रुचि उनियाल का संस्मरण 'घुघूती-बासूती'
पारम्परिक तौर पर हमारा समाज स्त्रियों से घर को संभालने और चलाने की अपेक्षा करता है। यह अलग बात है कि इन अपेक्षाओं के बोझ तले वे खुद का जीवन जी ही नहीं पाती। पूरे घर की खुशियों का बोझ उनके ऊपर ही होता है। हालांकि इसके लिए उन्हें अपने खुशियों की बलि देनी पड़ती है। पहली बार पर हरेक महीने के तीसरे रविवार का दिन रुचि उनियाल के संस्मरणों का दिन होता है। रुचि ने अपनी सासू मां के संस्मरण के हवाले से स्त्रियों की उन पीड़ाओं को अभिव्यक्त करने की सफल कोशिश की है जो प्रायः अनकही या अनदेखी रह जाती है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं रुचि बहुगुणा उनियाल का संस्मरण "घुघूती-बासूती"।
'घुघूती-बासूती'
रुचि उनियाल
"घुघूती-बासूती… क्या खांदी?
दुधु-भाती!
मैं भी दे…..
जुठू छ
कैकू?
मेरू!
तेरी ब्वै कख?
ग्वोठ जायीं।
क्या कर्न?
दूधु द्धेवणा!
ग्वोठ को छ?
गाय-बाछी।
बाछी कन कदी?
म्हाँ कदी!
गाय क्या देंदी?
दूध देंदी!
दूध कु पेंदु?
मैं पिंदु!"
मैं प्राप्ति को दोनों पैरों में बिठा कर और उसके दोनों हाथ थाम कर ये लोक/बालगीत या यूँ कहूँ कि दुधबोली सिखाने के लिए पुरख-परम्परा से चली आ रही सुनी-पूछी गई प्रश्नोत्तरी सुना रही हूँ। मेरी माँ (सासु माँ) मुझे इस तरह मातृत्व में डूबा देख कर भाव-विभोर हो रही हैं और कहीं न कहीं इस अनुभव से वंचित रह जाने के कारण उनकी आत्मा पीड़ा का जो दंश झेलती है वह उनकी आँखों के किनारों पर आ कर रूक जाती है! असल में मेरा ही नहीं, बल्कि हर पहाड़ी माँ का मन अपनी संतान को इन लोक/बालगीतों के माध्यम से अपनी दुधबोली /अपनी भाषा /अपने लोक/अपनी संस्कृति /अपनी जड़ों से जोड़े रखने का प्रयास करता है।
माँ मुझे बच्चों के साथ खेलता/हंसता देखती हैं तो अक़्सर ही अपने जीवन के उन दिनों में चली जाती हैं, जहाँ उन्होंने अपने बच्चों का बचपन ज़िम्मेदारियों और सास से मिली कटुता के चलते ठीक से देखा भी नहीं तो फिर, मातृत्व का ऐसा शब्दातीत सुख कहाँ से भोगतीं?
