सज्जाद ज़हीर का आलेख 'सभापति मुन्शी जी'
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सज्जाद ज़हीर |
1936 में प्रगतिशील लेखक संघ का पहला अधिवेशन लखनऊ में हुआ था। इसकी तैयारियों की ज़िम्मेदारी सज्जाद ज़हीर के ऊपर थी। तब ज़हीर के लिए लखनऊ एक अपरिचित सा शहर था। लेकिन उन्होंने चुनौतियों को स्वीकार करते हुए इस सम्मेलन की न केवल तैयारियां की बल्कि इसे सफलतापूर्वक आयोजित भी कराया। इस अधिवेशन के अध्यक्षता की जिम्मेदारी मुंशी प्रेमचंद को सौंपी गई। उन्होंने स्वयं को इस अध्यक्षता के लिए कमतर बताते हुए कुछ महत्त्वपूर्ण नाम सुझाए। अन्ततः थोड़े ना नुकुर के पश्चात प्रेमचंद ने अध्यक्षता की जिम्मेदारी स्वीकार कर ली और निहायत सादगी भरे तरीके से सज्जाद का घर खोजते हुए पहुँच गए। उपेन्द्र नाथ अश्क के प्रधान संपादकत्व में निकले 'संकेत' के महत्त्वपूर्ण अंक में सज्जाद ज़हीर ने एक आलेख में इन तैयारियों के बारे में सिलसिलेवार लिखा है। अश्क जी ने इस अंक के संपादन की जिम्मेदारी मार्कण्डेय और कमलेश्वर को सौंपी थी। यह अंक 1956 में प्रकाशित हुआ और इसे सम्पादन कला की एक मिसाल कहा जा सकता है। यह अंक हमें यह शेखर जोशी के खजाने से मिला है। इस अंक से ही इस महत्त्वपूर्ण आलेख को हमें उपलब्ध कराया है प्रतुल जोशी ने। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सज्जाद ज़हीर का आलेख 'सभापति मुन्शी जी'।
'सभापति मुन्शी जी'
सैयद सज्जाद ज़हीर
अप्रैल 1936 में कांग्रेस का वार्षिक अधिवेशन होने वाला था, जिसके प्रधान जवाहर लाल नेहरू चुने गये थे। प्रगतिशील लेखक संघ का घोषणापत्र इसी बीच में छप चुका था और दो अढ़ाई महीने तक भारत के विभिन्न नगरों में संघ की सरगर्मियों के कारण बुद्धिजीवियों के एक बड़े हलके में प्रगतिशील आन्दोलन से लगाव और दिलचस्पी बढ़ने लगी थी। हम सब की राय हुई कि कांग्रेस अधिवेशन के दिनों ही में हमारा सम्मेलन भी लखनऊ में हो। और उसके सभापति मुन्शी प्रेमचन्द बनें।
प्रेमचन्द उन दिनों बनारस में रहते थे। प्रगतिशील लेखक संघ का अस्थायी केन्द्र इलाहाबाद में था और मैं उसके अस्थायी मंत्री की हैसियत से काम कर रहा था। प्रगतिशील लेखक संघ के संगठन और दूसरी समस्याओं के बारे में उनसे बराबर पत्र-व्यवहार होता रहता था। प्रगतिशील-आन्दोलन में भी उनकी दिलचस्पी दिनों-दिन बढ़ रही थी। वे बड़े व्यस्त थे। हाल यह था कि हिन्दी या उर्दू की कोई भी साहित्यिक सभा या सम्मेलन देश के किसी हिस्से में भी हो, मुन्शी प्रेमचन्द को उनका सभापति बनाने के लिए सभी लोग दौड़ते थे। प्रेमचन्द क्योंकि बड़े भले, मिलनसार और विनम्र स्वभाव के थे, इसलिए उनके सम्बन्ध में बहुत लोगों को यह भ्रम रहता था कि उनकी ख्याति और साहित्य में उनकी साख की आड़ ले कर वे अपने टेढ़े-मेढ़े उद्देश्य सिद्ध कर सकते हैं। मुन्शी जी की व्यापक सहानुभूति और इंसानों की नेकनीयती पर उनका भरोसा उन्हें विभिन्न प्रकार और मत के लोगों से मिलने-जुलने और उनके आन्दोलनों और उद्देश्यों में भाग लेने को तैयार कर देता था, लेकिन असाधारण बुद्धि, स्वच्छन्द प्रकृति, स्वतन्त्रता-प्रेम, इंसान-दोस्ती