स्वप्निल श्रीवास्तव का यात्रा वृत्तान्त 'हिमाचल के सैलानी दिन'

 

स्वप्निल श्रीवास्तव


यात्राएं न केवल हमारे जीवन के आस्वाद को बदलती हैं और नियमित दिनचर्या की ऊबन से उबारती है, बल्कि हैं जीवन के कई सीख भी देती है। यात्राएं उस खुली किताब की तरह होती  हैं जिनमें व्यक्ति व्यावहारिक जीवन के सबक सीखता है। ये सबक जिल्दबंद किताबों में नहीं मिल पाते। इसीलिए हमारी संस्कृति में भी धार्मिक रूप से ही सही यात्राओं की जरूरत को रेखांकित किया गया है। इस बिना पर यह कहा जा सकता है कि यात्राओं ने ही मनुष्य को वास्तविक तौर पर मनुष्य बनाया। हिमाचल प्रदेश उत्तर भारत के पसंदीदा पर्यटन स्थलों में अग्रणी पहाड़ी इलाका है। यह प्रदेश अपने अनेक खूबसूरत स्थलों के लिए मशहूर है। पहाड़ों से दिखते सौंदर्यपूर्ण नज़ारे, किसी भी व्यक्ति को आकर्षित करने में सक्षम हैं। यहाँ की तिब्बती संस्कृति की झलक भी इसे और स्थलों से अलग खड़ा कर देती है।कवि स्वप्निल श्रीवास्तव यायावरी के शौकीन हैं। सेवानिवृत्ति के पश्चात उन्होंने यात्राओं का जो क्रम आरम्भ किया है वह सतत जारी है। उन्होंने कुछ साल पहले हिमाचल प्रदेश की यात्रा की थी। उन्होंने यह यात्रा तब की थी, जब सुरेश सेन निशांत सक्रिय थे। इस यात्रा वृत्तान्त से हिमाचल प्रदेश के कई पहलुओं के बारे में जानकारी तो मिलती ही है, निशांत और गणेश गनी के हवाले से साहित्यिक सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य के बारे में भी हम परिचित होते हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं स्वप्निल श्रीवास्तव का यात्रा वृत्तान्त 'हिमाचल के सैलानी दिन'।






'हिमाचल के सैलानी दिन' 

      

स्वप्निल श्रीवास्तव 

    

कालका हमारी यात्रा का आखिरी स्टेशन था। इस स्टेशन से हमें टॉय ट्रेन से शिमला पहुंचना था। शिमला पहुँचने के लिए वायु और सड़क मार्ग की सुविधा थी। यह व्यक्ति विशेष पर निर्भर है कि वह किस पथ का चुनाव करता है। जिसने टॉय ट्रेन से शिमला की यात्रा नही की, उसकी यात्रा अधूरी है। इस ट्रेन पथ से यात्रा  करना आश्चर्यलोक में प्रवेश जैसा  है।

   

कालका हरियाणा प्रदेश का एक कस्बा है जो हरियाणा के पंचकुला जनपद में स्थित है। यहाँ से पहाड़ियाँ और उसके ऊपर तैरते हुए बादल दिखाई देते है यानी पहाड़ियों  को देखने का जादू शुरू हो जाता है। हम लोग कालका दोपहर में पहुँच चुके थे, उस दिन शिमला जाना संभव नहीं था। इस यात्रा को करने के लिए हमारा सहज होना जरूरी था। हम लोग थकान से बोझिल थे। गर्मी के मौसम में ट्रेन से यात्रा करना कम कष्टदायक नहीं होता। हम लोगों ने एक होटल का आश्रय लिया, थोड़ा फ्रेश हुए कपड़े बदले और थकान मिटाने के लिए स्नान किया। चाय पीने के बाद हल्के वस्त्र धारण किए फिर रेलवे स्टेशन की ओर चल पड़े। होटल से स्टेशन का रास्ता लंबा नही था, सो हम पैदल ही निकल पड़े। मेरा अनुभव रहा है किसी शहर को इत्मीनान से पैदल ही देखा जा सकता है। जहां भी  चाहो रुक जाओ फिर आगे बढ़ो।

   

कालका स्टेशन देखने का उत्साह तो मन में था। कालका शिमला का रेल पथ अन्य रेलवे लाइनों की तरह नहीं था। रेलवे की तकनीक में काफी विकास हो चुका है, रेल की चाल-चलन भी बदल चुकी है। वे भाप के इंजन से नही चलती, उनकी जगह डीजल और बिजली से चलने वाली ट्रेन आ चुकी है। उनकी गति भी बदल चुकी है, पैसेंजर ट्रेनों की जगह तेज गति से चलने वाली ट्रेनें द्रुत गति से दौड़ रही हैं। अब तो देश में बुलेट ट्रेन  की चर्चा हो रही है लेकिन वे आम यात्रियों के लिए नहीं होंगी। उस ट्रेन पर वे लोग सवार होंगे जो हवाई जहाज का किराया अदा करने की हैसियत रखते होंगे।

   

कालका-शिमला मार्ग कोई आधुनिक रेल मार्ग नहीं था, उसके इंजन भाप से चलते थे और उनसे छक छक की ध्वनि पैदा होती थी। सीटी भी उसी तरह से बजती थी जैसी हम बचपन के दिनों की ट्रेन में सुनते थे। यह ट्रेन खूब धुएं के बादल उगलती थी कि स्टेशन पर अंधेरा हो जाता था। यही इस ट्रेन की विशेषता है, उसके प्राचीन स्वरूप को सुरक्षित कर लिया गया था। कालका और शिमला के बीच की दूरी 95 किलोमीटर है, इस दूरी को तय करने  में चार-पाँच घंटों से कम समय नही लगता। ट्रेन की गति 23-24 प्रति किलोमीटर से अधिक नही होती थी। इतने समय में तो कोई ट्रेन लंबी दूरी तय कर सकती है। इन्ही विचित्रताओ के कारण इस रेल मार्ग का महत्व है।

  

  

इस रेल पथ के दोनों तरह पहड़ियां हैं, जंगल है, उसमें कई तरह के फूल उगे हुए थे। इन फूल के पौधों को कई नही रोपता, ये स्वयं उग आते थे और अपने निर्धारित मौसम में उगते थे। इन जंगली फूलों की गंध तीक्ष्ण होती थी, उनके आसपास तितलियाँ मंडराती रहती थी, उन्हें गिनना मुश्किल होता था। वृक्षों पर रंग बिरंगे पक्षियों के कलरव सुनाई पड़ते थे।  

  

कालका शिमला की ट्वॉय ट्रेन 


इस रेल मार्ग का निर्माण 1890 और 1903 के बीच में हुआ था। इसके निर्माता हर्वट सेपटिव हेरीगटन नाम के अंग्रेज इंजीनियर थे। इस रेल मार्ग को बनाना आसान काम नहीं था, पहाड़ियों को काट कर इस मार्ग को बनाया गया। सुरंगों के बीच से रेलवे लाइन बिछायी गयी थी, उस समय निर्माण की तकनीक इतनी विकसित नही थी। इस रेल यात्रा को तय करने के लिए 103 सुरंगों और 869 पुलों से हो कर गुजरना पड़ता है। ट्रेन खूब आँखमिचौनी का खेल खेलती थी। अचानक ट्रेन सुरंग में दाखिल हो जाती थी और अंधेरा छा जाता था। हम एक दूसरे को पकड़ कर बैठ जाते थे जैसे ट्रेन सुरंग से बाहर आती थी, हम चैन की सांस लेने लगते थे। अंधेरे–उजाले का यह कौतुक शिमला पहुंचने तक चलता रहता है, यही इस रेल पथ का रोमांच है


इस रेल पथ के निर्माण दो लोगों की महती भूमिका है। पहले है कर्नल बड़ोग जो पहाड़ी रास्तों में ट्रेन मार्ग बनाने के  विशेषज्ञ थे, वे पेशे से इंजीनियर थे। बड़ोग पहुँचने के लिए लंबी सुरंग से गुजरना पड़ता है। इस सुरंग की लंबाई 1143.61 मीटर है। इसे 'टैनल-33' के नाम से भी जाना जाता है। इस सुरंग को बनाते समय उन्हें कठिनाइयों का सामना करना पड़ा, सुरंग के ओर–छोर नही मिले। इस कारण उनके कार्य की जांच हुई और उन पर एक रूपये का जुर्माना लगाया गया। जुर्माने की राशि मामूली थी, जिसे अदा करना मुश्किल काम नही था। वे इस अपमान को सहन नही कर सके और उन्होंने खुदकशी कर ली। इस जगह उनकी कब्र स्थापित की गयी, उस जगह का नाम उनके नाम पर रखा गया। शिमला यात्रा करते हुए मैं उन्हें नहीं भूल सकता। यहाँ देश विदेश में करोड़ों के घपले होते हैं, अपराध के प्रमाण मिल जाते हैं लेकिन किसी के मन में आत्महत्या का ख्याल नहीं आता। हाँ, जो इस तरह के प्रकरण को सामने लाता है, उसकी हत्या  जरूर हो जाती है।

  

इस सुरंग का अधूरा काम एक ग्रामीण बाबा भलकू ने पूरा किया जो अपनी छड़ी से पहाड़ी रास्तों का पता लगा लेते थे। उन्हें इसकी दैवीय शक्ति प्राप्त थी। हमारे यहाँ के ग्रामीण क्षेत्र में ऐसे लोग पाए जाते है जो यह बता देते है कि किस जगह बोर किया जाए कि पर्याप्त पानी निकल आए। वे किसी तरह के शिक्षित लोग नहीं होते लेकिन उनके भीतर इस तरह की लोक प्रतिभा होती है। खलकू अपने जीवन काल में किवदंति बन चुके थे, उनके बाल घुँघराले थे भेष वूषा बिखरी हुई थी। बताया जाता है कि वे शिमला के चैल क्षेत्र के निवासी थे। बड़ोक की सुरंग बनाने के बाद उसे अंग्रेजों ने उन्हें पुरस्कृत किया। उनके नाम से रेलवे ने संग्रहालय बनवाया है, उसके द्वार पर उनकी मूर्ति स्थापित है।

   