जीवन भर जिस ब्वारी ने घर का काम किया हो जिसके साथ सदैव सौतेला व्यवहार किया गया हो वह मातृत्व के सुख से वंचित तो नहीं रही लेकिन उसे पूरी तरह जी भी नहीं पाई। चार बच्चों के होने तक वो ब्वारी माँ तो कहलाई ही नहीं गई बस एक ब्वारी ही रही और ब्वारी इंसान या फिर माँ /बहन/बेटी /बीवी कहाँ होती थी तब? तब तो केवल बौळ्या होती थी जिसे केवल घर और बाहर के काम करने होते थे। बच्चों से लाड़ करना, उन्हें अपनी छाती से लगा कर कुछ कहना-सुनना या फिर उनकी तोतली बोली में उनकी दुनिया-जहान की खट्टी-मीठी बातें सुनना, कभी सर्दी-गर्मी लग जाने पर बीमार हो जाना ऐसी सहूलियतें तब ब्वारी को कहाँ नसीब थीं? बच्चों को दूध पिला कर काम पर लग जाना ही उन ब्वारियों की नियति थी।
माँ बताती हैं कि जब सबसे बड़ी बेटी के जन्म के बाद उन्हें जच्चा होने की स्थिति में भी घर के बाहर काम करने भेजा गया तो कैसे रह-रह कर उनके कपड़े छाती से उतरते अमृत से भीगते रहते थे, लेकिन मजाल है कि उन्हें घर आ कर सुस्ताते हुए बेटी को दूध पिलाने की भी मोहलत दी गई हो, अक़्सर ही उनकी बेटी भूख से बिलखते हुए भूखी ही सो जाती थी लेकिन, उन पर कोई दया कभी उनकी सास ने न दिखाई।
दूसरी बेटी हुई तब तो वो एक पुरानी और जिम्मेदार ब्वारी बन चुकी थीं। तब अव्वल तो दो बेटियाँ जनने के कारण इस ब्वारी को यूँ भी तानों की बौछार सहनी पड़ती थी और अगर बच्चों से लाड़ करती तो ताने सुनने पड़ते कि इन सब चोंचलों में कैसा तो मन लगा है इस ब्वारी का।
चार बच्चे उनके पैतृक गांव रामपुर में ही जन्मे और चारों के जन्म के समय और बाद में उनकी जो दुर्दशा हुई वह उनके ही मुँह से सुन कर रोंगटे खड़े हो जाते हैं!
जब नवनीत जी की दूसरी बहन के जन्म के बाद वो बुरी तरह बीमार पड़ गई तो ब्वारी को चिंता होनी ही थी सो उसने अपनी सास को कहा कि इस बीना को जरा टिहरी बाजार डाक्टर के पास ले चलते हैं इस पर सास ने ताना दिया कि…..
"सारा काम सरैलिन त्वैन? ज्यू अब यु ही काम बच्युं रैगी कि तेरी यीं ब्येटुली नचौंदा फिरऊं?"
(सारे काम कर लिए तूने? जो अब यही एक काम बचा रह गया कि तेरी इस बेटी को ही नचाते रहें? )
इस ताने को सुन कर ब्वारी बहुत रोई लेकिन अकेले में, फिर जब दो दिन बाद बेटी की स्थिति बिगड़ने लगी तो ब्वारी ने सास-ससुर की अनदेखी करते हुए बच्ची को गोद में उठा कर खुद ही टिहरी बाजार का रूख़ किया। उसके इस क़दम से सास बहुत चिढ़ने वाली है यह बात वो जानती थी लिहाज़ा, उसने घर से निकलने के लिए सुबेर के तीन बजे का समय चुना ताकि उसे कम से कम ताने सुनने पड़ें! वो घर से निकली तो समय ऐसा था कि कुछ खाने का तो सवाल ही नहीं था इसलिए भूखे पेट ही उसने अपनी बेटी की रक्षा करने के लिए घर से निकलने का फ़ैसला किया।
दोपहर के ढाई बजे भूख-प्यासी ब्वारी पल्ले में बंधे भैजी के दिये पाँच रुपये लिए बाजार पहुँची। वहां वैद्य बडोनी जी के पास पहुँची तो उन्होंने दस रुपये में एक हफ्ते की दवाई दी और एक ख़ुराक अपने सामने ही बच्ची को खिला दी।
पाँच रुपये का उधार भी डॉक्टर बडोनी ने दे दिया आख़िर अपने जानने वाले थे तो उन्होंने बड़ी उदारता से इस ब्वारी को उधार भी दे दिया, और इस तड़तड़े घाम में इतनी दूर भूखी-प्यासी आई ब्वारी को खाना भी खिलाया।
अब लौटते समय भले ही ब्वारी भूखी नहीं थी लेकिन फिर भी चूंकि बेटी लगभग मृतप्राय-सी बेहोश ही गोद में थी तो उसने नाउम्मीद होते हुए सोचा कि क्यों न इस बेटी को गंगा जी में बहा दूँ और फिर ख़ुद भी कूद जाऊँ?, क्योंकि घर वाले तो बेटी को बाजार लाने से वैसे भी नाराज ही हैं तो क्या समझेंगे इस पीड़ा को जो उसके मन में थी। लेकिन परमात्मा की इच्छा के बिना तो पत्ता भी नहीं हिलता फिर यह तो दो जिंदगियों का सवाल था कैसे हो सकता था उसकी मर्ज़ी के ख़िलाफ़ कुछ भी?
