यतीश कुमार की कहानी 'भागता बचपन'।

 

यतीश कुमार

 

बचपन अपने आप में तमाम सपने संजोए रहता है। जब किसी वजह से उसे आघात लगता है तो वह उस राह पर बढ़ने लगता है जो आमतौर पर उसकी राह नहीं होती। वह हमेशा उस प्यार और स्नेह की खोज में होता है, जिसे वह अपनी थाती समझता है। बंटी की कहानी भी कुछ इसी तरह की है। आमतौर पर यतीश कुमार की छवि एक कवि या एक ऐसे समीक्षक की है जिन्होंने समीक्षा को एक नया जीवन और नया स्वरूप प्रदान किया है। लेकिन यतीश कुमार कहानी भी लिखते हैं। हाल ही में उनकी कहानी प्रयाग पथ में छपी थी, जिसे हम साभार यहाँ प्रस्तुत कर रहे हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं यतीश कुमार की कहानी 'भागता बचपन'।

 

 

 

भागता बचपन

 

 यतीश कुमार

 

 

बुध की तरह उसने भी जन्म के बाद  पिता को नहीं देखा था। चंद्रमा के बदले वृहस्पति के साथ बड़ा हुआ। किसी भी रिश्ते में उस समय दूरी या खटास आने लगती हैं जब कुंडली में रिश्तों के स्वामी ग्रह कमजोर होने लगते हैं।

 

सच तो यह है कि उसके पिता की मृत्यु उसके जन्म से छ: महीने पहले हो गई थी। अपने पिता को उसने कभी देखा नहीं, और नए पिता को देखना चाहता नहीं था। पिता का देहांत ब्रेन ट्यूमर की देर से जानकारी के कारण हुआ। लोग कहते कि गज़ब के वक्ता थे और हूबहु मुकेश  की तरह गाते थे।

 

लंबे, सांवले, नाक बिल्कुल खड़ी, हृदय से उतने ही नरम और बच्चों से बेहद प्यार करने वालेअपने इन्हीं नैसर्गिक गुणों के कारण वे बिहार कम्युनिस्ट पार्टी के शीर्ष नेताओं में शामिल थे। ये सारी बातें बंटी के लिए जैसे कहानियों-सी थीं जो किसी-न-किसी के मुँह से ही सुनी थी। पिता के गुज़र जाने के बाद भी पार्टी होलटाइमर बहुतायत में आते रहते, उन्हें देख कर बचपन से ही ये बात जेहन में बैठ गई कि कम्युनिस्ट फक्कड़ होते हैं। समय के साथ जन सहयोग की पकड़ भी ढीली होती जाती है, घर में हमेशा अभाव का डेरा  शौक की तरह बना रहा ।

 

जब आधार टूटता है तो आशाओं के बिम्ब मद्धम होने लगते हैं। बंटी का पिता के देहांत के बाद जन्म लेना ननिहाल के आर्थिक संतुलन के पारदर्शी शीशे को तोड़ने वाले पत्थर की तरह देखा जाने लगा। नाना, नानी, मामा, मामी सारे रिश्ते घर के बढ़ते खर्चे के इर्द गिर्द चक्कर लगाने लगे। ताने-तिसने के लहजों में बातें होने लगीं और  स्वाभिमान की खूटन, माहौल में घुटन पैदा कर देती है। माँ के पास और कोई विकल्प नहीं था बजाय नौकरी ढूंढने के। उन्होंने इंटरमीडियट किया हुआ था, स्टाफ नर्स की बहाली उनके लिए रोशनी की किरण की तरह आई। समस्या बस यही थी कि नौकरी के पहले दो साल पटना मेडिकल कॉलेज में ट्रेनिंग करनी थी। बंटी कहाँ और कैसे रहेगा यह समस्या उससे ज्यादा बड़ी थी। माँ ने किसी तरह अपने बड़े भाई और भाभी को मनाया और इस शर्त पर उसे ननिहाल में रखा गया कि बंटी के रहने का  खर्चा माँ अपने स्टाइपेंड से भेजती रहेगी। भविष्य की ओर बढ़े कदम वर्तमान को छोड़ते हुए आगे बढ़ गए।

 

पी एम सी एच (पटना) में ही ट्रेनिंग के दौरान उनकी पहचान बंटी के पिता के पुराने मित्र और पार्टी के ही सहयोगी डॉक्टर ईश्वर नाथ से हुई। डॉक्टर साहब ने उनके साथ पार्टी का काम किया था और उनके मन में मरहूम मित्र के लिए बहुत ज्यादा  इज्जत थी। वो इज्जत धीरे-धीरे कब उनकी जिम्मेदारी में बदलती चली गयी उन्हें भी पता नहीं चला। ख़्याल कब स्नेह बना और अनुराग कब प्रेम की शक्ल  इख़्तियार कर लिया इसका एहसास उन्हें उस दिन हुआ जब उन्होंने बंटी की माँ पर इसका इज़हार यूँ ही अचानक गंगा तीरे टहलते हुए किया। एक ही दोने में मुंगफली खाने वाले कब  एक ही थाली में खाने लगते हैं पता ही नहीं चलता। डॉक्टर ईश्वर अनुसूचित जनजाति से थे और बंटी की माँ सवर्ण। जरूरतें किसको किसकी थीं यह कहना मुश्किल था पर सभी नकारात्मक कारणों को नकारते हुए  डॉक्टर और माँ ने अंतरजातीय विवाह कर लिया। अब वह एक ऐसी  प्रेमकहानी का लबादा ओढ़े थी जिसमें प्रेम और जीजिविषा दोनों सिमटी पड़ी थी।

 

 

दो साल की ट्रेनिंग कब खत्म हुई पता ही नहीं चला डॉक्टर साहब के लिए पत्नी का प्यार एक नशा से कम नहीं था। पटना में भी वे ज्यादातर समय-साथ ही काटते, शिफ्ट की ड्यूटी एक साथ बुक करवाते। यह  डॉक्टर साहब की उस पृष्टभूमि का भी असर था जहाँ से हट कर आज वे यहाँ पटना में थे,उस पृष्टभूमि में पूरे गाँव या कहिए शहर का एक मात्र लड़का जो पढ़ कर डॉक्टर बना सवर्णों की हिक़ारती नज़र को झेलते हुए और यहाँ तक की अपनी विरादरी में भी अपने पढ़ाकू स्वभाव के कारण अलग- थलग ही रहा। डॉक्टर साहब की माँ का देहांत उनके बचपन में ही हो गया था उसका भी एक गहरा असर कहीं अर्धचेतन में था जो उन्हें हर हाल में पत्नी के करीब रखता। वो उनके लिए अपनी खोई डायरी की तरह थीं जिनको फिर से खो जाने का डर हमेशा उनको भीतर से डराए रखता। इसी चक्कर में दोनों ने ट्रेनिंग खत्म होते ही जमुई के पास तिलकामांझी गाँव में पोस्टिंग ले ली। बंटी को ननिहाल से अब माँ अपने साथ  ले आयी थी। बंटी के लिए भी अब यह एक नई दुनिया थी।

 

पत्नी के प्रति लगभग ऑब्सेसड डॉक्टर साहब बाकियों से बहुत कम बोलते। साधारण कदकाठी के गोल चेहरे वाले डॉक्टर साहब थोड़े ज्यादा सांवले तो थे ही, साथ ही सिर के सामने के बालों में अत्यधिक कमी के कारण उम्र से ज्यादा बड़े लगते। उसपर चश्मे का होना उन्हें डॉक्टर कम प्रोफेसर ज्यादा बना दे रहा था। स्वभाव से भी  े डॉक्टर कम अंतर्मुखी शोधकर्ता ज्यादा थे, हमेशा नयी और सस्ती दवाइयों के  ऊपर उनका प्रयोग चलता रहता। ग़रीबों का विशेष ख़्याल रखते और उन पर ही उन दवाइयों का प्रयोग करते रहते और हमेशा चिंतन- मनन में लगे रहते।

