हितेन्द्र पटेल का आलेख 'देव आनन्द : रोमांसिंग विथ लाइफ!'




इमाम बख़्श नासिख़ का एक शेर है : 'ज़िंदगी ज़िंदा-दिली का है नाम/ मुर्दा-दिल ख़ाक जिया करते हैं।' इस शेर को अपनी जिंदगी में पूरी तरह साकार किया सदाबहार अभिनेता देव आनन्द ने। देव आनंद की निजी ज़िंदगी एक खुली किताब की तरह रही। जो कुछ किया, डंके की चोट पर किया। अपने समय की चर्चित अभिनेत्री सुरैया से उन्होंने बेपनाह मोहब्बत किया। अलग बात है कि मज़हब की वजह से दोनों एक नहीं हो सके और सुरैया ताउम्र अकेली रहीं। एक अभिनेता के तौर पर देव आनन्द का यह क्रेज ही था कि उन पर तीन पीढ़ी की महिलाएं फिदा दिखाई पड़ीं। 

अपने अभिनय से ही देवानंद ने बड़ी लकीर नहीं खींची बल्कि उन्होंने भारतीय फ़िल्म उद्योग को बेमिसाल टैलेंट भी दिए। यह उनकी दूरदर्शिता का ही परिणाम था। शत्रुघ्न सिन्हा, जैकी श्रॉफ़, टीना मुनीम, तब्बू और ज़ीनत अमान जैसे कलाकारों को देवानंद ने ही इंट्रोड्यूस किया। धर्मेन्द्र के हुनर की पहचान उन्होंने ही की।

अपने छात्र जीवन के दिनों में देवानंद हफ़ीज़ जलंधरी की ग़ज़ल 'अभी तो मैं जवान हूँ' अक्सर गुनगुनाया करते थे। देव आनंद के निकट सहयोगी रहे मोहन चूड़ीवाला लिखते हैं, ''जब उन्होंने 1961 में फ़िल्म 'हम दोनों' बनाई तो उन्होंने गीतकार साहिर लुधियानवी से फ़रमाइश की कि वो 'अभी तो मैं जवान हूँ' की तर्ज़ पर एक गीत लिखें। साहिर ने उसी मीटर में गाना लिखा 'अभी न जाओ छोड़ कर कि दिल अभी भरा नहीं'। इतिहास गवाह है कि यह गाना लोगों के बीच खासा लोकप्रिय हुआ।' देवानन्द कभी थके नहीं। कभी थमे नहीं। सालगिरह पर अपनी उम्र बताने के वे सख्त ख़िलाफ़ थे और कहा करते थे 'एजिंग इज़ अ स्टेट ऑफ़ माइंड।' अपने जीवन के अंत तक उन्होंने रोज़ 18 घंटे काम किया।' यह जिन्दादिल अभिनेता अपने ही फिल्म के एक गाने ‘मैं जिंदगी का साथ निभाता चला गया’ की तर्ज पर लगातार अपने तरह से अपनी ज़िंदगी जीता रहा और आगे बढ़ता गया।  प्रख्यात चित्रकार मकबूल फ़िदा हुसैन ने अगर देव साहब की पेंटिंग बनाई, तो यह यूं ही नहीं बनी होगी। जरूर उन्होंने देव साहब में उस विशिष्टता को देखा होगा जो उन्हें असाधारण बनाता रहा होगा। 

आज के अभिनेता भले ही सत्ता के गुण गाएं और राजनीतिज्ञों के सामने नब्बे डिग्री का कोण बना लें, देव आनन्द ने एक सच्चे कलाकार का परिचय देते हुए सत्ता का कड़ा प्रतिरोध किया। देव साहब प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के इमरजेंसी लगाने से बहुत ख़फ़ा थे। उन्होंने उस समारोह में जाने से सख्ती से इंकार कर दिया जिसमें कांग्रेस का गुणगान किया जाना था। आज देवानन्द अगर होते तो वे अपने जन्म की सौंवी सालगिरह मना रहे होते। समय बहुत निर्मम होता है और उसके सामने भला किसकी चलती है। आज देव आनन्द भौतिक रूप से इस दुनिया में नहीं हैं लेकिन एक बड़े तबके की स्मृतियों में वे आज भी अपनी जगह बनाए हुए हैं। इस खास मौके के लिए इतिहासकार हितेन्द्र पटेल ने पहली बार के लिए एक आलेख लिख भेजा है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं हितेन्द्र पटेल का आलेख 'देव आनन्द : रोमांसिंग विथ लाइफ!'



