स्वप्निल श्रीवास्तव का आलेख 'केदार बाबू की केन नदी'
प्राचीन
काल की जितनी भी मानव
सभ्यताएं हैं, उन सब का अस्तित्व नदियों के किनारे ही दिखाई पड़ता है। नदी से मनुष्य का एक प्राकृतिक रिश्ता रहा है। आज भी ये नदियाँ मानव जीवन की रीढ़ की तरह हैं। कवियों की कविताओं में ये नदियाँ स्वाभाविक रूप से आई हैं। केदार नाथ अग्रवाल की कविता में प्रकृति सघन रूप में दिखाई पड़ती है। बाँदा में बहने वाली केन नदी से उनका आत्मीय सम्बन्ध था और इसीलिए कविताओं में के केन से सघन रूप से एकमेक हो जाते हैं। हमारे समय के महत्वपूर्ण कवि स्वप्निल श्रीवास्तव ने केदार नाथ अग्रवाल और केन नदी को ले कर एक आलेख लिखा है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है स्वप्निल श्रीवास्तव का आलेख 'केदार बाबू की केन नदी'।
केदार बाबू की केन नदी
स्वप्निल
श्रीवास्तव
हिन्दी
के कवि केदारनाथ अग्रवाल का जब भी ध्यान आता है तो सहज रूप से केन नदी की याद आती है।
केदार जी के जीवन और कविता की कल्पना केन नदी के बगैर पूरी नहीं होती। एक कवि किस
तरह एक नदी से अभिन्न हो जाता है, इसका अनुभव उनकी कवितायें पढ़ते
हुये लगता है। इस अर्थ में वह विरल कवि है। नदियों का हमारे जीवन में केंद्रीय
महत्व है। जब यातायात के साधनों का विकास नहीं हुआ था तो ये नदियां हमे एक जगह से
दूसरी जगह ले जाने का काम करती थी। बड़े बड़े नगरों का विकास नदियों के तट हुआ है।
नदियां हमारी जीवन–रेखा है। वह हमें सिंचित करती है। इनके दम से हमारे खेत
लहलहाते हैं। ये हमारी जमीन को उपजाऊ बनाती हैं। हमारी सभ्यता नदियों के तट पर पुष्पित और पल्लवित हुई हैं। भागीरथ
के पुरखों की मुक्ति गंगा के पृथ्वी पर आने से हुई है। एक अर्थ में नदियां
मुक्तिदायिनी भी है। हमारे जीवन की शुरूआत और अंत की वह साक्षी बनती हैं। नदियों
के नाम से प्रचलित श्लोक देखिये –
गंगे! च यमुने! चैव गोदावरी!
सरस्वती!
नर्मदे सिंधु! कावेरी! जलेस्मिन
सान्निधि कुरू।
अर्थातू हे गंगे यमुना सरस्वती
नर्मदा सिंधु कावेरी नदियों, इस जल
में आप पधारिये।
इस श्लोक का हमारे सांस्कृतिक
जीवन में अपना महत्व है। सिंधु घाटी की सभ्यता सिंधु घाटी के तट पर विकसित हुई थी।
मिस्र में नील नदी के किनारे तथा दजला– फरात के तट पर ईराक की सभ्यता पुष्पित और
पल्लवित हुई थी। दुनियां भर के कवियों ने नदियों को अपना वर्ण्य विषय बनाया था।
हिंदी कविता में केदारनाथ अग्रवाल
ने नदी पर सर्वाधिक कवितायें लिखी है। उनके संग्रहों से पचास से ऊपर श्रेष्ठ
कवितायें चयनित की जा सकती हैं। केदारनाथ अग्रवाल से सर्वप्रथम मेरा परिचय उनके
गीत- ‘मांझी न बजाओ वंशी’
से हुआ। इसी तरह निराला की कविता – ‘वह
तोड़ती पत्थर’, नागार्जुन
की कविता – ‘बादल को
घिरते देखा है’ या शमशेर
का कविता – ‘एक पीली
शाम’, से इन कवियों को पढ़ने की
