मनोज शर्मा की कविताएँ

 

मनोज शर्मा



मनोज शर्मा की कविताएँ


मनोज शर्मा का जन्म 24 अगस्त,1961, को गांव कितना (गढ़शंकर, पंजाब) में हुआ। उनके लेखन-कर्म के लगभग तीन दशक जम्मू में बीते हैं। वे स्वतंत्र पत्रकारिता, अनुवाद, रंगमंच, नुक्कड़, पोस्टर-कविता आदि क्षेत्रों में सक्रिय रहे हैं। मनोज पहले पंजाबी में लिखते थे। हिन्दी में लेखन की शुरुआत 1980 में हुई, जो पूरी प्रतिबद्धता से आज भी जारी है। मनोज शर्मा हिन्दी कविता की उस परम्परा में देखे जाते हैं, जो आम आदमी के हक़ में खड़ी है, जो कविता-कर्म को एक्टिविज़्म भी मानती है। उनके लेखन कर्म पर हिन्दी के महत्वपूर्ण युवा कवि कमलजीत चौधरी ने एक आलेख लिखा था, जो आप पहली बार पर पढ़ सकते हैं। मनोज शर्मा संस्कृति मंच जम्मू' के संस्थापक हैं। इसके अंतर्गत इन्होंने कई साहित्यिक व सांस्कृतिक आयोजन करवाए हैं। इसके अलावा इन्होंने हिन्दी से पंजाबी और पंजाबी से हिन्दी अनुवाद (साहित्यिक) भी किए हैं। इस उपक्रम में भगत सिंह पर लिखी कविताओं का हिन्दी अनुवाद खास है। इन दिनों बैंक से सेवानिवृत्त हो कर वे होशियारपुर पंजाब में रह रहे हैं। उनका एक कविता संग्रह प्रकाशन अधीन है। अन्य कविता संग्रह इस प्रकार है: यथार्थ के घेरे में, यकीन  मानो मैं आऊँगा, बीता लौटता है, ऐसे समय में, मील पत्थर बुला रहा। तो आइए आज पहली बार पर पढ़ते हैं मनोज शर्मा की कविताएँ


झूठ ने मुहावरे बदल दिए हैं !


सच 

कितना भी बड़ा हो  

झूठ के पास 

हमेशा अपने पक्ष होते हैं 


सच 

बचा है यही 

कि पुस्तकों में वह श्लोक रह गया है 

वैसे झूठ भी 

श्लोक सा सिद्ध किया गया है 


मज़ा यह है कि हर बार 

प्रमाणित करना होता है 

सच को, अपना सच 

झूठ की ऐसी मजबूरी कतई नहीं होती 


जैसे कहीं कोई रीढ़ तोड़ बलात्कार 

कोई जला दी गयी 

बेबस,जीभ काटी ज़िंदगी 

बकता रहे सच 

झूठ इसे तंबाकू सा मसल फांक जाता है 


सच 

समय की झुकी पूंछ है

तंत्र का बुढ़ापा है 

समाप्त हो रहा स्वाद है 


कोई एक बूढ़ा ,लंगोटीधारी

पतली सी लाठी थी उसके पास 

वह सत्याग्रह बुनता था 

उसका सच कब से 

कड़क रंगीन कागज़ों में 

बस, तस्वीर बना रहता है 


झूठ,सच की भवों के 

सफेद बाल उखाड़ता है 

झूठ ने नकार दिए हैं संगीत के सातों स्वर 

और पैदा किया है जो आठवां अट्टहास सा 

उसे ही निरंतर चिल्ला रहा है 


मेरा तो तोला-माशा सच यह है जी 

कि जिस देश में जन्मा 

उसे भारत कहते हैं 

तथा मैंने पाया है

यह महादेश

कई,कई, कई...