'देव आनन्द : रोमांसिंग विथ लाइफ!'


हितेन्द्र पटेल


फिल्म लेखक और निर्देशक दोनों का माध्यम है। याद वही रहते हैं जिसमें कल्पना और निर्देशकीय कौशल का  तालमेल ठीक से बैठे। देव आनन्द ने कम उम्र में ही इस बात को समझ लिया कि लेखक और निर्देशक दोनों को मिलाना पड़ेगा तभी वैसी फिल्म बनेगी जैसी वे बनाना चाहते हैं। उनकी फिल्में आजाद भारत के आधुनिक सपने का एक दस्तावेज़ भी हैं। और उसे सराहने के लिए देव आनंद, नवकेतन और उनके साथियों को एक साथ ला कर देखना होगा। देव आनंद ने अपने फिल्म परसोना को अपने छोटे भाई के ऊपर छोड़ दिया और तब शुरु हुआ रोमांस का वह दौर जिसने करोड़ों लोगों को छुआ। निश्चित रूप से आजादी के बाद के ढाई तीन दशकों तक सदाबहार देव आनंद का जलवा छाया रहा। नलिनी जयवंत से ले कर टीना मुनीम तक देव आनंद हीरो थे और सभी हीरोइनों के साथ जमे। 


पर्दे के इस महानायक देव आनंद का मानना था कि उनको बस सपने बुनने, सजाने और आशा और आनंद के रंग भर कर फिल्में बनाने से मतलब है। वे फिल्में चलें या न चलें उनका काम बस अपनी क्रिएटिव जर्नी में बस आगे बढ़ते जाना है। 


उनकी जीवन यात्रा को उन्होंने अपनी आत्मकथा में बहुत सही टाइटल दिया है : 'रामांसिंग विथ लाइफ!'

उनके जीवन दर्शन को समझने के लिए यह बढ़िया टेक्स्ट है। 

____


देव आनंद दरअसल धरम देव आनंद थे। उनके जीवन को तीन भागों में बांट कर देखना ठीक है। पहले हिस्से में नौजवान देव हैं। दूसरे में राष्ट्र के करोड़ों लोगों के दिल में धड़कते स्टार देव आनंद हैं और तीसरे में परिपक्व दृष्टि के देव साहब हैं जो एक विशेष जीवन दर्शन के साथ फिल्म और जीवन को देखने वाले बहुत ही बड़े नेशनल आयकन हैं जिनकी अपील उनकी फिल्मों की सफलता से कुछ खास मतलब नहीं रखती। 


हर हिस्से की अपनी खूबसूरती है। पहले हिस्से में देव रॉयल इंडियन नेवी में कमीशन पाने में असफल हो कर बहुत निराश होते हैं और अपने सामने एक दीवार खड़ी पाते हैं। उनके पिता के पास इतने पैसे नहीं हैं कि वे अपने छोटे बेटे को अंग्रेजी आनर्स के बाद उच्च शिक्षा के लिए पैसे दे सकें। 


स्वप्न देखते नौजवान देव को किसी सरकारी दफ्तर में नौकरी करने का विकल्प नहीं रुचा। देव का मन विद्रोह कर उठता है, उसे लगता है कि "रावी नदी ने मानो बहना बंद कर दिया।" उसने निर्णय लिया। उसके पॉकेट में तीस रुपए थे। उसने फ्रंटियर मेल में थर्ड क्लास का टिकट लिया। चल दिया देव बंबई!