चार- पाँच घंटे का समय आसानी से बीत गया। अब शिमला हमसे दूर नहीं था, यात्रा खत्म हो जाएगी, यह बात हमें गवारा नहीं थी। मंजिल से ज्यादा महत्व उन रास्तों का होता है जिससे होकर हम गुजरते हैं। इस रेल पथ को महत्व देने के लिए यूनेस्को में 2008 में इसे विश्व धरोहर घोषित किया है।


भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान शिमला


आश्चर्य लोक से बाहर 

जब हम लोग शिमला पहुंचे तो लगा कि हम आश्चर्य लोक से बाहर हो गये हैं। हमारे सामने एक दूसरी दुनिया थी जिसके बारे  में हम बचपन से सुनते आए थे। गर्मी के मौसम में शिमला मसूरी की याद आती थी, दोनों पहाड़ी शहरों को पहाड़ियों की रानी कहा जाता था। शिमला एक ऐसा शहर था जो हिन्दी के अप्रतिम कथाकार निर्मल वर्मा की अनेक कहानियों और उपन्यासों की पृष्ठभूमि रही है। उन्हें पढ़ते हुए शिमला की याद आती थी। उनकी कहानी 'परिंदे' में कूमायूं का वर्णन दिखाई देता है लेकिन उस  कहानी में किसी न किसी रूप में शिमला के दृश्य आ ही जाते हैं। लतिका और हयूबर्ट की याद आती है, उनकी उदासी का स्वर गहरा है। पहाड़ों को उल्लास और उदासी के साथ–साथ याद किया जा सकता है। हमारे अनेक कथानायक जब उदास और जिंदगी से परेशान होते हैं, वे पहाड़ों के पहलू में चले जाते हैं।निर्मल वर्मा का उपन्यास 'अंतिम अरण्य' के पात्र जीवन के सवालों के जबाब खोजने इन्ही पहाड़ों और घाटियों में आते हैं। पहाड़ प्रेमियों के लिए निरापद जगह होते हैं।

  

निर्मल वर्मा की कथाओं ने शिमला की खूब याद दिलाई है। उनका बचपन शिमला में ही गुजरा है। जाखू की पहाड़ियों हरकोर्ट बटलर स्कूल मे उनके भाई राजकुमार तथा बहन की शिक्षा यही हुई है। स्वामीनाथन उनके सहपाठी थे। शिमला के निर्मल वर्मा के जीवन शुरूआती वर्ष शिमला में बीते हैं जो किसी न किसी रूप में उनकी रचनाओं में दिखाई देते हैं। निर्मल वर्मा के बारे में गगन गिल ने 'शिमला और निर्मल वर्मा' नाम से एक आत्मीय संस्मरण लिखा है जिसमें निर्मल जी के बचपन की अनेक स्मृतियाँ दर्ज हैं। निर्मल वर्मा के जीवन और साहित्य को याद करते हुए हमारी गाड़ी माल रोड के होटल में पहुँच चुकी थी।

  

माल रोड पर जहां हमारा होटल स्थिति था, वहाँ से माल रोड की शुरूआत होती थी। होटल कोई भव्य नहीं था, वह होटल हमें निर्मल वर्मा के उपन्यास 'लाल टीन की छत' की याद दिला रहा था। होटल का आधा भाग टीन से बना हुआ था, उसकी छत से माल रोड की सड़क दूर तक दिखाई देती थी। माल रोड से रिज का रास्ता  पैदल तय किया जा सकता था, यह रोड वाहन के लिए प्रतिबंधित  था। माल रोड पर बूढ़े जवान दोनों मस्ती से चलते थे। बूढ़े जब चलते हुए थक जाते थे तो वे माल रोड पर बनी हुई बेंच पर आराम फरमाते थे। इसी तरह मसूरी और दार्जिलिंग में भी माल रोड हैं। इन सड़कों का माल रोड का नामकरण अंग्रेजों द्वारा किया गया था, उस समय तक बड़े बड़े शहरों में माल नहीं बने थे लेकिन उसकी आधारशिला रखी जा रही थी। माल रोड पर आम लोग  खरीदारी नही कर सकते थे। सामान महंगे होते हैं, आम लोगों के बाजार अलग होते हैं। उनके खरीद के सामान पटरियों या फुटबाथ पर बिकते थे, इस तरह शहरों में दो तरह की संस्कृतियाँ थी, दो तरह के नागरिक थे – एक अमीर दूसरा गरीब। बीच की श्रेणी को मध्य वर्ग कह सकते हैं जो उच्च वर्ग तक पहुँचने के लिए लालायित रहता है।

  

शिमला को हम जिस रूप में देख रहे थे, उसे इस मकाम पर पहुँचने के लिए लंबा संघर्ष करना पड़ा। इसमें कोई संदेह नही कि इन पहाड़ी शहरों की खोज और निर्माण में अंग्रेजों की प्रमुख भूमिका थी। वे ठंडे देश से आए हुए थे, गर्मियां उन्हें रास नहीं आती थीं। मौज-मस्ती उनके जीवन का उद्देश्य था। शासक होने के कारण उन्होंने अपने इस ओहदे का फायदा  भी उठाया। शिमला की खोज अंग्रेजों ने 1819 में किया, चार्ल्स कनेडी इस क्षेत्र के प्रथम  नागरिक थे। वहाँ उन्होंने एक काटेज बनाया, स्थान इतना मनोरम था कि लोगों का आना–जाना शुरू हो  गया और इस इलाके का त्वरित विकास होने लगा। यह एक मामूली जगह से विख्यात केंद्र बना। अंग्रेजों ने कोलकाता के मार्ग से भारत में प्रवेश किया था। वे अपने गर्मियों के दिन दार्जिलिंग में बिताते थे फिर बाद में तत्कालीन वायसराय ने 1863 में शिमला को ग्रीष्मकालीन राजधानी बनाया। इस कारण शिमला का त्वरित विकास होना शुरू हो गया। वर्ष 1947 तक यह फिरंगियों की ग्रीष्मकालीन राजधानी बनी रही, इसे वायसराय निवास कहते थे जो बाद में राष्ट्रपति निवास के नाम से ख्यात हुआ। वह अपने शिल्प में अद्वितीय है।

   

शिमला इस शहर का मूल नाम नहीं है। प्राय; हर बड़े शहर के नाम के पीछे कोई न कोई इतिहास छिपा हुआ है। शासक वर्ग शहर के नाम को बदलने की कवायद करते रहते हैं और इसे धर्म के तलघर से खोज निकालते हैं, इससे शहर का स्वभाव नहीं बदलता, राज्य की नीयत का पता चलता है। जिस समय इस शहर का नाम शिमला रखा गया था, उसमें एक सहज भाव था लेकिन बाद में शहर नाम में बदलाव एक राजनैतिक प्रवृति बन चुकी है। शिमला नाम शामला देवी से ग्रहण किया गया था जो शिमला का मुख्य मंदिर है, यह काली बाड़ी मंदिर  के नाम से भी प्रसिद्ध है। शामला देवी का मूल स्थान जाखू था लेकिन बाद में इसे वर्तमान स्थान पर बनाया गया जो भी शिमला जाता है, मंदिर का दर्शन जरूर करता है। यह लोक मान्यता है कि इस मंदिर के दर्शन से भक्तों की मनोकामना पूर्ण होती है।

   

शिमला का महत्व शिमला समझौते के कारण भी बढ़ा है। 1971 में भारत पाकिस्तान के युद्ध में नब्बे हजार सैनिकों को बंदी बनाया गया था और भारत ने पाकिस्तान के इलाके पर कब्जा कर लिया था। इस बात को ले कर दोनों पक्षों में समझौता हुआ था  जिसकी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर बहुत चर्चा  हुई थी। वह इंदिरा गांधी का शासन काल था और जुल्फिकार भुट्टो पाकिस्तान के प्रधान मंत्री थे। किसी तरह के शहर हों उसके साथ ऐतिहासिक घटनाएं जुड़ती रहती हैं, उससे शहर समृद्ध होते रहते हैं। उस समय यह मजाक बहुत प्रचलित हुआ था – लोग यह कह रहे थे कि संजय गांधी और बेनजीर भुट्टो का विवाह हो जाए तो भारत और पाकिस्तान के रिश्ते सुधर सकते हैं। ऐसी राजनीतिक कल्पनाएं अक्सर की जाती है लेकिन वे साकार नहीं होती। जरूर कुछ समय तक लोगों का मनोरंजन करती रहती है फिर समय के गर्भ में समा जाती हैं।


   

शिमला में एक दिलचस्प जगह है जिसे स्कैंडल पाइंट के नाम से रूसवा किया गया है। यह माल रोड और रिज के बीच की जगह है। बताया  जाता है इसी जगह से पटियाला के राजा भूपेन्द्र  सिंह वायसराय की बेटी के साथ पलायित हो गये थे। इतिहासकारों और जानकारों ने बताया कि यह घटना कोरी बकवास है इसमें कोई तथ्य नहीं है। प्रेमी जन इस स्थान पर आते हैं और फैन्टसी में चले जाते हैं। इस तरह की कथाएं वास्तविक घटनाओं से ज्यादा लोकप्रिय होती हैं।

   

आजादी के बाद यह वायसराय निवास राष्ट्रपति निवास बना, जहां राष्ट्रपति गर्मी के दिनों में इस आवास में रहते हैं। अब इसका स्वरूप बदल गया है। 1965 से यह 'इंडियन इंस्टीटूट ऑफ एंडवांस स्टडी' के नाम से प्रसिद्ध है। यहाँ विभिन्न विषयों पर शोध और अध्ययन कार्य होते हैं। इसके निदेशक के पद को देश के प्रसिद्ध विद्वान सुशोभित करते हैं।

  

अगर इस यात्रा के लिए एस. आर. हरनोट और सुरेश सेन निशांत का आभार नहीं प्रकट करूंगा तो यह बेमानी होगी। निशांत मेरे प्रिय कवि थे, उनसे खूब बात होती थी। उन्होंने एक पत्रिका के लिए लंबा इंटरव्यू लिया था, उसके बाद उनसे आत्मीयता हो गयी थी। बात–बात में मैंने उनसे शिमला यात्रा की इच्छा प्रकट की, उसे हरनोट जी ने मूर्त रूप दिया। हरनोट हिन्दी के महत्वपूर्ण कथाकार हैं, हाल में ही उनका उपन्यास हिडिंब पढ़ा था। हरनोट मेरे होटल पर कवि आत्मरञ्जन और पत्रकार रजनीश शर्मा के साथ आये थे, उन्होंने 'हिमाचल दस्तक' के लिये मेरा इंटरव्यू लिया था जो रविवासरीय संस्करण में प्रकाशित हुआ था। इस अखबार से मेरे हिमाचल में आने कि खबर फैल गयी।

