प्रतुल जोशी का यह आलेख 'लूकरगंज में लेखकों के साथ बचपन की स्मृतियां'
इलाहाबाद कभी हिन्दी
साहित्य की राजधानी हुआ करता था। एक से बढ़ कर एक नामचीन रचनाकार इलाहाबाद
में ही रहते थे। सुमित्रा नंदन पंत, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, महादेवी
वर्मा, भैरव प्रसाद गुप्त, उपेन्द्र नाथ अश्क, नरेश मेहता, विजयदेवनारायण
साही, प्रकाश चंद्र गुप्ता, अमरकांत, शेखर जोशी, ज्ञानरंजन, दूधनाथ सिंह,
रवीन्द्र कालिया जैसे प्रख्यात रचनाकारों से इलाहाबाद रोशन हुआ करता था। उस
दौर को याद करते हुए प्रतुल जोशी ने एक आलेख लिखा है 'लूकरगंज में लेखकों के साथ बचपन की स्मृतियां'। आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं प्रतुल जोशी का यह आलेख।
दूसरों की कहानियाँ लिखने वाले लेखकों को यह ज्ञात नहीं होता कि कोई उनकी भी कहानी लिख रहा है‘‘
अज्ञात
लूकरगंज में लेखकों के साथ बचपन की स्मृतियां
प्रतुल जोशी
इलाहाबाद
छोड़े पूरे बत्तीस बरस बीत गए। बत्तीस वर्ष पूर्व आकाशवाणी की नौकरी के चलते इलाहाबाद छोड़ दिया था। लेकिन पिता जी, माता जी इलाहाबाद में
ही रहते थे। इसलिए बीच-बीच में इलाहाबाद आना-जाना लगातार बना रहता था।
वर्ष 2012 में माता जी के निधन के पश्चात जो इलाहाबाद छूटा, तो पिछले कुछ
वर्षों में पूरी तरह छूट गया। पिछले अट्ठाईस वर्षों से लखनऊ में रहने के
कारण अब इलाहाबादी कम और लखनौआ ज्यादा हो गए हैं।
अब
इलाहाबाद जाने का मन भी नहीं करता। कारण कि पिछले वर्षों में इलाहाबाद के
भीतर, देश के अन्य शहरों की तरह व्यापक बदलाव आये हैं। जनसंख्या के दबाव और
गाँवों से शहरों की तरफ पलायन के कारण शहर में बड़े पैमाने पर आवासीय भवनों
का निर्माण हुआ है। शहर जहाँ पहले दो नदियों के बीच सीमाबद्ध था, अब उसका
विस्तार गंगा और यमुना नदी के तटबंधों को लांघ कर नये क्षेत्रों में हो
गया।
लेकिन
मेरी स्मृतियों से उसी इलाहाबाद की स्थायी छवि अंकित है जो एक लम्बे समय
तक अपरिवर्तनशील था। बीसवीं सदी के आखि़री वर्षों तक हम लोग आपस में यह
कहते हुए ठहाके भी लगाते थे कि चाहे सारी दुनिया बदल जाए लेकिन अपना
इलाहाबाद नहीं बदलने वाला। लेकिन इक्कीसवीं सदी की आहट को जैसे इलाहाबाद
शहर ने बड़ी तीव्रता से सुना। सिविल लाइंस से ले कर हम लोगों का मुहल्ला
लूकरगंज तक ऐसे बदलने लगे कि लगा जैसे पुराना शहर हमारे हाथों से तेजी से
फिसल रहा है।
नाॅस्टेलाजिया
का अपना आकर्षण है। हज़ारों साल के मानव समाज की स्मृतियाँ सहेज कर मनुष्य
जाति पूरा जीवन गुज़ार देती है। मेरे पास तो निकट अतीत की स्मृतियाँ हैं। उन
स्मृतियों को उसी रूप में देखने की इच्छा के चलते ही बदले हुए इलाहाबाद
(अब प्रयागराज) को देखने की इच्छा नहीं होती।
इलाहाबाद
में मेरा बचपन कई मायनों में विशिष्ट था। हम लोग लूकरगंज में रहते थे।
लूकरगंज इलाहाबाद पश्चिम विधानसभा क्षेत्र के अन्तर्गत एक मुहल्ला है। यह
किन्हीं अंग्रेज लूकर साहब के नाम पर रखा गया है।
पिछली
सदी के साठ के दशक में यहाँ बड़े पैमाने पर बंगाली परिवारों (जो ब्रिटिश
राज में चाकरी के लिए बंगाल से आ कर यहाँ बसे थे) और सिंधी परिवारों (जो
विभाजन के पश्चात् शरणार्थी के रूप में यहाँ आये थे) के मकान थे। इसी लूकरगंज की एक अहातेनुमा रिहाईश में (जो टंडन जी का अहाता के नाम से प्रसिद्ध था) हमारा परिवार रहा करता था।
भैरव प्रसाद गुप्त |
हमारे