शुरुआत हुई थी। ये कवितायें इन कवियों का पर्याय बन गयी हैं। मांझी न बजाओ वंशी
में जो ड्र्श्य का वह लोकजीवन का अत्यंत परिचित बिम्ब है। इस गीत में नदी मांझी और
नांव के जिस तरह के आपसी सम्बंध निर्मित होते हैं, वे
बेहद गझिन हैं। यह गीत नहीं बल्कि लोकगीत है। इसके भीतर एक लय और ध्वनि है। मेरा
लोकजीवन से गहरा सम्बंध रहा है इसलिए यह गीत मेरे लिए अविस्मरणीय है। इस गीत को ध्यान से देखें –
मांझी न बजाओ बंसी मेरा मन डोलता
मेरा मन डोलता जैसे जल डोलता
जल का जहाज जैसे पल- पल डोलता
मांझी न बजाओ बंसी मेरा प्रन
टूटता
मेरा प्रन टूटता जैसे तृन टूटता
तृन का निवास जैसे बन बन टूटता
मांझी न बजाओं बंसी मेरा तन झूमता
इस गीत में जिस तरह लोकशब्दों का
प्रयोग किया गया है वह विलक्षण है। यहां बंसी के बजने के बाद मन डोलने की बात कही
गयी है। यहां प्रन तृन की तरह टूटते है। इस वर्णन में एक मांसलता है। बंसी के बजने
के बाद देह में जिस तरह के भौतिक परिवर्तन होते हैं,
यहां उनकी बानगी दिखाई देती है। इस तरह का गीत वही
कवि सम्भव कर सकता है जिसने लोकजीवन को बहुत निकट से देखा होगा। यह निश्चित रूप से
केन नदी का दृश्य है।
बुंदेलखंड एक लोक क्षेत्र है।
वहां के नागरिक श्रमशील और जिजीविषा से भरपूर है। वे अपनी विपत्तियों से लड़ते है और
लोकजीवन और परम्पराओं की रक्षा करते है। उन्हें यह ताकत अपने भीतर से मिलती है।
बुन्देलखंड के लोग काहिल नहीं है। इसलिए जब उनके यहां किसी नये नागरिक का जन्म
होता है तो कहते हैं-
एक हथौड़े वाला घर में और हुआ
हाथी सा बलवान जहाजी हाथो वाला और
हुआ।
केदार जी यह भी कहते है कि –
जिंदगी को वह गढ़ेगे
जो शिलायें तोड़ते हैं
जो भागीरथ नीर की निर्भय शिरायें मोड़ते
हैं।
पहाड़ और जंगल में रहने वालों का
जीवन मैदानों की तरह आसान नहीं होता। ब्रेख़्त की कविता पंक्ति याद करिए -
पहाड की यातनायें हमारे पीछे हैं मैदानो की हमारे सामने।
पहाड की यातनायें हमारे पीछे हैं मैदानो की हमारे सामने।
पहाड़ों और जंगलों के रहवासियों को
जंगल और नदियां ही बचाती हैं, वही
पर उनके जीवन के उदगम स्थल है। केदार बाबू इन्ही उदगम स्थलों में कविता की खोज
करते है। केदार जी की कविता में नदी सिर्फ नदी नहीं है,
वह कवि की कविता का स्रोत भी है। वह
विभिन्न रूप में उनकी कविता में प्रवेश करती है। हर कविता के बिम्ब और उपमाएं अलग–अलग हैं। वह नदी को अनेक रूपों में देखते हैं। उनकी कविता – ‘नदी एक नौजवान ढ़ीठ लडकी है’ – के कुछ अंश देखें –
विभिन्न रूप में उनकी कविता में प्रवेश करती है। हर कविता के बिम्ब और उपमाएं अलग–अलग हैं। वह नदी को अनेक रूपों में देखते हैं। उनकी कविता – ‘नदी एक नौजवान ढ़ीठ लडकी है’ – के कुछ अंश देखें –
नदी एक नौजवान ढ़ीठ लड़की है
जो पहाड़ से मैदान में आयी है
जिसकी जांघ खुली और हंसों से भरी है।...