  

शिमला की दर्शनीय जगह रिज है। वहाँ माल रोड होते हुए पहुंचा जा सकता है। रिज एक खुला मैदान है, जहां से हिमालय की पर्वतमालाएं देखी जा सकती हैं। उदास से उदास आदमी यहाँ आ कर खुश हो सकता है। रात के समय यहाँ से रोशनी में नहाये हुए मकान देखे जा सकते हैं। पहाड़ की सीढ़ियों पर बने हुए मकान माचिस की तरह छोटे लगते हैं। पहाड़ों पर बड़े मकान नहीं बनाए जा सकते, वहाँ उतनी जगह होती है न उतने  संसाधन ही संभव हैं। मुझे आश्चर्य होता था कि लोग कैसे उस पहाड़ी जगह से उतरते होंगे। बीमार होने पर मरीज को कैसे उतार  कर ले जाते होंगे, रोज दफ्तर जाना–आना कितना मुश्किल होता होगा। पहाड़ देखने में खूबसूरत लगते हैं लेकिन यहाँ का जीवन कितना कठिन होता होगा। जब बर्फ गिरती होगी तो लोग कैसे ठंड से बचते होंगे? बहुत से सवाल मन में उठते थे। रिज के पास ही क्राइसेंट चर्च है जिसका.वास्तु शिल्प अद्वितीय है। गेईटी थियेटर भी मशहूर हैं जहां फिल्मों के प्रदर्शन होते रहते  थे।


कहने का तात्पर्य यह कि यहाँ दिल बहलाने के अनेक साधन थे। शिमला हिमाचल की राजधानी के साथ लोगों के दिल बसी हुई जगह थी, जहां तमाम तरह के नजारे थे। जिधर भी नजर उठाइए, देख कर सूनी आँखों में चमक आ जाए। शिमला की खूबसूरती के कारण यह शहर फ़िल्मकारों के आकर्षण का केंद्र था। 1960 में 'लव इन शिमला' नाम की फिल्म आयी थी जिसे आर. के. नैयर ने निर्देशित किया था। नायक नायिका की भूमिका में जाय मुकर्जी और साधना थी। यह फिल्म खूब सफल हुई थी। इसी फिल्म से साधना और आर. के. नैयर के रोमांस की शुरूआत हुई थी और  दोनों शादी  के  बंधन में बंध गये  थे।

   

बहरहाल इन दिनों हिमाचल की अभिनेत्रियों प्रीति जिंटा, कंगना रनौत, यामी गौतमी की घूम हैं। लोग बात–बेबात में उनका जिक्र करते रहते हैं। अभिनेत्रियों के बारे में बात करना आज की नयी संस्कृति का हिस्सा हैं।  

  

फिल्मी निर्माताओं–निर्देशकों की मनपसंद जगह कश्मीर थी लेकिन उग्रवाद के प्रभाव के कारण वह निरापद स्थल नही रह गया था। उसके विकल्प के रूप में शिमला, मनाली और  धर्मशाला जैसे शहर थे। हिमाचल में प्राकृतिक सौन्दर्य कम नही थे। चीड़ देवदार के वृक्ष, बर्फ से घिरी हुई वादियाँ और उनके बीच सरसराती हुई हवा। शिमला के अतिरिक्त मनाली,  कुफ़री और रोहतांग दर्रे में 'ये जवानी है दीवानी', 'जब वी मेट'। 'थ्री ईडियट', 'डान-2', 'फ़ना' जैसी फिल्मों के  दृश्य फिल्माए गये हैं। शिमला के आस-पास के इलाकों की सैर करते हुये प्राकृतिक छटा के  दर्शन होते है। व्ही. शांताराम की फिल्म 'बूंद जो बन गयी मोती' के गीत 'ये कौन चित्रकार है' गीत की याद आती थी। इस गीत को मुकेश ने डूब कर गाया है और प्रकृति के सौन्दर्य का बखान किया हैं।

   

विश्व प्रसिद्ध पेंटर अमृता शेरगिल लाहौर में पैदा  हुई थीं, उनकी शिक्षा बुडापेस्ट में हुई। उन्होंने अपनी रिहाइश और स्टूडियो समरहिल शिमला में बनाया था, उनकी पेंटिंग में पहाड़ के जीवन की अनेक स्मृतियाँ थी। प्राय: देश के सेलीब्रटीज शिमला के आसपास अपना ठिकाना बनाते थे, इस पहाड़ी शहर की आबोहवा सबको आकर्षित करती थी। यही कारण है कि शिमला की आबादी निरंतर बढ़ती गयी और पहाड़ उनके अतिक्रमण के शिकार होने लगे। वहाँ की जलवायु पर उसका असर देखने को मिलता हैं। दिन की धूप उसी तरह की चटख होती है कि लगता है कि हम उत्तर भारत के किसी शहर में आ गये हैं। हिमाचल में भ्रमण करते हुए जब मैंने अपने कवि–मित्र सुरेश सेन निशांत से गर्मी की शिकायत की तो उन्होंने बताया कि यहाँ कुछ साल पहले स्वेटर पहनना पड़ता था लेकिन अब स्थिति बदल गयी है। जिस गर्मी से बचने के लिये हम हिल स्टेशन आते हैं वहां हमें गर्मी से निजात नहीं मिलती। ग्लोबल वार्मिंग का प्रभाव पहाड़ी शहरों पर खूब पड़ रहा है, इससे शहर का मूल स्वरूप विनष्ट हो रहा  है।





कुफरी के घोड़े  

कुफरी शिमला से बीस किलोमीटर दूर है, वह प्रमुख हिल स्टेशन है। जब बर्फ गिरती है तो लोग वहाँ बर्फबारी देखने जाते हैं, बर्फ पर स्केटिंग करते हैं, जाड़े के मौसम सामान्य लोगों के लिये नहीं होते हैं, उस पर प्रभु वर्ग का एकाधिकार होता है। लेकिन यह कुफ्री को याद करने वजह नही हैं, मुझे तो कुरफी के घोड़े याद आते हैं। जब हम कुफरी पहुंचे तो हमें घोड़ों के हुजूम दिखाई पड़े। कुफरी में वे न होते तो कोई पहाड़ पर सैर नहीं कर पाता। उन जटिल रास्तों पर न तो कोई पैदल जा सकता है न ही वहाँ वाहन से जाने  की सुविधा है। इन घोड़ों के दम से लोगों के घर के चूल्हे जलते हैं। घोड़े अकेले सवारी ले कर नहीं चल सकते, उसे घोड़ों के मालिक संचालित करते हैं। ऊपर  जाने का रास्ता इतना  संकरा  होता है कि घोड़ों का चलना मुश्किल हो जाता है। जरा सा विचलित हुए तो खाई में गिरने का खतरा सामने होता है। घोड़े रास्तों पर नहीं तलवार की धार पर चलते हैं। घोड़ों और घोड़े वालों के परस्पर सहयोग से रास्ता तय होता है।

  

जैसे रेगिस्तान की कल्पना ऊंट के बगैर नहीं होती, उसी तरह घोड़ों के बिना पहाड़ी यात्राएं संभव नहीं होती। इसलिए घोड़ों को पहाड़ का जहाज कहा गया है। घोड़ों की पीठ पर बैठना आसान काम नहीं हैं। देह के कल-पुर्जे ढीले हो जाते हैं। घोड़े वाले बार-बार हिदायत देते रहते हैं ताकि संतुलन बना रहे। कुछ लोग घुड़सवारी के लिए मोल-भाव करते रहते हैं जैसे कोई सब्जी  खरीद  रहे  हो।

  

हमने पहाड़ पर स्थित 'कुफ़री टूरिस्ट पार्क' और 'हिमालयन नेचर पार्क' घूमने के लिए तीन घोड़े बुक किये। घुड़सवार ने हमें बताया कि इस घोड़े का नाम शाहरूख है। इसकी पीठ पर अभिनेता शाहरूख खान बैठ चुके हैं, इसी तरह अन्य  घोड़ों के नामकरण हीरो-हीरोइन के नाम से किये गये हैं। कुफ़री के पीक पर घूमने की बहुत सी जगहें है जिसे देख कर हम मंत्रमुग्ध हो  जाते है। दूर-दूर तक फैली हुई पहाड़ियाँ, उनके ऊपर उड़ते हुये बादल, चिड़ियों की चहचहाहट हमें एक ऐसी दुनिया में ले जाती थी जो हमारे लिये नितांत नवीन थी। इन जगहों पर बच्चे आ कर बहुत प्रसन्न हो जाते हैं, उनका उत्साह बढ़ जाता है। बूढ़े लोग भी बच्चों के साथ बच्चे बन जाते हैं, उनके मिजाज बादल जाते हैं।

 

यहाँ सजने सँवरने के लिये किराये पर रंग बिरंगी  पोशाकें मिलती थी जिसे पहन कर लोग फ़ोटो खिचवाते थे और वीडियो बनाते थे। बच्चे याक की सवारी करते थे। याक देखने में खूबसूरत  जानवर था, उसकी सफेद दाढ़ियाँ अच्छी लगती थी। नेचर पार्क में अनेकों तरह के पशु-पक्षी थे जिन्हें पहले हम लोगों ने नही  देखा था।

   

कुफ़री से जाखू बारह किलोमीटर दूर है, यह प्रसिद्ध धार्मिक स्थान था। यह पहाड़ियों पर  स्थित था, यहाँ हुनुमान की विशाल प्रतिमा है जिसकी ऊंचाई 108 फीट थी। ऊंचाई के कारण  यह मंदिर शिमला के रिज से दिखाई देता था। यह मूर्ति इतनी बड़ी थी कि आसपास की चीजें छोटी दिखाई देती थी। जाखू के नाम के, पीछे एक कथा है। बताया जाता है कि इस क्षेत्र में यक्ष नाम के ऋषि रहा करते थे। यक्ष, याक, याखू की लोकयात्रा करते हुए जाखू में तब्दील हो गया, अब यही संज्ञा स्वीकृत है। यह केवल जाखू की कथा नहीं है, देश के कई शहरों के पीछे कई कथायें और  मिथक छिपे  हुए  हैं।