की तरफ़ उनका झुकाव और सच्चाई की खोज सदैव खोटे और खरे की परख में उन्हें सहारा देती थी। इसी कारण उनके साहित्य में सीधे सच्चाई तक पहुंचने और मानवों के परस्पर सम्बन्धों और सामाजिक परिवर्तनों और आन्दोलनों की आन्तरिक प्रक्रिया का अन्वेषण करने का एक निरन्तर प्रयास पाया जाता। जब वे सुधारवादी-गांधीवादी दर्शन को स्वीकार करते हैं तो उस दृष्टिकोण को खाह-म-खाह सच्चा साचित करने के लिए वे सामाजिक यथार्थ पर पर्दा नहीं डालते। और जब आखिर में सामाजिक यथार्थ का अन्वेषण उन्हें एक हद तक सुधारवादी दर्शन की त्रुटियाँ समझने में मदद देता है तो इस बात के बावजूद कि उनकी पहले की धारणाएँ रद्द होती है, वे ऐसे परिणामों की ओर कदम बढ़ाने से नहीं हिचकचाते, जिन पर पहुँचने का तगादा सत्य का अन्वेषण उनसे करता है।
जब मैंने प्रेमचन्द को लखनऊ कान्फ्रेंस के सभापतित्व के लिए लिखा तो उन्होंने विवशता प्रकट की-
"सभापतित्व की बात, मैं इसके योग्य नहीं। विनम्रतावश नहीं कहता, मैं अपने में कमजोरी पाता हूँ। मिस्टर कन्हैया लाल मुन्शी मुझसे बेहतर होंगे। या डाक्टर ज़ाकिर हुसैन। पंडित जवाहर लाल नेहरू तो बड़े व्यस्त होंगे, नहीं वे एकदम उपयुक्त होते। इस अवसर पर सभी राजनीति के नशे में चूर होंगे, साहित्य से शायद ही किसी को दिलचस्पी हो, लेकिन हमें कुछ-न-कुछ तो करना है। यदि जवाहर-लाल ने दिलचस्पी ली तो अधिवेशन सफल हो जायगा ।
मेरे पास इस वक्त भी सभापतित्व के लिए दो जगह के निमंत्रण पड़े हैं- एक लाहौर के हिन्दी सम्मेलन का, दूसरा हैदराबाद दक्षिण की हिन्दी प्रचार सभा का। मैं इनकार कर रहा हूँ, पर वे लोग इसरार (अनुरोध) कर रहे है। कहाँ-कहाँ प्रीज़ाइड (Preside) करूँ। हमारी संस्था में कोई बाहर का आदमी सभापति बने तो ज़्यादा अच्छा हो। मजबूरी दर्जा मैं तो हूं ही। कुछ रो-गा लूँगा।
और क्या लिखूं? तुम जरा पंडित अमर नाथ झा को तो आज़माओ। उन्हें उर्दू साहित्य से दिलचस्पी है और शायद वे सभापति होना स्वीकार कर लें"
(पत्र उर्दू में है और इस पर १५ मार्च १९३६ की तारीख है।)
लेकिन दो-एक खतों के बाद आखिर प्रेमचन्द ने हमारी प्रार्थना स्वीकार कर ली और मुझे लिखा-
"यदि हमारे लिए कोई योग्य सभापति नहीं मिलता तो मुझी को रख लीजिए। मुश्किल यही है कि मुझे पूरे-का-पूरा भाषण लिखना पड़ेगा... मेरे भाषण में आप किन समस्याओं पर बहस चाहते हैं, इसका कुछ इशारा कर दीजिए। मैं तो डरता हूँ, मेरा भाषण ज़रूरत से ज़्यादा निराशाप्रद न हो। आज ही लिख दो ताकि वर्धा जाने से पहले उसे तैयार कर लूँ।
(19 मार्च 1936)
सभापति का फैसला हुआ तो फिर हम दूसरे कामों में लगे। सवाल यह था कि कान्फ्रेंस में क्या होगा-एड्रस, भाषण, प्रस्ताव या कुछ और भी? कुछ ऐसा लगता था कि यह काफ़ी नहीं। साहित्य सम्मेलन में साहित्यिक विषयों पर भी विचार-विनिमय और वाद-विवाद होने चाहिएँ और फिर हमारे विशाल देश में चौदह-पन्द्रह बड़ी-बड़ी भाषाएँ जिनमें से हरेक को लाखों-करोड़ों आदमी बोलते हैं और इनमें मूल्यवान साहित्य है। कुल हिन्द कान्फ्रेंस में इन तमाम या इनमें से अधिकांश भाषाओं के आधुनिक साहित्य और साहित्यिक समस्याओं पर लेख पढ़े जाने चाहिए। यदि हमारे सम्मेलन द्वारा देश की विभिन्न भाषाओं के साहित्यिकों का एक दूसरे के साहित्य से थोड़ा बहुत परिचय भी हो जाय और यदि हम जान लें कि देश की बड़ी-बड़ी भाषाओं में इस समय कौन सी समस्याएँ सोच का विषय बनी हैं और साहित्यिक धाराओं का रुख किघर को है तो इस सम्मेलन के द्वारा एक बड़े उपादेय और लाभदायक काम का सूत्रपात हो जायगा और हमारे प्रगतिशील आन्दोलन को सामूहिक ढंग से लाभ पहुँचेगा।