नदी म्यान से खिची एक तलवार है
जो मैदान में लगातार चलती है
जिसकी धार तेज और बिजली से भरी है।
यहां वह नदी की तुलना एक नौजावान
ढ़ीठ लड़की से करते है। नदी एक खिलद्दड लड़की ही है जिसकी व्याति दूर तक है। पहाड़ी
नदियों की तुलना एक नौजवान लड़की से करना उपयुक्त है। पहाड़ी क्षेत्रों में यह रूप
प्रचलित है कि पहाड़ी नदी और औरत का कोई भरोसा नहीं है। पहाड़ी नदियां कब जलमग्न हो
या खाली हो जाय,
इसकी कोई भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है- कुछ इस
तरह की कल्पना पहाड़ी स्त्रियों के बारे में की जाती है। समय के साथ ये मुहावरे टूट
रहे हैं। मनुष्य के स्वभाव में लगातार परिवर्तन दिखाई दे रहे हैं। नदियों का आवेग
कम होता जा रहा है। जगह–जगह बांध बना कर उनके स्वाभाविक प्रवाह को रोका जा रहा है।
मनुष्य के स्वभाव के ऊपर अर्थ और आधुनिक संस्कृति का कम बोझ नहीं है। प्रकृति और
मनुष्य के पारस्परिक सम्बंध प्रदूषित होते जा रहे हैं। हम पेड़ों और नदियों की पूजा
तो करते हैं लेकिन उसे विनष्ट ज्यादा करते हैं। जिन्होने यूरोपीय देशो की यात्रा की
होगी उन्हे पता होगा कि वह प्रकृति को किस तरह सुरक्षित रखने का उपाय करते हैं। एक
समय में लंदन के बीचोबीच बहने वाली प्रदूषित नदी टेम्स निर्मल हो गयी है। अब वहां शेक्सपियर की कविता ‘वेस्टमिनिस्टर
ब्रिज’ याद की जा सकती है।
भारत की सभ्यता का इतिहास नदियों
के किनारे शुरू हुआ। उनके तट पर उसके निशान मौजूद हैं। लेकिन हम नदियों के साथ जिस
तरह का व्यवहार कर रहे हैं, उससे
सभ्यता का विनाश ही होगा। जगह–जगह नदियों को डुबोया जा रहा है। टेहरी और हरसूदपुर
इसके उदाहरण हैं। आधुनिकता ने हमारे जीवन में बड़ी जगह बना ली है। हम अपनी परम्पराओं
को भूलते जा रहे हैं। वे लोकजीवन से बाहर होती जा रही हैं। पहाड़ और जंगल खराद पर चढ़
गये हैं। नदियों का दोहन किया जा रहा है। वे बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के निशाने पर
आ गये हैं। जंगल और पहाड़ से आदिवासी बेदखल किये जा रहे है। विस्थापन केवल
आदिवासियों का नहीं नदियों और जंगलों का भी हो रहा है।
केदार बाबू जैसे कवि अपनी कविता
में नदी और प्रकृति को बचाते हैं। उनके भीतर जलधाराएं प्रवाहित होती रहती हैं। उनके
सौंदर्य को केदार जी जैसे कवि अपनी कविता में अभिव्यक्त करते रहते हैं। कवि कविता
में बचाने के काम भी करते हैं। भले ही वे
जीवन के उपकरण हो या स्मृति। हमारी कवितायें इन्ही स्मृतियों के बचाने का आख्यान
गढ़ती हैं। केदार जी की कविताओं पर लिखते हुए गुजराती-हिंदी के लेखक अमृतलाल वेहड़ की याद आती है।
वे नर्मदा नदी की परिक्रमा अनेको बार कर चुके हैं। नर्मदा नदी पर उनकी किताब – ‘सौंदर्य
की नदी नर्मदा’ बहुत
महत्वपूर्ण किताब है, उनकी कुछ पंक्तियां याद आती हैं - पानी जब समुद्र से आता है तब बादल,
जब वापस समुंद्र में जाता है तो नदी कहलाता है।
बादल उड़ती हुई नदी है तो नदी बहता हुआ बादल।
केन नदी के लिए केदार जी की
दीवानगी कुछ कम नहीं है। वह आजीवन केन नदी पर कवितायें लिखते रहे। केदार बाबू के
निकट रहने वाले कवि नरेद्र पुंडरीक ने मुझे बताया था कि वह प्राय: हर रोज केन नदी
के तट पर जाया करते थे। केन नदी उनके प्राणों में बसी थी। उन्होने मुझे बताया जब
वह केन किनारे स्थित अपने गांव से लौटते थे तो उनके हालचाल की जगह केन के हालचाल
पूछते थे। नदी उनके लिए प्रिया की तरह थी। यह मैं नहीं उनकी कविता कह रही है।
मैं जा रहा हूं अपनी प्रिया से