सोलह साल के नौजवान ने बंबई में कदम रखा, जेब में पैसे नहीं और आंखों में बड़ा होने के सपने लिए। इस देव ने भूख के मारे अपने बेहद प्रिय डाक टिकट के संग्रह को बेचने की पीड़ा झेली। इस घटना का जो वर्णन है वह तो साहित्य है! इस दौर में देव ने राजा राव, ख्वाजा अहमद अब्बास के साथ रह कर उनसे सीखा, लोकल ट्रेन में यात्राएं की, प्रेम किए, धोखे खाए, स्टार हीरो मोतीलाल को हसरत से देखा, पोस्ट ऑफिस में नौकरी की और अपने बड़े भाई चेतन आनंद के साथ उस समय के अन्य लोगों जैसे बलराज साहनी के साथ नाटक और फिल्म की दुनिया को देखा। इस दुनिया में सब कुछ था जो उनको एक संघर्ष और सपनों के बीच झूलने के लिए तैयार करता रहा। इस दौर में, उनके शब्दों ने, सबने उन्हें बच्चा (किड) ही समझा। 


इस दौर के देव आनंद ने जो सीखा समझा उसे बाद के दौर के स्टार  देव आनंद ने किस तरह पचा लिया यह एक अद्भुत कहानी है जिसमें ही असली मॉडर्न हीरो देव आनंद के जीवन के रोमांस के बीज छिपे हैं। 


देव को बलराज साहनी ने कहा कि ये कभी एक्टर नहीं बन सकता! देव आनंद की जगह किसी और के लिए यह दिल तोड़ देने के लिए काफी होता, लेकिन वह जो आत्मविश्वास देव के भीतर था वह अक्षुण्ण रहा। वे लगे रहे। 


भाग्य ने उनका साथ दिया और उन्हें प्रभात फिल्म कंपनी (पुणे) में काम मिला और माध्यम को उन्होंने धीरे धीरे समझने की कोशिश जारी रखी।




देव आनंद का लेडी लक बहुत अच्छा था। एक स्त्री के साथ शारीरिक संपर्क का मधु चखा और धीरे धीरे वे हीरो बने और स्टारडम और रोमांस का एक ऐसा जोड़ उनके पर्दे और जीवन का हिस्सा बना जो अद्वितीय था।


उनकी बाद के दिनों की हीरोइन नंदा ने कहा कि उनके साथ काम करना इतना सुखद और रोमांचकारी इसलिए भी था क्योंकि लगता था कि वास्तविक जीवन में जैसे उनसे बातें करते थे वैसे ही एक्टिंग के दौरान भी करते थे। स्टार उनके भीतर के जीवन  रोमांस का हिस्सा बना रहा। 


तीन दशकों तक यह सिलसिला चला। यह वह दौर था जिसमें शुरुआत में दिलीप कुमार और राज कपूर थे और अंत में ऋषि कपूर! जज़्बा ऐसा था देव आनंद में कि राज कपूर के जमाने का यह हीरो उसके बेटे के कंधे पर हाथ रख कर कहता है कि हम नौजवानों को नया कुछ करना चाहिए! 


देव जीवन में अपने अनुभवों और अपनी आंतरिक सकारात्मक ऊर्जा से आगे बढ़े यह सब कहते हैं। लेकिन कैसे यह वह कर सके यह समझना जरूरी है। वे कहते थे कि पैसे का कोई मूल्य नहीं होता इसके सिवा कि जो काम आप करना चाहते हैं उसमें यह सहायक होता है। काम केंद्र में है, बाकी चीजें सब उसके बाद! रुकना उन्होंने सीखा ही नहीं। जीवन में अगली उड़ान के साथ पिछले सबक यादें ही बनी, रुकावट नहीं। हर मोड़ पर रोमांस का साथ रहा, एक से बढ़कर एक और हर रोमांस ने उन्हें जीवन रस से भरा और किसी रोमांस ने उनके भीतर रिक्तता या तिक्तता नहीं दी। उषा, मारिया, गेस्ट हाउस में मिली वह हसीन औरत जिसने किशोर देव को आदमी बनाया और उसे बताया कि इंसान इसी आनंद के लिए पैदा हुआ है! सब कुछ मानो उन्हें बस आगे ही ले जाने के लिए आते चले गए हों !