ब्वारी अपनी अचेत बेटी को लिए गंगा जी के किनारे आई कि इधर बच्ची ने भी दवा के असर को सार्थक करते हुए अपनी आँखें खोली और कुनमुनाती हुई धीमे से रोई! बच्ची की रुलाई सुन कर ब्वारी के भीतर ममता की नदी ने बांध तोड़ दिया और वो ख़ुशी के मारे फ़फ़क कर रो पड़ी,...... अब जा कर ब्वारी को घर में छोड़ी बड़ी बेटी का स्मरण आया और साथ ही उसे भीतर ही भीतर ग्लानि भी हुई कि, उसने मरने का निर्णय तक ले लिया लेकिन अपनी संतान के विषय में सोचना भूल गई जिसे घर में छोड़ आयी थी, आख़िर माँ तो दोनों बेटियों की ही थी न! किसी एक के लिए दूसरे को भूलना बहुत अनुचित था। घर आ कर जब बच्ची को दवा की दूसरी ख़ुराक दी तो वो बिलकुल ठीक हो गई ।इसके तीन-चार महीने बाद ब्वारी ने अपनी एक सहेली के हाथों बडोनी डॉक्टर के उधार के पांच रुपए भिजवाए और ऋणमुक्त हुई।
नवनीत जी जब तीन साल के थे तो उन्हें गांव से नरेंद्र नगर लाया गया और शायद अब तक काम-काज के बोझ से दबते-दबते इस ब्वारी की युवावस्था की तरंगों का प्रवाह धीरे-धीरे ढलान पर था।
हालांकि जब ब्वारी के लिए रैबार आया कि उसे नरेंद्र नगर आना है तो उसे घर में सासु की बहुत सारी बातें सुननी पड़ीं। भादों के महीने में घर में ढेरों-ढेर काम के बीच अचानक यूँ नरेंद्र नगर बसने का रैबार कोई आम ख़बर नहीं थी। एक ओर जहाँ सेरों में धान की फसल लगभग अपनी आधी समयावधि निकाल चुकी थी और धान की बालियों में बस दूध पड़ने को था, वहीं दूसरी ओर घर में मुर्रा नस्ल की 'लैंदी भैंसी' (दुधारू भैंस) थी, जिसकी सारी ज़िम्मेदारी ब्वारी के ऊपर थी। ब्वारी ने एक बार को सासु के तानों से डर के न जाने का भी सोच लिया था लेकिन, तभी उसके पड़ोस वाले जेठ जी ने उसे कहा कि……..