मिलने
सीढ़ियों से उतर आयी है नीचे
धूप में भूमि पर लेटी
नदी से मिलने
कई महीने हो गये मिले उससे
अब नहीं रहा जाता बिना मिले मुझसे।
केन नदी के जन्म का इतिहास कम
रोचक नहीं है। यह मध्यप्रदेश के कटनी (पूर्व
में दमोह जिला) से निकलती है और पन्ना और खजुराहो जैसे पहाड़ी जगहों से होते हुये
बिल्हरका गांव से बांदा की सीमा में दाखिल होती है। केन का एक अन्य नाम कर्णवती भी
है। इसके पीछे कई कथाएं भी जुड़ी हुई हैं। प्राय: हर नदी की कोई न कोई कथा होती है,
वह लोक में प्रचलित होती है। इसी तरह से पहाड़ो की
भी कहानियां लोककंठ में छिपी रहती हैं। पहाड़ से आने वाली नदियां खिलंदडी होती हैं।
वह पहाड़ो और मैदानों में अलग–अलग ध्वनि से बहती है। नदियों को ले कर मेरे भी कुछ अनुभव
रहे हैं। केन की तरह की एक अन्य नदी बेतवा है जिसे मैंनें झांसी–प्रवास में ओरछा
के तट को करीब से देखा है। यह नदी ऐतिहासिक स्थल ओरछा का कंठहार है। छोटी–मोटी
पहाडियों के बीच से बहती हुई इस नदी की ध्वनियां सुबह–दोपहर शाम में अलग–अलग होती है।
रात्रि की नीरवता में इस नदी के बहने की ध्वनि मत्रमुग्ध करने वाली होती है।
यह देखना बेहद दिलचस्प होगा कि
कोई नदी किस तरह एक कवि के शास्त्र और कल्पना को बदल देती है। नदी कवि को बदलती है
या कवि नदी को बदलता है। नदियों के प्रति कवि के दृष्टिकोण भिन्न भिन्न होते हैं।
सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की लम्बी कविता – ‘कुआनो
नदी’ में कुआनो एक आक्रामक नदी
है जिसके भीतर बाढ़ की बिभीषिका है लेकिन उसका लोकरूप मोहक है। हिंदी के कवि
ज्ञानेंद्र्पति के दो संग्रह – ‘गंगातट’,
‘गंगाबीती’
में गंगा की संस्कृति और सांस्कृतिक ढ़ोग को उजागर किया गया है। असम में रहने वाले
कवि दिनकर कुमार का संग्रह – ‘ब्रह्मपुत्र
को देखा है’ - में वह
कहते हैं –
तब भी नदी का ह्रदय लहुलुहान हो
जाता है
जब कोई मांझी शोकगीत गाता है
मै कई बार बना हू मांझी
गाया है शोकगीत।
केदारनाथ अग्रवाल ने इस नदी को
जिया है। वे आजीवन नदी के साथ रहे है। बाकी कवियों का लगाव उस तरह से नहीं रहा है।
यह अंतर उनकी कविताओं को पढ़ कर महसूस किया जा सकता है। दूर से अनुभव को देखना,
अनुभव को प्रमाणिक नहीं बनाता है,
उसके लिए अनुभव के इलाके में ठहरना होता है। मसलन
हम नदी को सिर्फ छू कर उसे जान नहीं पाते, उसके
लिए नदी की यातना और बिम्ब से परिचित होना होता है।
.......
किसी कवि को ठीक से समझने के लिए उन जगहों की यात्रा जरूरी है – जहां वह कविता
सम्भव हुई थी। केन पर लिखी केदार बाबू की कविताएं बिना केन के देखे बिना नहीं
जानी जा सकती, बिम्बों
और रूपकों की गहराई नहीं नापी जा सकती हैं। बहुत दिनों से बांदा और केन नदी की
यात्रा के लिए बेचैन था। जब मुझे केदार सम्मान के लिए नामांकित किया गया तो यह लगा
कि मेरी वर्षो पहले की आकांक्षा पूर्ण होने जा रही है। सम्मान का मेरे लिए इतना
आकर्षण नहीं था जितना बांदा को देखने और केन नदी को निहारने की बेताबी थी। मैं उन
जगहों को कई आंखों से देखना चाहता था। मैं बांदा रात में पहुंचा था। दूसरे दिन 10-11 बजे के बीच सम्मान–समारोह था। सुबह का समय मैं गंवाना नहीं चाहता था। नदी शहर
से दूर नहीं थी। वहां तक पहुंचने में समय नहीं लगा। नदी बडे-बड़े चट्टानों से घिरी
हुई थी। वह पत्थरों के बीच मंथर गति से बह रही थी। नदी में कुछ नांवें तैर रही थी।
उनकी पीठ पर मांझी सवार थे। क्या वे उनके गीत मांझी के माझी तो नहीं हैं?
