अनिल कुमार सिंह की कविताएँ

अनिल कुमार सिंह


कम कवि ऐसे होंगे जो अपने लेखन से असंतुष्ट रहते होंगे। कम कवि ऐसे होंगे जिन्होंने बेहतर लिखने के बावजूद अपना लिखना इसलिए स्थगित कर दिया कि उस लिखने का क्या मतलब जो महज कागज के पन्नों या किताबों तक ही सिमट कर रह जाए। कम कवि ऐसे होंगे जो अपने व्यक्तिगत जीवन में तीन तिकड़म की बजाए ईमानदारी और मनुष्यता को ज्यादा तरजीह देते हो। फ़ासीवादी-साम्प्रदायिक शक्तियों के खिलाफ हर पल उनकी सक्रियता मनुष्यता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को जाहिर करती है। छात्र जीवन में इलाहाबाद के चौराहों पर नुक्कड़ नाटक के माध्यम से उनकी सक्रियता देखी जा सकती थी। कवि को जन्मदिन की बधाई देने के लिए जब कल फोन किया तो उन्होंने मुक्तिबोध की यह पंक्ति दोहराई 'अब तक क्या किया/ जीवन क्या जिया'। कवि अनिल कुमार सिंह को जन्मदिन की विलम्बित बधाई देते हुए हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं उनकी कुछ चर्चित कविताएँ। ये कविताएँ उनके एकमात्र कविता संग्रह 'पहला उपदेश' से ली गयी हैं। तो आइए आज पढ़ते हैं अनिल कुमार सिंह की कविताएँ।



अनिल कुमार सिंह की कविताएँ



अयोध्या 1991

           


जंगल में नहीं है अयोध्या 

अयोध्या एक शहर का नाम है 

जैसे भोपाल 

 

ट्रेन और बस की खिड़कियों का रिश्ता 

नहीं है मेरा इस शहर से 

 

छोटा था तब 

दादी के साथ आता था 

अब अकेले आता हूँ इस शहर में 

 

जिस तरह तमाम लोग मोक्ष के लिए आते हैं यहाँ 

उसी तरह रोटी की खोज में भी आते हैं तमाम लोग 

 

शहर एक ज़िंदा शब्द है 

इसकी मिसाल है अयोध्या 

 

भेड़ियों की शिकारगाह नहीं है यह शहर 

 

अयोध्या एक ऐसा शहर भी है 

जिस पर हिंदी के कवि कविताएँ नहीं लिखते 

कविता के कालजयी न होने के भयवश 

या पता नहीं किस कारण 

की होगी किसी तुलसीदास ने ऐसी हिमाक़त पहले कभी 

 

सिर्फ़ हवनकुंड नहीं है अयोध्या 

ज़िंदगी की हवि नहीं दी जा सकती उसमें 

 

मनुष्य रहते हैं इस शहर में 

जिनमें रहता है भगवान 

और चूँकि भगवान मनुष्य में रहता है 

इसलिए वह अल्लाह भी हो सकता है

 

ज़िंदगी की भागदौड़ है इस शहर में 

तमाम अन्य शहरों की तरह ही 

श्मशान नहीं हो जाते इलाक़े 

सियारों के फेंकरने से 

 

चालू राजनीति का गर्भपात नहीं है अयोध्या 

 

अयोध्या एक शहर का नाम है 

जिसमें लोग खाते-पीते और ज़िंदा रहते हैं 

एक शहर का नाम है अयोध्या 

जिसमें लोग ज़िंदगी की लड़ाई लड़ते हैं और अंत में मर जाते हैं 

 

यानी भौतिक वास्तविकताओं से कुछ भी 

अलग हटकर नहीं है इस शहर में 

 

इतना ही यथार्थ है यह शहर जितना यह कि 

आदमी का कलेजा काटकर इसकी जगह 

शिवलिंग रख देने से वह मर जाएगा 

 

किताबों में होगी वह अयोध्या 

जिसमें राम रहते थे और जिन्होंने राजपाट 

त्याग दिया था चौदह बरस के लिए 

 

हमारी अयोध्या में हम और हमारे जैसे ही 

अन्य लोग रहते हैं 

हमारी अयोध्या में रोजी-रोटी देती है 

ज़िंदा रखती है 

हम उसे पत्नी की तरह प्यार करते हैं 

बच्चों की तरह दुलारती है वह हमें 

क्या राम भी राक्षसों के हवाले कर सकते थे इसे कभी 

अगर वे सचमुच रहते होते इस शहर में? 