  

जब राम रावण संग्राम में मेघनाथ के तीर से लक्ष्मण को मूर्छा लग  गयी थी तो  सुषेन वैद्य ने धवलागिरी पर्वत से संजीवनी बूटी प्राप्त करने के लिये कहा था। यह यात्रा बेहद दुर्गम थी और समय कम था। इस उद्देश्य के लिए राम ने अपने मुख्य सचेतक हनुमान का चुनाव किया। वे पवन मार्ग से जब रवाना हुए तो मार्ग पर यह स्थान पड़ा था, वे कुछ देर के विश्राम के लिये यहाँ रूके थे। इस संबंध में अनेकों प्रचलित कहानियाँ हैं, उन्हें यहाँ छोड़ते हुए आगे बढ़ते हैं। कालांतर में यक्ष ऋषि नें यहाँ हनुमान मंदिर की स्थापना की थी। यह भी बताया जाता है कि इस मंदिर में हनुमान के पाँवों के निशान हैं। इस तरह लोकजीवन में इस मंदिर का महत्व बढ़ा।

    

इस मंदिर में बहुत बंदर थे। अगर कोई सावधान न हो तो वे सामान छीन कर चले जाते थे। जब हम उस मंदिर पर गये तो लोगों ने कहा कि आँख से चश्मा उतार कर जेब में रख लें, अन्यथा वे चश्मा छीन कर रख लेंगे और तब तक वापस नही करेंगे जब तक उन्हें कोई खाद्य सामग्री न दी जाय। लेकिन लोग भक्तिभाव से उन्हें केला, सेब आदि फल अर्पित करते थे। उनके झुंड को देखकर डर लग रहा था सो हमने किराये की छड़ी  ले ली थी। लोग इन बन्दरों को हनुमान के वंशज के रूप में प्रतिष्ठा देते है। ये सब आस्थाओं के खेल हैं जिसे लोग मनोयोग के साथ करते हैं और पुण्य लूटते हैं। हम यह नहीं कहेगे कि हमें यह मंदिर अच्छा नहीं लगा, हम तो आस-पास के दृश्यों को देख कर मुग्ध थे।




   

बादल को घिरते देखा है        

चैल पहुँच कर नागार्जुन की कविता 'बादल को घिरते देखा है', की सहसा याद आ गयी। मुझे शिमला के आस-पास में चैल बहुत पसंद आया, यहाँ अन्य जगहों  की तुलना में न्यूनतम शोर है। यहाँ पहुँच कर हम अपने दिल की आवाज सुन सकते हैं। यहाँ ऋषियों की मुद्रा में खड़े-खड़े विशाल देवदार के वृक्ष हैं जो आसमान को छूते हुए दिखाई देते हैं, इनकी पत्तियां बड़ी होती हैं –उसमें थोड़ी सी गोलाई होती है। बादलों को इन वृक्षों के साथ अठखेलियाँ खेलते हुए देखा जा सकता है। हरे-भरे देवदार के पेड़ों पर तैरते हुये एक दृश्य रच देते हैं।

    

इस जगह के मालिक पटियाला के राजा भूपेन्द्र सिंह थे। इस अफ़साने को समझने के लिये स्कैंडल पाइंट जाना पड़ेगा। जब भूपेन्द्र सिंह ने  वायसराय की बेटी को अगवा कर लिया था तो उनका शिमला में आना प्रतिबंधित कर दिया गया था, इसका बदला उन्होंने चैल को अपनी ग्रीष्मकालीन राजधानी बना कर लिया। चैल में स्थित उनका पैलेस वास्तु का एक उत्कृष्ट नमूना है। इन दिनों वह टूरिज़्म विभाग का शानदार होटल बना हुआ है जो सैलानियों के आकर्षण का केंद्र हैं। भूपेन्द्र सिंह क्रिकेट और पोलो के  शौकीन थे, उनके पास क्रिकेट का सबसे ऊंचा मैदान था। कालिन्स और लापियर की मशहूर किताब 'फ़्रीडम एट मिडनाइट' में उनके विलासिता के कारनामें बयान किये गये हैं। उनके हरम में 350 रानियाँ थीं। मैंने हिमाचल के एक लेखक मित्र से पूछा कि उन्हें इतनी रानियाँ कहां मिली होंगी? तो उन्होंने बताया कि उनके इलाके कि बहुत सी खूबसूरत स्त्रियाँ उनके हरम में खुद दाखिल हो जाती होंगी, वहाँ उनको अच्छा जीवन मिल जाता होगा। साल भर में उनका नंबर एक बार ही लगता होगा। अब नागार्जुन की कविता पढ़ें जो इस यात्रा  में बेसाख्ता याद आ रही है।


शत-शत निर्झर–निर्झरणी कल    

मुखरित देवदार कानन  में 

शोणित धवल भोजपत्रों  से 

छाई हुई कुटी के भीतर 

रंग बिरंगे और सुगंधित  

फूलों से कुंतल को साजे ..।

      

तुम्हारी पीठ पर बोझा है पहाड़ भर का 

पहाड़  दुःख हैं  

तुम्हारी थकी पीठ पर 

     

पहाड़ भर की चिंताएं हैं 

तुम्हारे  चेहरे की झुर्रियों में 

      

हिमाचल की सैर करते हुए मुझे हिन्दी के प्रिय कवि सुरेश सेन निशांत की कविताएं अक्सर याद आती रही। वे मंडी के पास  के  कस्बे सुंदर नगर में पैदा हुए थे, वे बिजली विभाग में अधिकारी थे। वे उन दिनों मंडी में ही पदस्थ थे। पहाड़ में पैदा होने वाले तमाम कविताओं की कविताएं पढ़ी हैं लेकिन जैसे वे पहाड़ से उतरते हैं, पहाड़ के दुःख भूल जाते हैं, उनकी कविता आधुनिकतावाद का शिकार  होने लगती है। हम जिस जगह रहते हैं, वह जगह कविता से गायब होने लगती है। यह जनपदीय चेतना लगातार क्षीण होती जा रही है। निशांत इसके अपवाद थे, उनकी कविता 'पहाड़' में रहने वाले लोगों की यत्रणाएं दिखाई देती हैं।

  

शिमला से मंडी की तरफ जब हम रवाना हुए तो वे व्यास नदी के तट पर रिसॉर्ट में हम लोगों की प्रतीक्षा कर रहे थे। बार-बार वे मोबाइल से हमारी खबर ले रहे थे, जिससे लगता था कि वे मिलने के लिये कितने बेचैन थे। जब हम रिसॉर्ट पर पहुंचे तो वे वहाँ इंतजार करते हुये मिले, जैसे हम कोई वी. आई. पी. हो। निशांत का चेहरा बहुत मासूम था, वे अपनी उम्र से कम लगते थे, वे हिन्दी के खुर्राट और बौद्धिक कवियों  से भिन्न थे। कुछ ऐसे कवि होते है जो सिर्फ अपनी कविता पर बात करते थे, बाकी को दूसरे दर्जे का कवि समझते है। बातचीत में उन्होंने हिन्दी के एक शीर्ष कवि का जिक्र किया जिसकी कविता से वे अभिभूत थे लेकिन जब वे उनसे मिले तो उन्हें लगा कि वे भले ही हिन्दी के बड़े कवि हो लेकिन इनके अंदर से मनुष्यता गायब है।

   

सुरेश सेन निशांत 


निशांत ने बताया कि उन्होंने अपने ऊपर लिखने के लिए आग्रह किया। यह एक ऐसी मांग थी जो किसी बड़े कवि को शोभा नही देती थी। निशांत ने ऐसे कई कवियों और लेखकों के बारे में बताया जिससे मिल कर वे खुश नहीं थे। उनके लेखन और जीवन में गहरी फांक थी। उनसे बात करते हुये उनकी कविता पंक्ति याद आयी।

   

कुछ जो कवि थे 

उनके निजी जीवन में 

कोई उथल–पुथल थी 

सिवाय इसके कि वे कवि थे।

    

मैंने निशांत को बताया कि वे इन चीजों पर कोई ध्यान न दें। हिन्दी की दुनिया ऐसे अनेक त्रासदियों से भरी हुई है। इससे  इतर  वे लिखने पढ़ने का काम करें। वे संवेदनशील कवि थे, वे उसे दिल से लगा लेते थे। हिमाचल के कवि–लेखक उनकी कीर्ति और कवि के रूप में स्वीकृति से विचलित थे। बहरहाल रिसॉर्ट में लंच लेने के बाद हम होटल चले गये और यह तय हुआ कि शाम को राज पैलेस के रेस्तरां में मिलेंगे।

   

हम लोगों का होटल शहर से दूर एकांत में था, सामने पहाड़ियाँ और उनके बीच में बहती हुई व्यास नदी थी। उसके बहने की ध्वनि होटल के कमरे तक आ रही थी। हवा की मादकता हमारे फेफड़ों से टकरा रही थी। बहुत दिनों बाद हम सुगंधित हवा में सांस ले रहे थे। थोड़े से आराम के बाद साँझ घिरने लगी थी। धूप का ताप कम होने लगा था।

  

मंडी के राजा के महल को एक होटल के स्वरूप में बदल दिया गया था, उसका स्थापत्य अद्भुत था। उसे देख कर उसके स्वर्णिम अतीत की याद आती थी। यह अच्छा था कि जब  राजघरानों का पतन हुआ तो उनके वंशजों ने उन्हें किराये या टूरिस्ट विभाग को दे दिया है, कम से कम यह धरोहर सुरक्षित रहेगी। 

  