दूसरा काम संस्था के विधान का खाका तैयार करना था, जिससे अखिल भारतीय-केन्द्रीय व्यवस्था कायम हो सके। और क्षेत्रीय और स्थानीय शाखाओं के आपसी सम्बन्धों और संघ की सदस्यता के नियमों का निश्चय हो सके और संथा की केन्द्रीय, क्षेत्रीय और स्थानीय शाखाएँ नियमपूर्वक डेमोक्रेटिक ढंग से अपना काम चालू कर सकें।
फिर हमारे सामने दो सवाल और थे। जो राजनीतिक थे। पहले तो यह कि हमारे देश में अँग्रेज़ी साम्राज्य ने बोलने, लिखने और विचारने की स्वतन्त्रता के डेमोक्रेटिक अधिकार पर पाबन्दियाँ लगा रखी थीं। इन बंधनों का देश-भक्त साहित्यिकों पर सीधा असर पढ़ता था । प्रगतिशील पत्र-पत्रिकाएँ और पुस्तकें सदा सरकार के कोप का भाजन बनती रहती थीं। साहित्यिकों की सहायता और उनका प्रोत्साहन तो दूर रहा, किसी स्वतन्त्र देश के साहित्यिकों को जो सुविधाएँ मिलनी चाहिए उनका हमारे यहाँ स्वप्न तक देखना मुश्किल था।
इन्हीं सब कारणों से साहित्यिकों का ऐक्षा संगठन ज़रूरी था, जो उनके अधिकारों की रक्षा करे।
दूसरा सवाल यह था कि उस जमाने में अंतर्राष्ट्रीय वातावरण बड़ी तेजी से गदला हो रहा था। जर्मन और इतालवी फासीज्म दुनिया को दूसरे महायुद्ध की और खींचे लिये जा रहा था। इटली ने शांत अबीसिनिया पर आक्रमण करके, उस पर अधिकार कर लिया था और लीग-आफ-नेशन्ज़ उसे रोक न सकी थी। उधर जापानी साम्राज्य ने चीन पर आक्रमण करके उसके उत्तरी इलाकों को हड़प लिया था और चीन में युद्ध जारी था।
राष्ट्रों की आज़ादी की इस बेदर्दी से हत्या, जन-तन्त्र का खून, अंतर्राष्ट्रीय युद्ध-जिसका उद्देश्य यह हो कि सारी मानवता को रक्त-रंजित, धूल-धूसरित करके चन्द साम्राज्य सारी दुनिया को आपस में बाँट लें - सभ्यता और संस्कृति के लिए महान संकट उपस्थित करते हैं और कोई सच्चा साहित्यिक, जिसे अपनी कला और मानवता से लगाव हो, इस वास्तविकता से आँखें नहीं चुरा सकता। हमारे लिए यह ज़रूरी था, ऐसी कोशिश करें कि देश के समस्त कलाकार अपने साहित्यिक, राजनीतिक विचारों और दृष्टिकोणों की विभिन्नता के बावजूद राष्ट्रीय स्वन्त्रता, डेमोक्रेसी, साम्राज्य-विरोध और अंतर्राष्ट्रीय शांति के पक्षधरों की पंक्ति में खड़े हों।
जब कान्फ्रेंस के शुरू होने में कोई आठ-दस दिन रह गये तो केन्द्रीय कार्यालय, याने मैं तीन-चार फ़ाइलों समेत लखनऊ आ गया।
उस समय लखनऊ में 'प्रगतिशील लेखक संघ' की कोई स्थानीय शाखा नहीं थी और स्थानीय लोगों में हमारे निजी मित्रों, रिश्तेदारों या विश्व विद्यालय के दो-तीन छात्रों के अतिरिक्त हमारा कोई सहायक न था। स्थिति यह थी कि हमारे पास खर्च के लिए सौ-सवा-सौ रुपयों से ज़्यादा न थे। न स्वयंसेवक थे, न चपरासी, न क्लर्क और न अधिवेशन करने के लिए कोई हाल ।
