प्रतुल जोशी का आलेख 'घर पर पिताश्री (स्व० शेखर जोशी)'
शेखर जोशी |
'घर पर पिताश्री (स्व० शेखर जोशी)'
प्रतुल जोशी
पिताजी ने एक साहित्यकार के तौर पर ख्याति अर्जित की। बहुत से साहित्यकारों के जीवन के उदाहरण से हम जानते हैं कि उन्होंने आम नागरिकों से अलग हट कर अपना जीवन जिया है। लेकिन हमारे पिता जी के सन्दर्भ में चीजें बहुत सामान्य थी उन्होंने एक सद्गृहस्थ रहते हुये साहित्य की विभिन्न विधाओं में सृजन का कार्य किया। चौंतीस वर्ष से ज्यादा की आपने सरकारी नौकरी की और अपनी नौकरी का अधिकांश समय तत्कालीन इलाहाबाद में गुजारा, भारत सरकार के एक रक्षा प्रतिष्ठान में कार्य करते हुए। पिता जी के ऑफिस का नाम था '508 आर्मी बेस वर्कशॉप' जो इलाहाबाद के छिवकी इलाके में आज भी स्थित है। यह एक वर्कशॉप है जहाँ सेना के ट्रक और दूसरी गाड़ियों की मरम्मत का कार्य होता है। लगभग 31 वर्ष का समय पिता जी ने इसी वर्कशॉप में व्यतीत किया। यहाँ आपने विभिन्न समय अंतरालों में विभिन्न पद क्षमताओं में कार्य किया। पहले 'चार्जमैन' फिर 'सीनियर चार्जमैन', फिर 'फोरमैन' और अंत में 'वर्कशॉप ऑफिसर' के रूप में आपने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति ली। चूंकि पिता जी वर्कशॉप में कार्य करते थे, इसलिए हमारे घर में वर्कशॉप के बहुत से कर्मचारी आते थे। इनमें से अधिकांश कुशल श्रमिक थे। पिता जी ने औद्योगिक मजदूरों के जीवन पर जो बेहद महत्वपूर्ण कहानियाँ लिखी हैं उसमें चाहे 'उस्ताद' हो, 'मेंटल' हो, या 'नौरगी बीमार है', हो; चाहे 'आशीर्वचन' हो, 'बदबू' हो चाहे सीढियां' हो या फिर रेखाचित्र 'हैड मैसेंजर मंटू', 'जी हुजूरिया' इनमें से सारी कहानियों के किरदार कहीं न कहीं इसी वर्कशॉप के कुशल-अकुशल कर्मचारी थे।
शेखर जोशी का आवास 100, लूकरगंज, इलाहाबाद |
फैक्ट्री का अपना कायदा होता है कि कोई भी फैक्ट्री है, वह समय पर शुरू होती है समय पर समाप्त होती है। वहाँ शुरू होने का सायरन बजता है और समाप्त होने का सायरन बजता है। यह एक रेजिमेंटेड जीवन होता है और इसी रेजिमेंटेड जीवन को पिता जी ने चौंतीस वर्ष पूरी निष्ठा के साथ जिया। वह सुबह सात बजे घर छोड़ देते थे।
शेखर जी का घर 100, लूकरगंज, इलाहाबाद |
घर इलाहाबाद रेलवे स्टेशन से तकरीबन ढाई-तीन किलोमीटर पर था, वो वहीं जाते। रेलवे स्टेशन से एक ट्रेन उनको छिवकी ले जाती जिसे 'शटल' कहते थे। फिर शाम को लगभग 05:00 बजे घर लौटते। शनिवार 'हाफ डे' होता।
शनिवार को पापा का हाफ डे होता। उस दिन वह वर्कशॉप से तीन बजे तक घर आ जाते। फिर शाम को छः बजे साइकिल उठा कर कॉफी हाउस के लिए चल पड़ते। काफी हाउस में शनिवार को शहर के सभी ख्यातनाम लेखकों का जमावड़ा होता। साथ में विश्वविद्यालय के अध्यापक गण भी होते। इस पूरे ग्रुप को ‘‘शनिचरी समाज" के नाम से जाना जाता। उन दिनों किसी ने एक पत्रिका ‘‘शनीचर" का प्रकाशन भी शुरू कर दिया था। शनिवार को कॉफी हाउस जाने का क्रम कई दशकों तक चला। कॉफी हाउस में हर ग्रुप की टेबल फिक्स होती।