'जब तुमुक भुला बुलौण ल्हग्युं तब जांदा किलै नी तुम, अरे यु सब्बी काम-धंधा त कभी नी रुकणकु अर न कभी यनु होंणकु कि कुई बी काम न हो तुमुक। यु मौका तुमुक मिलणुं त ज्यादा न सोचा ब्वारी नौंनौंकी भलै सैर जाणंम छ यख गौंम कुछ नी ढंगकु युंका भबिस्य की खातिर'
(जब आपको भाई बुला रहा है तो आप जाती क्यों नहीं, अरे ये सब काम-धंधा तो कभी नहीं रुकेगा और न कभी ऐसा होगा कि आपके पास कोई काम न हो। ये मौका आपको मिल रहा है तो ज्यादा न सोचो बहू बच्चों की भलाई शहर जाने में है यहाँ गाँव में कुछ भी ढंग का नहीं इनके भविष्य के लिए)
ये प्रेरणा मिली तो ब्वारी ने निर्णय ले लिया कि उसे अब कुछ भी हो नरेंद्र नगर अपने पति के पास जाना ही है।
सासु के पक्षधर बहुत से गाँव वालों ने ब्वारी को ताने देने में कोई कमी नहीं छोड़ी कि………
'बथावा कत्थया उतौळी या ब्वारी जिंथैं घर-बार की जरा स्यां बी चिंता नी, कनी किस्मत फुटी फलाणां की ब्वै की ज्यु यनी जिद्दी ब्वारी पायी तिंन।अरे जरा फसल कटणं दिंदी, भैर-भीतर कु इंतजाम हूंण दिंदी तब सोचदी भैर खुट्टी उठौणुक पर ना भै अचकुलु की ब्वारी त अपड़ी मनमर्जी की ह्वैगिन '
(बताओ कितनी उतावली है ये ब्वारी जिसे घर-बार की ज़रा-सी भी चिंता नहीं, कैसी किस्मत फूटी फलाने की माँ की जो उसने ऐसी जिद्दी बहू पायी। अरे! जरा फसल कटने देती, अंदर-बाहर का इंतजाम होने देती तब सोचती बाहर के लिए पैर उठाने के बारे में पर ना भाई आजकल की ब्वारी तो अपनी मनमर्ज़ी की हो गई हैं)
इस बार ईश्वर की कृपा से ब्वारी के मन पर इन बातों का कोई असर नहीं पड़ा शायद ऐसा इसलिए भी था कि वो अब तक पति से दूर रहते हुए सास की कड़वी बातों को सुन-सुन कर परेशान हो गई थी, न ढंग का खाने को मिलता…… न नींद भर सोने को, और न एक घड़ी बच्चों के पास बैठ कर उन्हें दुलारने को। इस बार ब्वारी ने ख़ुद को मज़बूत बनाते हुए फसल की ज़िम्मेदारी अपनी पड़ोसन और सबसे ख़ास सहेली बुगनी को दे दी, जो लैंदी भैंसी थी वो मय थ्वोर्डी (भैंस की छोटी बच्ची या कटड़ी) दूसरी पड़ोसन को औने-पौने दाम में बेच दी सासु की नाराज़गी पर ध्यान न देते हुए उसने ज़रूरी सामान बांधा और अपने चारों बच्चों को ले कर तैयार हो गई। अब सासु के पास भी कोई चारा नहीं था उसकी बात मानने के अलावा, लिहाज़ा सासु भी मुँह फुलाए तैयार हो ही गयी। और ब्वारी आख़िरकार गाँव से बाहर निकल अपने पति के पास नरेंद्र नगर पहुँची।
यहाँ आने के बाद भी सास के तानों में रत्ती भर भी कमी नहीं आई, बल्कि जब चारों बच्चों में सबसे छोटी संतान स्वयं नवनीत जी को यहाँ आते ही "मैनिन्जॉइटिस" जैसे रोग के कारण हॉस्पिटल में रखना पड़ा और उनके साथ माँ को रहने की नौबत आई तो सास ने यहाँ तक कह दिया कि…..
"बजार औंण सी पंखर ल्हैगिन यीं ब्वारी का"
(बाजार आकर पंख लग गए इस बहू को)
इस ताने की अनदेखी पहली बार उनके पति यानि नवनीत जी के पिता जी ने की, और दोनों लोग नवनीत जी को लेकर देहरादून के सुप्रसिद्ध बाल रोग विशेषज्ञ डॉ दिवान सिंह के पास पहुँचे। डॉ दिवान सिंह के पास नवनीत जी को तीन महीने तक रखना पड़ा तब जा कर वे स्वस्थ हुए।
नवनीत जी के पीछे एक छोटी बहन का जन्म भी हुआ जो नवनीत जी से साढ़े पांच साल छोटी हैं, 'चित्रा', माता-पिता की लाड़ली संतान और बड़े भाई की दुलारी बहन। लेकिन बच्चों के जन्म के बाद उनकी माँ ने कभी भी उनके साथ बैठ कर उनकी बातें नहीं सुनी क्योंकि यहाँ आ कर भी उन्होंने हमेशा गाय पालन किया…… जंगल जाना, जंगल से घास लकड़ी लाना उनकी दिनचर्या का हिस्सा बना रहा और इस सब में इतना समय भी नहीं मिलता था कि वो ठीक से बच्चों से लाड़ करतीं, उनके बचपने का आनंद लेतीं।
उनके पति, नवनीत जी के पिता जी, श्री जगदीश प्रसाद उनियाल जी का नाम तब नरेंद्र नगर के सुप्रतिष्ठित व्यक्तियों में गिना जाता था लिहाज़ा घर में आने-जाने वाले लोगों का तांता लगा ही रहता था। ऐसी परिस्थिति में इस पाँच बच्चों की माँ को भला कब इतना समय मिलता कि गाय-बछिया /घास-पात/अंदर-बाहर /साफ-सफाई / और दिन-रात मेहमानों की आव-भगत से फुर्सत लेकर बच्चों के बचपने का सुख लेती?
