विशाखा मुलमुले के कविता संग्रह पानी का पुल पर यतीश कुमार की समीक्षा
कविताएँ अक्सर ही रोकती हैं, टोकती हैं और आपसे बतियाती हैं। इस तरह कविता संवाद का एक ऐसा पुल बनाती हैं जिस पर दोतरफा आवाजाही होती है। जो कविता यह न कर पाए, वह प्रायः असफल कविता होती है। इधर कवयित्री विशाखा मुलमुले का नया कविता संग्रह 'पानी का पुल' प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह पर एक समीक्षा लिखी है यतीश कुमार ने। आज पहली बार पर प्रस्तुत है विशाखा मुलमुले के कविता संग्रह 'पानी का पुल' पर यतीश कुमार की समीक्षा ' ख़ुद से एक ज़रूरी जिरह'। ख़ुद से एक ज़रूरी जिरह यतीश कुमार इस किताब को छूते ही लगा कड़क ठंड में धूप का एक टुकड़ा ही होती हैं कविताएँ, सच। बाह्य और अंतर्दृष्टि को एक साथ अंतस से जोड़ते हुए कवि का मन जो देख पाता है वह साधारण नेत्र कहाँ देख पाते हैं। ओस में नाचते आह्लादित धूल कण में जुगनू को भला कोई और कैसे देख सकता है। इस किताब में कवयित्री ने बारहां देखा है अपनी संवेदना से ओत प्रोत दृष्टि से! इन कविताओं में कवयित्री एक साधारण स्त्री मन को टटोलती हैं और उसकी नज़र में उभरती विडंबनाओं को उकेरती हैं। शंकालु समय में दूरियाँ ख़ुद अपना आयतन बढ़ाती हैं,...