 

गंभीरता बच्चों के लिए डरावनी हो सकती है और सुना है शोधकर्ता सबसे पहले स्नेह का त्याग कर देते हैं। बाहरी दुनिया में एक भी दोस्त होना और सारे रिश्तों का समागम पत्नी में हो जाना, घर में भी अलग ही माहौल बना रहा था।

 

दोनों पिता  का संबंध एक ही राजनीतिक और बौद्धिक संस्था से होते हुए भी उसे हमेशा अपने पिता की छवि डॉक्टर से बेहतर दीखती। पिता की माला चढ़ी घुँघराले बालों वाली मुस्कराती तस्वीर हमेशा डॉक्टर साहब के आधे चाँद पर हँसती रहती, यह सब देख एकांत में बंटी मुस्करा देता उसे ग़रूर सा महसूस होता कि वो साधरण से शिक्षक का ही पुत्र है न कि डॉक्टर साहब का ।

 

पिता-पुत्र  का रिश्ता कुछ ऐसा हो गया था जैसे कुत्ते और ढेले का, सीधे मुँह बात तो दूर आँख मिलाना भी पर्व त्योहार की तरह साल के दिन देख कर आता, रन्तु माँ के लिए उनका प्रेम कभी कम नहीं होता दिखा और यह भी सच है कि उस प्रेम पात्र से स्नेह की दो चार बूंदे भी कभी उस नादान की ओर नहीं छलकतीं। स्वभाव में प्रेम याचना उसके नसीब में बचपन की घटती घटनाओं की ही देन थी। माँ के साथ जो अपनापन पिता का था वह बेटे के साथ अजनबीपन में बदल गया था। रिश्तों में शून्यता उसका गहना बनती जा रही थी। उम्र से, समय से पहले बड़ा होने की ललक, आँखों में प्रेम और दर्शन तलाशती रहती। मुकेश और रफी के गाने अकेले में सुनता और गुनगुनाता। ओ जाने वाले हो सके तो लौट के आना” या “तोरा मन दर्पन कहलाए” जैसे गीत उसे बहुत प्रिय थे।

 

जब भी डॉक्टर साहब घर पर होते, माँ का ध्यान पूर्णतः उनपर ही केंद्रित रहता। बंटी के हिस्से में सिर्फ माँ-बाप की खिलखिलाहट से उफनती  कुढ़न आती। अक्सर वे दोनों खुद में इतने खोए रहते कि बच्चा भी घर में है इसका एहसास तक नहीं रहता। ऐसे घुटन भरे वातावरण में उस छोटी उम्र को अपना बुखार बार-बार देखने का मन करता, उसे हमेशा तेज ज्वर का अंदेशा लगा रहता या फिर वह सोचता उसका ब्लडप्रेशर तो नहीं बढ़ गया है। घर में कुढ़न औरस्पताल का रहस्यमय परिवेश उसके माथे में ऐसी-ऐसी बीमारियों के सपने दिखाता जिससे माँ डॉक्टर को छोड़ उसके पास आ जाये और ऐसे विचारों में ही घिरे-घिरे उसे कब नींद आ जाती पता ही नहीं चलता।

 

अक्सर बंद दरवाजा  उस नन्हे बच्चे के बचपन को और भी पथरीला बना देता, अकेले में वह खुद को  कचोटता रहता। रात को डरावने सपने आते, माँ दौड़ कर आती भी, सुलाने की कोशिश भी  करती पर अगले ही पल एक नकली खांसी की आवाज उन्हें वापस बुला लेती। कई रातें वह  छत पर टंगे काले बादलों  को निहारता रहता। कई अजीब चेहरे उसके साथ डरावने नाटक खेलते रहते। वह यह भी सोचने लगा था कि  उसके इस धरती पर बचे  रहने का औचित्य भी है क्याऐसे में पहले पिता की छवि ही उसका संबल होती परन्तु पिता की  क्षीण स्मृति और परेशान कर दे रही थी। जिंदगी अनाथों और लावारिसों से कुछ ही ज्यादा बेहतर थी, पर एहसास लगभग वही थे।

 

इसके विपरीत जब भी वह सिर्फ माँ के साथ होता, गिलहरी की तरह फुदकने लगता। अखरोट की तरह सहेजता माँ के साथ  बिताए एक-एक क्षण। माँ भी अपना संचित प्रेम, स्नेह, दुलार उस पल सब उड़ेल देती। उन क्षणों में वो दुनिया की सबसे अच्छी  प्यारी माँ होती जिसके लिए उसका बंटी ही सारा संसार। वो फिर से जी उठता।

 

उसकी ज़िन्दगी में दुखों का आरोह-अवरोह डॉक्टर पिता के आने, रहने और जाने से जुड़ गया था। माँ का पूरी तरह उनकी ओर समर्पण, स्नेहिल प्रेम के एक किंचित मात्र  हिस्से के लिए भी उसे तड़पा देता।

 

 


 

उसका बचपन ऐसे ही  कुंठित बीत रहा था, ज्यादातर समय वह अब घर से बाहर बिताने लगा। अच्छे-बुरे सारे दोस्त उसके जीने की वजह बनने लगे। बालमन की  मानसिकता में दूसरों से प्यार पाना प्राथमिकता थी अब। वह हर वक़्त खुद को सबसे अच्छा दोस्त साबित करने में लगाने लगा। लगभग पागलपन वाली हद तक वो दूसरों में प्रेम ढूंढने लगा। कभी माँ की किसी सहेली के घर रुक जाता, उनमें अपनी माँ और ममत्व को तलाशता तो कभी रात में अपने दोस्तों के साथ ही रहता, घर नहीं लौटता। मन के जिस हिस्से  में माँ काबिज़ थी वहाँ औरों ने डेरा जमाना शुरू कर दिया था।

 

माँ अब जब भी  अकेली होती तो चिंतित ही रहती। समझाते समय पता नहीं चलता वो बंटी को या खुद को समझा रही हैं फिर खुद खीझ कर बंटी की पिटाई भी कर देती। बंटी की कोमल त्वचा समय से पहले भोथरी होने लगी। धीरे-धीरेोट खाने में उसे और मज़ा आने लगा या यूँ कहें माँ को दर्द देने में उसे ज्यादा खुशी मिलने लगी। नहीं चाहते हुए भी  अपनों से ही बदला लेने की एक नई  प्रवृति उसमें  जागृत हो रही थी।  जान कर ऐसी शैतानियाँ भी करता कि माँ को और ज्यादा तकलीफ पहुँचे। उपेक्षा उसके स्वभाव में धुल कर उसका अस्त्र बन गया था। उसकी आँखों में कोमलता ने विद्रोह भाव भरना शुरू कर दिया, अवज्ञा उसके  पाठ का पहला अक्षर था अब। विद्रोह की शुरूआत खाना न खाने से हुई पर जब कई बार लगातार भूखे रहने के बाद किसी का ध्यान नही गया तो वह नए-नए हथकंडे आज़माने लगा। जैसे रात में घर से अचानक गायब हो जाता, दिन भर सिनेमा घर के चक्कर लगाता, गुस्से में नदी में घंटों तैरता, बगल की छोटी पहाड़ी में शाम अकेले बिताता, दूसरों को बीड़ी फूँकते देख जलकुंभी की सूखी डंडियों का सिगरेट बनाता और उसी अंदाज़ में फूंकता कभी-कभी तो चुपचाप चाय की दुकान पर कोने में बैठ कर लोगों की गप्पे सुनता तो, कभी ताश खेलते लोगों को दूर से निहारता रहता। सार यही है कि घर में नहीं टिकता चाहे कितनी भी पिटाई हो

 

