विशाखा मुलमुले की कविता
विशाखा मुलमुले |
मैं विशाखा मुलमुले
रहवासी - छत्तीसगढ़
वर्तमान में पुणे में रहवास
शिक्षा - डिप्लोमा इन फार्मेसी, विज्ञान में स्नातक
मैं कविताएँ, लेख, लघुकथाएं लिखती हूँ। कई पत्रिकाओं जैसे कथादेश, पाखी, अहा! जिंदगी, दुनिया इन दिनों, छत्तीसगढ़ आस-पास, विभोम स्वर, सामयिक सरस्वती, समहुत, कृति ओर, विश्वगाथा, व्यंजना (काव्य केंद्रित पत्रिका) सर्वोत्तम मासिक, प्रतिमान, काव्यकुण्ड, साहित्य सृजन इत्यादि में मेरी कविताओं को स्थान मिला है।
सुबह सवेरे (भोपाल), दिल्ली बुलेटिन, जनसंदेश टाइम्स, युवा प्रवर्तक, स्टोरी मिरर (होली विशेषांक ई पत्रिका), पोषम पा, हिन्दीनामा इत्यादि ई संस्करण तथा राजधानी समाचार भोपाल के ई न्यूज पेपर में 'विशाखा की कलम से' खंड में अनेक कविताओं का प्रकाशन हुआ है ।
कनाडा से प्रकाशित होने वाली पत्रिका 'पंजाब टुडे' में भाषांतर के अंतर्गत मेरी एक कविता अमरजीत कुंके जी ने पंजाबी में अनुदित की है। इसी तरह 'सर्वोत्तम मासिक' एवं 'काव्यकुण्ड' पत्रिका के लिए वरिष्ठ कवयित्री अलकनंदा साने जी ने मेरी कविता का मराठी में अनुवाद कर मुझे आशीष दिया है।
तीन साझा काव्य संकलनों में मेरी कविताएँ हैं ।
आदरणीय सुधीर सक्सेना जी की चुनिंदा कविताओं का डॉ सुलभा कोरे जी के मार्गदर्शन में मराठी में अनुवाद किया है। प्रकाशित पुस्तक का नाम है "अजूनही लाल आहे पूर्व" (अभी भी लाल है पूर्व)
ईश्वर मनुष्य के लिए आज भी एक पहेली है। इसके अस्तित्व-अनअस्तित्व को ले कर विचारकों/ दार्शनिकों ने काफी विचार-विमर्श किया है और समय-समय पर अपनी अवधारणाएं रखी हैं। मनुष्यता के विकास के शुरुआती दौर में कुदरत के रहस्यों को समझने के लिए ईश्वरीय अवधारणा एक आधार की तरह विकसित हुई। धर्म की पूरी संकल्पना ही ईश्वर के इर्द-गिर्द गढी गयी। महान वैज्ञानिक आईंसटीन ने एक बार कहा था – ‘ईश्वर की खोज मनुष्य की एक बडी उपलब्धि है’। ईश्वर को आधार बना कर कविताएं लिखी जाने की एक लम्बी परम्परा है। भक्ति काल का पूरा वितान ही ईश्वर पर टिका है। वैज्ञानिक युग की शुरुआत के पश्चात ऐसी कविताएं लिखी जाने लगीं जिसमें कवियों ने ईश्वर से प्रश्न प्रति-प्रश्न के बहाने से चुनौती प्रस्तुत किया। विशाखा मुलमुले अपनी एक कविता ‘ओ! ईश्वर’ ईश्वरीय सत्ता के बरक्स मानवीय सत्ता को प्रतिस्थापित करते हुए लिखती हैं – ‘तुम आओ जीवन की पाठशाला में पुनः कभी/ देखो, कैसे हमारा पूर्ण या अपूर्ण शरीर/ दुसरों के सुख में सुख जोड़ कर/ अपने दुःखों का भाग दे कर/ जीते जी बनातें स्वर्ग यहीं, स्वर्ग यहीं’। आज पहली बार पर प्रस्तुत है विशाखा मुलमुले की कविताएं।
विशाखा मुलमुले की कविताएँ
प्रेम ....मात्र से मातृभूमि तक
इक उड़ान गुलमोहर से बालकनी तक
एक नन्हा छौना
आ लगता गले
गमले में गुलाब, गुलदाउदी खिले-खिले
एक मुस्कान होठो से आंखों तक
इज़हार सुबह से शज़र तक
पुकार सुनाई देती उस शहर से इस शहर
याद का समुद्र दौड़ लगाता पैरों से जहन तक
एक मसला जो मांगता प्रमाणपत्र
फैसला जो लिया गया धर्मगत
एक बात जो कुरेदती अपनी जड़ें
प्रश्न धर्म कि मनुष्यता पर रहें अड़े
मन फेरी लगाता हर बाग पर
स्वाधीन विचारों के जुगनू रात भर
एक फड़फड़ाहट सोनचिरैया के हर ज़ख्म पर
तीन रंगों की पट्टी बहते उसके रक्त पर
प्रीत का सूत कातते बापू
रूप बदल-बदल कर
सुर्ख़ गुलाब मातृभूमि के धड़कते सीने पर
अब भी यह न पूछ बैठना
कि, प्रेम किस चिड़िया का नाम है!