देव आनंद के जीवन में एक ऐसा प्रेम आया जिसके असफल होने की टीस कहीं न कहीं देवाख्यान में गूंजती रही और शायद गूंजती ही रहेगी। सुरैया और देव अपने जमाने का सबसे हसीन जोड़ा होता, लेकिन प्यार में डूबे देव को सुरैया नहीं मिली। अंगूठी समुंदर के हवाले हुई और प्रेम विह्वल देव अपने बड़े भाई के कंधे पर खूब रोए। 


लेकिन उनके जीवन में आई स्त्रियां उन्हें और मजबूत बनाने के लिए ही आती थीं । वे मानते थे कि एक पुरुष को तराशने में स्त्री की बड़ी भूमिका होती है। उसे मजबूती स्त्री ही देती है। 


अपनी आत्मकथा में देव आनंद ने लिखा है कि "कहावत है कि अगर किसी को अच्छी पत्नी मिल गई तो उसे जन्नत यहीं मिल गई समझो। मैं जोड़ना चाहता हूं कि अगर आपको सहयोग करने के लिए एक मजबूत सुसभ्य स्त्री हो जो आपकी सोच को  प्रभावित करे और संतुलन में रखे  तो आपके पास विजेता होने का पूरा मौका है।"


देव आनंद ने यह स्वीकार किया है कि जीवन के हर महत्त्वपूर्ण मोड़ पर उन्हें ऐसे स्त्री मिलती रही। वे सचमुच भाग्यवान थे। या ऐसे देव को देवियां मिलनी ही थी! 


सिर्फ देवी नहीं देव को देव लोक में ले जाने के लिए संयोग की भी भूमिका कुछ कम नहीं। शर्ट बदल जाने के संयोग से गुरुदत्त से दोस्ती हुई, अचानक किसी से मुलाकात हो गई जिससे जीवन की दिशा भी बदल गई। ट्रेन में चढ़ते हुए शाहिद लतीफ (इस्मत चुग़ताई के पति) मिल गए और उन्होंने अगले दिन बंबई टाकीज आने न्यौता दिया। वहां उन्हें उस समय के बड़े स्टार अशोक कुमार मिले जो उनके नए उस्ताद (मेंटर) बने। 'जिद्दी' फिल्म का अनुबंध पॉकेट में ले कर देव स्टूडियो से निकले ही थे कि उन्हें नासिर खान (दिलीप कुमार के भाई) मिले जो उसी रोल के लिए लतीफ और अशोक कुमार से मिलने जा रहे थे! नासिर खान और देव आनंद दोनों मित्र थे और दोनों बहुत खूबसूरत थे और फिल्म जगत में संघर्ष कर रहे थे। क्या पता अगर ट्रेन में मुलाकात नहीं होती तो वह रोल नासिर को मिलता और उनका कैरियर चमक उठता। यह 'जिद्दी' फिल्म को देव आनंद के करियर का मील का पत्थर सिद्ध होना था। विधाता ने शायद देव को ही चुन रखा था। 


देव का विल पावर उन्हें हर स्थिति से आगे निकलने की ताकत देता रहा और किसी भी जोखिम लेने की ताकत देता रहा। 


एक बार उन्होंने तय कर लिया कि वे अपने बड़े भाई के लिए कुछ करेंगे और फिल्म दुनिया में एक अलग बैनर बनाएंगे तो फिर पीछे मुड़ कर नहीं देखा। नवकेतन के बैनर तले एक से बढ़ कर एक फिल्में बनी। यह सिलसिला देव के उस फैसले से शुरु हुआ जब उन्होंने बड़े भाई चेतन को उसकी फिल्म "नीचा नगर" को फिल्म फेस्टिवल में प्रशंसा के बाद भी हॉल में रिलीज करने के लिए कोई नहीं आते देख कर लिया। वे अपने निर्माता के पास गए और उनसे पैसे ले कर उन्होंने बड़े भाई को दे दिया ताकि वो अपनी पसंद की फिल्म बनाए और फिर शुरु हुआ नवकेतन का बैनर, जिसने इतिहास रच दिया। उस समय देव तीस के भी नहीं थे! 