समय के पंख हैं उड़ते ही जाते हैं छह साल कब बीता पता ही नहीं चला। अब उसके घर पर लोग पहले की तरह नही आते। एक-दो परिचित आते भी तो बंटी के सर पर दया भरा हाथ जरूर फेर देते। कभी-कभार कोई यूँ ही आ भी जाता तो, पिता की और याद दिला जाता फिर कई सवालों से एक साथ उलझ पड़ता बंटी। इस लड़ाई में सिर्फ वही लड़ता, वही घायल होता, वही रोता और अंत में वही हार भी जाता।

 

यह घटना  1984 के आसपास की है जब बिहार में जातिवाद, नक्सलवाद और साम्यवाद के बीच रोज़ाने का संघर्ष जारी था। राजनीति की दखलंदाजी घर के ओसारे तक फैली हुई थी। रेत गारा और सीमेंट में ख़ून सना हुआ था। सिक्खों की खिन्नता अपने चरम पर थी और कम्युनिस्ट पार्टी के लोग विकल्प के रास्ते तलाश  रहे थे। नए जातीय दलों का आपसी गठन भी तेजी से हो रहा था। नक्सली आंदोलन के भय से जन्में जातीय दलों का मूल आधार ही प्रतिहिंसा पर आधारित था। यह वही समय था जब तत्कालीन प्रधान मंत्री इंदिरा गाँधी उग्रवादी सशस्त्र आतंकवादियों के खिलाफ एक गृह युद्ध झेल रही थीं। इन सभी घटित बदलावों में एक चीज ऐसी  थी जिसने और भी भयावह रूप ले लिया था और  देश की आत्मा में सेंध मार कर कुंडली मारे बैठी थी, वो थी घूसखोरी। हिंसा के साथ भ्रष्टाचार रेशा-दर-रेशा फैल चुका था। छोटी सी पोस्टिंग हो या मुफ्त इलाज हर जगह भ्रष्टाचार वायरस की तरह संचारित हो  संक्रमित करने लगा था।

 

उन्हीं दिनों में एक शाम माँ ने बताया डॉक्टर साहब की  पोस्टिंग शेखपुरा से 50 किलोमीटर दूर एक सुदूर गाँव में हो गई है। इसे सुनने के बादंटी और चिंतित हो उठा, क्या अब उसे अपने दोस्तों से भी दूर रहना होगा, जबकि माँ उधर सोच रही थी शायद जगह बदलने से बंटी में कुछ बदलाव ही आ जाए। मन की कटुता ही शायद  थोड़ी कम हो जाये। यह सब सोचकर माँ ने भी छह महीने की लंबी छुट्टी ले ली।

 

तीनों अब उस मनहूस (मेहुस) गाँव में  रहने चले आए। समय से पिछड़ा यह मेहुस  गाँव ऊँची जाति के बाहुल्य से प्रभावित था। टूटा फूटा दो कमरे का अस्पताल, छोटा सा घर, पास ही पोखर, टूटा फूटा खपरैल का  स्कूल, एक छोटा सा बाज़ार और दो किलोमीटर में सिमटा संसार। इस संसार में गरीबी, अवसाद, बीमारियाँ सभी कुछ एक साथ ही पसरी हुई थीं। रेड कॉरिडोर के बीच बसा यह गाँव, जहाँ लाल और काले सायों का राज था। रुक-रुक कर नक्सली हमले होते रहते। हर हमले के पीछे कुछ झूठी कुछ सच्ची कहानियाँ भी होती थीं। जंगलों, कस्बों और गावों की पगडंडियों पर लाल रंग के झंडे उड़ते हुए दिख जाते थे।

 

अस्पताल में सिर्फ दो स्टाफ ही काम करते थें, कम्पाउण्डर हरि मिश्रा और चपरासी सुनील दास। स्कूल में भी दो ही शिक्षक थे जो पास में ही रहते थे। मिला जुला कर जानवर ज़्यादा और इंसान कम । उसकी ज़िन्दगी वहाँ भी घर से बाहर अस्पताल, स्कूल और पोखर के इर्द गिर्द ही घूमने लगी थी। चमकती चिलचिलाती दोपहर की धूप सी बेज़ार झुलसता बंटी का जीवन कठिन होता जा रहा था। जगह बदला पर घर का माहौल नहीं, अकेलापन उसकी नियति में शामिल ऐसे हुआ था जैसे उर्वर मिट्टी में केंचुआ। बंटी को इस नए माहौल में अपने उस पिता की याद आती  जिसे उसने देखा तक नहीं था।

 

अस्पताल में पहुँचते ही डॉक्टर साहब को स्थानीय बाहुबली एम. एल. ए राज किशोर सिंह  का बुलावा आ गया। संदेशा एक विनयपूर्वक धमकी की तरह था। ड्योढ़ी पर हाज़िरी लगाने का काम इलाके के सभी सरकारी बाबूओं के लिए एक रिवाज़ था वहाँ। जब भी कोई नया सरकारी अधिकारी गाँव में आता तो उसे सर्वप्रथम सिंह साहब के दरबार में शरण की गुहार लगानी ही पड़ती। शरणार्थी को अभय-शुल्क चुकाने के लिए मासिक राशि देनी होती। सीधा-सीधा कहें तो सरकारी अधिकारियों को घूसखोरी की खुली छूट दी जाती और उसके एवज में उसका मोटा हिस्सा एम. एल. ए साहब को दिया जाता। कहना मुश्किल था कि ज़्यादा ख़तरा किससे था नक्सली या राजनीति। हक की लड़ाई राजनीतिक रण में अलग-अलग झंडों में तब्दील होने लगी थी। जिसकी बंदूक में जितनी गोली वहाँ उसी का झंडा लहरा दिया जाता। यह बंदूक की राजनीति का प्रारम्भिक दौर था।

 

डॉक्टर खुद अनुसूचित जनजाति के संघर्षशील कम्युनिस्ट थे, थोड़ा अक्खड़ और ईमानदार। कुछ दिन यूँ ही बीत गए परंतु डॉक्टर साहब ने अपनी हाज़िरी सम्मानीय एम. एल. ए को नहीं दी । हालाँकि डर शंका की तरह उनके चेहरे पर तैरता पर उभरता बिल्कुल नहीं, संघर्षशील और दृढ़निश्चयी मन अडिग के अडिग ही रहा।

 


 

 

अस्पताल और घर बिल्कुल आमने सामने ही थे। डॉक्टर साहब इस समाज की तलीय सच्चाई से वाकिफ़ थे। गरीबों का इलाज ईमानदारी से करते और वक़्त-बेवक्त भरसक  इलाज कर देते। घर पर भी जाकर  मरीज को देखने से कभी नहीं हिचकिचाते। हरि मिश्रा कंपाउडर वहीं  पास वाले गाँव के रहने वाले थे और एम. एल. ए के बहुत करीबी भी थे। अस्पताल की सारी खबर नमक मिर्च लगा कर सिंह साहब तक पहुँचाना उनके रोज़नामचे में शुमार था।

 

इधर बंटी का समय घर के बाहर इस नए वातावरण से दोस्ती करने में बीतने लगा रहते रहते चीजों से परिचय होने लगता है। पोखर, पेड़, मैदान और खालीपन अब यही नए दोस्त थे जिनके बीच उसका मन रमने लगा था। बंटी और डॉक्टर साहब सब्ज़ी खरीदने साथ जाते थे। दोनों के बीच प्रत्यक्ष संबंध इतना भर ही था कि उनकी फटफटिया पर वो तभी बैठता जब बाज़ार से कुछ लाना होता। उसका काम सिर्फ थैला पकड़ने का होता। स्वाभिमानी था, पूरा ख्याल रखता कि बाज़ार में चलते समय डॉक्टर साहब की उंगली के बजाय थैले की डोरी ही पकड़नी है। यूँ ही  एक दिन जब दोनों सब्ज़ी खरीदने निकले हुए थे, एम. एल. ए साहब का अर्दली डॉक्टर साहब को ढूंढता हुआ आया और बोलने लगा कि - ‘डॉ. साहब, एम. एल. ए. बाबू की तबियत ठीक नहीं है,  आपको अभी अविलम्ब चलना होगा।