विविधताओं से भरा है

जैसे जिस परिवार में जन्मा

उसे सनातन ब्राह्मण भी कहते हैं

अब झूठ से कैसे बचा रहूं…

कि ख़ुद को मार्के वाला देशभक्त कहूं…


विराट है झूठ

वह,पत्रकारों में सबसे बड़ा पत्रकार है

धनियों में सबसे बड़ा धनी

न्याय में सबसे बड़ी अदालत है

पुलिस-सेना में सबसे बड़ा ओहदा

वह हमारा राजा है


कहीं पढ़ा था

“आदमी जब होता है सच के साथ

और किसी के साथ नहीं होता”

पर झूठ ने

हमारे समय के मुहावरे बदल दिए हैं


झूठ,वर्तमान का जादू है

यह शाश्वत है

कई करोड़ जनता पर बंधी 

लट्टू की डोरी है झूठ

वह सब कुछ है जी

बस मनुष्य ही नहीं है !





दिहाड़ीदारों का भोजन


मांगा एक बोतल पानी

सभी पालथी लगा

कच्ची ज़मीन पे बैठ गए

खोले लिफ़ाफ़े

सूखने की ओर बढ़ चलीं

मुड़ी-तुड़ी रोटियां निकालीं

फिर कुछ ने मिर्चें-प्याज़, कुछ ने आचार,कुछ ने भाजी भी


अथक काम में जुटे मनुष्य

लगे बांट-बांट खाने,दोपहर का खाना

यह धरती का सबसे नायाब दृश्य है...


यहां हथेलियां ही प्लेटें हैं

अंगुलियां ही चमचे

धरती ही डायनिंग-टेबल

यहां स्वाद की परिभाषा विरल है


किसी ने खाने से पहले, बीच में या बाद में कोई

टिकिया नहीं खायी

किसी को नहीं आए खट्टे डकार

किसी ने कुछ भी जूठा नहीं छोड़ा

तृप्ति की परिभाषाएं

न तो शब्दकोश दे पाते हैं

न ही सिद्ध-पुरुषों के प्रवचन


दिहाड़ीदार

वे हैं

जिनकी दिहाड़ी निर्धारित करने को ले

संसद में बहसें चलती हैं

सत्ताओं पर काबिज़ हुआ जाता है

इसके बावजूद, पूरे देश में

मज़दूरों की दिहाड़ी की

कहीं नहीं समरूपता


दिहाड़ीदार, वे हैं

जो पूरा जीवन विस्थापन जीते हैं

फिर जहां हैं, वहीं के पेड़-पौधों तक को

अपना मानने लगते हैं


वे हैं दिहाड़ीदार

जो हरेक सुबह, लाख आपसी भाईचारे के

झुंडों के झुंड,लेबर-प्वाइंट पर हैं

किसी गाड़ी के रुकने पर

मक्खियों सा चिपक

अपने को ले जाने की कातरता में निचुड़ते हैं


दिहाड़ीदार, जब भोजन कर रहे होते हैं

ठेकेदार का मुंशी

थानेदार नज़र आता है

क्या कहूं

एक दिन

एक दिहाड़ीदारिन ने

उस पर कुदाल तान दी थी


अभी काम पूरा नहीं हुआ है

हालांकि काम के घन्टे नियत हैं

ठेकेदार पेले जा रहा है

सारी दुकानें बंद हो चुकी होंगी

देर रात आधी-अधूरी मिलेगी मजूरी


कल फिर वही दृश्य होगा

जो कुछ बच गए थे

वे, सस्ती सब्ज़ी खरीद पाएंगे


बाकी, प्याज़, मिर्ची और सूखी रोटियों से

संतुष्टि का आनंद मनाएंगे ।


असहमति


जब भी असहमति प्रकट करता हूं

चौ-ची पुकार मच जाता है

जैसे किसी और लोक से हूं...


यह सहमतियों का दौर है

सहमति हो, तो हमारे स्कूल में बच्चे पढ़ाएं

सहमति हो, हमारे रेस्त्रां में खाएं

सहमति हो, हमारे पर्दे लगाएं

सहमति हो, हमारे हस्पताल में आएं

सहमति के इस दौर में

निपट अकेला

डरता-डरता नदी के पास जाता हूं

कहीं,वह असहमति प्रकट न कर दे...


