हृषिकेश सुलभ के उपन्यास पर केतन यादव की समीक्षा 'दातापीर : कब्रिस्तान से झाँकता एक नया संसार'

अत्याधुनिक तकनीकी दौर में अब किताबों के पढ़ने की संस्कृति पर खतरे मंडराने लगे हैं। इस बात को स्वीकार कर पाना हमारे लिए आज भी कठिन है लेकिन सच को भला कैसे झुठलाया जा सकता है। बहरहाल ऐसे दौर में ही जब कोई ऐसा उपन्यास आता है जो पाठकों को सहज ही अपनी तरफ आकर्षित करता है, तो यह आश्वस्त करता है कि किताबों के पढ़ने की संस्कृति जिंदा रहेगी। हृषिकेश सुलभ का नया उपन्यास 'दातापीर' ऐसा ही उपन्यास है जो ऐसे वर्ग पर लिखा गया है जो अल्पसंख्यक होने के साथ साथ उपेक्षित भी रहा है। यह एक कड़वी सच्चाई है कि राजनीतिक दुनिया में अल्पसंख्यक वर्ग एक ऐसे हथियार की तरह होते हैं जिनका उपयोग राजनीतिक दल अपने फायदे के लिए किया करते हैं। लेकिन साहित्यकार के लिए यह मुद्दा संवेदनशील होता है। बहरहाल जैसे पत्थरों के बीच हरियाली पनप आया करती है वैसे ही विकट परिस्थितियों के बीच ही प्रेम पनप आता है। सुलभ जैसे सामर्थ्यवान रचनाकार ने इसे अपनी दास्तानगोई के बीच ही संभव कर दिखाया है। युवा कवि केतन यादव ने 'दातापीर' उपन्यास को डूब कर पढ़ा है और इस पर को लिखा है उसे खुद वे 'एक पाठक के नोट्स भर' कहते है...