महेश चन्द्र पुनेठा की कविताएँ
विकास एक ऐसा शब्द है, जो तमाम तरह के भ्रम पैदा करता है। एक सवाल यह भी है कि आखिरकार वह विकास किस काम का जो हमारी पृथिवी, जो हमारी प्रकृति को ही नुकसान पहुंचाता है। हम सबका अस्तित्व इस पृथिवी और इस प्रकृति से ही है। ताज्जुब की बात तो यह है कि हम इस हरी भरी धरती को विनाश के कगार पर ले जा रहे हैं जबकि अपने रहने के लिए अंतरिक्ष में ठिकाने ढूंढ रहे हैं। उत्तराखंड में पंचेश्वर बांध बनना प्रस्तावित है जो दुनिया का दूसरा सबसे ऊँचा बाँध होगा। इस बाँध से होने वाले विस्थापन पर महेश ने कुछ उम्दा कविताएँ लिखी हैं। हाल ही में महेश पुनेठा का नया कविता संग्रह 'अब पहुँची हो तुम' प्रकाशित हुआ है। कवि को बधाई देते हुए आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं महेश चन्द्र पुनेठा की कविताएँ।
महेश चन्द्र पुनेठा की कविताएँ
उड़भाड़
कितना बुरा होता है उड़भाड़ होना
यदि जाड़ों की रात हो तो और भी बुरा
पूरा शरीर पसीना-पसीना हो जाता है
ओढ़ा बिस्तर फेंक दो
तो ठण्ड से कंपकपी छूटने लगती है
आंखों से नींद लापता
करवट बदलो
पर किसी भी करवट नींद नहीं
बार-बार मोबाईल में समय देखते रहो
उठ कर कुछ करने बैठ जाओ
उसमें भी डर
परिवार के दूसरे सदस्यों की नींद में
खलल न पड़ जाय कहीं
बस दुबके रहो
सोचते रहो ऊल-जलूल
सुबह होते-होते आंख लगने लगती है
एक औरत के लिये और भी बुरा होता है उड़भाड़
पुरुष हो तो
पूरी कर लो रात की बची नींद
औरत के लिये तो यह भी संभव नहीं
एक और डर कि
देर तक सोती रह गयी कहीं
तो परिवार में पूरे दिन उड़भाड़ न हो जाय।
ग्रैफिटि
प्रश्नों से भरे बच्चे
तब अपने जवाब लिखने में व्यस्त थे
उन्हें फुरसत नहीं थी सिर उठाने की
मेरे पास फुरसत ही फुरसत
इतनी कि ऊब के हद तक
मेजों/दीवारों/बेंचों में
लिखी इबारत पढने लगा
कहीं नाम लिखे थे पूरी कलात्मकता से
लग रहा था अपना पूरा मन
उड़ेल दिया होगा लिखने वाले ने
कहीं आई लव यू
या माई लाईफ.... जैसे वाक्य
पता नहीं
जिसके लिए लिखे गए हों ये वाक्य
उनका जीवन में
कोई स्थान बन पाया होगा कि नहीं
कहीं फ़िल्मी गीतों के मुखड़े
कहीं दिल का चित्र
खोद-खोद कर
जिसके बीचोबीच तीर का निशान
जैसे अमर कर देना चाहो हो उसे
कहीं फूल-पत्तियां और डिजायन
कहीं गालियां भी थी
कुछ उपनामों के साथ
कुछ धुंधला गयी थी
और कुछ चटक
कुछ गडमड नए पुराने में
आज कुछ यही हाल होगा
उनकी स्मृतियों
और भावनाओं का
यह कोई नयी बात नहीं
इस तरह की कक्षाएं
आपको हर स्कूल में मिल जायेंगी
यह स्कूल से बाहर भी
मैं पकड़ने की कोशिश कर रहा था
कि ये कब और क्यों लिखी गयी होंगी
ये इबारतें
क्या चल रहा होगा
उनके मन-मष्तिष्क में उस वक्त
क्या ये उनकी ऊब मानी जाय
या प्रेम व आक्रोश जैसे भावों की तीव्रता
जिसे न रख पाये हों दिल में
या किसी तक अपने मन की
बात को पहुंचाने का एक तरीका
लेकिन मैं नहीं पकड़ पाया
जब बच्चे जवाब लिखने में व्यस्त थे
मेरे मन में अनेक सवाल उठ रहे थे –
क्या दुनिया के उन समाजों में भी
इसी तरह भरे होते होंगे
मेजें और दीवारें
जहाँ प्रेम और आक्रोश की
सहज होती होगी अभिव्यक्ति
जहाँ बच्चों को
जबरदस्ती न बैठना पड़ता होगा
बंद कक्षाओं में ......