देव ने हमेशा लोगों को बनाया, इस तरह बनाया जैसे वे खुद को ही बना रहे हैं। उन्होंने कभी भी नहीं देखा कि जिसको वो मौका दे रहे हैं उसका बैकग्राउंड क्या है और उसकी जाति और धरम क्या है। वे एक स्पार्क पर किसी पर फिदा हो जाते थे और समझ लेते थे कि इसमें दम है। गीता बाली की तरह उनमें नए टैलेंट को पहचानने की अद्भुत क्षमता थी और वे नए को मौका देते थे और पूरे दम से उसको बैक करते थे। 


मकबूल फ़िदा हुसैन की देव आनन्द पर पेंटिंग



सब लोग जानते हैं कि एक बार उन्होंने एक नौजवान को लाइन में खड़े देखा जो एक्टर बनने के लिए इंटरव्यू देने गया था। वे वहां से गुजरे। उन्होंने उसे देखा, रुके और बात की। भीतर गए और जो चुनाव कर रहे थे उनसे कहा कि उस लड़के को ले लो! वह लड़का धर्मेंद्र था। 


जीनत को उन्होंने एक झलक में चुन लिया। बाद में तो उन्होंने जीनत को एक मूर्तिकार की तरह गढ़ा, उन्हें अपनी रचना बना लिया। उसके पहले एक ही झलक में उन्होंने साधना को चुनने के लिए कहा 'हम दोनों' की हीरोइन के लिए। अपनी गट फीलिंग पर उनको भरोसा रहा। एक इंटरव्यू में उन्होंने एक बार कहा था हर जवान लड़की में एक ...(अपील) होती है, उसकी एक खूबसूरती होती है। आपको देखना होता है कि वह पर्दे पर कितनी अच्छी लगेगी। 'गाइड' को ले कर हीरोइन चुनने में उन्होंने एकदम से कहा कि वहीदा ही रोजी होगी। वहीदा रहमान सचमुच बहुत बड़ी हीरोइन ही नहीं एक बहुत परिपक्व व्यक्तित्व भी थी। उन्होंने कहा है कि उनके सबसे प्रिय हीरो देव ही थे। वहीदा ने एक और बात का जिक्र किया है कि देव वहीदा के कंधे पर हाथ रख सकते थे, उनके स्पर्श में अलग एक बात थी। किसी और हीरो ने इस पर ताना मारा तो वहीदा ने इस विशेष प्रकार के स्पर्श का उल्लेख किया है। 


क्या कारण था कि देव की हर हीरोइन उन पर फिदा थी? शायद देव के व्यक्तित्व की उदात्तता थी, उनका खुला होना था जो हीरोइनों को उनके करीब लाता था। 


उन्होंने अपने दैहिक संबंधों पर जितना खुल कर लिखा है वैसा कोई फिल्मी नायक नहीं लिख सका। फिर भी कोई भी हीरोइन के साथ उनकी तस्वीर को देखिए आप पाएंगे कि बैजयंती माला, हेमा मालिनी से ले कर टीना मुनीम तक हरेक ने पुलकित हो कर उनके साथ बर्ताव किया। जिसे दुनिया बुढ़ापा कहती है उसे देव ने कभी माना ही नहीं। अस्सी साल के देव ने मंच पर जब बैजयंती माला का मंच पर चेन्नई में स्वागत किया तो ज्वेल थीफ का गाना सबके मन में बज उठा होगा।

 

कितनी प्यारी हंसी है बैजयंती माला के चेहरे पर! 


देव साहब का जादू सिर्फ महिलाओं पर नहीं चलता था। राष्ट्रीय पुरस्कार पाने जब वे मंच पर चढ़े जहां यशस्वी राष्ट्रपति अब्दुल कलाम उनका स्वागत करने के लिए थे, एक बार अपने स्टाइल से देव दर्शकों की ओर मुड़े और पूरा हाल झूम उठा! राष्ट्रपति महोदय की हंसी भी देखने लायक थी। इसकी फुटेज को देख कर कौन ऐसा होगा जिसके चेहरे पर मुस्कान न आ जाए! 


आमिर खान के परिवार के लोग, जो फिल्मी परिवार था, जब देव साहब से मिला तो आमिर की मां,  उनकी बीवी और स्वयं आमिर में कौन अधिक पुलकित है बताना मुश्किल है। अमिताभ बच्चन को जब उनकी किताब के विमोचन के लिए फोन किया गया तो अमिताभ बिल्कुल देव साहब की शर्ट से मैच करते हुए शर्ट पहन कर गए! 