उस पैलेस में शाम उतर आयी थी, रोशनी की जगमग थी। होटल में भीड़ नहीं थी, यह आम लोगों की जगह नहीं थी। हाँ, कभी-कभी यहाँ आने की विलासिता की जा सकती थी। हमारे  बीच पुराने लेखक सुंदर लोहिया, मुरारी शर्मा और कई अनाम लेखक थे, नेतृत्व निशांत का था। सुंदर लोहिया पुराने लेखक थे, मुरारी शर्मा अच्छे कहानीकार थे। उनके कहानी संग्रह का नाम संभवत: बालमूठ था। किसी पहाड़ी शहर में साहित्य के साथ वहाँ के जलवायु की चर्चा न हो यह संभव नहीं था। हम जहां जाते हैं वहाँ पर जानकारियाँ लेने की कोशिश करते हैं और अपने ज्ञान में कुछ जोड़ते रहते हैं। मुझे अवगत कराया गया कि यहाँ के पहाड़ बेचे जा रहे  हैं, पर्यटन उद्योग लगातार बढ रहा है। कोई भी सोचने की जहमत नहीं उठाता कि पहाड़ नंगे हो रहे हैं। किसी तरह का राजनैतिक हस्तक्षेप नहीं है बल्कि भूमाफिया में मिल जुल काम हो रहा है पहाड़ को काट–काट कर फ़ैक्टरियां और  होटल  बनाये जा  रहे  हैं।

     

निशांत ने मुझे बताया कि उसके दोनों लड़के बाहर रहते हैं। लेकिन जब भी उनसे गर्मियों में आने के लिये कहता हूँ वे यह कह कर मना कर देते हैं कि जहां हम रहते हैं वहाँ हिमाचल की तरह ही मौसम है। मुझे याद है कि कुछ साल पहले जब मैं मसूरी गया था तो वहाँ सुबह शाम स्वेटर पहनने पड़ते थे। थोड़ी बारिश हो गयी तो स्वेटर से नहीं काम चलता था। अब वहाँ का भी  मौसम बदल चुका है, भयानक ग्लोबल वार्मिंग है। मनुष्य बर्बर हो चुका है, वह  जिस डाल पर बैठा है उसी पर कुल्हाड़ी चला रहा है। हमने राजनीति और माफिया के नाम कई शोक प्रस्ताव पारित किए।

   

मित्रों ने बताया गया के हिमाचल में अच्छा लेखन हो रहा है लेकिन उसकी चर्चा नहीं होती। दिल्ली ही तय करती है कि कौन बड़ा या छोटा लेखक है। हम सबने यह महसूस किया कि अब चर्चा  के केंद्र में  रचना नहीं रचनाकार होता है। 

    

मंडी का नाम ऋषि मांडव के नाम से जोड़ा जाता हैं, इस जगह ऋषि मांडव ने तप किया था। यहाँ की चट्टानें उनके तप से  काली हो गयी थी। जनसंख्या के हिसाब से यह हिमाचल का दूसरा बड़ा शहर है, इसकी अवस्थिति बहुत अच्छी है। यहाँ से सड़क मार्ग में चण्डीगढ़ और दूसरी तरफ मनाली से जुड़ता है। यह अपने नाम मंडी को सार्थक करता है। मंडी राजा अजबर सेन द्वारा 1527 में स्थापित की गयी थी, 1948 तक कार्यरत थी फिर उसका नया स्वरूप विकसित हुआ। मंडी पर्यटक स्थल से ज्यादा मंदिरों के लिए जाना जाता है। यहाँ कई दर्जन मंदिर है जिनकी संख्या। अस्सी से अधिक है। पुराने मंदिरों की नक्काशी देखने योग्य है। मंदिरों की संख्या अधिक होने के कारण इसे छोटी काशी के नाम से जाना जा सकता है। त्रिलोकीनाथ शिव मंदिर, भूतनाथ मंदिर, श्यामकाली मंदिर, अर्धनारीश्वर मंदिर मंडी के मुख्य मंदिर हैं। ये सैकड़ों साल पहले बनाये गये मंदिर हैं, इन मंदिरों का शिल्प देख कर ताज्जुब होता है। इसमें काष्ठ कला का अनोखा काम है। इन मंदिरों की यह मान्यता है कि यहाँ दर्शनार्थियों की मनोकामना पूर्ण होती है। धार्मिक मंदिर इसी कारण लोकप्रिय होते हैं। और उनकी लोकजीवन में एक स्थायी छवि निर्मित होती है। आस्था की यह गंगा निरंतर प्रवाहित हो रही है। हर बड़े शहर इस तरह के मंदिर होते है जहां लोग आना जाना अनिवार्य समझते हैं। देवता, पुजारी और भक्तों की कड़ी एक दूसरे से जुड़ती रहती है।

  

पर्यटन में मेरी मंदिरों में कोई रूचि नहीं रही है, वहाँ की भीड़ और पुजारी के ठगने की कला से मैं परिचित हो चुका था। मैं प्रकृति में ईश्वर की सत्ता का दर्शन करता था। जो सुख लोगों को मंदिर के दर्शन करने से मिलता है, वह सुख मुझे वादियों के आलोकन से सहज मिल जाता है। इस अर्थ में मैं सच्चा आस्तिक था। इस सृष्टि  को नकारने से ज्यादा नास्तिकता क्या हो सकती है।


व्यास नदी कुल्लू


कुल्लू-मनाली की ओर प्रस्थान 

कुल्लू मनाली का नाम एक साथ लिया जाता है - जैसे  फैजाबाद-अयोध्या, मथुरा-वृंदावन। मनाली कुल्लू जनपद का एक ऐतिहासिक शहर है। हमारी यात्रा में कुल्लू का ठहराव नही था, सीधे मनाली जाना था। मनाली हिमाचल के खूबसूरत शहरों में एक था। निशांत ने कहा कि कुल्लू में दो कवि आपसे मिलना चाहते हैं, उन्हें मोबाइल से सूचित कर दिया था। वे लोग आपसे  संपर्क करेंगे। जैसे हम रास्ते में आगे बढ़े उनका फोन आ गया। यह हिन्दी के युवा कवि गणेश गनी का फोन था, उन्होंने मुझे व्यास नदी के पास के रिसॉर्ट का नाम बताया। रिसॉर्ट नदी के  बिल्कुल पास था। हमें साफ–साफ नदी की अठखेलियाँ दिखाई दे रही थी, नदी में नवजवान लड़के राफ्टिंग कर रहे थे। हमें उन्हें देख कर डर लगा, हम यह देख कर चकित थे कि कैसे वे उफनती हुई नदी में राफ्टिंग कर रहे हैं। नदी का बहाव बहुत तेज था, पहाड़ों से उतरती हुई नदी में समतल में बहने वाली नदी से ज्यादा तीव्रता होती हैं। अभी कुछ दिन पहले नदी में बस उलट  गयी थी, जैसे पहाड़ों पर बारिश होती हैं नदियों में उफान उठने लगता है। पहाड़ी जगहों में सैर करना निरापद नहीं होता, सड़क के दोनों तरफ गहरी खाइयाँ होती हैं। बारिश होने के बाद चट्टानें खिसकने लगती हैं। पहाड़ के मौसम का कोई भरोसा नहीं होता, कब बादल घिर आयें और बारिश होने लग जाये।

  

रिसॉर्ट में दो कवि मिले पहले थे हुकूम ठाकुर, दूसरे गणेश गनी। हुकूम ठाकुर कुल्लू के पास के पहाड़ी गाँव में रहते थे और फलों और फूलों की खेती करते थे। वे हमारे लिए चेरी ले कर आये थे जिसे देख कर ईशिता बड़ी खुश थे। मैदानों में चेरी बिकने आती है लेकिन उसका स्वाद खट्टा होता था लेकिन हुकूम ठाकुर के चेरी का स्वाद अदभुत था, वे उसे ताजा-ताजा तोड़ कर आये थे। गणेश गनी नये युवा कवि थे और कविताएं लिखते थे। कुछ दिनों बाद उन्होंने 'हिमतरू' नाम की पत्रिका का सम्पादन किया था। हुकूम उम्रदराज कवि थे और लंबी कविताएं लिखते थे लेकिन छपने का तनिक मोह नही था पहाड़ के लोग अमूमन सरल होते हैं, उनके पास कोई बड़ी महत्वाकांक्षा नहीं होती। 

      

हुकुम ठाकुर 


उनकी कविता सुन कर मैं आश्चर्यचकित था, उनके बिम्ब नये थे। उसमें पहाड़ों की ध्वनियाँ मौजूद थीं। मैंने उनसे कहा कि वे अपनी कविताएं पत्रिकाओं में प्रकाशन के लिये भेंजे, मेरे इस बात की ताईद गनी ने भी की। उन्होंने 'पहल' में कविताएं भेजी। संपादक ज्ञानरंजन ने उनकी कविताओं का उल्लेख संपादकीय में  किया। 'पहल' के अलावा अन्य हिन्दी की पत्रिकाओं में उनकी रचनाएं प्रकाशित हुईं। मुझे अकबर इलाहाबादी के शेर  की याद  आयी – 


नहीं कद्रदां की कमी है अकबर  

करे तो कोई कमाल पैदा 


कुछ दिन बाद “ध्वनियों के मलबे से", कविता संग्रह छपा और उसकी चर्चा हुई। उसके पश्चात गणेश गनी के कविता संग्रह “थोड़ा समय निकाल लेना" की आमद हुई।

  

कुल्लू का प्राचीन नाम कुलंथपीठ था, इस घाटी में देवताओं का वास है। कुल्लू का दशहरा जग प्रसिद्ध है, जब देश के अन्य भागों में दशहरा समाप्त होने लगता है, यहाँ पर दशहरा की गतिविधियां शुरू हो जाती हैं। 17वीं शताब्दी में निर्मित रघुनाथ मंदिर यहाँ का प्रमुख मंदिर है, यहीं से रघुनाथ जी की उत्सव यात्रा निकाली जाती है। विशेष बात यह है कि यहाँ मूर्तियों का  दहन नहीं किया जाता।

  

मनाली रवाना होने के पहले मैंने गनी से सैनी अशेष का मोबाइल नंबर मांगा। वे मनाली में रहते थे, उनके साथ स्नोवा बारनो की धूम थी। उनकी कहानियाँ हिन्दी के अनेक पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित हो रही थी, मनाली में उनका कोई स्पष्ट पता नहीं था। उनके  कहानी के नीचे पते की जगह – विजडम हाउस, पोस्ट बाक्स नंबर 81, मनाली लिखा रहता था। इस पते से जासूसी फिल्मों की ध्वनि सुनाई देती थी, उनका फ़ोटो बेहद आकर्षक छपता था। शिमला में जब मैंने स्नोवा की चर्चा की तो मुझे बताया गया कि इस नाम का कोई वजूद नही बल्कि यह सैनी अशेष की परिकल्पना है। शिमला के एक संस्था ने यह घोषित किया कि वे इस लेखिका 21 हजार के पुरस्कार से सम्मानित करना चाहते हैं। लेकिन वे इस  उद्देश्य में कामयाब नही हुए। इस शंका ने इस बात को जन्म दिया कि स्नोवा नाम काल्पनिक है। कोई लेखक या व्यक्ति स्नोवा से मिला है, इसका कोई प्रमाण नहीं मिलता।