घर से लगभग एक फर्लांग पर भैरव प्रसाद गुप्त जी का मकान था। भैरव जी के
मकान से थोड़ा आगे नरेश मेहता जी का मकान था। भैरव जी और नरेश जी के मकानों
से लगभग समान दूरी पर लूकरगंज से सीमाबद्ध खुसरो बाग रोड पर उपेन्द्र नाथ
‘‘अश्क’’ जी का बड़ा सा बंगला था। अगर लूकरगंज के पश्चिमी छोर पर ‘‘अश्क’’
जी का बंगला था तो एकदम पूर्वी छोर पर ज्ञानरंजन जी का बंगला था। दोनों के
बंगलों के मध्य लगभग डेढ़-दो किलोमीटर की दूरी थी।
भैरव
प्रसाद गुप्त जी, श्री नरेश मेहता और अश्क जी का त्रिकोण ऐसा था कि यह
तीनों ही पूर्णकालिक लेखक थे, आधे किलोमीटर के दायरे में रहते थे और तीनों
के मध्य आपस में संवाद नहीं था। यह सत्तर के दशक के प्रारंभिक वर्षों की
बात थी। हमारी माता जी बताती थी कि शुरू में ऐसी स्थिति नहीं थी। हमारे
माता-पिता का विवाह वर्ष 1960 में हुआ था। माता (स्वर्गीय श्रीमती
चन्द्रकला जोशी) एवं पिता (श्री शेखर जोशी)। माता जी का कहना था कि साठ के
दशक में अश्क जी और भैरव जी की गाढ़ी छनती थी। फिर किसी बात पर दोनों में
ऐसी ठनी कि आपसी संवाद के तार टूट गये। भैरव जी और अश्क जी दोनों के संबंध
नरेश मेहता जी से भी प्रारंभ में काफी मधुर थे। लेकिन मेरे होश संभालने तक
नरेश जी ने इन दोनों से अपनी दूरी बना ली थी।
सन्
1962 के आस-पास भैरव जी ‘‘नयी कहानियाँ’’ पत्रिका का संपादन करने के
सिलसिले में दिल्ली चले गये थे। उस वक्त हम लोगों का परिवार करेलाबाग
काॅलोनी में रहता था। भैरव जी के आग्रह पर पापा, करेलाबाग कालोनी से
लूकरगंज उनके मकान में रहने आ गये। भैरव जी का मन दिल्ली में ज़्यादा दिन
नहीं लगा। वह वापस इलाहाबाद लौट आये। उनके लौटने के चलते हमारे परिवार को
अब एक नये मकान की ज़रूरत थी। हम लोगों को भैरव जी के पड़ोस में ही 100
लूकरगंज में एक मकान मिल गया था। चूंकि पिता जी का शुमार, भैरव जी के क़रीबी
लोगों में होता था, इसके चलते ‘अश्क जी’ का हमारे घर भी आना बंद था। जब
मैं हाईस्कूल में पहुँचा तो मैंने महसूस किया कि घर में शहर के बहुत सारे
लेखक आते हैं। लेकिन अश्क जी कभी नहीं आते। एक दिन मेरा मन हुआ कि अश्क जी
से मिलना चाहिए। मैं गर्वमेन्ट स्कूल से लौटते हुए, सीधे सिविल लाइंस में
काॅफी हाउस के बगल में स्थित उनकी दुकान ‘‘नीलाभ प्रकाशन’’ पहुँच गया।
दुकान में एक सज्जन खड़े हुए थे। मैंने कहा कि मुझे अश्क जी से मिलना है। उन
सज्जन ने पूछा कि आप क्यों मिलना चाहते हैं। साथ ही उन्होंने मेरा परिचय
पूछा। मैंने कहा कि मैं श्री शेखर जोशी का ज्येष्ठ पुत्र हूँ और आज तक मैं
कभी अश्क जी से नहीं मिला। इसलिए मुझे उनसे मिलना हैं। मेरी बात सुन कर वह
सज्जन बहुत बहुत खुश हुए। उन्होंने कहा कि मैं ही उपेन्द्र नाथ अश्क हूँ।
फिर उन्होंने कहा कि, ‘‘अरे, तुम तो बहुत बड़े हो गये हो।’’ मुझे उन्होंने
अपनी एक पुस्तक ‘‘चेहरे अनेक भाग-3’’ भी भेंट की। कहा, इसे पढ़ कर अपनी राय
देना। ‘‘अश्क जी’’ की किताब मैंने पढ़ी। पुस्तक में “अश्क” जी ने अपनी
सितमज़रीफ़ी का विस्तार से वर्णन किया था। कि किस तरह इलाहाबाद में वहां के
स्थापित लेखकों ने उन्हें सताया था। और फिर अश्क जी को भी जब मौक़ा मिला तो
उन्होंने भी उन सब को सताने में कोई कसर नहीं छोड़ी थी। किताब पढ़ने के
पश्चात् मैं एक बाद फिर अश्क जी के ‘‘नीलाभ प्रकाशन’’ पहुँचा। अश्क जी ने
उत्सुकता से पूछा ‘‘किताब पढ़ी?’’
