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प्रतुल जोशी का यह आलेख 'लूकरगंज में लेखकों के साथ बचपन की स्मृतियां'

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  प्रतुल जोशी   इलाहाबाद कभी हिन्दी साहित्य की राजधानी हुआ करता था। एक से बढ़ कर एक नामचीन रचनाकार इलाहाबाद में ही रहते थे। सुमित्रा नंदन पंत, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, महादेवी वर्मा, भैरव प्रसाद गुप्त, उपेन्द्र नाथ अश्क, नरेश मेहता, विजयदेवनारायण साही, प्रकाश चंद्र गुप्ता, अमरकांत, शेखर जोशी, ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह, रवीन्द्र कालिया जैसे प्रख्यात रचनाकारों से इलाहाबाद रोशन हुआ करता था। उस दौर को याद करते हुए प्रतुल जोशी ने एक आलेख लिखा है ' लूकरगंज में लेखकों के साथ बचपन की स्मृतियां'। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं प्रतुल जोशी का यह आलेख। दूसरों की कहानियाँ लिखने वाले लेखकों को यह ज्ञात नहीं होता कि कोई उनकी भी कहानी लिख रहा है‘‘ अज्ञात लूकरगंज में लेखकों के साथ बचपन की स्मृतियां प्रतुल जोशी इलाहाबाद छोड़े पूरे बत्तीस बरस बीत गए। बत्तीस वर्ष पूर्व आकाशवाणी की नौकरी के चलते इलाहाबाद छोड़ दिया था। लेकिन पिता जी, माता जी इलाहाबाद में ही रहते थे। इसलिए बीच-बीच में इलाहाबाद आना-जाना लगातार बना रहता था। वर्ष 2012 में माता जी के निधन के पश

अन्तोन चेख़फ़ की कहानी 'प्यार-व्यार, शादी-वादी'

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अंतोन चेखफ़ रूसी लेखक अन्तोन चेखफ़ (1860-1904) के नाम से कौन साहित्य प्रेमी परिचित नहीं है। चेख़फ़ को विश्व का सर्वश्रेष्ठ कहानीकार माना जाता है। चेख़फ़ ने जीवन के हर पहलू पर कहानियाँ लिखी हैं। चेख़फ़ की कहानियों में एक मारक व्यंग्य होता है। जीवन के विद्रूप को अन्तोन चेख़फ़ बड़ी सहज भाषा में बेहद सहजता के साथ व्यक्त कर देते हैं। उनकी कहानियों में नाटकीयता नहीं होती, बल्कि जीवन की सच्चाई ज्यों की त्यों वैसी की वैसी रखी होती है कि हाथ बढ़ाओ और उठा लो।  इस वर्ष अन्तोन चेख़फ़ की 160 वीं जयन्ती मनाई जा रही है। 29 जनवरी 2020 को चेख़फ़ 160 वर्ष के हो जाते। इस अवसर पर ’पहली बार’ के विशेष अनुरोध पर इस कहानी का मूल रूसी भाषा से अनुवाद किया है — अनिल जनविजय ने। अन्तोन चेख़फ़    प्यार-व्यार, शादी-वादी मूल रूसी से हिन्दी अनुवाद : अनिल जनविजय जब सभी लोग फलों के रस से बनी पूंश नामक हलकी शराब पी चुके तो हमारे माता-पिता ने फुसफुसाकर आपस में कुछ बात की और वे हमें उस कमरे में अकेला छोड़कर बाहर चले गए। मेरे पिता ने जाते-जाते  फुसफुसाकर मुझसे कहा  — चल, आगे बढ़ और उससे बात कर। — अरे बाऊजी, अग

केदार नाथ सिंह की कविताएँ

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केदार नाथ सिंह केदार नाथ सिंह की कविताएँ  हाथ उसका हाथ अपने हाथ में लेते हुए मैंने सोचा दुनिया को हाथ की तरह गर्म और सुंदर होना चाहिए. जाना मैं जा रही हूँ – उसने कहा जाओ – मैंने उत्तर दिया यह जानते हुए कि जाना हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है. मातृ भाषा जैसे चींटियाँ लौटती हैं बिलों में कठफोड़वा लौटता है काठ के पास वायुयान लौटते हैं एक के बाद एक लाल आसमान में डैने पसारे हुए हवाई-अड्डे की ओर ओ मेरी भाषा मैं लौटता हूँ तुम में जब चुप रहते-रहते अकड़ जाती है मेरी जीभ दुखने लगती है मेरी आत्मा मेरी भाषा के लोग   मेरी भाषा के लोग मेरी सड़क के लोग हैं सड़क के लोग सारी दुनिया के लोग पिछली रात मैंने एक सपना देखा कि दुनिया के सारे लोग एक बस में बैठे हैं और हिन्दी बोल रहे हैं फिर वह पीली-सी बस हवा में गायब हो गई और मेरे पास बच गई सिर्फ़ मेरी हिन्दी जो अन्तिम सिक्के की तरह हमेशा बच जाती है मेरे पास हर मुश्किल में कहती वह कुछ नहीं पर बिना कहे भी जानती है मेरी जीभ कि उसकी खाल पर चोटों के कितने निशान हैं कि आती नहीं न