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सेवाराम त्रिपाठी का आलेख 'पारिवारिकता के साथ समय के स्पंदन'

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  सेवाराम त्रिपाठी मनुष्य द्वारा आविष्कृत संस्थाओं में परिवार का अपना विशिष्ट महत्त्व है। इसने मनुष्य में न केवल मानवीय भावनाओं और संवेदनाओं का विकास किया अपितु उसे वह स्पेस प्रदान किया जिससे वह समूची मानवता की भलाई के लिए कुछ सोच समझ सके और कर सके। वैसे तो सामान्य तौर पर परिवार में प्रेम ही प्रमुख होता है परन्तु कभी कभी मनो मालिन्य भी पैदा हो जाता है। बावजूद इसके व्यक्ति परिवार में ही सब कुछ खोजने की कोशिश करता है। एक जमाना था जब परिवार का मतलब मां पिता के दादा दादी, चाचा चाची, भाई बहन भी हुआ करते थे। तब नाना नानी, मामा मामी, मौसी मौसा, बुआ फूफा आदि भी परिवार के विस्तृत अंग हुआ करते थे। लेकिन पूंजीवाद और उपभोक्तावाद के जंजाल ने परिवार के इस बने बनाए ढांचे को तोड़ कर रख दिया है। अब घर में होते हुए भी हम परिवार से दूर हैं। घर में होते हुए भी सोशल मीडिया के माध्यम से बातें करते हैं। सब कुछ के लिए समय है लेकिन आपस में मिल बैठ कर बात करने के लिए समय नहीं है। आलोचक सेवा राम त्रिपाठी ने इस पारिवारिकता पर एक महत्त्वपूर्ण आलेख लिखा है जिसे आवश्यक तौर पर पढ़ा जाना चाहिए। कल सेवाराम जी का जन्मदि

सूरज पालीवाल का संस्मरण 'ज्ञानरंजन होने के मायने'

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  ज्ञानरंजन हिन्दी साहित्य में कुछ ही ऐसे व्यक्तित्व हैं जो अपने स्पष्ट विचारों के लिए जाने जाते हैं। ज्ञानरंजन ने लेखन से कभी समझौता नहीं किया। कम लिख कर भी हिन्दी कहानी की दुनिया में उन्होंने अपना समादृत स्थान बनाया है। यह स्थान उन्होंने खुद अपने दम पर हासिल किया। प्रख्यात रचनाकार श्री रामनाथ सुमन जी के पुत्र होने के बावजूद उन्होंने लेखकीय संघर्ष किया और अपनी दुनिया खुद बनाई। उन्होंने देश की बेहतरीन हिन्दी पत्रिका पहल का सम्पादन किया जिसमें छपना हर छोटे बड़े लेखक का सपना हुआ करता था। यही नहीं उन्होंने हर जेनुइन लेखक को प्रोत्साहित करने का काम भी किया। उनका कद आज भी  ऊंचा है। किन्तु परन्तु का सामना उन्हें भी करना पड़ा फिर भी यह कहा जा सकता है कि वे हिन्दी साहित्य के निर्विवाद लेखक हैं। कथाकार योगेंद्र आहूजा तो ज्ञान जी को ‘हिंदी कहानी का आखिरी उस्ताद’ घोषित करने से नहीं चूकते हैं।’ आलोचक सूरज पालीवाल ने ज्ञान जी के विविध पक्षों को उजागर करते हुए एक बेजोड़ संस्मरण लिखा है। यह आलेख धरती के हालिया अंक में प्रकाशित हुआ है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सूरज पालीवाल का संस्मरण 'ज्

मोहन लाल यादव की कविताएं

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  मोहन लाल यादव इस दुनिया की अपनी एक बेहद खूबसूरत कुदरती संरचना है। इस संरचना में तमाम तरह के जीव और वनस्पतियां हैं। इसमें से तमाम जीव और वनस्पतियां ऐसे भी हैं जो उपेक्षित दिखते हैं। लेकिन यह उनका स्वयं का चुनाव है। मदार ऐसा ही पौधा है जो अक्सर सड़कों के किनारे या झाड़ झंखाड़ की शक्ल में उगता है। लेकिन फूलों की बिरादरी से भी उपेक्षित ही रहता आया है। फिर भी उसने हार कहां मानी है। वह फूलता रहता है। फलता रहता है। हरा भरा बना रहता है। कवि मोहन लाल यादव की नजरें इस मदार को सर्वहारा और मजदूरों की हुंकार से जोड़ते हैं जिनकी बदौलत यह दुनिया आज इतनी खूबसूरत दिखाई पड़ती है। मोहन लाल यादव कवि कहानीकार हैं। प्रकाशन यानी छपने की मोह माया से काफी दूर अपनी रचनाधर्मिता में लगे हुए हैं। हमारे अनुरोध पर मोहन जी ने अपनी इधर की लिखी कुछ कविताएं भेजी हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं मोहन लाल यादव की कविताएं। मोहन लाल यादव की कविताएं              दुरपतिया                                                गोधूलि बेला में कौवों की कांव कांव  होती थी ठांव ठांव बगुले भी पंक्तिबद्ध उड़े चले जाते थे चिड़ियों के