती है या प्राइवेट नौकरी में है तो किस बहुराष्ट्रीय कंपनी में है? स्थिति यहां तक पहुंच गई है कि अब ग्रामीण क्षेत्रों में रहने और शारीरिक श्रम करने वाले लड़के/लड़कियों का विवाह होना तक कठिन होता जा रहा है।
लोक जीवन और शारीरिक श्रम के प्रति इस दृष्टिकोण का प्रभाव बच्चे के सीखने की प्रक्रिया को गहरे तक प्रभावित कर रही है। सूक्ष्म अवलोकन ज्ञान सृजन का पहला चरण माना जाता है । इसके बिना ज्ञान निर्माण की दिशा में आगे नहीं बढ़ा जा सकता है। अन्य दक्षताओं और कौशलों की भांति ही बच्चे में इस दक्षता को भी विकसित करने की आवश्यकता होती है। बच्चा अपनी पांचों ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से अपने आस-पास को जितनी बारीकी से देखता, सुनता महसूस करता है, उसकी सूक्ष्म अवलोकन की दक्षता उतनी ही अधिक मजबूत होती है। मगर लोक जीवन से बढ़ती दूरी के चलते यह दक्षता भी बच्चों के भीतर विकसित नहीं हो पा रही है। फलस्वरुप ज्ञान सृजन तो दूर की बात रही बच्चा अपने आस-पास की चीजों के बारे में जानकारी तक नहीं रख पा रहा है। इसके लिए कहीं ना कहीं हमारी शिक्षण प्रणाली जिम्मेदार है, जो शिक्षा को पाठ्यपुस्तकों और स्कूल की चाहर दिवारी तक ही सीमित रखती है, जिसमें पाठ्यक्रम पूरा करने का मतलब पाठ्यपुस्तक पूरा करना मात्र हो गया है। बच्चों में मोबाइल के बढ़ते प्रचलन ने सूक्ष्म अवलोकन के अवसरों को और अधिक कम कर दिया है।
जब तक स्कूल और लोक जीवन को आपस में नहीं जोड़ा जाएगा, तब तक यह संभव नहीं है। सीखने का जीवनानुभवों से बहुत गहरा संबंध है। प्रत्यक्ष अनुभवों के बिना सीखना नहीं हो सकता है। जीवनानुभव जितना गहरा, सीखना उतना ही मजबूत। एक बच्चे के लिए प्रत्यक्ष अनुभव ग्रहण करने का सबसे सशक्त माध्यम लोक जीवन ही है। बच्चा लोक जीवन के जितने नजदीक रहेगा, उतने अधिक उससे जुड़े प्रत्यक्ष अनुभव अर्जित करेगा। वह दृष्टा के साथ साथ उसका भोक्ता भी बनेगा। उसे करने के अनुभव अधिक प्राप्त होंगे। यह कहा जाता है कि बच्चे को करने के जितने अधिक अवसर मिलते हैं, वह जल्दी सीखता है और उसका सीखना उतना अधिक स्थाई होता है। इसलिए लोक जीवन ज्ञान निर्माण की फैक्ट्री के लिए कच्चे माला की तरह है। बच्चे के भीतर मानवीय संवेदनाओं का विकास और अपनी जड़ों से जुड़ाव लोक जीवन की निकटता से ही पैदा होता है।
लोक जीवन और प्रकृति बच्चे के लिए खुली प्रयोगशाला या वर्कशाप की तरह है, जहां बच्चा न केवल व्यक्तियों, स्थानों, चीजों और घटनाओं का सूक्ष्म अवलोकन करता है, बल्कि सक्रिय रूप से भागीदारी भी करता है। उसे करके सीखने के भरपूर मौके मिलते हैं। आचार, व्यवहार, परंपरा और मूल्यों को पूरे शिक्षा काल में जितना शिक्षण संस्थाओं में नहीं सीखता उससे अधिक लोक जीवन और प्रकृति से सीखता है। बशर्ते उसका लोक से जीवंत संबंध हो।
सब अच्छी बातें हैं किताबों में असल जिंदगी में क्या है? उसका कितना संबंध है? इसका पता लोक जीवन से जुड़कर ही चलता है। उनका प्रयोग भी होता है और परीक्षण भी।
महात्मा गांधी शिक्षा में हाथ, हृदय और मस्तिष्क के समन्वयन की बात करते हैं, लोक जीवन से जुड़ाव होने पर उसको सबसे अच्छी तरह से क्रियान्वित किया जा सकता है।