मैने कहा ‘‘हाँ, पढ़ी।’’
अश्क
जी ने फिर पूछा ‘‘कैसी लगी?’’ मैने बिना लाग-लपेट के कहा ‘‘अश्क जी कुछ
समझ में नहीं आया। आखिर आपकी इस किताब में है ही क्या? कुछ लेखकों ने आपको
परेशान किया। फिर आपने उनसे बदला लिया। इसी का तो वर्णन है।
अश्क जी |
एक
किशोर के मुँह से अपनी किताब की ऐसी निर्मम आलोचना से अश्क जी को बुरा तो
ज़रूर लगा होगा। लेकिन उन्होंने चेहरे पर कोई शिकन आये बिना कहा ‘‘अच्छा यह
बताओ, महाभारत में क्या है?' उसमें भी तो इसी तरह की चीजें हैं।” अश्क जी
के जवाब से मैं निरूत्तर हो गया। इन दो मुलाक़ातों के बाद अश्क जी का हमारे
घर फिर से आना-जाना शुरू हो गया। एक लंबे अरसे के बाद अश्क जी ने जब हमारे
घर आना जाना शुरू किया तो फिर वह खूब आते। उस समय तक भैरव जी भी लूकरगंज के
किराये के मकान को छोड़ कर बेनीगंज के अपने नवनिर्मित मकान में शिफ्ट हो
गये थे। सुबह-सुबह लगभग सात बजे अश्क जी की आवाज़ सुनाई पड़ जाती। तब तक
पिता जी भी भारत सरकार के रक्षा मंत्रालय की नौकरी से स्वैच्छिक अवकाश ले
चुके थे।
‘‘शेखर-शेखर’’
अश्क जी की आवाज़ जब हम लोगों के कानों में पड़ती, उस समय तक हम लोग प्रायः विस्तर में ही होते। पिता जी बहुत आदरपूर्वक उन्हे बैठक में बिठाते। अश्क जी पिछली रात लिखी हुई अपनी कोई
ताज़ातरीन कविता के साथ उपस्थित होते।
अश्क
जी का 5, खुसरो बाग़ रोड वाला बंगला काफी बड़ा था। कभी-कभी मैं अपने किसी
मित्र को ले कर उनके बंगले पर पहुँच जाता। अश्क जी के साथ कौशल्या जी भी
मिल जाती। अश्क जी कुर्ता पैजामा के साथ टोपी पहनते तो कौशल्या जी सलवार
कमीज़ में रहतीं। मेरे लिये थोड़े असमंजस की स्थिति रहती जब अश्क जी एक बात
बार-बार कहते, ‘‘बेटे, ऐसे नहीं मरूंगा’’।
मेरा मन धृष्ठता करने के लिये व्याकुल हो उठता। पूछने का मन करता "अश्क जी, आप कैसे मरेंगे?’’ लेकिन मैं अपने ऊपर नियंत्रण रख लेता।
‘‘बेटे
ऐसे नहीं मरूंगा’’ की अगली लाइन होती, ‘‘जब तक 'गिरती दीवारें' के एक हज़ार
पेज और नहीं लिख लूंगा। 'चेहरे अनेक' के चार खंड और नहीं लिख लूंगा।’’
नीलाभ
का घर का नाम गुड्डा था। अश्क जी की बातों में कभी-कभी नीलाभ का भी ज़िक्र
होता। नीलाभ कुछ वर्ष बी.बी.सी. हिन्दी सर्विस की सेवा में काम कर चुके थे।
उन दिनों की याद करते हुए अश्क जी कहते, ‘‘मैंने गुड्डा की बीबी से कहा,
इसको बी.बी.सी. लंदन से बुला लो। वहां किसी फिरंगन के चक्कर में आ जाएगा।’’
संभवतः
उन्होंने नीलाभ के महिला प्रेम को काफी पहले भांप लिया था। मेरी दुबली
पतली काया को देख कर कहते ‘‘तुम कुछ व्यायाम किया करो। गुड्डा तो काफी
शारीरिक एक्सरसाइज़ करता है।’’ उनके कुछ जुमले आज भी याद आते हैं। जैसे
‘‘पैसा कमाना इतना आसान नहीं है, मेरी जान’’ आदि आदि।
नरेश मेहता |
नरेश मेहता जी के घर का नंबर 99 लूकरगंज
था और हमारे घर का नम्बर 100, लूकरगंज। लेकिन नरेश जी के घर से हमारे घर की
दूरी लगभग आधे किलोमीटर की थी। नरेश जी अपने नाम के आगे श्री ज़रूर लगाते
थे। इसलिए उनके घर के बाहर उनकी नेम प्लेट में श्री नरेश मेहता लिखा रहता।
नरेश जी का पुत्र ईशान मेरा मित्र था और फुटबाल का अच्छा खिलाड़ी था।
दुर्भाग्यवश शादी के एक वर्ष बाद ही उसकी मृत्यु भोपाल इंदौर राजमार्ग