या कुछ और है इसका मनोविज्ञान?
सोया हुआ आदमी
कितना दयनीय लगता है
बस के सफ़र में
सोया हुआ आदमी
पैन्दुलम की तरह झूलती हुयी उसकी गर्दन
बांयी ओर से घूमती हुयी अक्सर दांयी ओर लटक जाती है
कभी-कभी टकरा जाती है अगल-बगल के
अपने ही जैसे अन्य सोये हुए लोगों के सिरों से
फिर कभी एक –दूसरे के कंधे का सहारा पाकर
स्थिर हो जाती है
अचानक ब्रेक लगने पर टकराती है अगली सीट से
बगल वाले के धकियाने या अगली सीट से टकराने पर
अपने को संभालते हुए गर्दन को एकदम सीधा कर
बैठ जाता है वह
जैसे कुछ हुआ ही न हो
यह जतलाना चाहता है
कि वह पूरे होशो-हवाश में सफ़र का आनंद ले रहा है
लेकिन कुछ ही देर बाद
फिर आँखें बंद और गर्दन लटकने लगती है
जैसे उसके वश में कुछ भी नहीं
हो सकता है रात को पूरी नींद न ले पाया हो बेचारा
पता नहीं दुनिया के किन झंझटों फंसा रहा हो
वैसे भी इस पेचीदा दुनिया में सब कुछ
कहाँ किसी के वश में.
बस के भीतर होने वाले किसी भी हलचल से
अनभिज्ञ रहता है सोया हुआ आदमी-
जेब कतरा कब जेब साफ करके निकल गया
या कंडक्टर के बगल में बैठी लड़की
क्यूँ बस की सबसे पीछे वाली सीट पर जा बैठी
उसे इस बात का अहसास भी नहीं रहता है कि
बस किस गति से भाग रही है?
क्यूँ पिछले ढाबे में खाना खाने के बाद
अचानक बस की गति बढ़ गयी?
नींद की गोद में बैठे
हिचकोले खाते हुए
एक अलग ही स्वप्नलोक में तैर रहा होता है वह
अपने ही दांतों के बीच
कब जीभ आ गयी
पता ही नहीं चलता उसे
माना जाता है कि किसी भी दुर्घटना में
मारे जाने की
सबसे अधिक आशंका
सोये हुए आदमी की ही होती है
फिर भी
सोये रहने में ही
सबसे अधिक आनन्द पाता है
सोये रहने को विवश आदमी
उसे जगाये रखना आसान नहीं
ठिठकी स्मृतियां
मेरे गांव के पास से गुजरती हुई
एक सड़क फ़ैल रही है
एक नदी सिकुड़ रही है
इस फैलने और सिकुड़ने के बीच कहीं
बचपन की स्मृतियां ठिठक रही हैं
ठिठकी स्मृतियां ढूंढ रही हैं उन किनारों को
जहाँ संगी-साथियों के साथ
गाय-बछियों को चराया करते थे
जहाँ मई-जून के तपते दिनों में भी
झलुआ-काली-सेती
ढूंढ लेती थी हरे घास के तिनके
गाज्यौ -पराल-नलौ के अभाव में भी
पल जाते थे गोठ भर जानवर
नहीं पड़ती थी चारा खरीदने की जरुरत।
जहाँ मिल जाती थी
सूखी लकड़ी और गोबत्योले
जिनसे शाम तक भर लेते थे एक डोका या बोरी
बन जाता था दो वक्त का भोजन।
जाड़ों के दिनों में
हिसालू-किरमोड़े-घिंघारू की जड़ों को खोद
बना लेते थे तापने के लिए
लकड़ियों का ढेर
गज़ब की रांफ होती थी उनमें