हेली-सहेली
बैठीं है हेली-सहेली
सुन रही है
सुना रही है अपना दुःख-दर्द
मालूम है उन्हें,
मिलायेगी नजरें तो
पिघल जाएगा बचा हुआ हिम खंड
बढ़ जाएगा जलस्तर!
पीठ से पीठ टिका
वे बढ़ा रहीं है हौसला भी
बन रहीं है कमान-सी मेरुदंड का
एक मजबूत आधार
जैसी होती है, पतंग की कमान को
थामे दूसरी सीधी बांस की डंडी
ताकि,
उडान भर सके दोनों की जीवन रूपी पतंग
और छू सके आकाश!
पीठ से पीठ टिका
देख रहीं है संग साथ
दो दिशाएँ भी/ दशाएं भी
देख रहीं है पूरब और
देख रहीं है पश्चिम भी
सोच रहीं है
काश!
दुनिया भर की तमाम स्त्रियां
यूँ ही टिका ले पीठ से पीठ अपनी!
धम्मम शरणम गच्छामि
उसकी देहरी पर बैठी है मानवता
और यह है साँझ का वक्त
दहलीज के उस पार
धीरे-धीरे बढ़ रहा है अंधकार
हो न हो कलयुग का यही है मध्यकाल
अर्थ जिसका कि,
अभी और गहराता जाएगा अंधकार
देहरी के इस ओर है धम्म का घर
जहां किशोरवय संततियां
एक-एक कक्ष में फैला रहीं है प्रकाश
अभी भी शेष है समय
चलो! कलयुग को पीठ दिखा
हम लौट चले धर्म से धम्म की ओर!
ओ! ईश्वर
देखो मेरी दोनों हथेलियाँ उनकी लकीरें
दोनों अखियाँ उनकी कमान सी भौहें
बिल्कुल भी एक समान नहीं
ओ! ईश्वर तुम अच्छे कथाकार नहीं
दो गली छोड़ कर, या दो ही घर छोड़ कर
रहती एक हमनाम लडकी
उसकी कहानी और मेरी कहानी
बिल्कुल भी एक समान नहीं
ओ! ईश्वर तुम समझदार भी नहीं
सुख-दुःख से तुम्हे तो कोई सरोकार नहीं
फिर सुख से भरे हल्के क्षणों में
क्यों बाँधते हो दुख की बेड़ियां नई
ओ! ईश्वर तुम अच्छे साहूकार नहीं
तुम्हें आता जोड़-घटाव नहीं
जिस क्रम में भेजते हो आत्माओं को सशरीर
उस क्रम में उन्हें बुलाते अपने पास नहीं
ओ! ईश्वर,
तुम आओ जीवन की पाठशाला में पुनः कभी
देखो, कैसे हमारा पूर्ण या अपूर्ण शरीर
दुसरों के सुख में सुख जोड़ कर
अपने दुःखों का भाग दे कर
जीते जी बनातें स्वर्ग यहीं, स्वर्ग यहीं
वियोग-संयोग
तो लग रहा था यूँ
जैसे जन्मकुंडली से शुक्र ग्रह का
हो गया हो लोप
वह मुंह फेर के खड़ा था
तो सूर्यमुखी ने पीतवर्णी नेत्रों से
प्रातःकाल में खोजा
पश्चिम में मन का अनमना-सा सूर्य
वह मुंह फेर के खड़ा था
तब पृथ्वी को लगा
सूर्य के परिक्रमा पथ में उसने पाया
बुध-सा न्यून परिभ्रमण
वह मुंह फेर के खड़ा था
तो लगा कहीं
प्रक्षेपित मनुहार के मंगलयान का
हुआ, विचलन तो नहीं
मंगल के कक्ष की सीमा
कहीं उसने लांघी तो नहीं
हुआ कुछ अ-मंगल तो नहीं
वह मुंह फेर के खड़ा था
तो बढ़ गए थे शनि में वलय
बढ़ गया बिछोह का
बृहस्पति-सा आकार
वह मुंह फेर के खड़ा था
तो लगा
यूरेनस, नेपच्यून, प्लूटो-सा
सौरमंडल की दहलीज पर टिका
उसे अपना अस्तित्व
मुंह फेरे-फेरे बीत रहे
आठ-दस तास (घन्टे)
सहसा मनचन्द्र को हुआ
पूर्ण ग्रहण का आभास
हीरे के कनी-सा रुप दिखा
उसने ही कराया
प्रेम की शाश्वतता का बोध
उर्मियों की बाहें फैला कर
अब धरा को ताक रहा
सूर्य अबोध!