 

डॉक्टर साहब चेहरे पर बिना कोई भाव बदले अर्दली को देखते रहे। अर्दली के चेहरे पर अनुरोध से ज्यादा हुकूम तामिल करवाने जैसा भाव था। थोड़ी देर तक वे सोचते रहे, फिर उन्होंने बंटी की ओर देखा और इशारे से मोटर साइकिल पर बैठने को कहा। उन लोगों ने बाज़ार से सीधा सिंह साहब के घर की तरफ रुख कर  लिया। उन्हें पता था नैतिक रूप से वे जाने के लिए बाध्य थे। पाँच-छह किलोमीटर दियरा को नापते हुए वे सभी लखीमपुर गाँव पहुँचे। आलीशान घर था। हवेली को बंटी इस तरह निहार रहा था मानो किसी सपने में विचरण कर रहा हो। बंटी की आँखे फटी जा रही थीं। महल जैसा घर, बड़ा सा गेट, गेट पर वर्दी में दरबान, सिपाही और चमचों की जमात, सभी कुछ जरूरत से ज्यादा। बंटी ने सुन रखा था कि हर गाँव में एक ही धनी आदमी होता है, वही जो पहले राजा हुआ करता था। डॉक्टर साहब ने एक बार चारों तरफ देखा और हिकारत भरी दृष्टि को झुका लिया। भूमि सूधार कानूनों का दुरूपयोग काफी हुआ था। प्रभावशालियों ने सरकारी और सामुदायिक जमीनों को प्रतिहिंसा में हड़प कर आज अपना बना लिया है। जिस राजनीति ने जमींदारों से ज़मीन छीन ली, जमींदारों ने उसी राजनीति को अपनी दखल में रख कर यह सिद्ध किया कि वक़्त बदलता है हालात नहीं! अधिकतर जमींदार अब बाबू साहब बन गए थे। परिवर्तन बस यही हुआ कि जमींदारों ने अब पेशा बदल लिया।

 

डॉक्टर साहब ने मोटर साइकिल पोर्टिको में लगाई और बंटी को साथ लेकर भीतर चलने को आगे बढ़े। उनके साथ आगे-पीछे कम से कम दस सशस्त्र छह फुटिया बॉडीगार्ड हो लिए। सामने बड़ा सा बरामदा, बरामदे के भीतर आंगन फिर कमरों की दीर्घश्रृंखला। भीतर घुसते ही देखा पैर पर पैर चढ़ाए एम. एल. ए सिंह साहब विराजमान मुस्करा रहे हैं। सविनय दृढ़ स्वर गूंजा, - ‘डॉक्टर साहब स्वास्थय और सफाई तो आपके जात-गुण में है ही नहीं, आप जिस समाज से आते हैं वहाँ तो इसका ख्याल रखा ही नही जाता। तो कृपया करके अपना सैंडल यहीं खोलिए, हाथ में लीजिए और बाहर रख कर फिर भीतर आइए और इस लौंडे  को भी बाहर ही छोड़ आइए। लौंडा कहते समय कसैलापन उनकी ज़ुबान से चेहरे तक फैल गया था।

 

बंटी सर्द चुभन भरी आवाज़ सुन कर हवेली के मोहपाश से बाहर निकला और पिता की तरफ देखने लगा। डॉक्टर साहब बहुत गंभीर व्यक्ति थे और गुस्सा उनकी नाक पर हमेशा ही रहता, पर इस स्थिति में सौम्यता ने अचानक उन्हें क्यूँ कर घेर लिया यह उसके लिए भी आश्चर्य की बात थी। उन्होंने वही किया जो कहा गया। बंटी को बाहर रूकने को कहा और खुद अंदर चले गए। बंटी अब हट्ठे-कट्ठे घूरते हुए लोगों के बीच खड़ा था। वह कई तरह के दृश्यों की कल्पना करने लगा। उसके अंदर माहौल की नकरात्मकता आशंका को जन्म दे रही थी।

 

अंदर बातें चल रही थीं। एक बात तो साफ थी कि एम. एल. ए. बिल्कुल स्वस्थ थे और जो भी घट रहा था उनकी सोची समझी रणनीति के तहत था। वे डॉक्टर को अंदर से तोड़ना चाह रहे थे। अंत में सिर्फ़ एक ही बात सुनाई पड़ी कि नक्सली दोस्त किसी के नहीं होते डॉक्टर, और सुनते ही बिना वक्त गवाएँ तमतमाते हुए डॉक्टर साहब बाहर आये और रास्ते भर बुदबुदाते रहे  "चाहे जो हो जाए घूस नहीं दूंगा"।

 

अनजान डर का विषाक्त माहौल और तन गया। किस दिन! किस समय! कौन से रूप में! क्या घट जाएगा इसका अंदेशा नहीं हो पा रहा था। माहौल बाहर से विषाक्त और घर में अतिरिक्त अवसाद से भरा हुआ था। बंटी अलग-थलग बस माँ को निहारता रहता और माँ डॉक्टर साहब को खुश रखने में लगी रखती। इसके लिए अगर बेवजह बंटी को डांटना फटकारना हो या बेबात बेवक्त उससे माफी मंगवानी हो, माँ थोड़ा भी नहीं हिचकिचाती  और यूँ माहौल में अवसाद के बादल घनत्व से ज्यादा जमा हो रहे थे और समय के साथ बर्फ़ उन तीनों के रिश्तों में भी जमती जा रही थी।

 

जातीय समीकरण के कषाय तीनों के  चित्त में और भी कड़वाहट फैला रहे थे। अनुसूचित जनजाति का डॉक्टर जिसने अंतरजातीय विवाह किया, उसे सवर्ण एम. एल. ए की तीखी आलोचना और कटाक्ष तो झेलनी ही थी। पीठलग्गुओं का व्यक्तिगत कटाक्ष लगातार आने लगा था। एक और हवा उड़ने लगी थी कि डॉक्टर की दोस्ती नक्सलियों से भी बहुत गहरी है और उनका इलाज वो ही करते हैं। अभी ये बातें अपनी जगह बना ही रही थीं कि एक दिन अचानक जिला अधिकारी का औचक निरीक्षण हो गया, वह भी उस समय जब डॉक्टर साहब गाँव में एक अधेड़ बीमार महिला के आपात इलाज को गए हुए थे। हरि कम्पाउण्डर उस पूरे आपात निरीक्षण में मुस्कुराते हुए टाल गया कि उसे कुछ  नहीं पता कि डॉक्टर साहब कहाँ गए हैं। उसने यह भी कहा कि कब कहाँ डॉक्टर साहब किसके इलाज में निकल जाते हैं हममें से किसी को नहीं पता चलता। उन्हें अस्पताल में न पाते हुए जिला अधिकारी राम किशोर सिंह को बहुत गुस्सा आया और  उन्होंने डॉक्टर साहब को बलात अविलम्ब छुट्टी पर भेज दिया साथ में लिखित जवाब भी मांगा।

 

बलात छुट्टी के दौरान डॉक्टर साहब ज़्यादातर घर पर ही रहते और इस सुनहरे मौक़े को देख हरि दवाइयाँ आराम से बेच पा रहा था, साथ ही साथ शाम को एम. एल. ए. को डॉक्टर के घर  का और अस्पताल का बाक़ी हिसाब-किताब देता रहता। जिनके पास सुविधाएँ थी उनकी ही भूख बढ़ती जा रही थी। सत्ता हथियाने के नाम पर हिंसा-प्रतिहिंसा भी कमजोरों को ही लील रही थी।

 

