सुरेन्द्र कुमार की कविताएं
प्रेम जीवन की सबसे खूबसूरत अनुभूति है। प्रेम जोड़ता है। और जुड़ने पर सारी कायनात जैसे बदल सी जाती है। प्रेम एक तरफ सौन्दर्य का सृजन करता है, तो दूसरी तरफ यह साहस का बल भी देता है। प्रेम विद्रोह करना सिखाता है। विद्रोह उन जड़ीभूत मान्यताओं से, जो हमें लकीर का फकीर बनाने के लिए सन्नद्ध रहते हैं। प्रेम चलना सिखाता है। प्रेम परवाह करना सिखाता है। सुरेन्द्र कुमार इन दिनों प्रेम में हैं। उन्होंने प्रेम की गहनतम अनुभूतियों को शब्दबद्ध किया है। इसीलिए ये कविताएं कुछ अलग किस्म की कविताएं हैं। देखने में सहजतम लेकिन मर्म में अंतस को झकझोरने वाली। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सुरेन्द्र कुमार की कुछ नई कविताएं।
सुरेन्द्र कुमार की कविताएं
आपसे निवेदन है
मैंने सुबह सुबह
गुस्से का
दरवाज़ा खटखटाया
देखा महाराज जी
चाय पी रहे हैं
कैसे आना हुआ
सब ठीक-ठाक
तुम्हारे होते
कहां हो पाता है
पूरा घर लाल पीला
हो रहा है
बीवी से बात करो
वो मुंह फुलाए बैठी है
बच्चे इधर उधर
सामान फेंक रहे हैं
सब कुछ अस्त व्यस्त हो रहा है
आपसे निवेदन है
हमारे घर मत आया करो
तुमने कितनी ही बार
मुझसे दोस्ती करनी चाही
याद है मैंने इंकार कर दिया
इसलिए प्लीज़
हमारे घर मत आया करो,
तुम्हारे आने से
तुम्हारे आने से
कार्निस पर रखी चीज़ें
एकाएक सेट होने लगी
इधर उधर पड़ी रहने वाली
स्कूटर की ताली ही देखो
अपनी जगह खूंटी पर
टंगी रहती है
रूमाल तह किया हुआ
पैंट की जेब में मिलता है
छोटे वाला कंघा
पर्स में करीने से
रखा हुआ मिलता है
लिखने की डायरी
क़लम मेज़ पर
इंतज़ार कर रहे होते हैं
मुझे क्या खाना है
क्या नहीं खाना
क्या पहनना है
क्या नहीं पहनना
कौन सा रंग पसंद है
तुमसे ज़्यादा कोई नहीं जानता
किस बात पर गुस्सा
किस बात पर प्यार
कौन सी बात पर मौन
कौन सी बात पर
बेबाक़,
कौन सी बात पर हां
कौन सी बात पर
इंकार
प्यारी तुमसे ज़्यादा
कौन जानता है
तुम्हारे आने से
मुंडेर पर बैठी चिड़िया
टाईम से पहले आ कर
चहकने लगती है
माथे पर ये कैसा निशान है
बरसात का मौसम है
उठ जाओ
बाहर से दूध ले आओ
मुझे पता है तुम्हैं कॉफी का शौक है
तुम्हारे लिए बैंगन की पकौड़ी बना दूं
खाने के बाद पेट खराब तो नहीं होगा
मेरे दो सूट कटे हुए रखे हैं उन्हें सिल देना
इधर मेरी तरफ़ क्या देख रहे हो
रोज़ नहीं देखते क्या
आसमानी साड़ी में
कैसी लग रही हूं
ये सितारे
सूईं से टांकें थे क्या
बड़े चमकदार हैं
माथे पर ये कैसा निशान है
बचपन में
खेलते हुए
जीने से गिर गई थी
ऐसे क्या घूर रहे हो
बस वैसे ही
तुम्हारे कान के सुई धागा को देख रहा था
कभी कभी तुम
कभी कभी तुम
पति कम
आशिक़ ज़्यादा लगते हो
जैसे कभी कभी तुम
पत्नी कम
प्रेमिका ज़्यादा
कभी कभी तुम
दुनिया दारी से बाहर
चले जाते हो
खिचड़ी छौंकते हुए
तारों की सैर करवाते हो
और कभी कभी
आंगन में फावड़ा चलवाते हो
प्रिय विचारों का खेल है
वरना हर रिश्ता
बेमेल है