घर में फूल उगाना चाहता हूं

पर, मेरी पसंद से माली सहमत नहीं

बिजली वाला तो पागल समझता है मुझे

गाड़ी चलाता हूं तो

पास से गुज़रने वाले,आँखें तरेर-तरेर जाते हैं


एक दिन, एक बच्चे से पूछा

आपका नाम क्या है...

उसने बिना किसी सहमति

सीधे से पूछा क्यूं.. 


अखबारें बांटनें वाले से कहा

सभी एक सी हैं, कोई एक काफी है

उसने ऐसे देखा

जैसे मैं दूसरी अखबारों का शत्रु हूं


बेकरी वाले से दूध के पैकेट का जैसे ही पूछा दाम

वह तपाक से बोला

लेना भी है क्या ...

कहीं कोई संवाद नहीं बचा

कहीं कोई भाषा नहीं

बस मवाद है जो रिस रहा है

रिस-रिस रिसता जा रहा है


और इसी बीच

तमाम गतिरोध के बावजूद

बढ़-बढ़ आयी है घास

लाख नींद उचटे

दर्जनों पक्षी अपनी ची-ची से

अलसुबह, जगा दे रहे हैं.. !





मूर्ख


दुनिया के सबसे तिरस्कृत मनुष्य हैं

मूर्ख

इनकी परिभाषाएं बनायी जाती हैं

और ख़ुद को तो कोई

मूर्ख कहाना ही नहीं चाहता

यह, अलग तरह का वर्गसंघर्ष है


मूर्ख

निर्धारित किए जाते हैं

बुद्धिमान, स्वयं को जन्मजात मानते हैं

चक्र घूमता है, बस घूमता जाता है

यह कोई प्रमाणिक क्रिया नहीं है


जैसे, कविता में मूर्ख हूं मैं

बच्चा, बड़ों की महफ़िल में

नृतकों के कबीले में

नौसिखिया नचार

मूर्खों के बिना

कुछ सिद्ध नहीं किया जा सकता


मूर्ख

इतिहास का सबसे निरीह प्राणी है

हालांकि, उन्हें जितनी कथाएं याद होती हैं

ऐसी तमाम कथाएं

बुद्धिमानों को नसीब नहीं

बुद्धिमानों का आलोक होता है

अपने दिन-रात होते हैं

वे, ख़ुद को समय की नब्ज़ मानते हैं


मूर्ख

फूलों को गवारों सा सुच्चा प्यार करते पाए जाते हैं

मूर्खों की माताएं

हर पल, उनके साथ होती हैं


बुद्धिमान

जो रब्ब स्थापित करते हैं

मूर्खों को उन्हें ध्याना पड़ता है

मूर्ख,खेत जोतते हैं

बुद्धिमान, पकवान खाते हैं

सुर-ज्ञान से परे

मूर्ख

कभी-कभार देर रात गाते भी हैं

रोते हैं, रुलाते हैं


जीवन के जोखिमों से परे

बुद्धिमान, मानक हैं

भाषा-मर्मज्ञ

स्मृतियों से ही नहीं

जुमलों से लबरेज़

किसी दहशत से आते हैं

भौंचक कर जाते हैं

उनके अपने समाज हैं

जिनका कोई सरदार नहीं होता

बुद्धिमान, कभी देशहित में

फांसी नहीं झूलते


बुद्धिमानों का चेहरा
दहक जा चुके अंगार सा होता है
असंख्य पुस्तकें, सिद्धांत, नियम
उनके सामने नतमस्तक पड़े रहते हैं
समय का तराज़ू हैं
तय करते हैं
कैसे बुने साहित्य में जीवन
कैसा तो चित्र बनाएं
चाय में कैसा दूध हो
भोजन में स्वाद कैसा
संगीत में अलाप
जीवन में मिलाप
बुद्धिमानों का मसीहापन निर्विवाद है

मूर्ख
जिसने अभी सभ्य सभा में पाद दिया था
बुद्धिमानों के सजे टेबल से
जग उठा,गटागट पानी गटक जाता है

मैं
मौलिकता को फिर से समझना चाहता हूँ
नफीस,बुद्धिमता को परखता
और अंततः इन्हें जानता-पहचानता
उजड्ड मूर्खता में ही
बने रहना चाहता हूँ !
 