 

क्या कोई भी नरभक्षियों के हवाले कर सकता है इसे 

अगर वह सचमुच रहता है किसी शहर में? 


अयोध्या एक शहर का नाम है 

जंगल में नहीं है अयोध्या।



महान कवि 

       

देश की सबसे ऊँची जगह से बोलता है

हमारे समय का महान कवि।


चीज़ों के बारे में उसकी अपनी

धारणाएँ हैं, मसलन गाँव

उसे बहुत प्यारे लगते हैं जब

वह उनके बारे में सोचता है


गाँव के बारे में सोचते हुए स्वप्न में चलता है महान कवि।


वह तथ्यों को उनके

सुंदरतम रूप में पेश कर सकता है

सुंदरतम ढंग से पेश करने की लत के कारण

कभी-कभी तथ्यों को ही

निगल जाता है महान कवि


धूप में रेत की तरह चमकती हैं उसकी कविताएँ।


ज़िंदगी के तमाम दाँव-पेंचों के बावजूद

कविताएँ लिखता है

हम अपने को अधम महसूस करने लगें

इतने अच्छे ढंग से

कविताएँ सुनाता है वह


हम पर अहसान करता है महान कवि।

पुल उसे बहुत प्यारे लगते हैं

सत्ता के गलियारों को

फलांगने के लिए

जनता की छाती पर ‘ओवरब्रिज’ बनाता है महान कवि।


क्या आप ठीक-ठीक बता सकते हैं

कहाँ से सोचना शुरू करता है

हमारे समय का सबसे महान कवि !

 

 

आदमी क्या चाहता है 

 

एक आदमी क्या चाहता है

सिवाय इसके

कि उसे भी प्यार किया जाए 

 

उसे प्यार किया जाए इस

आशा से वह देखता है

इस आदमज़ाद को

जोकि बस जाने को ही है 

 

प्यार से देखना ही सिर्फ़

प्यार करना नहीं है शायद 

 

प्यार से देखती उसकी आँखें

पीछा करती हैं उस आदमज़ाद का

उस अंधी सुरंग तक 

 

अंधी सुरंग का अँधेरा उसकी

आँखों में उतर रहा है 

 

उतर रहा है अँधेरा उसके जिस्मो-जाँ में

अपने ख़ून सने

पंजों को फैलाता हुआ 

 

इसके पहले कि अँधेरा उसे

जकड़कर बाँध ले वह

चूम लेना चाहता है उसे

जिसके जाने को देखती हुई प्यार से

आशा भरी आँखें खींच लाई थीं

उसे इस तहख़ाने तक 

 

पर यहाँ से एक दूसरी ही सुरंग

शुरू होती है जिसमें कि

वह चला गया है

आगे उसका अपना अँधेरा भी है जिसे

वह चूमना चाहता है जो उसके भी

अँधेरे से भयावह है शायद

 

भूख, बेबसी और अँधेरे की

अलग ही दुनिया है वहाँ जिससे

नावाक़िफ़ था वह अब तक 

 

एक आदमज़ाद क्या चाहता था

सिवाय इसके कि उसे

प्यार किया जाए।

 





एक हमउम्र दोस्त के प्रति 

       

पतझर में नंगे हो गए पेड़ हो सकते हो

ठूँठ तो तुम नहीं ही हो मेरे दोस्त!