पर एक सड़क दुर्घटना में हो गयी थी। नरेश जी की एक पुत्री भी है, वान्या।
वान्या का घर का नाम बुलबुल.था। संभवतः आजकल वह दुबई में रहती है। नरेश जी,
अश्क जी की तरह पूर्णकालिक लेखक थे और उनकी पत्नी महिमा जी लूकरगंज के
पड़ोस में हिम्मतगंज में क़िदवई मेमोरियल गर्ल्स इंटर कालेज में पढ़ाती थीं।
उसी काॅलेज में उर्दू के प्रख्यात् आलोचक शमसुर्रहमान फ़ारूक़ी की पत्नी
प्रधानाध्यापिका थीं। नरेश जी वर्ष में एक बार होली के अवसर पर ज़रूर हमारे
घर आते। कलफ़ लगी धोती, उसके ऊपर चमकदार कुर्ता। साथ में महिमा जी। दोनों की
जोड़ी बहुत आकर्षक लगती। लम्बे चौड़े और खूबसूरत दोनों पति पत्नी। नरेश जी
का आना-जाना हमारे घर ही था। वह न तो भैरव जी के घर जाते, न अश्क जी के
यहाँ। प्रायः हर शाम वह लूकरगंज और उससे सटे मुहल्ले ख़ुल्दाबाद के
संधि-स्थल पर, ख़ुल्दाबाद की सब्ज़ी मंडी के आढ़तियों और स्थानीय व्यापारियों
के साथ बैठकी ज़रूर करते। दरअसल ख़ुल्दाबाद, मुग़लों के समय से सराय ख़ुल्दाबाद
के नाम से जाना जाने वाला इलाका है। संभवतः वहाँ कोई सराय थी, जिसमें देश
दुनिया के लोग टिका करते होंगे। यहाँ एक बड़ी सब्ज़ी मंडी है। हम लोग घर की
सब्जियाँ, थोक भाव में यहीं से खरीद कर लाते थे। ख़ुल्दाबाद, एक बेहद
चलती-फिरती सड़क के दोनों ओर विविध क़िस्म की दुकानों से आबाद था। खासकर परचून
और हलवाईयों की दुकानें यहां की शोभा बढ़ाती थीं। किसी दुकान में गेहूँ और
चावल के बोरे सजे रहते तो कहीं स्कूल काॅलेज की काॅपी किताबें मिलती। कहीं
मिठाईयां सजी दिखतीं तो किसी दुकान की ख्याति शुद्व किस्म के कड़वे तेल के
चलते थी। इन्हीं दुकानों के मध्य में एक छोटी सी देशी शराब की दुकान शोभा
बढ़ाती। जो ‘‘हौली’’ के नाम से जानी जाती और जिसके भीतर से निकलते, झूमते और
लड़खड़ाते शराबियों के समूह, शाम के समय ख़ुल्दाबाद की सड़कों पर विचरण करते।
सब्ज़ी मंडी खुल्दाबाद की शोहरत पूरे इलाहाबाद शहर में थी। इसलिए इलाहाबाद
विश्वविद्यालय छात्रसंघ के चुनाव के दौरान कभी-कभी छात्र मज़ाक में नारा
लगाते
‘‘इन्क़लाब जिंदाबाद
सब्ज़ीमंडी ख़ुल्दाबाद।’’
अश्क
जी का बंगला खुसरो बाग़ की मुग़लकालीन दीवार के ठीक सामने था। उनके बंगले के
गेट के सामने पीठ कर के खड़े होने पर खुसरोबाग की दीवार दांयी तरफ जहाँ खत्म
होती थी, उस दीवार के बाद ही खुल्दाबाद शुरू होता था। यहाँ नाई, बकरे के
गोश्त, साइकिल और रिक्शे की मरम्मत वाली कुछ दुकानों की लाइन थी जो आगे
बांयी तरफ मुड़ती थी और ख़ुल्दाबाद वाली मुख्य सड़क का एक किनारा बनाती थी। यह
लूकरगंज, खुसरोबाग रोड और ख़ुल्दाबाद का संधि-स्थल था। यहीं शाम को नरेश जी
की बैठक मुहल्ले के लोगों के साथ जमती थी। यहाँ नरेश जी का स्वरूप एक
वैष्णवी कवि से बिल्कुल अलग दिखता। अश्क जी का घर नरेश जी की इस बैठकी से
मात्र दो सौ मीटर दूर था। लेकिन अश्क जी और नरेश जी के मध्य चूंकि
संवादहीनता की स्थिति थी, इसलिये नरेश जी की बैठकी में अश्क जी के मकान की
दूरी कोई मायने नहीं रखती थी। एक बार नरेश जी की इस बैठकी का फायदा मुझे भी
मिला। हुआ कुछ यूँ कि पिता जी की फैक्ट्री का एक मुस्लिम कर्मचारी एक दिन