हरि सच्चाई जानता था। उसे बहुत गुस्सा भी आता था, सोचता कि डॉक्टर के पास बुद्धि नही है। एक दिन उसने हद पार करके डॉक्टर साहब को यहाँ तक कह डाला कि एम. एल. ए की शर्तें अगर आज भी मान लीजिए तो मैं खुद मध्यस्थता करूं। डॉक्टर साहब उस दिन आगबबूला हो गए  और हरि को गालियों की बौछार के साथ जबरदस्त खड़ी-खोटी सुनाई। जबकि डॉक्टर भी भीतर से बेचैन होने लगे थे। इस सारे कश्मकश में उनका सारा रंज और गुस्सा बंटी पर समय बेसमय उतरता रहता। बंटी की घर में लगभग स्थिति गली के पिल्ले की तरह हो गई थी जिसे देखो एक घुड़की मार देता।

 

इस माहौल में  बंटी की हरि कम्पाउण्डर से  कुछ ज्यादा ही बनने लगी, ज्यादातर समय उसी के साथ बिताने लगा था वो। दिन भर उसके घर में पड़ा रहता, लूडो खेलता, खाता पिता और सिर्फ़ रात को सोने के लिए घर चला जाता। घर लौटता तो मन कचोटता और वह छत पर ही सो जाता। चाँद- तारों में तरह-तरह की शक्लें बनती बिगड़ती रहतीं जिसे देखते-देखते ही सो जाता।

 

हरि जब भी मिलता बड़ी आत्मीयता से मुस्कराता, यह बंटी को समझ में नहीं आ रहा था कि  हरि की बढ़ती मंद मुस्कुराहट का राज क्या है ? बंटी इससे भी उकता गया था कि डॉक्टर साहब अब  दिन भर घर में क्यों रहते हैं। ये उसके लिए और भी दुर्दिन थे, माँ एक पल को उसके पास नहीं बैठ पाती। एकांत का डर  उसके बालमन में घुन की तरह फैल रहा था और उसके जीने की इच्छा को भीतर से कमजोर कर रहा था। अब-जब पोखर पर जाता तो नहाने के बदले डूबने की इच्छा प्रबल हो जाती।

 

अक्सर इन दिनों बंटी रात को छत पर अकेले ही सोने लगा था। आसमान ताकता तो उसे लगता तारों की कराहटें सुन रहा है, अपनी सारी मुरादों को खिसकता घिसटता पाता, रात में मन और ज़्यादा डोलता तो  खुद को टटोलता कि वहीं छत पर है या कहीं घनघोर जंगल के घुप अंधेरे में! घबरा कर उठता तो अपने आपको अकेला छत पर ही पसीने से पूरी तरह नहाए हुए पाता।

 

बगल का सटा हुआ मकान हरि का था और दोनों मकानों की छतों को एक छोटी सी दीवार अलग करती थी। एक रोज़ रात में  छत पर वह अकेला बैठा था और उसने देखा हरि भी अपनी छत पर आ गया है। बच्चे की सूजी हुई आँखे भले उसे न दिखी हो पर दुखते मन को आसानी से अंधेरे में भी वह भाँप गया। हरि ने बड़े प्यार से पूछा, ‘बेटा! क्या डॉक्टर साहब ने पिटाई की है?’ बंटी के बालमन ने तपाक से जवाब दिया, ‘नहीं माँ ने डाँटा, असमय भूख लग गई थी।हरि बोल उठा तो तुम मेरे पास आ जाते। भूख अब याचक दृष्टि से उसकी ओर देख रही थी। हरि भांप गया और कहा, ‘अंडा करी बना है खाओगे?’ अंधे को क्या चाहिए दो आँखें! माँ को जोर से आवाज दे कर कहा कि वो हरि चाचा के यहाँ जा रहा है और छत की छोटी दीवाल फांद गया। अंडा करी चावल के साथ, भूख को तीखी मिर्च का भी पता ही नहीं चला वो ड्योढ़ा खा गया।

 

बड़ी तेज की हिचकी आई पर माँ की याद नही आई। बस भूख और उसकी तृप्ति। हरि ने कहा सो जाओ, बंटी ने जवाब में कहा छत पर सोता हूँ वहीं सो जाऊंगा और अगले ही पल बंटी अपनी छत पर लेटा हुआ था। हरि चाचा अपनी छत से लेटे हुए भी उसी को ताके जा रहे थे।

 

बंटी उनींदी लिए तारों में शक्लें इख्तियार कर रहा था। आँखे जो कई चित्र गढ़ रही थीं बादलों के ढूहों और फाहों से कभी डरावनी तो कभी देवताओं की शक्लें उभर रही थीं। तीसरा पहर बीत रहा था। वो अभी भी बार-बार करवट ले रहा था। आधी नींद पूरी नींद की ओर चल पड़ी थी। कषाय की परत थोड़ी ढीली हो रही थी कि उसके पेट पर कुछ रेंगता हुआ महसूस हुआ  और अगले ही पल उसके शरीर को बलिष्ठ आलिंगन ने कस लिया, अभी तक उसे लगा कि वह सपने में लड़ने की कोशिश कर रहा है तभी उस काली सूरत ने बेतहाशा चूमना शुरू कर दिया कि उसका दम फूलने लगा। बादलों की काली ढूह ने हरि की शक्ल इख्तियार कर ली थी। बच्चा था वह और कल्पना से बाहर की चीज यथार्थ में प्रत्यक्ष सामने हो तो मानो मछली को अचानक सड़क पर पटक दिया गया हो ऐसा प्रतीत हुआ। अकेलापन कभी-कभी ज़्यादा शक्तिशाली बनाता है और अगले ही पल उसने कस के दांत गड़ाया था हरि के गालों पर, खून से दोनों का चेहरा सन गया। हरि की जैसे तंद्रा टूटी और एक छलांग में वो अपनी छत से फलांगते हुए नीचे भाग गया।

 


 

 

बंटी कुछ पल वहीं छत पर निष्प्राण-सा पड़ा रहा। उसी समय प्रभात की पहली किरण फूटी, चिड़ियों का कलरव उसकी पीड़ा को और बढ़ा रही थी। उसका मन अखरोट के छिलके की पहली चोट-सा दरका  हुआ था। सोचने की शक्ति क्षीण थी। निस्तेज वह उठ पड़ा, बंद दिमाग और बेजान कदम उसे किस ओर ले जा रहे थे उसे भी नहीं पता। खून अब भी उसकी शक्ल पर फटके हुए बिखरे चावल की तरह था। चलते-चलते अपने आप को पोखर के ठीक सामने पाया उसने। अनायास सारे कपड़े उतार कर  छलांग लगा दी । पानी के भीतर सांस रोकने की जरूरत नहीं होती बल्कि नितांत आवश्यकता होती है पर उसकी इच्छा ही  नहीं हो रही थी साँस लेने की भी। भरे तसले-सा पानी के निचले तह की मिट्टी पर निस्सारता में पड़ा रहा वो। पानी के अंदर दम घूँटता तो है पर उस समय पानी नहीं भुस्सी के बोरे में बंद घुटन-सा महसूस कर रहा था वह। चेहरे  पर चिपके ख़ून के छींटे कई शूल और किरिच बन चुभ रहे थे और वो चीख भी नहीं पा रहा था। अंतिम सांस के चंद सेकंड पहले अचानक उसके हाथों  में पोखर की गीली दलदली मिट्टी भर आयी। पूरा चेहरा  पानी में भीतर ही उसी मिट्टी से लीप लिया और उसे लगने लगा जैसे मिट्टी ने उसे थोड़ी और सांसे अता की हो। दूसरे ही पल वह पानी की सतह तक आ चुका था। मिट्टी, पानी, हवा पृथ्वी के सारे तत्व एक साथ उस पल  उसके साथ हो गए थे। पानी की सतह पर टूटे कमल-सा तिरता रहा। आँखों की नमी पोखर के पानी के साथ गड्डमड्ड हो रही थी। सुबह की किरणों में शांति और सुकून ग़ैर मौजूद थे। तन्द्रा टूटी कि लौटी पता नहीं पर यांत्रिक झटके से किनारे आ कर कपड़े निचोड़ कर पहन लिया और उसी अन्दाज़ में  घर की तरफ़ चल पड़ा।

 