    

जितने मुंह उतनी बातें, किसी ने मुझे यह भी बताया कि जब सैनी अशेष अपने नाम से कहानियों को भेजते थे तो वह प्रकाशित नहीं होती थीं। लेकिन स्नोवा बारनो का नाम कहानी लेखिका के रूप में जुड़ा तो धड़ल्ले से कहानियाँ प्रकाशित होने लगी। इसमें कोई संदेह नही कि स्त्री नाम में गजब का आकर्षण है, संपादक उनके प्रति उदार होते हैं। अगर स्त्री लेखिका अपने तरफ से उदारता दिखा दे तो वे रातों-रात मशहूर हो सकती हैं। हिन्दी में इस तरह की  कहानियाँ कम नहीं सुनाई पड़ती।

   

हिन्दी के लेखक-संपादक राजेन्द्र यादव स्नोवा के मुरीद थे। उन्होंने 'हंस' में उनकी अनेक कहानियाँ प्रकाशित की हैं। इसमें कोई संदेह नहीं कि स्नोवा की कहानी की भाव भूमि नई थी, उसमें एक आध्यात्मिक चेतना दिखाई देती थी। जीवन और मृत्यु के रहस्यों की नई भाषा थी। पठनीयता तो गजब थी। मुझे यह भी अवगत कराया गया कि हिन्दी के कई रिटायर खुर्राट लेखकों-आलोचकों ने स्नोवा को भावपूर्ण पत्र लिखे हैं, अगर उन्हें उद्घाटित कर दिया जाय तो बुढ़ौती में उनकी छवि धूमिल हो सकती  है।


मनाली

      


अंगूर की लताओं से घिरा हुआ होटल 

हरे भरे रास्तों और पहाड़ियों से हो कर हमारी गाड़ी मनाली की ओर बढ़ रही थी कि विचारों और स्मृतियों की श्रृंखला अचानक टूट गयी। सामने होटल था, उसके चारों तरफ अंगूर की सघन लताएं फैली हुई थी, उसने होटल को ढँक लिया था। उसमें फल लगे हुये थे लेकिन पके नही थे। हमारा तो यह भी मन था कि सेब के पेड़ से फल तोड़ कर खाये और बचपन  के  उन दिनों की याद करे जब हम आम, अमरूद के फल को तोड़ कर खाते थे लेकिन यह सुख नसीब न हुआ। अभी वे पके नही थे। पेड़ से फल तोड़ कर खाने का मजा अलग होता हैं, उसमें बाजार से खरीदे गये फल से ज्यादा स्वाद मिलता है। हमारी इच्छाएं अक्सर अधूरी रह जाती है। सोचा अगली बार जब हिमाचल आयेगे तो पहले  से तस्दीक कर लेगे।

    

होटल बहुत अच्छा था, कमरा दूसरी मंजिल पर मिला था। वहाँ से  दूर फैली हुई पहाड़ियाँ दिखाई दे रही थी, थोड़ी दूर पर बर्फीले पहाड़ थे, उस पर बादलों की पहरेदारी थी। मनाली पहुंचते-पहुंचते शाम हो गयी थी, जगमग रोशनी जलनी शुरू  हो गयी थी। 

  

मनाली की कथा बहुत प्राचीन है, मनाली की उत्पत्ति मनु से हुई  थी। बताया जाता है कि  जल प्रलय के बाद यहाँ मनु नांव से उतरे थे और फिर नयी सृष्टि की रचना हुई थी। मुझे प्रसाद के कामायनी की याद आयी और उस महाकाव्य के तमाम प्रसंग याद आये। शिला के छाह में मनु का चेहरा याद आया, मनु के नाम का यहाँ एक मन्दिर भी हैं जो इस मिथक को प्रमाणित करता है। वह नगर क्या जो किसी मिथक से न जुड़ा हो। मिथक न भी हो तो लोक कोई न कोई मिथक गढ़ लेता हैं। मनाली की अवस्थिति बहुत अच्छी हैं –यहाँ से लौह–स्फीत होते हुए लेह पहुंचा जा सकता है। जैसे जैसे कोई सैलानी उस रास्ते पर जाता हैं, ठंडक बढ़ती जाती हैं। नये जोड़े यहाँ हनीमून मनाने आते हैं, इस मामले में यह रोमांटिक जगह हैं। 

  

मनाली के सैर करने के पहले मैं सैनी अशेष से  मिलना चाहता था, वे स्थानीय थे इसलिए वे पर्यटन स्थलों से परिचित थे। वे हमारी पीढ़ी के लेखक थे जिन्होंने बच्चों की कहानियाँ लिखी हैं, बुद्ध उन्हें बहुत प्रिय थे। उनकी रूचि ओशो के दर्शन में थी। वे योग शिविरों का आयोजन करते थे, जिसमें देश-विदेश के लोग शामिल होते थे। वे घूमन्तू लेखक थे हमेशा सैर सपाटे में लगे रहते थे। मनाली में 1970 में ओशो आये थे उन्होंने कृष्ण पर विवादस्पद प्रवचन दिया था जिससे  घाटी में बवाल पैदा हो गया था। धर्मशाला के अलावा हिमाचल में मंडी और मनाली में तिब्बती शरणार्थियों की अच्छी उपस्थिति हैं। मनाली में बौद्ध-मठ (गॉलपा) भी दिखाई दिये। ओल्ड मनाली में बौद्ध मठ अधिक हैं, बौद्ध तिब्बतियों के ईश्वर हैं। वे जहां भी जाते हैं बौद्ध संस्कृति उनके संग संग जाती हैं। नई मनाली से ज्यादा आकर्षक ओल्ड मनाली है, वहाँ शिल्पों और जीवन में प्राचीनता सुरक्षित हैं। प्राचीनता हमें अतीत के उन इलाकों में ले जाती है जिसे आधुनिकता ने निषेध कर दिया है।

   

अशेष को फोन किया तो उन्होंने बताया कि वे हिडम्ब मंदिर में मिलेंगे। मेरी उनसे मुलाकात नहीं थी तो उनसे कहा -  मैं आपको कैसे पहचानूँगा? उन्होंने कहा कि वे सफ़ेद कुर्ते पाजामें और टोपी के साथ होंगे। इसलिए पहचानना मुश्किल न होगा। हिडिंब मंदिर महाभारत के भीम की पत्नी हिडिंबा के नाम पर बनाया गया है। वह एक गुफा मंदिर था, उसकी आकृति जापानी पैगोंडा की तरह थी। हमें  मंदिर से ज्यादा मंदिर के परिसर ने आकर्षित किया। उसमें चीड़ देवदार के लंबे–लंबे के आसमान से बातें करते हुये वृक्ष थे। मुझे बोरिस पास्तरनाक और ब्रेख्त की चीड़ पर लिखी कविता का ध्यान आ गया। ब्रेख्त की कविता आप  भी पढे   –


सुबह–सुबह 

चीड़ के पेड़ तांबई रंग के होते हैं 

ऐसा ही देखा है उन्हें  

कोई आधी शताब्दी पहले 

दो विश्व युद्ध के पूर्व अपनी नौजवान आँखों से –

   

अपनी यात्राओं में मैंने मठों–मंदिरों के पुजारियों को देखा है, उनकी कहानियाँ सुनी हैं। संत महंत वहाँ ठाट–बाट के साथ रहते हैं, उन्होंने अपना प्रभामण्डल विकसित किया है जिसे भक्तों ने अपने अपने रंग भरे हैं। उनकी उपस्थिति केवल मठों तक सीमित नहीं है, वे भव्य होटलों और इमारतों के स्वामी हैं। वे हवाई जहाज से यात्राएं करते है और महंगी कारों से चलते हैं। धर्म में जो कुछ वर्जित, उसका वे सेवन करते हैं। मठ में उनकी जो जीवन-शैली है। वह केवल ढोंग हैं। वह  दिखने के लिये हैं, उनके खाने के दांत अलग हैं। मंदिर मे यात्री जो चढ़ावा चढ़ाते हैं वह धर्म–उपकार के काम में नही विलासिता में खर्च होता है। मनाली इस तथ्य का अपवाद नहीं था। 

    

हिडिंबा मंदिर के दर्शन की कतार लंबी थी, हम उसके दर्शन की जोखिम नहीं उठा सकते थे। मेरी आँखें तो सैनी अशेष को खोज रही थी। उनकी आँखों में भी मेरी तरह मिलने की प्रतीक्षा थी, वह बेंच पर बैठे मुड़–मुड़ कर देख रहे थे। मैंने उन्हें पोशाक से पहचान लिया, वे उम्र में मुझसे कई साल बड़े थे। हम एक दूसरे से कभी नहीं मिले थे लेकिन साहित्य लेखन के जरिए जानते थे। मेरे मन में चोर छिपा  हुआ था, सो मैंने उनसे स्नोवा के बारे में पूछा तो उन्होंने बताया कि यह कोई काल्पनिक लेखिका नही हैं। मैंने संकोच के कारण यह नहीं कहा कि उससे मिलवाइये, कुछ चीजें गोपन ही अच्छी लगती हैं। उनका रहस्य अच्छा लगता है। उनसे मैंने अनुरोध किया कि वे यात्रा में मेरे साथ रहे, उन्होंने मेरे आग्रह को सहर्ष स्वीकार कर लिया।




    

एक दिन हमने अपने लिए सुरक्षित कर लिया था, उससे अगले दिन उनके साथ naggar (नग्गर) जाना था। मनाली की संस्कृति में जगह-जगह बौद्ध संस्कृति के दर्शन हो रहे थे। बौद्ध संस्कृति के साथ तिब्बती संस्कृति जुड़ी हुई थी। मनाली में अनेक मोनेस्टरी थी जिसे स्थानीय भाषा में गोम्पा कहते थे। वे पहाड़ियों पर  स्थित थी, उनकी दीवारों पर बुद्ध जीवन से संबंधित अनेक चित्र उकेरे गये थे। परिसर में अनेक दुकाने थी जहां मूर्तियाँ, पेंटिंग किताबें तथा अन्य सामग्री भी बिक रही थीं। ये बौद्ध मठ एक तरह के साधना और योग के केंद्र थे। वहाँ बौद्ध धर्म की शिक्षा भी दी जाती थी। मनाली में ऐसे अनेक मठ थे जिसमें प्रमुख था हिमालियन निमिनगमाया मठ, और उसका परिसर। वह पहाड़ी पर अवस्थित था, चारों ओर पहाड़ियाँ और हरियाली थी।