पिता जी जिस समूह का हिस्सा थे, उसमें उनके अलावा अमरकान्त जी, मार्कण्डेय जी और भैरव प्रसाद गुप्त जी इस सनीचरी समाज की बैठकों का सिलसिला 80 के मध्य में जा कर ही समाप्त हुआ।
रविवार के दिन छुट्टी और यह जो रविवार का दिन था, हमारे घर बहुत सारे मिलने-जुलने वालों का दिन था। अलग-अलग किस्म के लोग आते। फैक्ट्री के कर्मचारी आते। हमारे नाते-रिश्तेदार आते और साहित्यिक जगत से जुड़े हुए भी बहुत से साहित्यकार आते। पिता जी की एक खास बात थी कि सभी के प्रति उनका व्यवहार बेहद समानधर्मा था। अब किसी रविवार सुबह-सुबह हमारे घर के ड्रॉइंग रूम में सोफे पर पांव रक्खे हुए दूध वाले चुन्नू मिया कई घण्टों दूध के हिसाब पर मगजमारी करते नजर आते। उनकी बहस जहां से शुरू होती, वहीं खत्म होती। प्रायः कई बार ऐसा होता कि सुबह-सुबह शेखर शेखर की आवाज हम लोगों को सुनाई पड़ती। हम लोग उस वक्त अपने-अपने बिस्तरों में घुसे होते। हमें पता चल जाता कि बाहर वरिष्ठ साहित्यकार उपेन्द्र नाथ अश्क' जी हैं। जिनका घर हमारे घर से बहुत दूर नहीं था। उन्होंने बीती रात को एक कविता लिखी होती तो उसके पहले श्रोता हमारे पिता जी होते। उनको सुनाने के लिए वह हमारे घर पर आते। इस तरह से एक माहौल था, वह बड़ा ही रोचक था। बहुत ही आत्मीय था। बहुत सारे लोगों से हमारे सम्पर्क बने रहते। उस जमाने में आज की तरह मोबाइल और फोन का प्रचलन नहीं था। टेलीफोन सेट भी बहुत कम थे। जो आता था, वह बिना किसी सूचना के आता। एक सरप्राइज के तौर पर आता था। पिता जी की एक खास बात यह थी कि वह बहुत संकोची स्वभाव के थे। अगर घर में कोई आता तो पिता जी यह देखते कि उसको पानी मिल गया है या नहीं? उसको चाय मिल गयी है या नहीं? उसको नाश्ता मिल गया है या नहीं? इसका यह बहुत ज्यादा ख्याल रखते। हम बच्चों की पढ़ाई-लिखाई को ले कर भी यह बहुत ज्यादा चिन्तित नहीं होते। उन्हें यह तो पता रहता कि उनके बच्चे किन अलग-अलग कक्षाओं में पढ़ रहे है। लेकिन कैसा कर रहे है और उनका आगे क्या इरादा है, इसको लेकर वह प्रायः कम ही बातचीत करते थे। हम लोग चूँकि पढ़ाई में ठीक-ठाक थे, इसलिए हमने उन्हें ऐसी किसी परेशानी में जाने का अवसर भी नहीं दिया। आज के माँ-बाप की तरह नहीं कि इसी चिन्ता में घुले जाते हैं कि उनके बच्चों के 99 प्रतिशत नम्बर आये है कि नहीं? वह उस दौर में नहीं था। घर में बड़ा ही तनावमुक्त वातावरण रहता था। हम भाई-बहन ने अकादमिक तौर पर झण्डे नहीं गाड़े थे लेकिन पढ़ाई-लिखाई के माहौल से हमेशा जुड़े रहे। हमारे पिता जी की तरह ही हमारी माता जी भी थीं। उन्होंने पिछली सदी के छठे दशक में एम. ए., बी. एड. की पढ़ाई कर ली थी। उस दौर में जबकि महिलायें उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कम जाती थीं, माता जी ने ऊंची-ऊंची डिग्रिया हासिल की थीं। इसका एक कारण हमारे नाना जी का अध्यापक होना भी था। माता जी पढ़ने-लिखने में बहुत रूचि लेती थीं। घर में अगर कोई नई किताब आती तो माता-पिता दोनों पढ़ते और यदि वह किताब कुछ ज्यादा अच्छी उन्हें लगती तो न केवल खुद पढ़ते बल्कि कोई भी घर में आता