लोक साहित्य किसी भी समाज की संस्कृति और इतिहास को समझने के लिए एक महत्वपूर्ण पहलू है। इसके बिना समाज की जटिलताओं, उसके विकास क्रम, उसकी विविधता, बहुलता, समानता, अंतर, इसके कारणों, उनमें निहित जीवन मूल्यों, मान्यताओं, विश्वासों को सही तरह से नहीं समझा जा सकता है। यहां तक कि समाज में व्याप्त अंधविश्वाओं और रूढ़ियों के पीछे निहित कारणों को भी लोक साहित्य के माध्यम से ही जाना समझा जा सकता है। यह बात बिल्कुल सही है कि लोक साहित्य में बहुत सारे सामंती, अलोकतांत्रिक और अवैज्ञानिक बातें तथा मूल्य पाए जाते हैं, लेकिन उनके उन्मूलन के लिए काम करने के लिए जरूरी है कि उनके बारे में सही-सही जानकारी हो।
लोक में प्रचलित विश्वासों, मान्यताओं और किस्से कहानियां के बारे में बात करते हुए हम बच्चों को उनकी शुरुआत तक ले जा सकते हैं और उसे उन देशकाल और परिस्थिति से जोड़ सकते हैं, जब वे शुरू हुए, क्योंकि होता क्या है कि जब कोई भी मान्यता जन्म लेती है तो उसके पीछे कुछ ठोस कारण और परिस्थितियां होती हैं। उनके बारे में ज्ञात न होने के कारण अगली पीढ़ी उसे एक रूढ़ि की तरह आगे बढ़ाती जाती है। इसे स्पष्ट करने के उद्देश्य से यहां पर मैं एक रोचक किस्से का उल्लेख करना चाहूंगा, जो बहुत पहले मैंने गांव के एक बुजुर्ग से सुना था। किस्सा कुछ इस तरह से है
किसी गांव में एक व्यक्ति अपने पिता का श्राद्ध कर रहा था। श्राद्ध के लिए विभिन्न तरह के पकवान परोसे गए थे। एक बिल्ली आ कर बार-बार पकवानों पर मुंह मार रही थी। बार-बार भगाने के बाद फिर वह लौट कर आ जाए। श्राद्ध कर्म में बाधा उत्पन्न हो रही थी। परेशान हो कर अन्ततः उस व्यक्ति ने बिल्ली को पकड़ा और सामने रखी एक टोकरी से बिल्ली को ढक दिया। आने वाले वर्षों में विघ्न की आशंका से श्राद्ध प्रारंभ होने से पहले ही बिल्ली को टोकरी से ढक दिया जाने लगा। यह क्रम चला रहा। उस व्यक्ति के संतानों ने अपने पिता को ऐसा करते हुए देखा। हुआ यूं कि जब पिता नहीं रहे। उनका श्राद्ध किया गया। उस दिन श्राद्ध के कर्मकांड का हिस्सा मान कर एक बिल्ली को कहीं से ला कर टोकरी से ढका गया। यह परंपरा पूरे गांव में पीढ़ी दर पीढ़ी प्रचलित हो गई। इस किस्से के बहाने हम समझ सकते हैं कि बिल्ली को ढकने की घटना एक खास परिस्थिति के चलते शुरू होती है, लेकिन लंबे समय तक चलते रहने के बाद वही एक रूढ़ि में बदल जाती है।
इस किस्से से यह बात समझ में आती है कि किसी परंपरा, प्रथा, मान्यता के शुरू होने के पीछे कोई एक खास कारण, तर्क, परिस्थिति होती है, लेकिन कालांतर में वह कारण या परिस्थिति तो नहीं रहती है, फिर भी लोग उसे संस्कृति का हिस्सा मान कर आगे ढोते चले जाते हैं। इस दृष्टि से लोक कथाओं, लोक गीतों, लोक परंपराओं, लोक ज्ञान के बारे में जानना बहुत उपयोगी साबित होता है।
लोक कथाओं, लोकगीतों और किस्सों के बहाने हम बच्चों को उनके बारे में सोचने और उसके पीछे के तर्क को ढूंढने के लिए प्रेरित कर सकते हैं। यह समझ विकसित कर सकते हैं कि किसी भी परंपरा, रीति रिवाज, प्रथा को मानने से पहले उसके बारे में हमें जानना चाहिए और यदि वर्तमान परिस्थितियों में वह परंपरा तर्कपूर्ण लगती हो साथ ही आज भी उसी तरह की परिस्थितियां हो तो निःसंदेह हमें उसे अपनाना चाहिए। इनके माध्यम से बच्चे ज्ञान परंपरा के विकास क्रम को समझ सकते हैं। उनके समझ में आता है कि कोई भी ज्ञान एक दिन में नहीं निर्मित होता है। न ही किसी एक व्यक्ति के परिश्रम का परिणाम होता है। बहुत सारे लोग उसके पीछे होते हैं।