ह्यून की बारिश और बर्फबारी में
उन्हीं का सहारा होता था।
ठिठकी स्मृतियां ढूंढ रही हैं उन जगहों को
जहाँ नदी का पानी रोक
बना लेते थे एक अस्थायी ताल
और जेठ की दुपहरी में
घंटों डुबकियां लगाया करते थे
एक-दूसरे पर पानी उलीचते
खूब मस्ती करते थे
जहाँ पत्थरों के नीचे छुपी मछलियों को
घेर कर पकड़ते थे
शाम की सब्जी का जुगाड़ हो जाता था।
ठिठकी स्मृतियां ढूंढ रही हैं उन बंजर खेतों को
जहाँ एक बड़ा पत्थर खड़ा कर
अखरोट के पेड़ से बने बल्ले
और पुराने कपड़ों को सिल कर या पॉलिथीन गला कर
बनायी गयी गेंद से
क्रिकेट खेला करते थे
प्यास से गला सूखने पर दौड़ पड़ते थे
बंजर खेतों के किनारे में बने चुपटौले की ओर
दोनों हथेलियों को मिला पानी से भर
लेते थे लंबी घूँट
कितना स्वादिष्ट लगता था पानी
कोल्ड ड्रिंक से प्यास बुझाने वाले नहीं समझ सकते हैं
सुपारी की तरह आंवले चबाने के बाद
इस पानी का मीठापन आज भी भुलाए नहीं भूलता है ।
ठिठकी स्मृतियां ढूंढ रही हैं उस च्युरे के पेड़ को
जिसके मकरंद भरे फूलों की खुश्बू
दूर से ही हमें अपने पास बुलाती थी
बड़े चाव से चूसा करते उन फूलों को
मन तक मीठा हो जाता उनके मकरंद से
जिन दिनों च्युरे के फल पकते बीन-बीनकर खाते
गुठली जमाकर घर ले जाते
उसके बने घी से त्योहारों पर पकवान तलते।
ठिठकी स्मृतियां ढूंढ रही हैं काले हिसालू की झाडी को
जो उन दिनों भी एक-दो कहीं दिख जाती थी
गुलाबी हिसालूओं के तोप्पों के बीच जिसका फल
ऐसा फबता था जैसे गुलाबी चेहरे पर काजल का टीका।
मगर ठिठकी स्मृतियों को
भीमकाय मशीनों से
दरकते पहाड़ों,
टूटते पत्थरों
और धूल-मिट्टी के बबंडर के बीच
कुछ भी नहीं दिखायी देता है।
ओड़ा का पत्थर
बहुत बाद में
गाड़ा है खेत के बीचोबीच
लेकिन
बहुत पहले
पड़ जाती है नींव इसकी
दिलों के बीच
जैसे दिलों की खाईयां
उभर आती हों
एक पत्थर की शक्ल में
फिर भी हमेशा याद दिलाता है यह
कभी सगे रहे थे
इसके दोनों ओर के हिस्सों के मालिक।
जब मां कलेवा ले कर आई होगी
धान मड़ाई के दिनों
बैठ कर इन्होंने
एक ही थाली में खाया होगा
एक ही गिलास से
खींचे होंगे छांछ के लंबे-लंबे घूँट
उससे पहले
एक साथ खेले-कूदे होंगे
एक साथ रोये होंगे
एक साथ हंसे
एक -सी ही धूप, हवा, पानी का
स्पर्श पाया होगा
किसी बात में तू-तू , मैं-मैं हुयी होगी
लेकिन ज्यादा देर तक
अबोले नहीं रह पाए होंगे
खूब रोये होंगे उसके बाद
गले मिलते हुए
एक साथ गये होंगे
किसी बाहरी से मुकाबला करने।
क्या कम हैं ये यादें
इस पत्थर को उखाड़ फेंकने के लिए?