अपनी चमचमाती साइकिल के साथ हमारे घर हाज़िर हुआ। उस दिन मुस्लिम समुदाय का
कोई त्यौहार था। वह महाशय जब हमारे घर से वापस लौटे तो ख़ुल्दाबाद में ताजिए
निकल रहे थे। उन्होंने एक जगह साइकिल खड़ी की और आगे बढ़ कर ताज़िए छूने चल
दिए। इसी बीच किसी ने उनकी साइकिल गायब कर दी। अब वह रूआंसे पुनः हमारे घर
तशरीफ़ लाए। पिता जी ने कहा कि तुम इनके साथ जा कर थाने में रिपोर्ट दर्ज
करवा दो। मैं उस जगह को देखना चाहता था जहां से साइकिल चुराई गयी थी।
संयोगवश वह जगह उस स्थान के पास थी, जहाँ नरेश जी की बैठक जमती थी। वहीं
नरेश जी मुझे बैठे दिख भी गये। मैंने कहा कि “चाचा जी, यह सज्जन पापा की
वर्कशाॅप में काम करते है। इनकी साइकिल यहाँ से किसी ने चुरा ली।" नरेश जी
ने कहा बेहतर हो "तुम इनकी साइकिल की चोरी की रिपोर्ट संबंधित थाने में करवा
दो” (उनके हाव-भाव से मुझे यह संदेह हो रहा था जैसे वो कह रहे हों कि भाई मैं इसमें क्या कर
सकता हूँ)। मैंने सहमति से सिर हिलाया और ख़ुल्दाबाद थाने की तरफ़ रूख किया।
लौटते समय मैं उसी रास्ते से लौटा। जब नरेश जी की
बैठकी के समीप से गुज़रा तो देखता क्या हूँ कि वर्कशाॅप के मैकेनिक साहब की
वह चमचमाती साइकिल नरेश जी की बैठकी के पास खड़ी है। मैंने अपनी साइकिल रोकी
और नरेश जी के पास पहुँचा। नरेश जी ने चेहरे पर बनावटी रोष के साथ कहा कि
वह हज़रत साइकिल पास में ही खड़ी कर, जगह भूल गये थे। और हल्ला मचा रहे थे कि
उनकी साइकिल चोरी हो गयी। मैं कुछ नहीं बोला और मिस्त्री साहब की साइकिल
किसी तरह संतुलन बनाते घर ले आया।
मुझे
यह समझ में आ गया कि नरेश जी से मुलाक़ात के बाद क्या घटना घटी होगी? दरअसल
जब नरेश जी ने साइकिल चोरी का वाकया वहां बैठे मुहल्ले के चौधरियों को
बयान किया होगा तो उन्होंने ज़रूर उस इलाके के दाग़ी चोरों को तलब किया होगा।
और बताया होगा कि वह साइकिल जो चोरी हुई है, अपने जानने वाले की ही है।
चौधरी लोगों के दबाव में जिस व्यक्ति ने साइकिल पर हाथ साफ किया होगा, उसने
तुरंत साइकिल ला कर वापस कर दी होगी। ख़ैर! मुझे तो नरेश जी की बैठकी के
चलते एक व्यक्ति की चोरी गई साइकिल वापस मिल गई।
भैरव
जी से मेरा रिश्ता पिता पुत्र की तरह था। वह लूकरगंज में लम्बे समय तक
रहे। वहाँ उनका कमरा शेष घर से अलग था। भैरव जी उसी कमरे में बैठ कर लेखन
में जुटे रहते। एक समय में वह चेन स्मोकर थे। उनके लेखन वाले कमरे में
सिगरेट के कार्टन के कार्टन शोभा बढ़ाते। उनके घर ढेर सारे साहित्यकारों का
आगमन होता रहता। कई बार, कई साहित्यकारों को ले कर मैं उनके घर पहुँचता।
ऐसे साहित्यकार पहले हमारे घर आ जाते। वहाँ से मैं उन्हें ले कर भैरव जी के
घर पहुँचता। भैरव जी विचित्र प्रकृति के स्वामी थे। कई बार यह हत्थे से उखड़
जाते। यह बिना लाग लपेट के सीधे तल्ख़ बात कह देते। कन्हैया लाल नंदन जब
'सारिका' के संपादक बने तो वह इलाहाबाद के लेखकों से मिलने पहुँचे। संयोगवश
पहले वह हमारे घर आये। हमेशा की तरह हमारे घर से भैरव जी के घर तक उनको ले
जाने की ज़िम्मेदारी मुझे ही निभानी पड़ी। नंदन जी के साथ एक दो लोग और थे।
हम लोग जब भैरव जी के घर पहुँचे तो नंदन जी ने पूछ लिया।
‘‘भैरव जी। 'सारिका' कैसी लग रही है ?’’