इस सदाबहार देव का जादू उनकी फिल्मों की सफलता से जुड़ा हुआ नहीं है, यह बिल्कुल स्पष्ट है। बाद की उनकी लगभग सभी फिल्में व्यवसायिक दृष्टि से असफल हुई। एक तरह से "देस परदेस" के बाद वे एक निर्माता निर्देशक के रूप में उतने सफल नहीं रहे। "लूटमार" और "लश्कर" जैसी इक्का दुक्का  फिल्मों को छोड़ दिया जाए तो जीवन के अंतिम तीन दशकों तक व्यवसायिक दृष्टि से असफल रहे, लेकिन वे रुके नहीं। 


वे अतीत की ओर मुड़ कर नहीं देखते थे। प्रिय हीरोइन वहीदा को उन्होंने अतीत के बारे में नहीं सोचने की सलाह दी थी। हमेशा वे सकारात्मक रहे, अंत तक सक्रिय रहे। उन्हें कभी बीमार होने की फुर्सत ही नहीं रही! अंत तक किस तरह की सक्रिय रचनात्मक दृष्टि उनकी बनी रही इसका एक अंदाजा अस्सी साल के देव से एक समय उनकी हीरोइन रही सिम्मी की बातचीत से लगाया सकता है। सिम्मी के एक प्रश्न के उत्तर में उन्होंने कहा "मैं अस्सी का हूं और एक्टिव हूं, लोग तीस की उम्र में मर जाते हैं! जब तक आप काम कर रहे हैं तब तक जी रहे हैं।… मैं हर पल सीख रहा हूं। तुमसे सीख रहा हूं ।…"

जिस अंदाज़ में उन्होंने कहा है वह देखने से ताल्लुक रखता है। 


हिंदी फिल्मों के इतिहास में सबसे चमकते सितारों में वही सबसे अधिक दिनों तक लोगों के दिलो दिमाग पर छाया रह सका जो अपनी अपील के लिए अपनी एक छवि बना सका और जिसके पीछे जीने का एक फलसफा रहा। दिलीप कुमार, राज कपूर और देव आनंद ने लगभग बीस सालों तक सीधे और उसके बाद याद के रूप में भारतीयों के दिलों पर राज क्रिया। देव आनंद सबसे मॉडर्न माने जाते थे जो जिंदगी का साथ निभाने में यकीन करता था, जो जिंदगी के साथ रोमांस में रहा, आजन्म! अंतिम पल तक रोमांस में रहने वाले इस इंसान का फलसफा क्या था? 


देव बहुत सुरुचिपूर्ण व्यक्तित्व के शालीन व्यक्ति थे। आप गौर करें कि वे निर्दोष फ्लर्ट की वकालत सार्वजनिक रूप से करते थे। पत्नी के होते हुए जीनत को उन्होंने प्रपोज करने की सोची, लगभग कर ही दिया था, पर इसको भी उनके चाहने वालों ने समझा। इसके लिए कभी किसी ने उनकी आलोचना की हो याद नहीं पड़ता। 


अपने प्रिय लोगों के निर्णय के प्रति वे संवेदनशील रहे। सुरैया ने उनसे वादा नहीं निभाया, जिससे एक पल के लिए देव टूट गए, लेकिन बिखरे नहीं क्योंकि वे समझ सकते थे कि सुरैया ने उनके प्रति प्यार रखते हुए उन्हें छोड़ा था, बहुत कष्ट से। दशकों बाद सुरैया ने जब उस प्यार पर "इलस्ट्रेटेड वीकली" में बात की तो यह स्पष्ट था कि इस जुदाई से उनको भी देव से कम तकलीफ नहीं हुई होगी।

जीनत भी हमेशा देव साहब से प्रेम करती रही। और पत्नी मोना (कल्पना कार्तिक)? 