जब गिराई जा सकती हैं बड़ी-बड़ी दीवारें
यह तो एक पत्थर मात्र है।
तुम्हारी तरह होना चाहता हूँ
मिलती हो गर
किसी अजनबी महिला से भी
आँखें मिलते ही
बातें शुरू हो जाती हैं तुम्हारी
घर-बार, बाल-बच्चों से शुरू होकर
सुख-दुःख तक पहुँच जाती हो
बच्चों की आदतें
सास-ससुर की बातें
एक दूसरे के पतियों की
पसंद-नापसंद तक जान लेती हो
भीतर की ही नहीं
गोठ की भी कि-
कितने जानवर है कुल
कितने दूध देने वाले
और कितने बैल
कब की ब्याने वाली है गाय
और भी बहुत सारी बातें
जैसे साडी के रंग
पहनावे के ढंग
पैर से लेकर नाक–कान में
पहने गहन-पात के बारे में
ऐसा लगता है जैसे
जन्मों पुराना हो
तुम्हारा आपसी परिचय
आश्चर्य होता है कि
तुम कहीं से भी कर सकती हो
बातचीत की शुरुआत
जैसे छोटे बच्चे अपना खेल
कैसे मिलते ही ढूंढ लेते हैं
कोई नया खेल.
दूसरी ओर मैं हूँ
पता नहीं कितनी परतों के भीतर
कैद किये रहता हूँ खुद को
चाहकर भी शुरू नहीं कर पाता हूँ
किसी अजनबी से बातें
पता नहीं क्यों
सामने वाला अकड़ा-अकड़ा सा लगता है
बातचीत शुरू भी हो जाय तो
वही घिसी-पीटी
क्रिकेट-फिल्म या राजनीति की
न्यूज चैलनों से सुनी-सुनाई
या अखबार में पढ़ी हुई
उसमें भी
दूसरों की सुनने से अधिक
खुद की सुनाने की रहती है
ढलान में उतरती धाराओं की तरह
सुख-दुःख तक पहुँचने में
तो जैसे
दसों मुलाकातें गुजर जाती हैं
देखता हूँ –
मुझ जैसे नहीं होते हैं किसान-मजदूर
पहली ही मुलाकात में
बीडी-तम्बाकू निकाल लेते हैं
बढाते हैं एक–दूसरे की ओर
शुरू हो जाती हैं
गाँव-जवार और खेती-बाड़ी की बातें
मैं भी होना चाहता हूँ तुम्हारी तरह
खिलाना चाहता हूँ हंसी के फूल
खोल देना चाहता हूँ सारी गांठें
बिखेर देना चाहता हूँ स्नेह की खुशबू
बसाना चाहता हूँ दिल की बस्ती
पर समझ नहीं आता है
किस खोल के भीतर पड़ा हूँ
एक घेंघे की तरह
उनकी डायरियों के इंतजार में
पिता जी की पुरानी चिट्ठियाँ
पुरानी डायरियां
पुरानी नोटबुक
घर के ताख पर
आज भी मौजूद हैं पहले की तरह
लाल-पीले कपडे के टुकड़ों में बंधी
मेरी भी सजी हैं एक खुले रैक में
बेटे की बुकसेल्फ के सबसे निचले खाने में
समय-समय पर
साफ-सफाई और छंटनी होती रहती है इनकी
बसी हैं इनमें अनेकानेक स्मृतियां
इन्हें ओलटते-पलटते ताजी हो उठती हैं जो
याद नहीं कि देखी हों कभी
माँ की पुरानी चिट्ठियाँ
या पुरानी डायरियां
मान लिया माँ बहुत कम पढ़ी-लिखी थी
पर पत्नी की भी तो नहीं देखीं
जबकि बात-बात पर
वे अपनी स्मृतियों में जाती रहती हैं
और अक्सर नम आंखों से लौटती हैं
कभी उनकी छंटनी भी नहीं करती हैं
आखिर कब आयेगा वह दिन
जब पति के बगल में
पत्नी की भी
पुरानी चिट्ठियाँ
पुरानी डायरियां सजी होंगी?