मैं जब लखनऊ पहुँचा तो दो एक दिन के अन्दर अमृतसर से डा० रशीद जहाँ और महमुदुज़्ज़फ़र भी आ गये। हम सब वजीर मंजिल में टिके थे। मेरे पिता का यह मकान उन दिनों सजा-सजाया, पर अधिकांशतः खाली पड़ा रहता था। वे स्वयं इलाहाबाद में रहने लगे थे। इस काफ़ी बड़े मकान के एक हिस्से में बड़े भाई डाक्टर सैयद हुसैन ज़हीर रहते थे। दो तिहाई हिस्सा खाली था। डाक्टर जहीर पेशे से वैज्ञानिक है, पर उनका स्वभाव है कि हर उस काम या आन्दोलन में जिसे वे अच्छा या लाभप्रद समझते है, बेधड़क, खुले दिल से सहायता करने को तैयार हो जाते हैं। मैं तो खैर उनका छोटा भाई था, लेकिन मेरे सारे मित्र और प्रगतिशील सम्मेलन के कार्यकर्ता धीरे-धीरे आ कर वज़ीर मंजिल में टिकते गये और सब उनके अतिथि हो गये। डाक्टर जहीर और उनकी अच्छी बेगम को इस पर आपत्ति न थी कि हम सब मान न मान उनके मेहमान हो गये हैं और उन्हें परेशान कर रहे हैं, वे मुझे और मेरे दोस्तों को इस बात पर डाँटते रहते कि हम खाना समय पर नहीं खाते, पहले से यह नहीं बताते कि एक वक्त में कितने आदमी खाना खायेंगे। कभी खाना बच जाता और कभी कम पड़ जाता है।
महमूदुज़्ज़फ़र के आ जाने से अपने आप हमारे काम में नियमितता आ गयी और यद्यपि मैं संघ का अस्थायी जनरल सेक्रेटरी था, वे स्वभावतः उसके जनरल मैनेजर हो गये। उन्होंने सब काग़ज़ों को अलग-अलग फ़ाइलों में बाँटा। जितने काम थे, उनका सम्पादन करके, कार्यक्रम को निर्धारित किया। कार्यकर्ताओं को प्रतिदिन काम बाँटने और शाम को उनके काम की रिपोर्ट लेने लगे और जैसा कि वे हमेशा करते हैं अपने जिम्मे सब से ज़्यादा काम ले लिया और उसे यथा-समय पूरा किया ।
लखनऊ में तीन-चार हाल हैं, जहाँ साधारणतः कान्फ्रेंसें होती है...।
सौभाग्य से वकीलों में कुछेक प्रगतिशील भी थे। पंडित आनन्द नारायण मुल्ला, हालांकि प्रगतिशील दृष्टिकोण के पूरे हामी नहीं, पर वे अच्छे कवि, देशभक्त और साहित्यिकों की सहायता करने वाले व्यक्तियों में से थे। उनकी और कुछ दूसरे लोगों की कोशिशों से 'रफ़ाए-आम हाल' हमें मुफ्त मिल गया और हमारी सब से बड़ी परेशानी दूर हो गयी ।
उधर से निबटे तो सम्मेलन के लिए स्वागत-समिति बनायी कि और कुछ नहीं तो उसके नाम पर सौ-पचास टिकट बेच कर कुछ चन्दा इकट्ठा किया जा सके। स्वागताध्यक्ष के लिए चौधरी मुहम्मद अली साहब रदोलवी को मनाया गया। उन्होंने पहला काम यह किया कि बड़ी क्षमा याचना करते हुए चुपके से सौ रुपया चन्दा हमें दे दिया। उन्हें इस बात की शरमिंदगी थी कि रकम बहुत कम थी, लेकिन उन्हें मालूम न था कि हमें कान्फ्रेंस के लिए किसी व्यक्ति से एक मुश्त दस रुपये से ज़्यादा चन्दा न मिला था। हमने सम्मेलन के लिए हाल भरने को दो-तीन सौ कुर्सियाँ किराये पर तो ले लीं, लेकिन अच यह चिन्ता हुई कि हाल भरेगा भी या नहीं? देश के विभिन्न प्रान्तों से जिन प्रतिनिधियों के आने की सूचना मिली थी, उनकी संख्या मुश्किल से तीस-चालीस रही होगी-दो बंगाल से, तीन पंजाब से, एक मद्रास से, दो गुजरात से, छै महाराष्ट्र से और शायद बीस-पच्चीस उत्तर प्रदेश के विभिन्न शहरों से!