इधर माँ चिंतित परेशान बंटी को ढूंढ़ने निकल पड़ी थी। किसी ने बताया कि घर की ओर जाते दिखा है तो भागती आई। ऐसा पहली बार हुआ होगा कि माँ  बच्चे की  शक्ल से उभरती संवेदनाओं से  परिचित नहीं हो पा रही  थी। भावों का गडमड चेहरा लिए झट चुपके से माँ की गोदी में सिर रख दिया, पर  रोया बिल्कुल नहीं। लगा जैसे चाँद पूर्णिमा में कट कर पत्थर हो गया है और उसकी गोद में गिर पड़ा है। आंखों में इतने भाव बदल रहे थें कि माँ ने अपनी आँखे बंद कर ली। सुबकने लगी! हज़ार बार पूछा पर एक भी शब्द नहीं निकला।  कभी-कभी शब्द वहीं सूखे थूक में अटके रहते हैं धकियाने से भी बाहर नहीं आते, उनका धकियाना मानो पहाड़ को धकियाने सा दुश्वार हो जाता है। हज़ार दुख और एक चुप्पी, गहरी उनींदी वाली चुप्पी। बंटी के पास इसको अकेले झेलने के अलावा कोई चारा नही था। वर्षों तक इकट्ठा होने वाली कुंठाएँ, शरीर में हो रहे हार्मोनल बदलाव इस असंतुलित प्रतिक्रिया में सहायक थे। क्या कुछ घटता रहता है पर रोज़ सूरज की किरणों का मंथन और प्रकृति के नैसर्गिक गतिविधियों में कुछ नहीं बदलता।

 

अगले दिन दस बज चुके थे और पता चला कोई ऑडिट टीम अस्पताल में जाँच करने आ चुकी है। डॉक्टर साहब को बुलाने आज हरि नहीं चपरासी सुनील दास आया। कर जोड़ते हुए अनुग्रह कर उन्हें अस्पताल ले गया। शाम तक ऑडिट टीम निरीक्षण जांच पड़ताल करती रही। घर से ही चाय नाश्ता और लंच का इंतजाम माँ ने ही किया। शाम को कुछ पेपर्स पर हरि और सुनील दास का हस्ताक्षर करवाया गया। डॉक्टर साहब ने किसी भी कागज पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया था। एक सवाल टेढ़ी नज़रों से पूछा गया कि क्या आपके पास नक्सली भी इलाज कराने आते हैं? डॉ. साहब ने सारी प्रक्रियाओं के दौरान एक मौन धारण कर लिया था।

 

दूसरे दिन ठीक दस बजे जिलाधिकारी ने एक पत्र अस्पताल को भिजवाया, जिसमें साफ-साफ लिखा था कि जाँच समिति ने दवाईयों के हिसाब में  अनियमितताएँ पायी हैं और कई शिकायतों को भी सही पाया है जिसे गाँव वालों ने डॉक्टर के खिलाफ लिखी हैं। इसको मद्देनजर डॉक्टर श्री ईश्वर नाथ को तत्काल प्रभाव से निलम्बित किया जाता है और जाँच समिति अपना जाँच जारी रखेगी। अविलम्ब सरकारी घर खाली करने का आदेश भी साथ ही संलग्न था। उसी दिन एम. एल. ए. की कार घर के पास से गुजरी। धूल उड़ाना संकेत है और सवर्ण होना ही अभिमान, सवर्ण के साथ धनी होना गौरव की निशानी और जब  धन के साथ राजनीति भी जुड़ जाए तो वह बाहुबली बन जाता है। बाहुबली का पूरा साम्राज्य भय पर आधारित होता है, जहाँ कहीं भी भय कम होने की आशंका होती है उसे पूरी तरह से मिटा दिया जाता है। कुछ दिन पहले ही चर्चा में आया था कि एक जमींदार को मार कर नक्सलियों ने मुसहर को जमीन दे दिया। उसके कुछ दिन बाद ही मुसहर के गाँव को जला दिया गया था। डॉक्टर साहब नक्सलियों को पसंद नही करते थे। प्रतिहिंसा एक और हिंसा को जन्म देती है। डॉक्टर साहब इसलिए प्रतिहिंसा को खराब मानते थे और समाज के सामने खड़े हो कर अपने अधिकार के लिए लड़ना पसंद था उन्हें, पर आज अर्जित सैद्धांतिक मूल्य प्रश्न चिन्ह के घेरे में था!

 

जैसे-जैसे दिन बीते दुःख की दीवार प्याज के छिलकों सी परतदार होती गई। एक के बाद एक, आख़िर कितनी परतें पार करेगा आदम। गाँव के वे लोग जिनके लिए दिन रात डॉक्टर साहब सेवा में लगे रहते थे वे सब लाश से ज़्यादा मरे हुए प्रतीत हो रहे थे। उन्हें देख भ्रम हो जाता कि तिलचट्टे वातावरण के अनुसार ज़्यादा ढलते हैं या आदम! बंटी, डॉक्टर साहब और बंटी की माँ तीनों ही अपने-अपने दु:ख से ऐसे लड़े चले जा रहे थे जैसे समुंदर और उसके तीर के बीच की अनवरत लड़ाई हो, कभी ख़त्म होने वाली?

 

 31 अक्टूबर 1984 का दिन था।  पूरे देश पर वज्रपात हुआ। प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की हत्या अपने ही अंगरक्षक के द्वारा कर दी गई। बौराए से लोग इधर-उधर भाग रहे थे। दिल्ली और देश के अलग-अलग भागों में सिक्खों की हत्या की जा रही थी। इसी माहौल में इधर इस मनहूस गाँव के उस छोटे से परिवार में अलग तरह की झंझा उठी हुई थी। गाँव को छोड़ माँ दोनों को साथ  लिए  वापस अपने पुराने कार्यस्थली लौट रही थी। सारे रास्ते भय का माहौल था। पहली बार माँ ने डॉक्टर से ज्यादा कस कर बंटी को भींचा हुआ था। उस क्षण में बंटी को डर भी आराम के साथ सुकून दे रहा था। तीनों वापस तिलकामांझी गाँव चुके थे। ज़िंदगी एक नए करवट के इंतज़ार में थी।

 

तीनों की ज़िंदगी की हौंस हाँफ रही थी। समय हर दिन और ज्यादा दुर्दिन की तरह सामने आ रहा था। डॉक्टर साहब लगभग  मायूस हो चुके थे। सिस्टम में जातीयता और घूसखोरी दीमक की तरह घुस गई थी। अर्जित सैद्धांतिक मूल्य को ताख पर रख कर अंत में डॉक्टर साहब ने प्राइवेट प्रैक्टिस की शुरुआत की। धीरे- धीरे डॉक्टर साहब की एक पुरानी आदत जो कभी कभार वाली थी, कमजोर पड़ते ही पूरी तरह छा गई। वह समस्या थी नशे की। नशा भी बिल्कुल अजूबा जो संभवतः एक डॉक्टर ही कर सकता है, वो नशीली दवाइयाँ लेते थे फोर्टविन, कंपोज या पेथेडीन या जो भी मिल जाये। शुरुआती दौर में अकेले में खुद से ले लेते और फिर वहीं लुढ़क जाते। घर से जब दूर रहते तब लेते, फिर धीरे धीरे इसका क्रम और दायरा दोनों  बढ़ता गया। अब टूटन तीनों के शरीर का स्थायी भाव बन गया था।

 

यह नशा शायद उनके भीतर का क्षोभ था। ज्ञान की कोई कमी नहीं थी पर अति निम्न  जनजाति के होने के कारण उन्हें कभी भी समाज में वो इज्जत नहीं मिली जो एक सामान्य डॉक्टर को मिलनी चाहिए। माँ का आधा समय  उनकी नशामुक्ति के पीछे बीतने लगा। माँ को हमेशा लगता हम जितना प्रेम उड़ेलेंगें वो नशे से उतना दूर हो जाएंगे। बंटी को एक हद के बाद इस कोफ्त भरे माहौल से भयानक नफरत सी होने लगी। प्रेम हर जगह होते हुए भी आपसी संबंद्ध नही बांध पा रहा था। बेरुख़ी और बेन्यासी इतनी बढ़ गयी कि आपसी सम्बंध तिक्ततम होने लगे, तीनों के भीतर तनाव  समंदर-सा उफान लिए थी और स्थिति ऐसी कि हथेली में उस लड़ाई का सारा झाग समा जाए।