अथ: पंचेश्वर घाटी कथा
[जहाँ दुनिया का दूसरा ऊंचा बाँध प्रस्तावित है] ********************
(1)
यह दो तटों के बीच
बहने वाली धारा मात्र नहीं
जिसे तुम नदी कहकर पुकारते हो
यह तो हमारी पुरखिन है
इसी के साथ चलकर हम
पहुंचे थे यहाँ.
सुख-दुख की साथिन है यह
हर सुबह हम
सबसे पहले इसका मुख देखते हैं
हर शाम लौटते हैं इससे मिल कर
हमारे बच्चे माँ की गोद से उतर कर
इसकी गोद में ही खेलते हैं।
प्यास लगे या भूख
हम इसी के पास जाते हैं
उदास हो जब कोई
यही तो सुनती है धैय के साथ
कोई भी संस्कार हो हमारा
इसकी उपस्थिति के बिना पूरा नहीं होता है
है क्या तुम्हारे पास इस सबका मुआवजा?
(2)
कौन जाना चाहता है साहब
अपनी मां को छोड़ कर
एक जानवर भी
दिनभर इधर-उधर डोलने के बाद
अपनी ही ठौर पर सज पाता है
ये आबोहवा
ये भाई-बिरादरी
ये खुला आसमान और फैली जमीन
ये शुद्ध हवा और पानी
और कहाँ मिल सकती है हमें
हमें मालूम हैं जहाँ जाएंगे
वहां धनिया के हरे पात भी खरीदने पड़ेंगे
यहाँ तो पूरे बगीचे के मालिक हैं
कौनसा फल या सब्जी है
जो नहीं होता इसमें
जब जो खाने का मन करे
ले कर आओ ताजा-ताजा
आने-जाने वाले को
खाली हाथ नहीं जाने देते कभी
कठिन से कठिन समय में भी
कोई नहीं सोता भूखे पेट
कोई नहीं समझता खुद को अकेला।
पर हमारे चाहने से क्या होता है भला
राजा की मर्जी के सामने
प्रजा की क्या औकात ठैरी
कहते हैं सरकारी मुलाजिम -
नहीं जाओगे तो खदेड़ दिए जाओगे
जैसे टिहरी में
जैसे नर्मदा में
पता नहीं साहब क्या होगा
हमें पता नहीं
हमें तो यहीं अच्छा लगता है बस।
(3)
बैलों की घंटियों की रुनझुन
बकरियों के रेवड़ से निकली म्या-म्या की ध्वनि
गोपका के खोमचे में उबलती चाय की खट- खट
हरदा की आटे चक्की की छुक-छुक
खिमुलदी के कलडे की पूंछ उठाकर दौड़
बड़े काले पत्थर से पीठ टिकाये
डंगर चराते नर बू की घुच्ची आँखें
पूछती हैं बस एक सवाल
तुम्हारे नये शहर में कहाँ होगा इनका स्थान
है क्या किसी डीपीआर में इसका जवाब?