 

 



जब समय मैला पड़ने लगता है



जैसे उम्र गुज़रती है
वैसे ही गुज़र जाते हैं उम्र में से लोग
आत्मीयता की कोई फंफूद खाई तस्वीर
मैले पड़ चुके शीशे से झांकती है

जैसे बढ़ती है धुंध
जैसे सूखती हैं आँखें
जैसे विस्थापित अपने भटकने को स्वीकार लेते हैं
वैसे ही सपनों पर भिनभिनाने लगती हैं मक्खियाँ

यह कोई संक्रमित काल नहीं है
बस अचानक कुछ घालमेल शुरू होता है
अचानक भूलने लगते हैं
अचानक मारक हो जाते हैं
अचानक हमारी भाषा से छिन जाता है माधुर्य

यहां परछाइयों में खो जाने की मजबूरी है
यहां असहाय प्रेम पर इबारत लिखता है गुस्सा 
यहां संबंधों पर कोई दार्शनिक धूल बिछ जाती है
यहां रूठ जाता है चंदा

जीवन का ऐसा सभागार
जहां वसंत लज्जित होने लगे
प्यार, खोए ख़त जितना भी ज़रूरी न रहे
वहां, ख़ुद को फिर से ढूंढना साथी
वहां उस अपराध को ढूंढना
वहां याद करना लिए-दिए गए तमाम चुंबन
वहां अपने इंतज़ार ढूंढना

बेशक हमारे मौसम, बे-मौसम हो जाएं
बेशक हमारे वृक्ष हो जाएं ठूंठ
बेशक हमारी मिट्टी से गायब हो जाए सोंधापन
बेशक हमारी चाहतों की उखड़ जाएं खपच्चियाँ 

कुछ करना, कुछ करना
ऐसा कुछ तब भी करना
कि, स्मृतियों का उदास पीला कमरा
उजास की अमर इच्छा से लहलहा उठे
कि मनुष्य होने की कृतज्ञता जगे
कि जगह देने की ज़रूरत जगे
कि मुक्ति की भीनी सुगंध जगे

कुछ करना-कुछ करना
ऐसा कुछ तब भी करना, साथी !
 



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्व. विजेंद्र जी की हैं।) 



सम्पर्क:
 
फोन नम्बर- 97805 24251

मेल आई. डी.- smjmanoj.sharma@gmail.com


टिप्पणियाँ

  1. वाह। अग्रज, इस उम्दा प्रस्तुति के लिए आभार। अग्रज मनोज जी को हार्दिक बधाई।
    प्रिय दोस्तो, इन कविताओं पर अलग से कुछ नहीं कहूँगा। आप मनोज जी की कविताई पर मेरा लिखा आलेख पढ़ लें, यह रहा लिंक:
    https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=2088125541342523&id=100004352917951
    धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
  2. सुंदर प्रस्तुति! आदरणीय मनोज जी को बहुत बहुत बधाई।

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत ही खूबसूरत कविताएँ। कविताओं को केवल पढ़कर उसका आनंद लिया जा सकता है। इसके बाद के तरह तरह के विचार व ब्यौरे केवल औपचारिकता निभाने जैसा होता है। कविता के वास्तविक में दो तरह के रहस्मय अद्धभुत क्षण होते हैं ।पहला जब कविता मानव के सहज ह्रदय में अवतरित होती है। दूसरा जब कोई दूसरा व्यक्ति उसे पढ़ता है। उसमें दूसरा खुद कवि को भी शामिल किया जा सकता है।मनोज को बहुत-बहुत शुभकामनायें ।

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'