तो उसको कहते कि वह किताब जरूर पढ़े। अगर कोई अतिरिक्त प्रति होती या किताब पढ़ नहीं रहे थे तो आगंतुक को किताब दे भी देते। हमारे घर में यह एक रिवाज रहा लम्बे समय तक कि अगर किसी की शादी में जाते तो वहां नव वर-वधू को किताब उपहार के तौर पर भेंट की जाती। यह रिवाज सिर्फ हमारे घर में ही नहीं था, यह इलाहाबाद में बड़े पैमाने पर उस दौर में प्रचलित था। जहां माँ-बाप दोनों पढ़ने में रूचि ले रहे हों, यहां बच्चे रूचि न लें ऐसा हो नहीं सकता था इसलिए अधिकांश समय हमारे घर में किताबों के बारे में बातचीत होती रहती थी।
घर में माता जी द्वारा गरीब बच्चों को पढ़ाने का एक उपक्रम भी नियमित तौर पर चलता रहता। मोहल्ले में एक दो परिवार ऐसे थे जो आर्थिक रूप से बेहद कमजोर थे। उनके बच्चों को विभिन्न स्कूलों में प्रवेश दिलाने का कार्य हर शिक्षण सत्र की शुरूआत में युद्धस्तर पर हमारे घर में होता। माता जी, जिन्हें हम लागे ईजा कह कर बुलाते थे, बच्चे को साथ ले कर पड़ोस के किसी स्कूल में जाती, वहां की प्रिन्सिपल से मिलती और स्कूल में प्रवेश दिला कर ही लौटती। पिछली सदी के सातवे आठवे दशक में स्कूलों में प्रवेश की इतनी मारामारी नहीं थी। मोहल्ले के सभी बच्चे स्कूल जाएं, यह हमारे माता-पिता की चिन्ता का विषय होता। मोहल्ले के बच्चों के बाद नम्बर आता घर में काम करने वाली महरियों के बच्चों का। इस संदर्भ में मुझे एक बड़ा रोचक किस्सा याद आ रहा है। हमारे घर एक काम करने वाली आती थी। उसका नाम तो याद नहीं लेकिन उसके बेटे की शक्ल मुझे आज तक याद है। बच्चे के दो दांत थोड़े आगे निकले हुए थे। यह देखते हुए कि वह कहीं नहीं पढ़ रहा है, माता जी एक बार फिर अपने मिशन में लग गईं। उसकी पढा़ई के लिए मोहल्ले के किसी स्कूल में प्रवेश की बात सोची गयी। अब यहां समस्या यह थी कि उस बच्चे का घर का नाम स्कूल में प्रवेश के लिए ठीक नहीं था। उन दिनों गरीब परिवार के बच्चों के नाम बड़े अजब गजब होते थे। किसी का नाम कल्लू होता तो किसी का कलूट। उस बच्चे का नाम भी ऐसे ही कुछ रहा होगा। खैर!
उसका नाम सोचा गया और रखा गया ‘‘सौरभ‘‘। सौरभ का प्रवेश तो स्कूल में हो गया, लेकिन उसकी बुनियाद बेहद कमजोर थी। उसको वर्णमाला का ज्ञान कराने के लिए माता जी ने पहल की। लेकिन ‘‘सौरभ‘‘ जी चट्टान की तरह मजबूत कि कुछ समझ कर ही न दें। उनको पढ़ाना शिव जी के धनुष को तोड़ने जैसा दुष्कर कार्य हो गया।
माता जी के बाद बारी हम भाई बहनों की आई। हम लोगों ने भी पूरी कोशिश की लेकिन विद्यार्थी भी मजबतू इरादों वाला था।वर्णमाला के अक्षरों को न पहचानने की कसम खा रखी थी। अतं में पिता जी ने उसे वर्णमाला अक्षर सिखाने के लिए शिक्षा शास्त्र के आधुनिकतम औजारों का उपयोग किया। उन्होने हम लोगों की शिक्षण पद्धति की जम कर आलोचना की और हमें बताया कि दरअसल वह बच्चा इसलिए नहीं समझ पा रहा है क्योंकि हम लोग उसे सही पद्धति से नहीं पढ़ा रहे थे। उन्होने जो पद्धति अपनाई, उसके अनुसार बच्चे को वर्णमाला के अक्षरों की पहचान के लिए आस पास की वस्तुओं का उल्लेख कर पढ़ाना चाहिए।जैसे उन्होंने ‘‘सौरभ" को बताया कि ‘‘क" शब्द से कैसे आसपास की चीजें जुड़ी हैं।