(4)
गांवों को जोड़ती हैं
लड़खड़ाती पगडंडियां
सड़क तो
नदी की ओर
जाती देखी जाती है यहाँ।
(5)
अपने इष्टदेव चमू पर
उनका अटूट विश्वास है
वे मानते हैं
कि उसकी इच्छा के बिना
कोई नहीं हटा सकता है उन्हें
उनकी जमीन से
हाथ भी नहीं
लगा सकता है कोई उनकी मिट्टी पर
बहुत शक्तिशाली है उनका इष्ट
उनके पास हैं
चमू के चमत्कार के अनेकानेक किस्से
जिन्हें सुनाते हुए वे
हो जाते हैं श्रद्धा से सराबोर
किसी के प्रश्न करने पर क्रुद्ध
यह कहने में देर नहीं लगाते हैं
कि तुम्हें अंदाज नहीं चमू की शक्ति का
इसलिए ऐसे सवाल कर रहे हो
बच नहीं पाओगे उसके कोप से
उन्हें किसी कानूनी लड़ाई से
अधिक विश्वास है चमू के न्याय पर
वे कहते हैं -
कोई डुबा नहीं सकता है इस देवभूमि को
उसकी इच्छा के बगैर।
गर वह तैयार हो गया इस भूमि को
छोड़ने को
तो वे भी चले जायेंगे उसके साथ
मुझे डराता है उनका यह विश्वास
कहीं एक रोज कोई जटाधारी
अपने स्वप्न का वृतान्त सुनाए
और सब नतमस्तक न हो जायें उसके सामने
फिर उसे विस्थापित कर
बसा दिया जाय किसी और घाटी में
कैसे तय होगा कि
सचमुच यह किसकी इच्छा है?
क्या उनका इष्टदेव
चंद लोगों के विकास के लिए
अनगिनत प्राणियों के विनाश को
यूँ ही स्वीकार कर लेगा?
क्या यह मत्स्य न्याय नहीं होगा?
उनका इष्टदेव
क्या अपने आण-बांणो को
चुपचाप बेघर होता देखता रहेगा?
क्या ये सवाल उनके मन में भी उठेंगे तब ?
(6)
जिन्होंने कभी पूरा नहीं किया
एक अदद सपना
एक स्कूल का
एक अस्पताल का
एक सड़क का
मांगती रह गयी जनता
वे आज गांव-गांव घूम रहे हैं
एक नए लोक का
सपना दिखाने
डूब क्षेत्र के लोगों को।
[7]
पहली बार नहीं दिखाए जा रहे हैं ये सपने
वे सपनों के सौदागर हैं
जब–जब पड़ी उन्हें जमीन की जरूरत
वे सपनों के पैकेज लेकर आ गये
तुम घर के बदले घर मांगोगे
वे हाँ कहेंगे
तुम खेत के बदले खेत मांगोगे
वे हाँ कहेंगे
तुम जंगल के बदले जंगल मांगोगे
वे हाँ कहेंगे
यहाँ तक कि तुम नदी के बदले नदी
तब भी वे हाँ कहेंगे
तुमसे केवल एन ओ सी में
दस्तखत मांगेंगे
जिन्होंने जीवनभर लूटना-चूसना जाना
वे देश के लिए तुम्हें
तुम्हारे कर्त्तव्यों के बारे में बताएँगे
ध्यान रखना
यही सपने दिखाए थे उन्होंने
भाखड़ा में
रिहन्द में
टिहरी में
नर्मदा में
अब तुम्हारे पास आये है
रेडीमेड हैं
इनके सपनों के पैकेज
एक-एक कर निकाल धर देंगे
तुम्हारे सामने
जैसे कोई कपड़े का व्यापारी थान के थान
चौंधियां जाती हैं
जिन्हें देख आँखें
वे सपनों के सौदागर हैं
उन्हें खूब आता है उलझाने का हुनर
पूछ लेना
जान लेना
ख़ोज लेना
क्या हुआ उनके सपनों का
जिन्हें तुमसे पहले दिखाए गये थे सपने
जो आज भी दर-दर भटक रहे हैं
अपने सपनों की लाश लिए.
[8]
पेड़ों की निशानदेही होने लगी है
डूब क्षेत्र में खड़े पेड़
पूछ रहे हैं एक-दुसरे से
अपनी जरुरत के लिए
एक पेड़ काटना
कानूनी अपराध है
पर समूह के समूह नष्ट कर डालना
राष्ट्र का विकास है
यह कैसा मजाक है?
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स स्व. विजेंद्र जी की हैं।)
सम्पर्क
मोबाइल : 09760526429
टिप्पणियाँ
एक टिप्पणी भेजें