कल्पना कार्तिक देव से इतनी मुहब्बत करती थी कि अपने करियर को लेकर सोचा ही नहीं। अच्छी भली हीरोइन थी, कुछ फिल्में की जिसमें देव आनंद हीरो थे और उसने निर्णय लिया कि वह घर बसाएगी और फिल्म कैरियर छोड़ देगी। देव आनंद एक फैमिली मैन थे और खुश थे। अपने प्रिय पुत्र सुनील और पुत्री देवीना के संबंध में जो बातें देव साहब ने अपनी आत्मकथा में लिखी हैं उससे स्पष्ट हो जाता है कि वे अपने परिवार के प्रति समर्पित रहे। 


फिल्म गाइड में देव आनन्द और वहीदा रहमान



हां, यह सही है कि एक समय आया जब एक चीज थी जो खत्म हो गई! 'गाइड' फिल्म में देव आनंद और वहीदा के बीच एक सीन है जिसमें वहीदा कहती हैं कि 'एक चीज होती है जो खत्म हो जाती है!' नायक शिकायत करता है दुःखी होता है और फिर गीत गाता है : 'दिन ढल जाए, रात न जाए!' यह देव के जीवन में शायद घटा हो! 


कल्पना कार्तिक से जुड़ी दो तीन वाकयों का जिक्र देव आनंद ने किया है जिसमें उन्होंने कल्पना जी के क्रोध का ज़िक्र किया है। सिमी के साथ इंटरव्यू में देव आनंद ने कहा था कि वे क्रिएटिव आदमी थे और कहीं रुक कर सामान्य आदमी की तरह महज गृहस्थ के रूप में नहीं जी सकते थे! दोनों के बीच के रास्ते एक ही छत के नीचे रहते हुए अलग जीते रहे, एक दूसरे के व्यक्तित्व का पूरा सम्मान करते हुए! वे अपने धर्म और मित्रों की ओर मुड़ गई और देव अपनी क्रिएटिव दुनिया में ! 

ऐसे में किसको कौन मनाए! 


देव आनंद ने जीनत के प्रसंग में अपने जीवन के फलसफे को और अधिक खोला है। जीनत को बनाते-बनाते वे उससे प्रेम करने लगे। प्रपोज करने के लिए दिन और स्थान भी तय कर लिया था। जीनत अमान भांप गई कि फैसले की घड़ी आ गई! बीच में जीनत के अपने अरमान आ गए। राज कपूर का तो बस बहाना बना। 


जीनत अमान के साथ देव आनन्द 


जीनत अमान के इस निर्णय को देव आनंद ने लिख कर डिफेंड किया है। दिल से किया। लेकिन वह उनके लिए कठिन रहा होगा क्योंकि वे सालों बाद कहते हैं कि जीनत सही थी, उसे पूरा हक़ था अपने अरमानों के लिए आगे बढ़ने का! और देव आनंद? जैसे देव आनंद को हक था कल्पना कार्तिक से आगे जाने का वैसा ही हक जीनत को भी था। लेकिन देव आनंद ने यह कहा : 'आप क्या कर सकते हैं? आत्महत्या तो नहीं कर सकते'! चोट पहुंची, लेकिन देव आनंद के लिए आकाश अनंत था। वे रुके नहीं। 


देव आनंद ने अपने आखिरी समय के एक इंटरव्यू में कहा था कि उनका प्रिय गीत "अकेला हूं मैं इस दुनिया में" था। यह भी कहा था कि बेसिकली वे लोनर हैं! 


भीड़ में अकेले, लेकिन रोमांस में डूबे जीवन रस से भरपूर और अगली योजना के साथ! अंत तक ऐसे ही रहे! 


देव आनंद की कहानी को विजय आनंद और चेतन आनंद की कहानी के साथ देखने का कभी कभी मन करता है। तीनों ही बेजोड़! कोई किसी से कम नहीं। एक दूसरे से प्रेम करते तीनों भाई अपनी अपनी रचनात्मक दुनिया में रहे। साथ चले लेकिन दूर भी होते गए! प्यार फिर लौटा जब तीनों ही अपने अपने अंत तक पहुंचे! तीनों ने अपनी दुनिया को अपने सामने बहुत बदलते देखा। अब वे जिस नई दुनिया में आ खड़े हुए थे उसमें वे अचंभित थे, दुखी थे पर टिके थे। "कुदरत" जो चेतन आनंद की अपनी फिल्म थी उसके प्रदर्शन को रोकने के लिए खुद चेतन आनंद कोर्ट में गए! विजय आनंद को नई फिल्मों की दुनिया के बड़े सितारों 'राजपूत' और 'राम बलराम' ने इतना थका दिया कि वे एकदम से निष्पृह हो गए!