 

नशा अब बेहोशी की तरह आता। वे कहीं भी गिर जाते। बाजार में भी गिर पड़ते। सभी जगहों पर उनके साथ सिर्फ बंटी ही होता। कई लोग इसे मिर्गी समझते और जूते-चप्पल सुंघाने लगते। कितने लोग-कितनी बातें, कटाक्ष भरी भीड़ की बातें गरम शीशे की तरह उसके कान में पिघलती हुई उतर जातीं । वो बच्चा भारी भरकम नशे में डूबे आदमी को उठा भी नही सकता तो फिर भीड़ से ही कातर नज़रों से विनती करने लगता, कोई तो रिक्शा पर चढ़ा दे। पूरे रास्ते अपने नन्हे हाथों में उस नशे में डूबे विशालकाय शरीर को सम्भाले लाना दस बार पहाड़ पर चढ़ने के बराबर होता, वो भी उस बेटे के लिए  जिसने उस व्यक्ति को कभी पिता नहीं समझा और पिता जिसने कभी उस बेटे को बेटा समझ कर गले भी न लगाया हो, अब इस  विचित्र दौर में दोनों के अपने संघर्ष थे।

 

सभी घटनाओं के बीच उम्र से उसकी प्रतिस्पर्धा चल रही थी। वह लगातार समय से पहले बड़ा होता जा रहा था। दुख किसी के उम्र को यूं ढकेलते हुए आगे ले जा सकती  है यह तो उसे भी कभी समझ नहीं आया। परिपक्वता का कड़ा आवरण उसके कोमल मन पर चढ़ता जा रहा था।

 

अब डॉक्टर साहब ने धीरे-धीरे बाहर निकलना भी बंद कर दिया। लोगों से चुपके से उधार भी लेने लगे कभी सूद पर कभी बिना सूद के। नशे के इंजेक्शन्स और उसकी मुक्ति के लिए खरीदी गई दवाइयों में बंटी की माँ पूरी तरह खाली और कंगाल होने लगीं। इस स्थिति का पूरा फ़ायदा अस्पताल में काम करने वाले सहकर्मी उठाना चाहते, कभी झूठी सहानुभूति, कभी पैसे की मदद के बहाने। आँखों और अनचाहे स्पर्श में वासना की तीखी गंध मिली होती। माँ की इस नई परेशानी से पूरी तरह वाक़िफ़ था वो बेचारा और इसलिए अब वह सारा समय घर पर ही बिताता ताकि पिता की चिंता माँ को न करनी पड़े। कभी-कभी ऐसी विषम स्थिति आ जाती जिसकी कल्पना करने से भी जी सिहर जाए! पिता नहाते-नहाते नशे में बेहोश हो जाते, माँ अस्पताल काम पर होती, बाथरूम से सिर्फ़ गों-गों की आवाज़ आती, वो बच्चा मुश्किल से दरवाज़ा खोल पाता, शायद चिटकनी कमजोर रही हो और नंग-धरंग पिता को सहारा देते हुए उनके बिस्तर पर ले जाता और तकिए के सहारे सुला देता। जब डॉक्टर को होश आता तो आत्मग्लानि से कुछ घंटे शक्ल झुकाए रहते और कभी-कभी बंटी के सिर पर हाथ फेर देते जैसे माफ़ी माँग रहें हों।

 

अब डॉक्टर पर माँ की प्रतिक्रिया प्यार, गुस्से और खीज के रूप में बारी-बारी आती, कभी एक-एक करके। उन सभी प्रतिक्रियाओं में  बंटी कहीं और ही  पिसा जा रहा था। वह रोज  यह मनाता कि भगवान या तो उसे  या फिर डॉक्टर साहब को अपने पास बुला ले। बचपन सिर्फ अपना स्वार्थ देखता है।

 

एक दिन अचानक डॉक्टर साहब को उनके गांव जो कि सासाराम के पास था, वहाँ से  खबर आई कि उनके बड़े  भाई नहीं रहे। हालांकि सबको पता है कि उनके  विवाह के समय से उनके पुश्तैनी घर में उनका जाना वर्जित कर दिया गया था, फिर भी उस दिन कहाँ से भाई के लिए इतना प्रेम उभर आया ! पता नहीं, क्या मृत्यु ही  ऐसा बंधन बनाती है जो सालों से रूठों को पास लाने में सक्षम है!

 

डॉक्टर साहब का गाँव पुराने जमींदारों का गाँव था, खेत मजदूर  परिवार में जन्मे उस जनजाति से उभरे पहले डॉक्टर ने शादी सवर्ण से कर ली थी और अपने मौलिक कर्तव्य को भी नहीं निभाया था जो उनके पिता की आशाओं की तिलांजलि से कम कहाँ था। इस  क्षोभ के साथ घर वाले प्रतिबंध न भी लगाते तब भी वो वहाँ नही जाना चाहते। पर आज की पुकार और उनके मन की स्थिति कुछ और ही थी। आज भाई की मौत ने संवेदना और स्मृति दोनों को अवचेतन से चेतन में बदल कर रख दिया।

 

खबर सुनते ही अविलम्ब रात को ही ट्रेन से डॉक्टर साहब अपने गाँव को निकल पड़े। माँ ने बहुत समझाया साथ ले चलने को, पर उनकी एक नहीं सुनी गई। उनको गए दस दिन बीत गए। इस बीच बंटी को खोई हुई माँ पूरी तरह वापस मिल गयी। कुछ खोना भी पाना ही होता है, इस भेद से अनजान वो बस इस बात से बेहद खुश था कि घर में  माँ का ध्यान का केन्द्र सिर्फ वही है। दस दिन, बीस दिन फिर पूरा  महीना बीत गया। माँ अब थोड़ी चिंतित और बंटी प्रसन्न रहने लगे हालांकि  माँ की रोनी सूरत से वो थोड़ा सा परेशान हो ही जाता था।

 

कोई खबर नहीं! कोई चिट्टी नहीं ! माँ ने रात सुलाते समय बंटी को कहा कि वह डॉक्टर साहब को देखने गाँव जाएगी। बंटी को अब काटो तो खून नहीं। क्या सारी खुशियाँ फिर विलुप्त हो जाएँगी। माँ के आलिंगन में भी ममता फिसलती हुई लग रही थी।

 

सुबह-सुबह माँ ने जल्दी जल्दी खाना बनाया फिर कुछ कपड़े तह कर बैग में डाली! दस बजे रिक्शा बुलाने कहा। रिक्शा वाला भी कमबख़्त समय पर गेट के सामने खड़ा हो गया। उसी वक्त हाँफते दौड़ते पुराने अस्पताल का सुनील दास चपरासी दौड़ता हुआ आया, उसकी शक्ल पर जमाने की परेशानियाँ तैर रही थीं। माँ कुछ बोलती उससे पहले उसके मुँह से सिर्फ इतना ही निकला कि आप लोगों को क्या सच में कुछ नहीं पता? माँ के चेहरे पर कई आशंकाएँ क्षण भर में उभर गईं। बंटी दरवाजे पर खड़ा दोनों चेहरों को ध्यान से देख रहा था।

 

माँ की उड़ती शक्ल को भाँपते हुए सुनील दास ने कहा डॉक्टर साहब के गाँव से खबर आई है। उनके रिश्तेदार ने पेंशन की पूरी जानकारी मांगने के लिए उनका मृत्यु प्रमाण पत्र  भेजा है। उनके गाँव से कोई आया था,  कह रहा था यहाँ से जाते वक्त गया स्टेशन उतरे और टमटम से गाँव जा रहे थे, रास्ते में पता नहीं कैसे टमटम से लुढ़क गए, नशे में थे या किसी ने धक्का दिया पता नहीं। सिर में चोट लगी थी शायद उसके बाद का ज़्यादा पता नहीं पर दो दिन लाश थाने में पड़ी रही फिर किसी नजदीकी  गाँव वाले ने पहचान की। दाह संस्कार गाँव पर ही हुआ। एक ही घर में दो भाई सात दिन के अंदर भगवान के पास चले गए। विधि का विचित्र विधान है!