  

मनाली में सैनी अशेष के साथ सेब के बगीचे में स्थित रेस्तरा की याद  आती है, जहां दो लोगों से मुलाकात हुई। पहले थे वसंत जो अहमदाबाद से मनाली हर साल घूमने आते है, वे स्पेस वैज्ञानिक थे और हाल में रिटायर हो गये थे। उन्होंने हमें बताया कि मनाली में उनकी मुलाकात एक अमरेकी महिला से हुई। वे उसके साथ घूमते रहे, उसने उनके सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। उन्होंने उससे पूछा – आखिर इस विवाह का उद्देश्य क्या है? उसने कहा –मैं आपके साथ हिंदुस्तान घूमना चाहती हूँ। उन्होंने जबाब दिया कि हम बिना विवाह के भारत में भ्रमण कर सकते हैं। वे उसके साथ साल भर के सहजीवन में रह कर अपनी यात्रा पूरी की।

  

दूसरे व्यक्ति थे राजस्थान के निर्गुण स्वामी जो शिक्षा संस्था चलाते थे, वे उससे बिलग हो कर मनाली में आवाजाही करते रहे। ये केवल दो उदाहरण नहीं थे, मनाली में बहुत से ऐसे लोग थे जो अपने वैभव और विलासिता को छोड़ कर मनाली में रहते थे और वहाँ के प्राकृतिक सौन्दर्य से अभिभूत रहते थे। मेरा भी मन करता था कि यहाँ बस जाऊं लेकिन यह न थी हमारी किस्मत कि विसाल–ए–यार होता, गालिब के शेर की याद आ जाती थी 

 

बहुत सुंदरताएं हैं जीवन में 

हर रोज 

सुबह–सुबह हमारे तट के पास से 

गुजरता है एक अज्ञात गायक 

हर रोज 

सुबह-सुबह प्रकट होता हैं 

धुंध में से एक नया गीत 

           

(निकोलाई रेरिख) अनुवाद वरयाम सिंह 

   

निकोलाई रेरिख 


निकोलाई रेरिख का जन्म रूस के शहर पीटर्सवर्ग में 1874 में सम्पन्न और भद्र परिवार में हुआ था। 1917 की रूसी क्रांति ने उनके मानस को बदला था। प्रथम विश्व युद्ध की विभीषिकाओं से वे आहत थे। उन्होंने विश्व के अनेक देशों की यात्राएं की और विभिन्न धर्मों और विचारधाराओं का अध्ययन किया। वे मूल रूप से पेंटर थे लेकिन पुरातत्व और मानव जीवन में गहरी रूचि थी। दुनिया के अनेक चिंतक और लेखक हिमालय के सौन्दर्य से  अभिभूत थे, रेरिख उनमें से एक थे। उन्होंने 1923 में मनाली के पास के गाँव नग्गर में रहने का निश्चय किया। नग्गर की सौन्दर्य–संपदा से वे मोहित थे। उन्होंने हिमालय अध्ययन संस्थान उरूस्वाति नाम की संस्था की स्थापना की, उरूस्वाति उन्होंने अग्निपुराण से लिया था जिसका अर्थ था 'भोर का तारा'। नग्गर में उनके नाम से एक संग्रहालय बना हुआ है जिसमे उनके चित्र लगाए गये थे, इन चित्रों को देख कर लगता है कि वे हिमालय से  कितने गहरे जुड़े हुए थे।

   

वे पेंटर के साथ कवि भी थे, उनकी कविताओं में आध्यात्मिक चेतना और सवेदनशीलता थी, उनकी कविताओं के अनुवाद की एक किताब मिली जिसका अनुवाद वरयाम सिंह ने किया  था। नग्गर में अपूर्व शांति थी, आसपास सेब के  बगीचे, उसमें चहकते पक्षी और उड़ती हुई तितलियाँ थी जो दिल मोह लेती थी। जो प्रकृति के सान्निध्य में रहना चाहते हैं, उनके लिये नग्गर आदर्श स्थान था।

   

नग्गर चौदह सालों से कुल्लू के राजवंश की राजधानी थी, वह अभी अतिक्रमण से बचा हुआ था। लेकिन अब वह प्राकृतिक छटा के केंद्र के रूप में विकसित हुआ हैं। राजे–महाराजों के दिन गए, वे भी जीवनयापन के लिए अपने महल–दूमहले पर्यटन विभाग या किसी संस्था को दे रहे हैं। इसी बहाने उनकी धरोहर सुरक्षित रहती है और उनके नाम का सिक्का चलता रहता है। नग्गर अब रेरिख के नाम से ज्यादा याद किया जाता हैं। निकोलस ने अपने जीवन के अंतिम दिन नग्गर में व्यतीत किये। 13 दिसंबर 1947 को उन्होंने इस दुनिया को अलविदा कहा। उनका अंतिम संस्कार हिन्दू रीति–रिवाजों के अनुसार हुआ। नग्गर के स्थानीय नागरिकों ने देवदार की लकड़ी से  उनकी चिता सजायी, उनकी देह को फूलों से ढँक दिया और उन्हें अग्नि को समर्पित कर दिया। वहाँ उनकी  समाधि स्थापित  है, जिस पर लिखा हुआ है – भारत के महान मित्र महर्षि  निकोलस रेरिख का अग्नि संस्कार इस स्थल पर  15 दिसंबर 1947 को  किया गया।

   

देविका रानी 


नग्गर का नाम प्रसिद्ध अभिनेत्री देविका रानी से जुड़ा हुआ। देविका रानी को हिन्दी सिनेमा की प्रथम नागरिक कहा जाता  है उनकी शिक्षा लंदन में हुई थी जहां उन्होंने थियेटर और आर्टीटेक्ट का कोर्स पूरा किया, वे रवीन्द्र नाथ टैगोर के परिवार से आती थी। हिन्दी सिनेमा की उन अभिनेत्रयों में थी जिसे पद्मश्री सम्मान  मिला था, इसके पहले इस पुरस्कार से फिल्म के किसी व्यक्ति को नहीं नवाजा गया था। इसी तरह उन्हें प्रथम दादा साहब फाल्के सम्मान का अलंकरण मिला था। यूसुफ खान यानी दिलीप कुमार को फिल्मों में लाने का श्रेय उन्हें ही जाता है। अशोक कुमार को फिल्म में लाने का कार्य उन्होंने ही किया था। उनके  साथ फिल्म् 'अछूत कन्या' में अभिनय किया था, यह बेहद साहसिक फिल्म थी, जिसमें एक अछूत लड़की और ब्राह्मण के प्रेम प्रसंग को फिल्माया गया था।

  

हिमांशु कुमार से उनकी मुलाकात लंदन में हुई, हिमांशु उनके सौन्दर्य से मंत्र मुग्ध हो गये थे। दोनों ने एक दूसरे को जीवन–साथी के रूप में स्वीकार किया। हिमांशु कुमार ने मुंबई आ कर प्रसिद्ध सिने संस्था बाम्बे टाकीज की स्थापना की थी। उस दौर में भद्र परिवारों की लड़कियों को फिल्म में आने की मनाही थी लेकिन देविका रानी ने यह खतरा उठाया। अंग्रेजी भाषा में निर्मित फिल्म् 'कर्मा' में उनके नायक हिमांशु कुमार थे। इस फिल्म में मिनट लंबा चुंबन का दृश्य है जिसे अब तक का सबसे लंबा चुंबन दृश्य का गौरव प्राप्त हैं।

  

बाम्बे टाकीज ने दिलीप कुमार, अशोक कुमार और मधुबाला का प्रस्तुतीकरण किया और इस बैनर तले 'अछूत कन्या', 'जन्मभूमि', 'सावित्री', 'इज्जत' जैसी फिल्मों का निर्माण किया। 1940 में हिमांशु कुमार की मृत्यु के बाद वे अकेली हो गयी। बाम्बे टाकीज के आगे बढ़ाने का काम करती रही लेकिन उनके अपने लोग उन्हें धोखा देते रहे।   

   

वर्ष 1945 उनके जीवन का नया मोड़ था जब स्वेतोस्लाव  सलाव रेरिख उनके जीवन में दाखिल हुए। वे प्रसिद्ध चित्रकार निकोलस रेरिख के पुत्र थे, पिता  की तरह पेंटिंग में उनकी रूचि  थी। बताया जाता है कि देविका रानी को अपने फिल्म के  पोस्टर के लिए किसी पेंटर की दरकार थी, तो किसी ने उन्हें रेरिख के नाम का सुझाव दिया। इसी मुलाकात से उनकी नजदीकियाँ बढ़ी जो शादी के रिश्ते में तब्दील हो गयी।  रेरिख ने देविका रानी के पोरट्रेट बनाए और अपनी पेंटिंग को जारी रक्खा। उनके बनाए हुए कई चित्र/व्यक्ति चित्र संसद के केन्द्रीय कक्ष मे लगे हुए हैं।  बाद के दिनों में फिल्मी दुनिया से नाता  तोड़ कर वे बंगलूरू  में बस गयी लेकिन उनका संबंध नग्गर से बना रहा। उन दोनों की मृत्यु की तारीख में ज्यादा अन्तर नही है। स्वेतोस्लाव रेरिख (1904) ने 1993 ने इस दुनिया को अलविदा कहा जबकि देविका रानी (1908) के जिंदगी के दिन 1994 में पूरे  किये। हर जगह की कोई न कोई कथा होती है। उसके बिना कोई वृतांत पूरा नही होता।

  

नग्गर की यात्रा में अशेष हमारे साथ रहे और इस जगह का इतिहास बताते रहे। नग्गर की यात्रा के बाद वे हमें जाणा घूमाने  ले गये। वहाँ का जल प्रपात बहुत अदभुत था, उसकी जलधारा सुदूर पहाड़ से आ रही थी। यहाँ हमने स्थानीय सिगड़ी के साग  और उसके साथ मकई के रोटी का स्वाद लिया।