 

देव आनंद का करिश्मा ऐसा था कि वे न थके और न ही फिल्म बनाने के लिए उनके पास सहयोग करने वालों का सूखा पड़ा। 


जिंदगी का साथ उन्होंने निभाया अंत तक। 

उनकी जिजीविषा ने उनके साथ के लोगों को भी हतप्रभ किया। सब थक सकते हैं, लेकिन देव आनंद कैसे थक सकते थे, वे कैसे रुक सकते थे! वे कैसे अपने सबसे प्रिय मित्र गुरुदत्त की तरह नींद की गोली खा कर चले जा सकते थे! वे तो हम नौजवानों के साथ चलते ही रह सकते थे। उनके अपने सच का बोलबाला हमेशा उनके लिए रहा। 


वे सिखाते रहे :  'पूरी ताकत से रचो और आगे बढ़ते चलो'। जीवन में जो मिला उसका हिसाब भी उन्होंने नहीं रखा। वे क्यों रखें! उनके करोड़ों चाहने वालों के दिलों में वे जो छाप छोड़ गए वही उनकी विरासत है। करोड़ों दिलों के रोमांस में देव जिंदा हैं, रहेंगे। 


एक प्रबुद्ध, सुशिक्षित, जेंटलमैन और चिर युवा कृष्ण के बाद इस भारत में अगर कोई हुआ तो वो देव आनंद ही! उनकी दुनिया में न दुख है न सुख है, बस उनका "मैं ही मैं है!" ऐसा समृद्ध "मैं" है जो जानता है कि वहां कोई नहीं है तेरा… किसका रस्ता देखे गाते हुए भी अंततः यही गाता हुआ याद रहेगा "गाता  रहे मेरा दिल!" कहते हैं उनसे बात करते हुए उनकी एनर्जी से सामने वाला भी चार्ज हो जाता था। होता ही होगा! 


इस देव आनंद का आफ्टर लाइफ उनके लाइफ से भी ज्यादा प्रेरणादाई है।






सम्पर्क


मोबाइल : 09836450033





टिप्पणियाँ

  1. वाह हितेंद्र बाबू ! क्या ख़ूब लिखा है और देवानंद के सदाबहार जादू में डूब कर लिखा है !
    देवानंद - 'जीवन चलने का नाम, चलते रहो, सुबहोशाम' के फ़लसफ़े में यकीन करते थे.
    देवानंद के जीवन के अंतिम दो दशकों को अगर हम भुला दें तो वो हिंदी फ़िल्म-इतिहास के सबसे सदाबहार नायक थे.
    इस आलेख में देवानंद की कमजोरियों को अनदेखा किया गया है. एक निर्देशक के और लेखक के रूप में उनकी भूमिका काफ़ी बचकानी थी.
    अपने जीवन के अंतिम चरण में उन्होंने अपने प्रशंसकों को कितना निराश किया था, इसका ज़िक्र इस आलेख में होना चाहिए था.
    तुम्हारे इस आलेख ने उस सदाबहार नायक को हमारे दिल में एक बार फिर से बिठा दिया है, इसके लिए तुम्हारी कलम की तारीफ़ करना तो बनता है.
    अपने आलेख में देवानंद की फ़िल्मों के गानों को तुमने मोतियों की तरह से जैसे पिरोया है, उसकी तारीफ़ केवल शब्दों में नहीं की जा सकती.
    देवन्द पर जो तुम्हारी क़िताब आने वाली है, उसकी सफलता के लिए मेरी अग्रिम शुभकामनाएं !

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  2. बहुत सुंदर, सादर प्रणाम

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  3. गीत की तरह लिखा है आपने... मन खुश हो गया सर.…
    अभिषेक

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