नरेंद्र नगर आ कर जब जिम्मेदारियां बढ़ती गयीं तो उनमें एक बड़ी जिम्मेदारी छोटे देवर के ब्याह की भी उनके कंधों पर आ गई…… अपने बड़ी ब्वारी होने का कर्तव्य निभाते हुए उन्होंने देवर की शादी करवायी और देवरानी घर लायीं। देवरानी के ब्याह के डेढ़ साल में ही एक बेटे का जन्म हुआ जिसमें जच्चा-बच्चा की सारी जिम्मेदारी को उन्होंने बहुत निष्ठा से पूरा किया। देवरानी के आने के बाद उन्हें रसोई के झंझटों से थोड़ी-सी राहत मिल गयी थी, लेकिन गाय के सब काम उन्हें खुद ही निपटाने पड़ते थे। नवनीत जी और उनके भाई-बहन हमेशा बताते हैं कि उन्होंने कभी अपनी माँ को बचपन में माँ समझा ही नहीं बस चाची को ही माँ समझते थे क्योंकि कभी भी सुबह उठ कर माँ को देखा ही नहीं बस चाची को ही देखा। उनकी माँ मुँह-अँधेरे ही जंगल घास-लकड़ी लाने चली जाती थीं, और लगभग दोपहर बाद लौटतीं जब बच्चे स्कूल से आ कर खेलने चले जाया करते थे……शाम को जब बच्चे आते तब भी वो गाय के पास होतीं, कभी गाय को अंदर-बाहर करने तो कभी गाय को दुहने के लिए, रात को बच्चे जल्दी खाना खा कर सो जाते थे।
इधर देवरानी के बड़े बेटे के डेढ़ साल का होते ही दूसरा बेटा भी हो गया और हमेशा की तरह घर-परिवार, बच्चों और जच्चा-बच्चा की पूरी जिम्मेदारी बड़ी बहू के कंधों पर आ गई, जिसे बड़ी बहू ने बड़ी लगन से निभाया भी, लेकिन एक दो बार सास और देवरानी की बातचीत से उनके मन को ऐसी पीड़ा पहुँची /ऐसा घाव लगा जो अपने नाती-पोतों को गोद में ले कर भी कभी भर नहीं पाया।
माँ बताती हैं कि उनकी देवरानी जब तक उनके साथ रहीं तब तक हमेशा उन्हें एक बहू के जैसे इज़्ज़त देती रहीं, जैसे कि हम दोनों देवरानी-जेठानी उन्हें देते हैं। एक बार जब बड़ी ब्वारी घास से लौटी तो छोटी ब्वारी उनके लिए गर्म पानी कर के ले आयी हाथ-पांव धोने के लिए, फिर तुरंत चाय बना लायी कि दीदी थकी हुई हैं तो उन्हें आराम मिलेगा और उनकी थकान थोड़ी उतर जाएगी गर्मागर्म चाय पी कर। लेकिन भीतर बैठी सासु को न जाने क्यों अपनी ही बहुओं के बीच का प्यार नहीं सहा जा रहा था, असल में उन्होंने कभी पसंद नहीं किया कि छोटी ब्वारी बड़ी ब्वारी की इज़्ज़त करे पर ख़ुले मुँह कभी कुछ कहा भी नहीं।