नैनों की भाषा
बूझ लेती हूँ तुम्हारी भाषा
नैनों में तिरते आलिंगन की अभिलाषा
अवकाश के दिनों में तुम
बन जाते हो पति से प्रेमी
पर ....
साग को सब्जी में
आटे को रोटी में
और
मकान को घर मे बदलते-बदलते ,
कहाँ मुमकिन हो पाता है
पत्नी का प्रेमिका में बदल पाना
सुविधाओं का बाज़ार खड़ा है शहरों में
मेरी तो गश्त है अब भी घर से नलकूपों में
और,
प्रेमी तेरी आँखों की चमक से
कम्बख़्त, कहाँ रोशनी होती है लालटेनों में
अवकाश के दिनों में तुम बन जाते हो
कर्मवादी से उपभोगवादी,
चाह कर भी मैं ना हो पाती गृहस्थी से अलगाववादी
तुम बदल जाते हो यकायक पति से प्रेमी में
पर,
बड़ा मुश्किल है पत्नी का प्रेमिका में बदल पाना
किरायेदार
पिता!
कब होगा अपना मकान
दरवाज़े पर लिखा होगा तुम्हारा और माँ का नाम
जहाँ दीवारों पर रंग होंगे मेरी पसंद के
जिस पर ठोक सकूँगा कील
टांगूंगा मनपसंद तस्वीर
सोच में पड़ गए पिता
देह भी तो किराए का मकान
जन्मते ही लग जाता है उपनाम
एक रंग विशेष से जुड़ जाता है नाता
लगती फिर उसी धर्म की कील
टंगती उसी की तस्वीर
पुत्र!
मैं तो न बना सका
तुम बनाना भविष्य में घर अपना
किराए की देह में स्वामित्व अपना
दौड़
मैंने स्वीकार किया
एक दौड़ समाप्त हुई
उसने दिल उड़ेल दिया
मेरा कुम्भ भर गया
इच्छाएँ मीन हुई
कुम्भ शरीर सागर बना
इंद्रियों का देव बना
तो फिर सृष्टि रची
थक कर कुछ विश्राम किया
पर उदर में ऐंठन हुई
जठराग्नि प्रज्ज्वलित हुई
फिर दौड़ शुरू हुई
प्रीत का नमक न काम आया
कर्म स्वेद संग बह आया
दौड़ की गति बढ़ी
भूख ही दौड़ कराती है
दौड़ ही भूख मिटाती है
इस दौड़ की सीमा नहीं
प्रेम निवेदन/ स्वीकार अब मध्य नहीं
कल्पना
लवण से लथपथ लावण्या के गवाक्ष पर आ बैठा कपोत
स्त्री के अनुरागी मन में आरम्भ हुई
कपोलकल्पना
विचार के तार उलझे-सुलझे
इतने क्षण में
कपोत ले आया चोंच में तिनके
धुँधले काँच पर धुँधला-सा बना अक्स
तिनका याकि सन्देश
धुँधलके में स्त्री का मन
प्यार की तरह कपोत के पंख से भी उठी हवा
नहीं होती स्वस्थ, सुनती आई है वह यह सदा
अस्वस्थ हुआ उसका मन
असमंजस में है स्त्री : काँच का पर्दा हटाये कि नहीं!
इतिहास में
दिवसावसान के कुछ क्षणों पहले
चहक भरी पुकार लिए आती हैं नन्हीं गौरैया मेरे घर आंगन में
उनकी चहक भूख के लिए और मेरी भूख चहक के लिए
हम दोनों के मध्य रहते हैं कई कपोत
कपोत कल्पना में नहीं वास्तविक
भूख मिटाने की प्रतिस्पर्धा लगी होती है
दिनभर कपोतों और गौरैया के मध्य
बाहुबली अक्सर ही विजय प्राप्त करतें है
स्त्रियों की तरह गौरैया भी रह जाती हैं केवल साक्षी
हमारे युग के इतिहास में स्त्रियाँ एवं गौरैया
दर्ज होंगी केवल गवाह के तौर पर
भूख मिटाने के किसी साधन के तौर पर
स्त्रियाँ जो स्वयं विलुप्ति के कगार पर खड़ी थी
बचाती रहीं विलुप्त होती गौरैया की प्रजाति को
गौरैया जिन्हें मिलती रहीं अब भी स्त्री जाति की उपमाएँ
पर अफ़सोस! बाहुबली ही लिखेंगे कलयुग का लेखा
और कुछ दो पन्नों में सिमट जाएगा हमारा इतिहास
सु न्दर सृ जन और अभिव्यक्तियां
जवाब देंहटाएंसुंदर भावपूर्ण, थोड़ी अलग तेवर की दिल को छूती कविताएँ। बधाई विशाखा 💐
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंयहाँ प्रस्तुत कविताऍं जीवन राग और अपनी सहजता के नाते महत्वपूर्ण है !सार्थक प्रस्तुति के लिए बधाई !
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