तुम्हारे आते ही
तुम्हारे आते ही
घर सांस लेने लगा
कोठी कुठले
नाचने लगे
कबूतर चुग्गा मांगने लगे
मन के खरगोश
फुदकने लगे
खिड़की से
पुरवा हवा आने लगी
ताज़ा गुलाब की पंखुरी
लहराने लगी
ऐलोवेरा खड़ा खड़ा
पसीजने लगा
रसोई में बर्तन
आपस में बतियाते लगे
तवे पर गोल गोल रोटियां
सांस भरने लगी
तुम्हारे आते ही
गुसलखाना
भीनी भीनी इत्र से
गंधाने लगा
आंगन वाला बल्ब
जगमगाने लगा
प्रेम के गीत गाने लगा
तुम्हारे आते ही
आजकल
चिड़ियों की
चूं चां
आंगन वाले
नीम के पेड़ पर
मैं सोते हुए जगा
रात के दो बजकर
बीस मिनट पर,
आजकल दूधिया रंग की
लाईटें भी तेज़ जलती हैं
हो सकता है
उनको भ्रम हुआ हो
दिन निकल गया हो।
नियंत्रण नहीं रह जाता
मैंने चांद से पूछा
आपका चांदनी पर
कितना नियंत्रण है
रचने के बाद
कितना भी नहीं
वरना मैं अपने दायरे के
आसपास ही रहने देता
पेड़ के फलने के बाद
फल पर कहां हक़ रह जाता है
दरिया को हक़ होता
तो पानी को मोड़ ना देता
अपनी क्यारी की तरफ़
रचने के बाद
एक कवि का भी
नियंत्रण नहीं रह जाता
कविता पर
सुख भाई
सुख भाई किधर जा रहे हो
कितनी बार कहा सुबह सुबह जाते हुए टोका मत करो
फिर भी बताओ तो सही
जैन साहब ने बहुत बड़ी मार्केट बनाई है उधर जा रहा हूं
सुख भाई कभी हमें भी मौका देना मेहमाननवाजी का
कुछ कुछ ऐसा लगा था
सुनो
रात में
तुमने मुझे जगाया था क्या
नहीं तो,
फिर क्यों रात भर
पाज़ेब बजती रही
सुनो,
तुमने मुझे
दोपहर में चॉकलेट का डब्बा पकड़ाया था क्या
नहीं तो,
खाट पर लेटे हुए
यूंही अहसास हुआ था
सुनो,
तुमने मुझे
दिल के मेले में
खो कर पाया था क्या
नहीं तो,
जब मैं भीड़ को चीर कर तुम्हारे पास आई
कुछ कुछ ऐसा लगा था
सुनो,
तुमने मेरी तगड़ी का कुंडा हिलाया था क्या
नहीं तो,
मुझे मेहरून साड़ी पहनते हुए ऐसा लगा था,
सुनो,
तुमने मेरा
होठों पर साइड में लगा हुआ तिल
दबाया था क्या
गुलाबी लिपस्टिक लगाते हुए
मुझे ऐसा लगा
हम जब भीगते हैं
बेमौसम बारिश में
आते जाते लोग भीगते रहे
हम दोनों भीग कर भी
नहीं भीगे
मैंने कहा इससे तो अच्छा छतरी ही लगा लेते
उसने कहा हम बारिश की बूंदों से कहां भीगते हैं
हम जब भीगते हैं प्रेम की एक बूंद से ही भीग जाते हैं।
चला गया किधर परवाना तेरा
बिना बुलाए आ जाना तेरा
कैसे भरूंगा हर्जाना तेरा
चौबारे पर खड़ा हो कर देख
भटक रहा है दीवाना तेरा
पूरे के पूरे घर में रह कर
खलता दिल का वीराना तेरा
सुलगती हुई शम्मा को छोड़ कर,
चला गया किधर परवाना तेरा
चटकती कलियों को महसूस कर,
फूल के जैसा हो जाना तेरा
उस मुंहज़ोर हवा के ही सामने
बेखौफ दुपट्टा लहराना तेरा
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
सम्पर्क
मोबाइल : 06396401020
सुरेंद कुमार ने जिस तरह की सहज गजले लिखी हैं ,उसी तरह वे कविताएं भी लिख रहे हैं । जीवन की छोटी छोटी घटनाएं ,वे अपनी कविता में दर्ज करते हैं । उन्हें बधाई और उन्हें प्रकाशित करने के लिए आपको साधुवाद
जवाब देंहटाएंस्वप्निल श्रीवास्तव