भैरव जी ने अपने सोंटा गुरू अंदाज़ में कहा ‘‘कूड़ा निकाल रहे हो।’’
मेरे
लिए, नंदन जी के लिए और उनके साथ आये दो अन्य व्यक्तियों के लिए यह बड़ी
अजीब सी स्थिति थी। लेकिन नंदन जी ने ऊपरी तौर पर भैरव जी की बात का बुरा
नहीं माना और उनके उत्तर पर उनसे मार्गदर्शन देने का अनुरोध किया।
ऐसे
ही एक बार भैरव जी के सुपुत्र जयप्रकाश (जिन्हें हम लोग बाबू दद्दा कहते
थे) की पत्नी के प्रसव के दौरान मैं और भैरव जी डफरिन अस्पताल में थे। वहाँ
भैरव जी को किसी नर्स का व्यवहार पसंद नहीं आया। उन्होंने उसकी शिकायत
नर्स की सुपरवाइजर से कर दी। हम लोग अस्पताल में बैठे थे कि तभी वह नर्स
उपस्थित हो गई।
‘‘आपने
मेरी शिकायत की?’’ वह गुस्से में थी। मुझे उम्मीद थी कि भैरव जी उसको
समझाने बुझाने की कोशिश करेंगे। लेकिन भैरव जी एकदम प्रचंड हो गए।
"हाँ, की। तुम एक नंबर की मक्कार हो। कामचोर हो। बदमाश हो।’’
भैरव जी के इस प्रचंड रूप को देख कर उस नर्स ने वहाँ से भागने में ही भलाई समझी।
लेकिन
अपने थोड़े बहुत गर्म मिज़ाज के बावजूद भैरव जी हम बच्चों सेे बेहद स्नेह
रखते थे। भैरव जी को हम बच्चे ताऊ जी कह कर पुकारते थे। उनका घर, हम बच्चों
के लिए दूसरा घर होता। ताऊ जी, ताई जी, बाबू दादा, मुन्नी इनके इर्द-गिर्द
हम लोग दिन-रात धमा चौकड़ी मनाते। भैरव जी ने अपने घरेलू जीवन में बहुत
उतार-चढ़ाव देखे थे। युवावस्था में उनकी पहली पत्नी का देहावसान हो गया। फिर
उन्होंने दूसरी शादी की। वह पत्नी भी कुछ दिन उनके साथ जीवन बिताने के बाद
चल बसी। ताई जी, भैरव जी की तीसरी पत्नी थीं। भैरव जी उनकी बेहद देखभाल
करते। कभी जब वह बीमार होती तो उन्हें चम्मच से दवा पिलाते। वह बहुत से
दृश्य आज भी मेेरे मन में अंकित हैं। भैरव जी के ज्येष्ठ पुत्र (प्रथम
पत्नी से) प्रेमांशु दादा हैं। वह लूकरगंज के समीप लीडर रोड पर स्थित
‘भारत’ अखबार में प्रूफ रीडर थे। पिता-पुत्र में अनबन के चलते प्रेमांशु
दादा और उनके परिवार का भैरव जी के यहाँ आना-जाना नहीं था। भैरव जी जब 1962
में ‘‘नयी कहानियाँ’’ का संपादन करने दिल्ली गये थे और लूकरगंज वाले उनके
मकान में हमारे पिता जी-माता जी और मैं (मेरी उम्र उस समय कुछ महीने की थी)
रहने लगे थे, उस समय प्रेमांशु दादा भी हम लोगों के साथ रहते थे। 1962
में प्रेमांशु दादा की उम्र लगभग 10-12 वर्ष की रही होगी। इसलिए
प्रेमांशु दादा और उनकी पत्नी, हमारे माता- पिता से बेहद प्रेम-भाव रखते थे।
प्रेमांशु
दादा और भैरव जी के मध्य कोई संवाद न होने के बावजूद, प्रेमांशु दादा भैरव
जी के प्रति कटुता नहीं रखते थे। उनके और उनकी पत्नी के शिकायती तेवर तो
होते थे लेकिन उसमें कटुता नहीं छलकती थी। बावजूद इसके कि प्रेमांशु दादा
और उनके परिवार की आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं थी और उन्हें काफ़ी आर्थिक
दुश्वारियों का सामना करना पड़ता था। प्रेमांशु दादा की स्थिति को देख कर
लगता था कि जैसे भैरव जी ने अपने ज्येष्ठ पुत्र को घर निकाला दे रखा था।
भैरव
जी के एक और पुत्र मुन्नीलाल दादा, भैरव जी की दूसरी पत्नी की संतान हैं।
वह भारतीय वायुसेना में नौकरी करते थे और हमेशा से इलाहाबाद से बाहर ही
रहे। बीच-बीच में छुट्टियों में आते थे। हम लोगों के सामने ही उनकी शादी हई
थी।
भैरव
जी लंबे समय तक लूकरगंज में रहे। सत्तर के दशक के अन्त में उन्होंने
बेनीगंज में अपना निजी मकान बनवाया। जब तक वह लूकरगंज में रहे, हम बच्चे हर
दूसरे तीसरे दिन उनके यहाँ पहुँचे रहते। इतवार का दिन तो हम लोगों के लिए
