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शैलेन्द्र चौहान के कविता संग्रह की रामदुलारी शर्मा द्वारा की गई समीक्षा 'आत्ममुग्धता से दूर : सीने में फांस की तरह'

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  शैलेन्द्र चौहान का व्यक्तित्व बहुआयामी है। कवि, आलोचक, सम्पादक की भूमिका में वे ख्यात हैं।  शैलेन्द्र जी जनता के पक्ष में खड़े रहने वाले कवि हैं। उनकी प्रतिबद्धता उस जनता के लिए है जो अक्सर राजनीतिज्ञों और सत्ताधारियों के बहकावे में आ जाती है। लोकतन्त्र के लिए जनता का सचेत और जागरूक रहना आवश्यक होता है। हमारे नेता चुनाव के वक्त जनता को तमाम तरह के लोभ लालच में फांसने का प्रयत्न करते हैं और प्रायः सफल भी रहते हैं। इसीलिए हमारा लोकतन्त्र उन सपनों को पूरा नहीं कर सका जो हमारे स्वतन्त्रता संग्राम सेनानियों ने आजादी की लड़ाई के वक्त देखे थे। शैलेन्द्र चौहान जनता को उन चालाकियों से अवगत कराते हैं। हाल ही में न्यू वर्ल्ड पब्लिकेशन से उनका एक कविता संग्रह  "सीने में फांस की तरह" प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह की समीक्षा लिखी है रामदुलारी शर्मा ने। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं शैलेन्द्र चौहान के कविता संग्रह "सीने में फांस की तरह" की रामदुलारी शर्मा द्वारा की गई समीक्षा 'आत्ममुग्धता से दूर :  सीने में फांस की तरह'। आत्ममुग्धता से दूर : सीने में फांस की तरह   रामद

चन्द्रदेव यादव के कविता संग्रह 'माटी क बरतन' पर मोहन लाल यादव की समीक्षा 'भोगे हुए यथार्थ की कविताएँ'।

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  हिन्दी के अतिरिक्त क्षेत्रीय भाषाओं में भी महत्त्वपूर्ण लेखन निरन्तर हो रहा है। भोजपुरी हिन्दी की उपबोली है, जो उत्तर प्रदेश और बिहार के एक बड़े हिस्से में बोली समझी जाती है। चन्द्र देव यादव भोजपुरी अंचल से जुड़े हुए कवि हैं। उनकी कविताएँ गवाह हैं कि लोक से उनका जुड़ाव तो है ही, संवाद भी निरन्तर बना हुआ है।  'माटी क बरतन' उनका हालिया प्रकाशित भोजपुरी का कविता संग्रह है। यह शीर्षक ही अपने आप में बहुत कुछ बयां कर देता है। कवि कहानीकार मोहन लाल यादव ने इस संग्रह की पड़ताल करते हुए एक समीक्षा लिखी है। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं चन्द्रदेव यादव के कविता संग्रह 'माटी क बरतन' पर मोहन लाल यादव की समीक्षा 'भोगे हुए यथार्थ की कविताएँ'।  भोगे हुए यथार्थ की कविताएँ  मोहन लाल यादव लोक-संस्कृति किसी भी देश की पहचान होती है। यह किसी भी भूभाग की दीर्घकालीन परंपरा होती है। इसमें वहाँ की बोली-बानी, वेश-भूषा, नृत्य-गीत, रीति-रिवाज, तीज-त्यौहार आवश्यक तत्त्व के रूप में शामिल होते हैं। हमारा देश बहुत विशाल है तथा विभिन्न तरह के लोक साहित्य एवं संस्कृतियों का समुच्चय है। कहा भी

हृषिकेश सुलभ के उपन्यास पर केतन यादव की समीक्षा 'दातापीर : कब्रिस्तान से झाँकता एक नया संसार'

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  अत्याधुनिक तकनीकी दौर में अब किताबों के पढ़ने की संस्कृति पर खतरे मंडराने लगे हैं। इस बात को स्वीकार कर पाना हमारे लिए आज भी कठिन है लेकिन सच को भला कैसे झुठलाया जा सकता है। बहरहाल ऐसे दौर में ही जब कोई ऐसा उपन्यास आता है जो पाठकों को सहज ही अपनी तरफ आकर्षित करता है, तो यह आश्वस्त करता है कि किताबों के पढ़ने की संस्कृति जिंदा रहेगी। हृषिकेश सुलभ का नया उपन्यास 'दातापीर' ऐसा ही उपन्यास है जो ऐसे वर्ग पर लिखा गया है जो अल्पसंख्यक होने के साथ साथ उपेक्षित भी रहा है। यह एक कड़वी सच्चाई है कि राजनीतिक दुनिया में अल्पसंख्यक वर्ग एक ऐसे हथियार की तरह होते हैं जिनका उपयोग राजनीतिक दल अपने फायदे के लिए किया करते हैं। लेकिन साहित्यकार के लिए यह मुद्दा संवेदनशील होता है। बहरहाल जैसे पत्थरों के बीच हरियाली पनप आया करती है वैसे ही विकट परिस्थितियों के बीच ही प्रेम पनप आता है। सुलभ जैसे सामर्थ्यवान रचनाकार ने इसे अपनी दास्तानगोई के बीच ही संभव कर दिखाया है। युवा कवि केतन यादव ने 'दातापीर' उपन्यास को डूब कर पढ़ा है और इस पर को लिखा है उसे खुद वे 'एक पाठक के नोट्स भर' कहते है

हितेन्द्र पटेल का आलेख 'देव आनन्द : रोमांसिंग विथ लाइफ!'

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इमाम बख़्श नासिख़ का एक शेर है : 'ज़िंदगी ज़िंदा-दिली का है नाम/ मुर्दा-दिल ख़ाक जिया करते हैं।' इस शेर को अपनी जिंदगी में पूरी तरह साकार किया सदाबहार अभिनेता देव आनन्द ने। देव आनंद की निजी ज़िंदगी एक खुली किताब की तरह रही। जो कुछ किया, डंके की चोट पर किया। अपने समय की चर्चित अभिनेत्री सुरैया से उन्होंने बेपनाह मोहब्बत किया। अलग बात है कि मज़हब की वजह से दोनों एक नहीं हो सके और सुरैया ताउम्र अकेली रहीं। एक अभिनेता के तौर पर देव आनन्द का यह क्रेज ही था कि उन पर तीन पीढ़ी की महिलाएं फिदा दिखाई पड़ीं।  अपने अभिनय से ही देवानंद ने बड़ी लकीर नहीं खींची बल्कि उन्होंने भारतीय फ़िल्म उद्योग को बेमिसाल टैलेंट भी दिए। यह उनकी दूरदर्शिता का ही परिणाम था। शत्रुघ्न सिन्हा, जैकी श्रॉफ़, टीना मुनीम, तब्बू और ज़ीनत अमान जैसे कलाकारों को देवानंद ने ही इंट्रोड्यूस किया। धर्मेन्द्र के हुनर की पहचान उन्होंने ही की। अपने छात्र जीवन के दिनों में देवानंद हफ़ीज़ जलंधरी की ग़ज़ल 'अभी तो मैं जवान हूँ' अक्सर गुनगुनाया करते थे। देव आनंद के निकट सहयोगी रहे मोहन चूड़ीवाला लिखते हैं, ''जब उन्