 

पहले वाक्य के बाद ने माँ ने कुछ नही सुना। बंटी सब कुछ बड़े ध्यान से सुन रहा था मानो खबर की पुष्टि कर रहा हो। माँ दरवाजे के पल्ले को पकड़े-पकड़े धड़ाम से जमीन पर गिरीं और अचानक ही तेज दहाड़ मार कर रोने लगीं। आसपास के कई लोग आ गए। माँ कभी हँस रहीं थीं, कभी रो रही थीं और कभी दहाड़े मार रहीं थीं।

 

बंटी घर के कोने में अलमारी के पास खिड़की पर अटक कर बैठा सब कुछ खुली आँखों से देख रहा था। आँखें बाहर को देख रही थीं। कहीं कोई दु:ख नही था बल्कि एक निश्चिंत्ता थी कि माँ अब सिर्फ उसकी है। आगे के सारे सपनीले दृश्य उसकी आँखों में अचानक उगने लगे। उसकी स्मित उससे मिलने इतने दिनों बाद समंदर लाँघ के आयी थी।

 

वह उठा और पिता की कुर्सी पर बैठ गया

 

 

(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्व. विजेंद्र जी की हैं।)   

 

 

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टिप्पणियाँ

  1. वह उठा और पिता की कुर्सी पर बैठ गया ... इस आखिरी पंक्ति में जैसे कहानी के बाद की कहानी छुपी हुई है। बड़े फलक की मर्मस्पर्शी कहानी। कहानी की पृष्ठभूमि 1984 के आसपास की है पर लगता है आज भी बहुत कुछ वैसा ही है जैसा उन दिनों था। उत्तरप्रदेश , बिहार के चुनाव इस बात की तस्दीक करते हैं कि कहीं कुछ बदला नहीं है। जातिवाद और धार्मिक कट्टरता की जड़ें बीच के दिनों में थोड़ी ढीली पड़ी भी तो इन 10-11 वर्षों में भरपूर खाद-पानी पाकर पहले से भी ज़्यादा मजबूत हुई हैं। ऊपर से घूसखोरी और भ्रष्टाचार की तपिश इन जड़ों को मोटा और धरती में गहरे धकेलने में मददगार ही साबित हुई है...
    ख़ुदगर्ज रिश्तों के बीच पलते मासूम बंटी की व्यथा, माँ की मजबूरियाँ और डॉ पिता की कमज़ोर नसें, हरि कम्पाउंडर और सवर्ण एमएलए की धूर्तता के तानेबाने को इस कहानी ने बखूबी बयां किया है। कहानी पढ़ते हुए आँखों में यथार्थ की किरचों से उत्पन्न जलन को गहरे महसूस किया जा सकता है। इस बेहतरीन कहानी के लिए यतीश भाई को और पहली बार ब्लॉग पर प्रस्तुति के लिए भाई संतोष चतुर्वेदी जी को हार्दिक बधाई एवं साधुवाद।

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  2. बहुत मार्मिक और सोचने को विवश करती कहानी!
    इस विधा में भी आप महारथी हैं, बधाई हो यतीश भाई!!

    शुभकामनाएँ

    अविनाश

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  3. इस कहानी को पढ़ कर मेरी यह मान्यता पहले से और दृढ़ हुई कि भाषा और शिल्प की बैसाखियों पर चलने वाली कहानियों की तुलना में अनुभवजन्यता की उर्वर-प्रदेश में अंकुरित होने वाली कहानियाँ अधिक दीर्घजीवी और असर पैदा करने वाली होती हैं। बहुत मर्मस्पर्शी, बहुपरती और प्रवाहमान कहानी कही जा सकती है यह, और सबसे बड़ी बात यह है कि पहले पढ़ी होने के बावजूद जब इसे अभी दोबारा पढ़ा तो भी एक-एक शब्द को फिर से पढ़ना बोझिल नहीं लगा बल्कि यह उपक्रम मेरे पाठक की आत्मा को भिंगो गया। इसे कहानी की ताक़त मानता हूँ।

    कहानी दो समनान्तर पटरियों पर एक साथ चलती है -- पहली पटरी व्यक्ति और व्यक्ति के अंतर्संबंध हैं, और दूसरी पटरी व्यक्ति और समाज की शुष्क और संवेदनाहीन व्यवहारिकता है। कहानी चूंकि इस कसौटी पर भी खरी उतरती है, इसलिए शिल्प और भाषा कहीं भी इसके सिंथेटिक रचना होने का बोध नहीं होने देती। कहानी में आवश्यक तनाव भी यहाँ उपस्थित है, और अपेक्षित घटनात्मकता भी। लेकिन बर्ताव के कारण यह फ़क़त ब्यौरा बनने से बच गई है। कहानी व्यक्ति और समाज दोनों के स्तर पर जिन मुद्दों को अड्रेस करती है, वे मुद्दे इसे एक बड़े फ़लक की कहानी बनाते हैं।

    एक और ट्रीटमेंट ने मेरा ध्यान आकृष्ट किया -- कैशौर्य का मनोविज्ञान। यह तत्व बहुत स्वाभाविक तरीके अपनी मौजूदगी के कारण कथ्य का प्राणतत्व बन गया प्रतीत होता है। हरेक दृष्टि से एक संपूर्ण और बेहतरीन कहानी है यह - यह आकलन किसी भी संशय और कहानीकार के औरा से परे है। ब्लॉग का आभार कि इस पाठकों के लिए सुलभ बनाया।

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  4. बुध की तरह उसने भी जन्म के बाद पिता को नहीं देखा था...

    इस कहानी से जुड़ने के लिए ये पहली पंक्ति ही पर्याप्त है मेरे लिए। हृदयस्पर्शी कहानी है और अब रह जाएगी हमेशा-हमेशा के लिए साथ। ❣️

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  5. सशक्त कहानी। सामाजिक सच्चाई और अनुभव कहानी की जान है। एक बच्चे को केन्द्र में रखकर कथाकार ने पीड़ित भविष्य को मूर्त कर दिया है। यह कवि की कथा की खूबी है। सरल शिल्प में लिखी यह बहुत जटिल सवाल खड़ी करती है। इस तलस्पर्शी कहानी के लिए सतीश जी को बहुत बहुत बधाई ।

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  6. ओह!...शब्द दर शब्द जैसे बंटी सामने हो और उसकी आँखें,ढ़ेरों सवाल लिए खाली-खाली सी एकटक देख रही हों जैसे।
    एक पल को लगा काश वो बच्चा अभी दिखे और समेट ले माँ उसे अपनी बाहों में।
    बधाई लेखक को उस दर्द को उकेर डाला जिसे उस समय व्यक्त करना भी नहीं जानता था बचपन न समझता था समाज ही।

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  7. पूर्ण रूप से जो सीखने को है प्रथम यही है हर परिस्थिति कैसे भीतर एक नई दुनिया को जन्म देती है और कैसे रिश्तों तक उनका असर पड़ता है लेकिन माँ की ममता एक खिंचाव की है जहाँ कभी बेटा स्वयं में हार नही पाता । पूरी कहानी पढ़ते हुए महसूस होता है जैसे सामने ही सब घटित हो रहा है और आप इसके लिए बधाई के पात्र है कि आप संबधों को इस तरह जी पा रहे है की कलम और काल्पनिक व्यवस्था एक ही है।

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