विशेष आकर्षण का दिन रहता। क्यूंकि उस दिन भैरव जी के यहाँ नियमित रूप से
मटन बनता। भैरव जी के घर से चंद क़दम पर खुल्दाबाद के प्रारंभ में बकरे के
गोश्त की दुकान थी। संभवतः भैरव जी भी वहीं से मटन ले कर आते थे।
भैरव जी अपनी किताबों के मामले में काफी सख़्त थे। अगर आप उनके घर से कोई किताब ले आए हैं तो उसको सही समय से उसको लौटाना पड़ता था।
मैं प्रायः उनसे किताबें मांग कर ले आता और पढ़ने के बाद लौटा देता। कार्ल
मार्क्स की ‘‘दास कैपिटल’’ का हिन्दी अनुवाद उनके अध्ययन कक्ष की शेल्फ की
शोभा बढ़ाती। सफेद रंग की कवर वाली लंबी जिल्द की ‘‘दास कैपिटल’’ को भैरव जी
ने बड़े स्नेह से मुझे पढ़ने के लिये दिया था, जब मैंने इलाहाबाद
विश्वविद्यालय में स्नातक पाठ्यक्रम के प्रथम वर्ष में प्रवेश लिया था। उस
वक़्त यद्यपि मैं उसके कुछ शुरूआती पन्ने ही पढ़ पाया।
पुस्तकों
के उनके भंडार से जिस एक बेहतरीन किताब पढ़ने का मुझे अवसर प्राप्त हुआ, वह
थी प्रसिद्ध अमेरिकी पत्रकार जोसफ पुलित्ज़र की आत्मकथा। किस तरह पुलित्ज़र
ने अपने जीवन के आरंभिक वर्षों में जब़र्दस्त संघर्ष किया और कैसे वह आगे
बढ़े, इसकी दास्तान उस प्यारी सी किताब में थी। भैरव जी पुस्तकें पढ़ने के
लिये प्रेरित तो करते थे, लेकिन उनकी यह सदिच्छा भी रहती थी कि पुस्तक ले
जाने वाला समय से उनकी किताब वापस कर दे। उसमें किसी तरह की हीला हवाली
किताब ले जाने वाले के लिये भारी भी पड़ सकती थी। एक बार ऐसी ही एक घटना का
चश्मदीद होने का मुझे अवसर प्राप्त हुआ। हुआ यह कि अमरकांत जी के ज्येष्ठ
पुत्र अरूण (जो बाद में अपना नाम अरूण वर्धन लिखने लगे थे), भैरव जी से कोई
किताब मांग कर पढ़ने के लिए ले गये थे। उसके बाद वह काफी समय तक भैरवजी के
यहाँ नहीं लौटे। उसी दौरान उनकी नौकरी दिल्ली में ‘‘सारिका’’ पत्रिका में
बतौर उप-संपादक लग गयी। जब वह अपनी नयी नौकरी ज्वाइन करने के पश्चात भैरव
जी से मिलने पहुंचे तो मैं भी साथ था। हम लोगों ने दरवाज़े पर दस्तक दी।
भैरव जी ने जैसे ही दरवाज़ा खोला और सामने अरूण दादा को देखा तो उनके तेवर बदल
गये। बजाए किसी रस्मी तौर तरीके़े के उन्होंने सीधा सवाल दागा, ‘‘क्यूं,
तुम जो किताब ले गये थे, वह वापस लाए हो या नहीं।’’ भैरव जी के इस अंदाज,
से जहां अरूण दादा हतप्रभ थे, वहीं मैं भी उस स्थिति में काफी असहज महसूस
कर रहा था।
अपने
व्यक्तित्व के बहुतेरे अन्तर्विरोधों के बावजूद भैरव जी की मार्क्सवाद और
मार्क्सवादी सिद्धांतों में अटूट निष्ठा थी। इसी के चलते उन्हें जनवादी
लेखक संघ का प्रथम राष्ट्रीय अध्यक्ष चुना गया। जनवादी लेखक संघ की पूरी
निर्माण प्रक्रिया उनके बेनीगंज वाले आवास पर ही सम्पन्न हुई। उस दौरान
उनके यहां देश के विभिन्न हिस्सों से लेखकों की आवाजाही लगी रहती। कोलकाता
से कामरेड इज़रायल, आरा से डॉ. चन्द्रभूषण तिवारी, बनारस से डॉ. चन्द्रबली सिंह,
हरियाणा से डॉ. ओम प्रकाश ग्रेवाल, दिल्ली से चंचल चौहान प्रस्तावित संगठन
की रूपरेखा तय करने के लिए प्रायः आते। इनमें से अधिकांश लेखक, भैरव जी के
घर के पश्चात् हमारे यहाँ भी आ जाते। पिता जी चूंकि भारत सरकार के रक्षा
मंत्रालय में कार्यरत थे, अतएव वह इन बैठकों से दूर ही रहते। इन लेखकों में
जहां डॉ. ओम प्रकाश ग्रेवाल और चन्द्र भूषण तिवारी जी अच्छे डील-डौल के थे,
वहीं डॉ. ओम प्रकाश ग्रेवाल का धीर गंभीर व्यक्तित्व प्रभावित करने वाला
होता। कोलकाता में सी. पी. एम. के होलटाइमर कामरेड इज़रायल को प्रायः अपने
छोटे कद के चलते भैरव जी के घर का गेट खोलने में दिक्कत होती। जनवादी लेखक