उनके हाथ में मछलियों को पकड़ने के लिए जाल थे। नदी
तवंगी थी। नदी का पाट बहुत बड़ा नहीं था। यहां पहुंच कर उनकी दो कविताओं के बिम्ब
याद आए –
दिन अच्छा है
नदी के दृढ़ नितम्ब की तरह खुला है
पानी जिसको रास रहा है
मधुर चाव से
उस नितम्ब को खुले दिवस को
जी भर देखो
.....
आज नदी बिल्कुल उदास थी
सोयी थी अपने पानी में
उसके दर्पण पर
बादल का वस्त्र पड़ा था
मैंने उसको नहीं जगाया
दबे पांव घर वापस आया
केदार
बाबू की कविताओं की याद करते हुये वे तमाम जिजीविषा सम्पन्न लेखक याद आए जिनके
नदियों या समुंद्रों से गहन सम्बंध रहे हैं। अर्नेस्ट हेमिंग्वे का उपन्यास – ‘ओल्ड मैन एंड दी सी’, चेम्मीन
का मलयालम उपन्यास ‘मछुआरे’
याद आये।
बंगला के दो उपन्यासों – ‘पद्मा
नदी के मांझी’ (माणिक बंदोपाध्याय)
‘तितासि’;
‘एक नदी का नाम’ (अद्वेत
मल्लबर्मन)
कवि हमारी कल्पना का विस्तार करते हैं और अपने जैसे लेखको के बारे में जानने के लिए प्रेरित करते हैं। केदार बाबू की कविताओं को याद करते हुए पहाड़, जंगल
और सिर्फ नदियां नहीं याद आती है। हम उनकी कविता के जरिए दुनिया भर की कविताओं की
यात्रा करते हैं। केदार बाबू को याद करते हुए मुझे ब्राजीली लेखक- जोआओ गुइमारेस
रोसा की कहानी – ‘नदी का
तीसरा किनारा’ के पिता
की याद आती है इस कहानी का मुख्य पात्र एक नांव के साथ नदी में चला जाता है और
जीवनपर्यंत नदी में ही रहता है। केदार बाबू अपनी नदी–विषयक कविताओं में अक्सर देखे
जा सकते हैं। वे केन में उपस्थित हैं और केन उनके भीतर मौजूद है। वे एक दूसरे के
पर्याय बने हुए हैं। जब तक केन नदी रहेगी, केदार
बाबू की केन पर लिखी कविताएं याद आती रहेंगी। वे हमारे लोक कथा का हिस्सा बन कर रहेंगी।
कवि का यह गहरा ताद्म्य हिंदी काव्य का हिस्सा है।
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सम्पर्क
स्वप्निल श्रीवास्तव
510- अवधपुरी कालोनी
अमानीगंज
अमानीगंज
फैज़ाबाद – 224001
मोबाइल – 09415332326
महत्वपूर्ण और संग्रहणीय आलेख। आपका चयन विवेक अद्भुत है। बधाई
जवाब देंहटाएंगजब की व्याख्या है ! केन को कविता में जिस संवेदनातमक गहराई से देखा-बांचा गया है वह अद्भुत है ! पढ़ते हुए समृद्ध हुआ !
जवाब देंहटाएंकवि केदार नाथ अग्रवाल की केन नदी पर लिखा आपका यह सारगर्भित महत्वपूर्ण आलेख पढ़ना बहुत आनंदित कर गया।दरअसल आपने नदी पर लिखी उनकी कविताओं को तो बहुत हृदय स्पर्शी अंशो की व्याख्या कर ही दी, इसी के साथ नदी पर लिखी अन्य महत्वपूर्ण कवियों, लेखकों की रचनाओं को भी इंगित किया ।
जवाब देंहटाएंआपने नदी नर्मदा पर अमृतलाल बेगड़ जी की लिखी किताबों का भी अच्छा जिक्र किया।मुझे उनकी वह नर्मदा पर लिखी तीनो किताबें बहुत प्रिय हैं।
आपको पुन बहुत अभार इस महत्वपूर्ण आलेख हेतु।