ज्ञान और सभ्यता के विकास क्रम को समझने के लिए लोककथाएं, लोकगीत, लोकोक्तियां, मुहावरे, मिथक जैसा लोक साहित्य एक जरूरी संदर्भ सामग्री होती है। ज्ञान के आधुनिक अनुशासन आज जिस बिंदु पर खड़े हैं, वहां तक पहुंचने में लोक साहित्य की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। इसे जाने समझे बिना हम आगे की यात्रा नहीं कर सकते हैं। यह उन पगडंडियों की तरह हैं, जो हमें ज्ञान के राजमार्ग तक पहुंचाने में सहायक हैं। लोक जीवन से जुड़ाव एक तरह से इन पगडंडियों से गुजरना ही है। यह बात सही है कि इन पगडंडियों में बहुत सारा झाड़ झंखाड़ है और संकरापन है जिसे साफ करने की जरूरत है। इसके लिए हंस के नीर क्षीर विवेक की आवश्यकता है। इसे ही आलोचनात्मक चिंतन कहा जाता है।
श्रम और प्रकृति से संबद्ध लोग ही इस थाती को संभाले हुए हैं। यह सब जानना, समझना लोक जीवन से जुड़ कर ही संभव है। अपने लोक के इतिहास और संस्कृति को समझ कर ही राज्य और देश के इतिहास संस्कृति को बच्चे बेहतर तरीके समझ सकते हैं।
यहां एक बात और जोड़ना चाहूंगा कि लोक जीवन हो या अभिजात्य जीवन, प्रत्येक के दो पक्ष होते हैं .. पहला, भौतिक पक्ष, जिसे हम अपनी विभिन्न ज्ञानेंद्रियों से ग्रहण करते हैं और दूसरा, मूल्य पक्ष, जिसे हम आत्मसात करते हुए अपनी मानसिकता का निर्माण करते हैं। लोक का यह दूसरा पक्ष अधिक महत्वपूर्ण है, जिसे हमें अपनी शिक्षा का हिस्सा बनाना चाहिए।
लोक की सबसे बड़ी शक्ति उसकी सामूहिकता, सहभागिता, सादगी, स्वाभाविकता, प्रकृति से जुड़ाव और कठिन परिस्थितियों से संघर्ष की जीवटता है। मेरी नजर में ये लोक में निहित सबसे बड़े मानवीय मूल्य हैं, जिन्हें नई पीढ़ी तक अवश्य पहुंचाया जाना चाहिए।
यह करते हुए इस बात का ध्यान जरूर रखना चाहिए कि शिक्षा को लोक जीवन के करीब ले जाने के कुछ खतरे भी हैं। लोक नई पीढ़ी को भीड़ में बदलने में भी देर नहीं लगाता है। उसके भीतर उत्सवधर्मिता हावी हो जाती है। लोक समूह का हिस्सा बने रहने और अपनी संस्कृति अपनी पहचान को बनाए रखने के चलते बहुत बार नई पीढ़ी ऐसी मान्यताओं और परंपराओं को मानने और उनमें शामिल होने के लिए विवश होती है, जो अलोकतांत्रिक और अवैज्ञानिक हैं। लोक साहित्य में बहुत अधिक कपोलकल्पित, विज्ञान के सिद्धांतों के विरुद्ध और अतार्किक बातें होती हैं, जिन पर आज के वैज्ञानिक युग में विश्वास करना न केवल हास्यास्पद है, बल्कि बच्चों में अवैज्ञानिक सोच को पोषित करना भी है। साथ ही यह भी ध्यान रखना जरुरी कि दुनिया वैश्विक गांव में बदल चुकी है,इसलिए शिक्षा में वैश्विक ज्ञान को उचित महत्व दिया जाय। दूसरी ओर जीवन की विविधता को बचाने के लिए शिक्षा को लोक जीवन से जोड़ा जाय। ये अंतर्विरोधी स्थितियां हैं। दोनों के बीच संतुलन का बिंदु ढूंढना भी बहुत जरूरी है।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
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जिला. पिथौरागढ़
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