संघ की निर्माण प्रक्रिया के दौरान ही सुधीश पचौरी का भी भैरव जी के घर
काफी आना-जाना लगा रहता। जिस सक्रियता और उत्साह के साथ, सुधीश पचौरी
जनवादी लेखक संघ के गठन की प्रक्रिया में शामिल दिखे, जलेस के गठन के थोड़े
दिन पश्चात् वह फिर नज़र नहीं आये। कामरेड इज़रायल दुबले पतले और औसत से छोटे
कद के थे। चन्द्रभूषण तिवारी जी हमेशा धोती कुर्ता पहने रहते। और बड़े
सुरीले अंदाज़ में "बिहारी’’ टोन वाली हिन्दी बोलते।
मेरे
जीवन की दिशा बदलने में जिन कुछ लोगों का योगदान है, भैरव जी उनमें
सर्वोपरि है। वो हम लोगों को पढ़ने के लिये बचपन से ही प्रोत्साहित करते थे। जब
भी हम लोगों का स्कूल का रिज़ल्ट आता, रिज़ल्ट ले कर हम लोग पहले पहल ताऊ जी
के यहां पहुंचते। ताऊ जी रिज़ल्ट बड़े ग़ौर से देखते। उनके अध्ययन कक्ष में
उनकी एक बड़ी सी राइटिंग टेबुल थी (जो उनके लूकरगंज एवं बेनीगंज दोनों
मकानों में थी।) जिस पर काम करते हुए उनका अधिकांश समय गुज़रता था। प्रायः
वह कोई उपन्यास या कहानी लिख रहे होते। या फिर माया प्रकाशन (जहाँ
उन्होंने कुछ समय नौकरी की) की पत्रिका में छपने के लिये आयी किसी
स्क्रिप्ट को सुधार रहे होते थे। वह लम्बे से काग़ज पर बांयी तरफ हाशिया डाल
कर छोटे छोटे अक्षरों में लिखते थे। मेरा बहुत मन था कि उनके इस दुनिया
में न रहने पर उनकी राइटिंग टेबल अपने पास रख लूं। किन्तु परिस्थितियों का
ऐसा चक्र चला कि मैंने इलाहाबाद छोड़ा तो फिर भैरव जी की मृत्यु के पश्चात्
उनके बेनीगंज वाले मकान में कई वर्षों पश्चात् ही जाना संभव हो सका।
वर्ष
1985 में इलाहाबाद विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की पढ़ाई के दौरान ही मेरी
नौकरी इलाहाबाद क्षेत्रीय ग्रामीण बैंक में अधिकारी के पद पर लग गयी। इस
दौरान भैरव जी के यहाँ लगातार आना-जाना लगा रहता था। उन दिनों मुन्नी दीदी
(भैरव जी की पुत्री) आकाशवाणी इलाहाबाद में आकस्मिक उद्घोषिका के तौर पर
काम कर रही थीं। एक दिन उन्होंने बतलाया कि आकाशवाणी में प्रसारण अधिशासी के
पद विज्ञापित हुए हैं। मेरा मन ग्रामीण बैंक की नौकरी में नहीं लग रहा था।
मैंने उनसे हासिल जानकारी के आधार पर नौकरी के लिये आवेदन कर दिया। अंततः
मेरा चयन भी उपरोक्त पद के लिये हो गया। चयन के पश्चात् एक असमंजस की
स्थिति मेरे सामने प्रस्तुत थी। मुझे रेडियो की नौकरी के चलते इलाहाबाद
छोड़ना पड़ सकता था। मैं अपने करियर के असमंजस को दूर करने के लिये भैरव।जी
के पास गया। भैरव जी ने कहा, ‘‘बैंक में क्या है? बैंक में तो सिर्फ
अंकगणित का खेल चलता है। जोड़ो-घटाओ, घटाओ-जोड़ो। रेडियो में पढ़ने-लिखने का
स्कोप बना रहता है।’’ एक रहस्य की बात भी उन्होंने कही। ‘‘देखो, रेडियो में
काम करने वाले शादी भी कर लेते हैं। कई महिलाओं और पुरूषों ने रेडियो में
नौकरी करने के चलते आपस में शादी की है।’’
मैंने
भैरव जी की बातों से उत्साहित हो कर ग्रामीण बैंक की नौकरी छोड़ने और
रेडियो की नौकरी ज्वाइन करने का निश्चय किया। यद्यपि मुझे अपनी जीवन साथी
रेडियो के बाहर ही मिली।
अब
इलाहाबाद बहुत कम आना जाना होता है। जब से उत्तर प्रदेश सरकार ने इलाहाबाद
का नाम प्रयागराज कर दिया, इलाहाबाद का यह नया अवतार अपन के गले उतर नहीं
रहा। हम तो आज उसी इलाहाबाद को अपने भीतर सहेजे हुए जी रहे हैं जिस
इलाहाबाद ने हमें फक्कड़पन, स्पष्टवादिता और एक दूसरे से खुल कर मिलने का
पाठ पढ़ाया है।
सम्पर्क
मोबाईल : 9452739500
सुन्दर संस्मरण
जवाब देंहटाएंBahut Sundar
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