लखनऊ में उस समय तक हमारा आन्दोलन आरम्भ ही न हुआ था। इलाहाबाद में तो फ़िराक, एजाज हुसैन, अहमद अली आदि यूनिवर्सिटी में पढ़ाते थे और उनके काफ़ी छात्र हमारी सभाओं में आते थे। लखनऊ यूनीवर्सिटी में उस समय तक हमारा कोई भी साथी न था। इस बात से हमारी उस समय की विवशता और कमज़ोरी साफ प्रकट होगी कि लखनऊ जैसे साहित्यिक नगर में, हमारी कान्फ्रेंस में दिलचस्पी लेने वाले गिनती के होंगे। हमें इस बात का एहसास था कि इस स्थिति का कारण लखनऊ वालों की अरसिकता अथवा अगतिशीलता नहीं थी, बल्कि यह था कि उन्हें हमारे आन्दोलन और उसके उद्देश्यों की कोई खबर ही न थी और न हमीं ने इस सम्बन्ध में किसी तरह का जोरदार प्रचार किया था। चन्द दिनों में चन्द आदमी इस कमी को पूरा भी कैसे करते? तो भी हम ने हार नहीं मानी।
विश्वविद्यालय में कुछ छात्रों के ज़रिये हमने सम्मेलन की विज्ञप्ति बँटवायी। जब सम्मेलन से दो दिन पहले बड़े पोस्टर छप कर आ गये तो महमूदुज़्ज़फ़र अपने चन्द साथियों को ले कर शहर के खास-ख़ास हिस्सों, नुक्कड़ों और चौराहों पर रात भर उन्हें चिपकाते फिरे। रशीद जहाँ चन्द साल पहले लखनऊ में डाक्टरी की प्रेक्टिस कर चुकी थीं और बहुतों से वाकिफ़ थीं, उन्होंने घूम-घूम कर स्वागत-समिति के तीन-तीन रुपये के टिकट बेचने शुरू कर दिये। इनके अतिरिक्त कांग्रेस अधिवेशन में शामिल होने के लिए हज़ारों आदमी लखनऊ आने लगे थे। इनमें सोशलिस्ट नेता और कम्यूनिस्ट कार्यकर्ता भी थे, जो प्रायः साहित्यिक तो न थे, पर प्रगतिशील साहित्य के इस आन्दोलन के समर्थक जरूर थे। आचार्य नरेन्द्र देव, जयप्रकाश नारायण, कमला देवी चट्टोपाध्याय, मियां इफ्तखारुद्दीन और सरोजिनी नाइडो ने हमारी कान्फ्रेंस में शामिल होने का वचन दिया।
ज्यों-ज्यों कान्फ्रेंस का दिन निकट आता, हमारी घबराहट बढ़ती जाती। रुपयों की कमी के कारण हम अपने प्रतिनिधियों को ठहराने और उनके खाने पीने का प्रबन्ध भी न कर सकते थे। कुछ को हमने अपने मित्रों और रिश्तेदारों के यहाँ ठहराने की व्यवस्था की थी। बहुत से कांग्रेस के कैम्प में जा कर टिक गये थे, जहाँ एक झोपड़ी चन्द रुपयों में किराये पर मिल जाती थी और खाना सस्ता था। कुछ यूनिवर्सिटी के हॉस्टल के खाली कमरों में ठहरे। यह प्रबन्ध हमारे लिए बड़ी परेशानी का कारण था, इसलिए कि कान्फ्रेंस हाल और मेरे घर से, जहाँ कान्फ्रेंस का अस्थायी दफ्तर था, ये सब जगहें कई-कई मील के अंतर पर थीं। लेकिन मजबूरी थी, हमने अपने मेहमानों को अपनी हालत बता दी थी कि हम लखनऊ में उनके ठहरने का प्रबन्ध सुचारु रूप से नहीं कर सकते।