तुम्हें याद है न

गए शिशिर में मिले थे हम-तुम

और कितनी देर तक सोचते रहे थे

एक-दूसरे के बारे में


आज भी जब सर्द हवाएँ चलती हैं

तो उड़ती हुई धूल और पत्तों में

सबसे साफ़ और स्पष्ट

दिखाई देता है तुम्हारा ही चेहरा


किन्हीं फाड़ दिए गए पत्रों की स्मृतियों का

कौन सा दस्तावेज़ है तुम्हारे पास?


‘इस शून्य तापमान में

कितनी गर्म और मुलायम हैं

तुम्हारी हथेलियाँ’-

ये कुछ ऐसी बातें हैं

जो मुझे आश्चर्यचकित करती हैं


गर्म हवाओं से स्वच्छंद हो सकते हो

अंधड़ तो तुम नहीं ही हो मेरे दोस्त!


हम एक बर्फीली नदी में यात्रा कर रहे हैं

अक्सर अपनी घुटती साँसों से

मैं तुम्हारे बारे में सोचता हूँ

कहाँ से लाते हो ऑक्सीजन

कहाँ से पाते हो इतनी ऊर्जा


एक मुँहफट किसान हो सकते हो

गँवार तो तुम नहीं ही हो मेरे दोस्त!


 

 हिक़ारत भरा समय



हिक़ारत भरा समय है यह 

स्थितियाँ चूँकि गड्डमड्ड हैं इसलिए 

निरीहता कब हथियार बन जाएगी 

ठीक-ठीक समझा नहीं जा सकता 

अपनी दयनीयता को ढाल की तरह 

आगे करते हैं हम किसी का भी 

अपमान करने के बाद 

शब्दों के ही नहीं हमारे भावों के भी 

अर्थ बदल गए हैं 

इसीलिए यह संभव हो सका है कि 

जब हम एक बेहतर दुनिया की बात 

कर रहे हों तो हो सकता है कि ठीक 

उसी समय यह भी सोच रहे हों कि 

दुनिया हमारे क़दमों के नीचे कैसे आए 

या संवेदनशीलता घड़ियाली आँसू 

बहाने के मुहावरे से आगे जाकर हमें 

हत्या के लिए उकसाए 

या किसी की हत्या के बाद हमें अपने पर 

हिक़ारत आए 

हो सकता है यह आत्मघृणा किसी 

आत्मसंघर्ष का प्रतिफल न हो बल्कि 

हमें हत्या करने के बेहतर गुर सिखाए 

हिक़ारत भरा समय है यह 

और स्थितियाँ सचमुच गड्डमड्ड हैं 

यहाँ तक कि कवि जब अपनी कविता में 

चीख़ते हैं कि उन्हें जीवन से 

प्यार है तो इसका मतलब भी वही नहीं होता 

हो सकता है वे अपनी घृणा को 

छुपाने के लिए ऐसा कह रहे हों 

ऐसा कैसे हो सकता है कि जीवन से 

प्यार किए बिना 

जीवन को सचमुच प्यार किया जाए।     





तिब्बत देश


आम भारतीय जुलूसों की तरह ही
गुज़र रहा था उनका हुजूम भी
‘तिब्बत देश हमारा है’ के नारे
लगाता हुआ हिंदी में

वे तिब्बती थे यक़ीनन
लेकिन यह विरोध प्रदर्शन का
विदेशी तरीक़ा था शायद

नारों ने भी बदल ली थी
अपनी बोली

एक भिखारी देश के नागरिक को
कैसे अनुभव करा सकते थे भला वे
बेघर होने का संताप?

अस्सी करोड़ आबादी के कान पर
जुओं की तरह रेंग रहे थे वे
पकड़कर फेंक दिए जाने की
नियति से बद्ध

दलाईलामा तुम्हारी लड़ाई का
यही हश्र होना था आख़िर!
दर-बदर होने का दुख उन्हें भी है
जो गला रहे हैं अपना हाड़
तिब्बत की बर्फानी ऊँचाइयों पर

उन्हें दूसरी बोली नहीं आती
और इसीलिए उनकी आहों में
दम है तुमसे ज़्यादा
दलाईलामा!