जैसे‘ ‘क‘‘ से ककडी़, ‘‘क‘‘ से कबतूर, ‘‘क‘‘ से किताब, ‘‘क‘‘ से कलम, ‘‘क‘‘ से कैंची। पिता जी ने पूरे आत्म विश्वास से ‘‘सौरभ‘‘ से कहा कि अब तुम कोई ऐसी चीज बताओ जो ‘‘क‘‘ अक्षर से शुरु होती है और तुम्हारे आस पास मौजूद हो। ‘‘सौरभ‘‘ जी ने उवाचा ‘‘क" से गमला।
अपने परिवार के साथ शेखर जोशी |
वर्ष 2012 में हमारी माता जी का निधन हो गया और उसके बाद जो दस वर्ष थे (जिसमें पिता जी जीवित रहे). उस समय का ज्यादा हिस्सा पिता जी ने मेरे परिवार के साथ लखनऊ में रेडियो कॉलोनी में गुजारा और इस दौर में मैंने पिता का एक अलग रूप देखा। इस रूप में वह पूर्णकालिक साहित्यकार थे। उनके एक आँख की रोशनी चली गई थी. इसके बावजूद वह दूसरी आँख से अख़बार पढ़ते थे, पत्रिकाएं पढ़ते थे, किताबें पढ़ते थे और उसके लिए मैग्नीफाइंग ग्लास का इस्तेमाल करते थे। यह दौर जो हमारी माता जी के मृत्यु के पश्चात् का दौर था, उस दौर में पिता जी ने अपनी जो सबसे प्रिय विद्या थी कहानी लेखन उसको तो छोड़ दिया था, लेकिन कहानी के अलावा वह दूसरी विधाओं में कार्य करने लगे थे। कविता से उनका पुराना रिश्ता था। उन्होंने अपने साहित्यिक जीवन की शुरूआत कविताओं से की थी। एक बार पुनः यह कविताओं की और मुड़े। कविता के अतिरिक्त संस्मरण, साहित्यिक टिप्पणियां, रेखा चित्र ऐसी अनेक विधाओं में काम करना शुरू किया और लगातार करते रहे। इसी का नतीजा था कि दो किताबें उनकी मृत्यु से कुछ समय पूर्व प्रकाशित हुई। एक तो उनका कविता संग्रह 'पार्वती' और दूसरा आत्मकथात्मक संस्मरणों का संग्रह 'मेरा ओलियागाँव'। दोनों किताबें साहित्यिक खमों में व्यापक चर्चा में भी रही। एक और किताब जिसकी वह तैयारी कर के गये थे, सितम्बर 2023 में छप कर आ रही है। इसका नाम है 'इलाहाबाद : फकीरों का शहर'।
पिता जी के लेखक होने के चलते एक पुत्र के तौर पर मुझे यह बहुत ही शिद्दत से अनुभव करने का अवसर प्राप्त हुआ कि बड़े लेखक किस तरह से अपना जीवन व्यतीत करते हैं। मैंने पाया कि लक्ष्य के प्रति एकाग्रता, जीवन के आकर्षणों से दूरी, मितभाषिता यह कुछ गुण थे जो कि मुझे पिता जी के व्यक्तित्व में दिखायी पड़ते थे। एक बात और, जो लेखक प्रायः अन्तर्मुखी स्वभाव के होते हैं, उनके मानस में क्या चल रहा होता है. इसे समझना बहुत आसान नहीं होता। यह जब कागज पर उभर कर आता है तभी स्पष्ट होता है। कोई भी बड़ा लेखक, लेखक के तौर पर एक अलग व्यक्तित्व का मालिक होता है। और एक पिता, पति या पुत्र के रूप में बिल्कुल अलग। ऐसा मैंने अपने पिता के साथ रह कर जाना समझा।
सम्पर्क
मोबाइल : 8736968446
बहुत खूबसूरत प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंजन्मदिन के दिन शेखर जोशी जी और उनकी लेखनी के लिए नमन | उत्तराखंड के लिए वो गर्व हैं|
जवाब देंहटाएंनमन है ऐसे पिता और पुत्र को, रोचक और ज्ञानवर्धक लेख बहुत महत्वपूर्ण बात, अनुकरणीय
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