    

रोहतांग दर्रा 


बर्फ के पहाड़ों  की सैर    

मनाली आने के बाद जिसने रोहतांग दर्रे की सैर नही कि उसके अनुभव अधूरे रह जाते है। मनाली से रोहतांग दर्रे की  दूरी  51 किलोमीटर है। जैसे हम आगे बढ़ते है बर्फ के पहाड़ दिखाई देने लगते हैं। रोहतांग को स्थानीय पहाड़ी भाषा में “शवों का ढेर“ कहते हैं। इसका भी एक अर्थ है - जिस समय में रोहतांग पहुँचने के लिए यातायात के साधन नही  थे, उस समय में यह यात्रा दुर्गम थी। लोगों के प्राण चले जाते थे। मुझे याद है जब मेरे  गाँव में कोई बद्रीनाथ – केदारनाथ की यात्रा पर जाता था तो गाँव–जवार में घूम कर सबका अभिवादन करता था। बहुत से लोग इस यात्रा से लौट भी नहीं पाते, कठिन यात्रा में उनकी मृत्यु हो जाती थी। यह यात्रा लोग अपने जीवन के अन्तिम वर्षों में करते थे। उनके परिवार के लोग उन्हें खुशी–खुशी विदा करते  थे, यह साहस दोनों तरफ था।

   

अब यह यात्रा सुगम हो गयी है। पहाड़ों में आवाजाही आसान हो गयी हैं। तमाम तरह के  साधन विकसित हो गये हैं। मनाली से लाहौल-स्फीत से होते हुये कश्मीर से लेह–लद्दाख तक पहुंचा जा सकता है। अटल सुरंग बनने से दूरी भी कम हो गयी है। यही कारण है कि यह क्षेत्र पर्यटन के लिए तेजी से विकसित हो रहा है। जब हम रोहतांग के लिए आगे बढ़े तो गाड़ियों की लंबी कतार लगी हुई थी। इस कतार में गाड़ियां बहुत छोटी दिख रही थी जैसे प्लास्टिक की नन्ही-नन्ही कारें हो, वे चीटियों की तरह रेंग रही थीं। दूर से चीजें छोटी लगती हैं, उनके सही आकार का पता उनके पास पहुँच कर लगता है। यह मेरे लिये कविता का एक बिम्ब था।

 

हम लोगों से स्वेटर पहन रक्खे थे लेकिन ड्राइवर ने कहा कि इतने कम कपड़ों में ठंड लग जाएगी। आप लोग दुकान से किराये के गर्म कपड़े ले लें। उसने एक दुकान के सामने गाड़ी रोक दी, हम तीनों लोगों के लिए उसने कपड़ों का महंगा चार्ज लिया। हम जान रहे थे कि वह ठग रहा है लेकिन हमारे सामने कोई विकल्प नही था। दुकानदार और ड्राइवर ने हमे डरा दिया था। बाद में पता चला कि दुकानदार और ड्राइवर में साठ–गांठ होती है, ड्राइवर को इसमें कमीशन मिलता है। जब हम बर्फीले चट्टानों पर पहुंचे तो लगा कि यहाँ इतने कपड़ों की जरूरत नहीं थी, फुल स्वेटर में काम चल सकता था। पर्यटन की जगहों में यह ठगहारी आम है। जगह–जगह 'अतिथि देवो भव' के बोर्ड इस बात का मजाक उड़ा रहे थे। यह वाक्य तैत्तिरीय उपनिषद से लिया गया था - अब उसका अनुपालन नहीं हो रहा था।

    

जैसे–जैसे हम आगे बढ़ रहे थे फिजा में ठंडक बढ रही थी, ठंडी हवाएं हमें गुदगुदा रही थी। पहाड़ बर्फ से ढंके हुए थे जैसे पहाड़ों ने दाढ़ी पहन ली हो। बादलों के झुंड घाटी में उतर रहे थे, बादल ठहरे हुए नहीं थे, उनमें चंचलता थी। जी करता था कि गाड़ी से हाथ निकाल कर उन्हे छू ले। रास्ते में बहुत से झरने थे, लोग वहाँ गाड़ी रोक कर उसका आनंद ले रहे थे। उन्हें देख कर नहाने की इच्छा हो रही थी लेकिन स्नान से देह जम सकती थी। ड्राइवर हमें  स्थानों के जानकारी देने के बजाय उन स्थलों के बारे में बता रहा था, जिस जगह पर फिल्मों की शूटिंग हुई थी। उसने उस स्थलों को दिखाया जहां 'जब वी मेट', 'हाईवे', 'देव डी' का फिल्मांकन हुआ हैं जैसे वे कोई तीर्थस्थल हों। 

   

जैसे जैसे रोहतांग दर्रा समीप आ रहा था, हमारे दिल की धड़कने तेज हो रही थी। लग रहा था कि हम एवरेस्ट की चोटी को फतह करने जा रहे हो। रास्ते मे प्लास्टिक के थैले और  शराब की खाली बोतले मिली। कुछ लोग अपनी हिम्मत और मौज को बढ़ाने और ठंड से बचने ले लिए के लिये मदिरा का सेवन करते हैं। यह आधुनिक सभ्यता का मुख्य पेय–पदार्थ बन गया हैं को मुख्य हथियार मानते हैं। इसकी बिना दिन चर्या अधूरी रहती है  इस पर कोई  बंदिश नही हैं। धार्मिक जगहों पर इस पर  प्रतिबंध  है लेकिन लोग कहीं न कहीं उसे खोज ही लेते हैं।

   

हमारे सामने रोहतांग का बर्फ का साम्राज्य फैला हुआ था –जिधर देखो उधर बर्फ, उसके अलावा कुछ नहीं था। बर्फ की ऊंची चट्टानें थी जिस पर नवजवान लड़के बैठे हुये थे। उन्हे ठंड नही लग रही थी। हमने पहली बार बर्फ का इतना बड़ा मैदान देख रहे थे। बच्चे बर्फ की गेंद एक दूसरे की तरफ फेंक रहे थे। वहाँ स्कीइंग, पैराग्लाईडिंग जैसे कौतुक थे, यह सब नये लड़कों के खेल थे जो पहाड़ी जगहों के ये मनपसंद खेल हैं। बर्फीली चट्टानों की आकृतियाँ मोहक थी। उसमें घोड़े हाथी जैसे शिल्प प्रकृति ने गढ़े थे। जगह समतल नहीं थी, इससे सावधानी से चलना पड़ता था। कुछ लोगों के हाथ में छड़ी थी, उसके साथ वे सम्भल संभल कर चल रहे थे। उसमें ज्यादातर लोग उम्रदराज थे। बच्चे  इन अवरोधों को पार कर जा रहे थे। इस बर्फीले मैदान में बच्चे सर्वाधिक आनंद उठा रहे  थे, वे पहली बार बर्फ देख रहे  थे।

   

शालिनी और ईशिता मिल कर बर्फ के खेल खेल रहे थे। मैं पास की बर्फीली चट्टान पर बैठ गया, बगल के सहयात्री से बात करने लगा। वे चंडीगढ़ से आये हुये थे। उन्होंने मुझे बताया कि वे हर दूसरे तीसरे साल यहाँ आते हैं। मैंने उनसे पूछा कि यहाँ उन्हें कौन सी चीज आकर्षित करती हैं, उन्होंने बताया कि उन्हें बर्फीले पहाड़ बहुत लुभाते हैं। उन्हें इस क्षेत्र के इतिहास की जानकारी थी। उन्होंने अवगत कराया कि धर्मशाला में तिब्बतियों कि संख्या  अधिक  है। वे तिब्बत से आए हुए शरणार्थी हैं जो कठिन जीवन जी रहे हैं। दलाई लामा उनके पूज्य हैं। मनाली से कश्मीर होते हुए लेह लद्दाख को रास्ता जाता है जो आगे जा कर चीन से जुड़ता है। यह  पूरा इलाका एक विस्तृत बौद्ध  क्षेत्र हैं। मुझे याद आया कि कल्हण ने राजतरंगिणी लिखी है जिसमें बौद्ध संस्कृति का वर्णन है। बौद्ध धर्म के प्रसार प्रचार में अशोक की मुख्य भूमिका रही है। बौद्ध धर्म उसका राजधर्म था। उसके उत्तराधिकारियों ने उसकी इस परंपरा को आगे बढ़ाया। कुषाण काल में भी इस धर्म का उन्नयन हुआ था। चीनी यात्रियों के यात्रा वृतांतो  से भी पता चलता है कि कश्मीर बुद्ध संस्कृति का केंद्र रहा है

   

यह कितनी बड़ी बिडम्बना है जो धरती बुद्ध के अहिंसा धर्म का केंद्र रही है, वहाँ से बुद्ध की संस्कृति गायब हो गई है, उसकी जगह हिंसा प्रचलित हो रही है। शासकों ने बुद्ध धर्म की पहचान मिटा दी है। काश! बुद्ध की आत्मा वहाँ मौजूद होती तो इतिहास  रक्तरंजित समय से बच जाता। शुरू की कक्षाओं में मैंने पढा था कि जब पानी का तापमान शून्य डिग्री से नीचे आ जाता है, वह बर्फ में तब्दील हो जाता हैं फिर तापमान बढ़ने के साथ बर्फ पिघलने लगती है  लेकिन उस बर्फ का क्या किया जा सकता है जो अब बुद्ध क्षेत्र में स्थायी हो गयी हैं।   

  

मनाली पहुंचते-पहुंचते शाम हो गयी। यात्रा की थकान से खूब अच्छी नींद आयी। एक ही मलाल था कि हम पहाड़ों पर बारिश नहीं देख पाये थे लेकिन जब हम मनाली से ट्रेन पकड़ने  के लिये चंडीगढ़ जा रहे थे तो कुल्लू में बारिश होने लगी। हम गाड़ी रोक कर बारिश का नजारा लेने लगे – बारिश से  पहाड़, पेड़, नदी नहीं पूरी  कायनात भीग रही थी।

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सम्पर्क 

स्वप्निल श्रीवास्तव 

510 – अवधपुरी कालोनी –अमानीगंज 

फैजाबाद -224001  

मोबाइल – 9415332326

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