वे मुहताज नहीं है अपनी लड़ाई के लिए
तुम्हारे या टुकड़े डालनेवाले किन्हीं
साम्राज्यवादी शुभचिन्तकों के

वे लड़ रहे हैं तिब्बत के लिए
तिब्बत में रहकर ही जो
धड़कता है उनकी पसलियों में
तुम्हारे जैसा ही

कोई क्या बताएगा उन्हें
बेघर होने का संताप दलाईलामा!



हम कुछ ज़्यादा नहीं चाहते 


हम कुछ ज़्यादा नहीं चाहते

सिवा इसके

कि हमें भी मनुष्य समझें आप


सड़ी हुई लाशों पर जश्न कुत्ते और गिद्ध मनाते हैं

ज़िन्दगी शतरंज का खेल नहीं

जिसमें हमारी शह देकर

जीत लेना चाहते हैं आप


हम कुछ भी ज़्यादा नहीं चाहते

सिवा इसके कि

कहीं न कहीं बचा रहे हमारा थोड़ा-सा स्वाभिमान


समय यूँ ही नहीं गुज़रता

कभी-कभी तो गुज़ारना पड़ता है

सड़ांध यूँ ही नहीं जाती

उसे समूल ख़त्म करना पड़ता है


फ़िलहाल हमारे पास कुछ भी नहीं है

सिवा आत्म-सम्मान और भाईचारे के।


सम्प्रदाय 


वह रास्ता जो दिख रहा है जाता

आगे की ओर आया है

अतीत के उन भग्न खण्डहरों से

जो स्वप्न थे कभी ।


वीर्य और मदिरा की

ऊभ-चूभ में होते थे

जहाँ पवित्र मन्त्रोच्चार

प्रजा की उत्पादकता या

शायद अपनी भिखारियत और

नपुंसकता की अक्षुण्णता के लिए।


वह रास्ता जो दिख रहा है जाता

आगे की ओर असल में

कहीं नहीं जाता।


वह तो ख़त्म हो गया था

जब पहली बार पवित्र ग्रंथों का

पाठ करने के कारण

काट ली गई थी किसी की जीभ

डाल दिया गया था किसी

निर्दोष के कानों में खौलता सीसा और

रजोदर्शन से पहले ही

करवाया था किसी बाप ने

अपनी बेटी का बलात्कार।

 

 

नफ़रत

 

नफ़रत को पहचानना आसान है

क्योंकि वह अब एक प्रवृत्ति है

 

अक्सर हमारे सबसे आत्मीय क्षणों

में भी वह विद्यमान होती है

हमारे भीतर

ज़िम्मेदारियों से मुक्त होने का तो

सबसे मुफ़ीद हथियार है ही वह

 

आप बड़े आराम से कह सकते हैं

मुझे नफ़रत है उन सबसे जिनके

बीच पड़ रहा है मुझे रहना 

 

और निर्द्वंद्वता से बिता सकते हैं

उनके साथ भविष्य के बीस साल 

 

और बीस साल बाद संभव है प्रस्तुत करें

अपने अनुभव का निचोड़ कि

दरअसल नफ़रत की ही थी वह मज़बूत

डोर जिसने बाँधे रखा हमें इतने साल 

 

इस ज़माने में नफ़रत करते हुए

जीना ज़्यादा आसान है बनिस्बत

प्रेम करते हुए जीने के 

 

प्रेम करते हुए हो सकता है

आपको रुकना पड़े किसी के

सिर को थामे अपने कंधों पर थोड़ी देर 

 

जबकि आपको जल्दी है

जाने की

आगे की ओर!




(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)



सम्पर्क


मोबाइल : 8188813088



टिप्पणियाँ

  1. कविताओं में जो कहा गया है वह बहुत महीन है .....मानवता के आयतन |

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  2. कठिन समय और मनुष्यता की जटिल भावभूमि से तार्किक संवाद करती हुई बेहतरीन कविताओं के लिए सर् को बहुत बहुत बधाई 💐💐

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