शेखर सिंह की कविताएँ

शेखर सिंह

शेखर सिंह काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में बी ए {अंग्रेज़ी} तृतीय वर्ष के छात्र हैं। इनकी कविताएँ पढ़ कर हम आश्वस्त हो सकते हैं कि हमारी युवा पीढ़ी शब्दों पर भरोसा करती है। शेखर के पास वे शब्द हैं जिनकी बदौलत वे खुद को अमीर महसूस करते हैं। यह अमीरी ऐसी है जो किसी सेंसेक्स के गिरने से मुँह के बल नहीं गिरती, बल्कि जो चुनौतियों के सामने और दृढ़तर हो कर सामने आती है। आज के पूँजीवादी जमाने में किसी बिल्कुल नवोदित कवि का ऐसा सोचना कविता के भविष्य के लिए हमें आश्वस्त करता है। शेखर की कविताओं का अपना लालित्य है जिसे उन्होंने अपने स्वाध्याय से अर्जित किया है। उनके पास लंबी दूरी तय करने का अपेक्षित धैर्य और माद्दा भी है। वे अपनी बात कहे जाने के पक्षधर हैं। अपनी कविता में एक जगह वे लिखते हैं 'कोरे काग़ज़ की त्रासद शान्ति में/ लकीरें बदहवास/ बिना मतलब खिंचना चाहती हैं/ रिसना चाहती हैं।' आज पहली बार पर प्रस्तुत है नवोदित कवि शेखर सिंह की कुछ नई कविताएँ।



शेखर सिंह की कविताएँ


मेरे पास हैं शब्द


ये मेरी ग़रीबी नहीं
कि मेरे पास शब्द हैं
इक यही अमीरी है मेरी
कि मेरे पास हैं शब्द

इत्तफ़ाक़ की बात है जिसकी
मैं ख़ैरात नहीं रखता हूँ।

{2019}


मेरे प्यार


जब वादों के मचलते क़िस्से
इरादों की लंबी फ़ेहरिस्त तैयार हुए
मुद्दतें गुज़र चुकी होंगी
वहम और हक़ीक़त की गुदगुदाती
आँख मिचौलियाँ जारी नहीं रहेंगी

जब दिलो दिमाग़
और कुछ थके थके से मेरे कदम
नए सफ़र की तरफ़ ख़ाकनशीं
कोशिकाओं का पुलिंदा होंगे

मेरे प्यार,
क्या नहीं चाहोगे
मेरी रूह से ऐसे में
थोड़ी गुफ़्तगू कर लेना
दोस्ती का हाथ बढ़ाना
मासूमियत में शरीक होना
चंद ख़ुशियाँ बटोर लेना

मुझे,
निसार होने के ख़याल में
बहौत गहरे
खिलखिलाता दफ़्न कर चलना।

{2020}



अर्थों के जोख़िम

अब जबकि सच्चाई की मिसालों को
कुछ सबसे अँधेरे कोने
रास आने लगे हैं,
कागज़ी क़िस्से
अपनी नमी की याद में
स्याही बन कर
ढुलकना चाहते हैं,
सियाह, दिशाहीन,
जहाँ कोई शब्द न हो
संगीत न हो

अर्थों के जोख़िम
उठाए नहीं उठते हैं
कोरे कागज़ की त्रासद शांति में
लकीरें बदहवास
बिना मतलब खिंचना चाहती हैं
                      रिसना चाहती हैं

रूहों की उदास लाशों को
अपने रूह होने या लाश होने
अपने उदास होने का अफ़सोस नहीं

वो इक सड़न है
जो हर बार रही जाती है
रूहें, अपने सड़ने का इंतज़ार करती हैं।

{2018}


अपने होने पे इक सवालिया निशान

तिरस्कार
राख के जगमगाते महल सा
जब कभी मेरा स्वागत करता है
और सुकून से विक्षिप्त होना
नियति को गवारा नहीं लगता

कहीं से कोई तितली
मेरी उँगली पे आ बैठती है

किसी रोज़
इन सारी स्मृतियों से बेख़बर,
किस किस कदर मुझे
चाहती रहीं छू लेना
रंगों की भोली शोख़ियाँ

तुम्हारे लिए उस रोज़ भी
क्या मैं वहम ही रह जाऊँगा,
जब फ़रिश्तों, देवताओं
तमाम पारलौकिक शक्तियों से
इजाज़त ले कर
तुम्हारे पास दुबारा लौट आऊँगा?

मुमकिन है किसी ख़्वाब में
या फिर कुछ भी न बाकी रहने की
ग़ैरमौजूदगी में लौट आऊँ

बेजान, बेज़ार
अपनी आकृति की
मौजूदगी पे हैरान
अपने होने पे इक सवालिया निशान
                                   वही मैं।

{2018}



मगर वो है कि बस

मुझ में मुद्दतों से कोई बच्चा
रोए जाता है
मैं अब तक उसे
चुप कराए जाता हूँ
लोरियाँ गढ़ता हूँ
कविताएँ सुनाता हूँ

मगर वो है कि बस
रोए जाता है

मैं पूछता हूँ क्या हो गया
किस ने क्या कह दिया
अभी तो रंगीन किताबों से
नटखट नज़ारे चले नहीं गए
अभी तो कागज़ी हवाई जहाज़ में
जा उड़ना है
अभी तो तड़के सुबह साइकिल पर
कहीं दूर निकल चलना है
साथियों के साथ बेवक़्त
खेलों में खोना है

मगर वो है कि बस
रोए जाता है मुझ में

जब कभी हो कर ख़ामोश
अपनी हथेलियों पर
नज़रें फेरता हूँ
उम्र की लकीरों पर लकीरें
खिंचती चली जाती हैं
किसी बदहवास मकड़ी के
उलझे हुए जाले की मानिन्द

खिलौनों को कोई काम
सौंपना चाहता हूँ
इंकार किया जाता हूँ,
और इक वो है जो कम्बख़्त
बस रोए जाता है मुझ में

ख़ैर, कोई बात नहीं
बच्चा है,
किसी रोज़ तो
चुप हो ही जाएगा।

{2019}

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)

सम्पर्क
32/32 187-ए शेखर विला 
साकेत नगर, वाराणसी।

फ़ोन : 8765000678

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