बाहर से आने वाले लोगों का स्वागत रेलवे स्टेशन पर करना भी हमारे बस का नहीं था। तीन-चार आदमी आख़िर क्या करते? तो भी अपनी कान्फ्रेंस के प्रधान मुन्शी प्रेमचन्द को स्टेशन से लेने के लिए जाने का फैसला हम ने किया था। महमूद किसी और काम में लगे हुए थे, इसलिए रशीदा और मैंने तय किया कि हम दोनों स्टेशन पर जायेंगे। कहीं से थोड़ी देर के लिए हमने एक कार भी माँग ली थी।
सुबह का समय था। गाड़ी नौ बजे के लगभग आने को थी। हमने सोचा कि साढ़े आठ बजे घर से रवाना होंगे। हम आठ बजे के करीब बैठे चाय पी रहे थे कि घर में एक ताँगे के दाखिल होने की आवाज़ आयी और साथ ही साथ एक नौकर ने आ कर मुझे इत्तला दी कि बाहर कोई साहब मुझे बुला रहे हैं! मैं बाहर निकला तो देखा कि प्रेमचन्द जी और उनके साथ एक और साहब हमारे मकान के बरामदे में खड़े हैं। मैं शर्म और हैरत के मिले-जुले भावों से अवाक खड़ा रह गया। लेकिन इस से पूर्व कि मैं कुछ कहूँ प्रेमचन्द जी हँसते हुए बोले :
"भाई तुम्हारा घर बड़ी मुश्किल से मिला।
बड़ी देर से इधर उधर चक्कर लगा रहे हैं।"
इतने में रशीदा भी बाहर निकल आयीं और हम दोनों अपनी सफाई देने लगे। पता चला कि हमें ट्रेन के समय की सूचना ग़लत मिली थी। उसके आने का समय एक घंटा पहले का था। पहली अप्रेल से वक्त बदल गया। लेकिन अब उलटे प्रेमचन्द जी अपनी सफ़ाई देने लगे :
"हाँ मुझे चाहिए था कि चलने से पहले तुम लोगों को तार भेज देता लेकिन मैंने सोचा, क्या जरूरत है अगर स्टेशन पर कोई न मिला तो ताँगा ले कर सीधा तुम्हारे घर चला आऊँगा......"
और मैं दिल में सोच रहा था कि सम्मेलनों के सभापतियों का बड़ा शानदार स्वागत किया जाता है। उन्हें प्लेटफार्म पर हार पहिनाये जाते हैं। उनके जुलूस निकलते हैं और उनकी 'जय जयकार' होती है और एक हमारे सभापति मुन्शी प्रेमचन्द हैं कि स्वयं अपनी जेब से रेल का टिकट खरीद कर चुपके से आ गये हैं, स्टेशन पर स्वागत करने वाला तो क्या, राह बताने वाला भी उन्हें कोई नहीं मिला। एक साधारण से ताँगे पर बैठ कर स्वयं ही बड़ी बेतकल्लुफ़ी से सम्मेलन के व्यवस्थापकों के घर चले आये हैं। उनकी शिकायत करना तो क्या उनके माथे पर एक बल नहीं पड़ा और उन से यों घुल-मिल गये हैं, जिससे लगता है कि इन रस्मी बातों पर समय नष्ट करना उनके निकट नितान्त अनावश्यक है। निश्चय ही हमारा आन्दोलन एक नये किस्म का आन्दोलन था और हमारा सभापति नये किस्म का सभापति, जिसकी शान उसकी विनम्र सादगी से प्रकट होती थी।
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