जब छोटी ब्वारी चाय रखकर जेठानी के पास से अंदर आयी तो अपने बड़े बेटे के ख़ुद को पीछे से पकड़ लेने से ममता से भर गयी…. बच्चा तुतला कर अपनी माँ को कुछ बोल रहा था तो ब्वारी ने कहा 'दीदी ने भी तो यह देखा होगा न! कितना आनंद आता है जब बच्चा ऐसे तुतला कर बोलता है तो' । सास ने तुरंत बड़ी ब्वारी को सुनाते हुए कहा कि 'अरे कहाँ! ये क्या जाने माँ होना क्या होता है? इसने कभी अपने बच्चों को गोद में भी लिया हो तो पूछ ले। ये तो हथिनी है हथिनी, बच्चे साथ में भी सोए हों तो मुँह फेर कर ही सोती है मज़ाल है कि कभी बच्चों को लाड़ किया हो इसने, मैंने तो कभी नहीं देखा'! सास ने जब ये ज़हरबुझी बात हंसते हुए कटाक्ष में कही तो देवरानी भी हंसने लगी।
बाहर बैठी बड़ी ब्वारी की आत्मा छलनी हो गई ये शब्दबाण सुनकर और मन ही मन सोचा उसने ज़िन्दगी भर सास के ताने सुने, सास की डांट खाई, कमरतोड़ काम किया और फिर भी सास खुश नहीं हुई। अरे कब करती वो अपने बच्चों को लाड़ जब उसे इस बात की भी आज़ादी नहीं थी कि वो काम छोड़ कर अपने बच्चे को दूध पिलाने भी घर आ सके। क्या जिस लड़की की माँ नहीं होती उसे कहीं भी प्यार नहीं मिलता? ब्वारी का मन कच्चा-कच्चा हो आया….. आँखों से टप-टप आँसू बह निकले, लेकिन उसकी पीड़ा को समझने वाला वहाँ कौन था? उसने चुपचाप चाय का ख़ाली गिलास नीचे रखा और गाय का गोबर साफ़ करने चली गई जहाँ कम से कम वो खुल कर रो सकती थी।
मैं प्राप्ति को दादी की गोद में देती हूँ तो दादी मारे ख़ुशी के उसे कस के गले लगा लेती हैं, लेकिन कमर में कूबड़ के कारण ज़्यादा देर तक गोद में नहीं रख पातीं क्योंकि दर्द के कारण वो सीधी नहीं रह पाती हैं। एक माँ के लिए अपने बच्चे का बचपन देखना, उसे जीना और ममता की उच्चतम अवस्था को महसूसना कैसा तो शब्दातीत सुख है, यह कोई भी माँ सहज ही बता सकती है लेकिन मैं इस बात को सोच कर दुःखी हो जाती हूँ कि न केवल माँ, बल्कि शायद उनके दौर की अधिकतर पहाड़ी ब्वारियों ने यह सुख अनुभव नहीं किया और अपने मन की भित्ति पर एक ऐसा घाव जीवन भर सहा जो किसी भी औषधि से कभी नहीं भर पाया ।
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंमार्मिक
जवाब देंहटाएंअहा ! शानदार ! मेरे सामने ऐसा ही संस्मरण है । लिखा भी है । कभी सामने आएगा । सास - बहू के साथ देवरानी - जेठानी के रेखाचित्र उभर रहे हैं । तोतलाते बच्चे के भी ! वाह !
जवाब देंहटाएंबहुत ही मर्मस्पर्शी संस्मरण ...हृदय द्रवित हो गया पढ़कर । अफसोस कि उनका वो समय कभी लौट कर नही आ सकता ।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी पोस्ट. सादर अभिवादन
जवाब देंहटाएंमर्मस्पर्शी पोस्ट
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