आशुतोष यादव की कविताएं
प्रकृति की सबसे खूबसूरत इनायत है मिट्टी। वही मिट्टी जिसमें हम पलते बढ़ते हैं। वही मिट्टी जिसमें फसलें लहलहाती हैं और जिसमें वृक्ष झूमते हैं। मिट्टी से मनुष्य का सनातन और पवित्र रिश्ता है। कवि अपनी कविताओं में इसी मिट्टी की बात करते हैं जिसमें अपनेपन का सोंधापन मिला होता है। इसी मिट्टी से आसमान भी खूबसूरत दिखता है। इसी मिट्टी पर पाँव टिकते हैं। आशुतोष यादव ने अपनी कविता 'तुम सफेद कागजों को काला मत करना' में इसी
मिट्टी को शिद्दत से याद करते हैं। आइए आज
पहली बार पर पढ़ते हैं आशुतोष यादव की कुछ नई कविताएँ।
आशुतोष यादव की कविताएं
प्रवासियों के घर द्वार
कच्ची दीवारें
भूल चुकी हैं
लीपने वाली
उगलियों की छाप
भूल चुकी हैं
लीपने वाली
उगलियों की छाप
आंगन में
सिर उठाये खड़े हैं
घुसपैठिये
बेर, बबूल और आक
देहरी को
जकड़ चुका है
एक दबंग पीपल
जकड़ चुका है
एक दबंग पीपल
अभाव के कब्जों पर
एक मौसमी जंग में
हार मान कर
झूले पड़े हैं
खिड़कियों के पल्ले
एक मौसमी जंग में
हार मान कर
झूले पड़े हैं
खिड़कियों के पल्ले
दरवाजों को
किसी तरह साधे है चौखट
चौखट को
एक घुटना टेक दीवार
किसी तरह साधे है चौखट
चौखट को
एक घुटना टेक दीवार
इन दरवाजों पर जड़ा है
एक दत्तीबंद ताला
जो किसी चाभी से नही
हमेशा चोट से खुलता है
एक दत्तीबंद ताला
जो किसी चाभी से नही
हमेशा चोट से खुलता है
व्यक्त से अव्यक्त
हर अक्षर की होती है
अपनी आकाशगंगा
सबसे मिलकर बनता है
भाषा का ब्रह्माण्ड
अपनी आकाशगंगा
सबसे मिलकर बनता है
भाषा का ब्रह्माण्ड
हर ध्वनि का
होता है
अपना ध्वन्यालोक
अपना ध्वन्यालोक
रंगों का राग
बिखरता है
इंद्रधनुषी छठा में
बिखरता है
इंद्रधनुषी छठा में
अव्यक्त से व्यक्त होते है
यों बीज
यों बीज
लौट सकती है भाषा
अपने अक्षरों में
अक्षर भी
समा सकते है
प्रणव में
अपने अक्षरों में
अक्षर भी
समा सकते है
प्रणव में
अव्यंजित
हो सकती हैं
सकल ध्वनियाँ
स्वर हो सकते है
मौन
हो सकती हैं
सकल ध्वनियाँ
स्वर हो सकते है
मौन
रंग
उतर सकते हैं
फिर अपने श्वेत स्याम में
उतर सकते हैं
फिर अपने श्वेत स्याम में
रमते-रमते
स्वादिष्ट हो उठता है
अलोना
स्वादिष्ट हो उठता है
अलोना
एक तल पर
रूप, रंग का
मोहताज नहीं रह जाता
रूप, रंग का
मोहताज नहीं रह जाता
झर जाते है
इस बसंत में
सारे पत्ते
इस बसंत में
सारे पत्ते
संपुटित
हो उठता है विभु
हो उठता है विभु
माँ के आँचल में
फिर सो जाता है
निर्भार शिशु
फिर सो जाता है
निर्भार शिशु
आड़ में
घर कितनी दूर है
अम्मा?
बताओ, बताओ न अम्मा
घर कितनी दूर है?
अम्मा?
बताओ, बताओ न अम्मा
घर कितनी दूर है?
हैरान न करो
मुन्ना
मुझे नहीं पता
चुपचाप चलते चलो नन्हे
मुन्ना
मुझे नहीं पता
चुपचाप चलते चलो नन्हे
हम घरों में नहीं रहते
मेरे लाल
आड़ में रहते है
आड़ में
मेरे लाल
आड़ में रहते है
आड़ में
वह आड़
जिसमें जल जाती है
चूल्हे की आग
जिसमें जल जाती है
चूल्हे की आग
हम आग की
आड़ में रहते है मुन्ना
आड़ में रहते है मुन्ना
मुन्ना चुपचाप
जलता रहा
आग में
चलता रहा
आड़ में
जलता रहा
आग में
चलता रहा
आड़ में
उपनिषद्
कृपण है वह
जो न उलीच सका
समुद्र में रह कर जल
समुद्र में रह कर जल
मृतक वह
अनिरुक्त रहा
जिसे अमृत
घिरा वह
जो न खींच सका
ऋजुरेख
है वह अकाल में
जो न साध सका
धर्ममेघ
था बधिर वह
जो न पा सका
ध्वनि की लय
था अंध वह
जो न देख सका
प्रथम विमा
वही था निर्धन
जो न कह सका
ब्रह्माहम्
तुम भी दर्ज हो मुझमें
बैल के गले की
घण्टीयों में
दर्ज है
एक आदिम भूख
घण्टीयों में
दर्ज है
एक आदिम भूख
कुदाल में
दर्ज है
एक कुँआ
कुयें में
एक प्यास
दर्ज है
एक कुँआ
कुयें में
एक प्यास
भाषा में
एक सभ्यता
पदचाप में
पथलेखा
एक सभ्यता
पदचाप में
पथलेखा
वायु में
सकल ध्वनियाँ
प्रकाश में
सब दृश्य
सकल ध्वनियाँ
प्रकाश में
सब दृश्य
ओ मेरे
अनचीन्हे, अनजाने, अनदेखे, अनसुने, अपरिचित
तुम भी
दर्ज हो
मुझमें
एक सच्चाई की तरह
अनचीन्हे, अनजाने, अनदेखे, अनसुने, अपरिचित
तुम भी
दर्ज हो
मुझमें
एक सच्चाई की तरह
मैं स्वयं को स्वयं से खोलता हूँ
सकल खूंटे
समूची साँकलें
ये जाल
मै तोड़ता हूँ
समूची साँकलें
ये जाल
मै तोड़ता हूँ
कर से
कर प्रहार
मन की शिलायें
फोड़ता हूँ
कर प्रहार
मन की शिलायें
फोड़ता हूँ
बद्ध पिंजर
की
दिशायें
अग्निपथ से
जोड़ता हूँ
दिशायें
अग्निपथ से
जोड़ता हूँ
मैं स्वयं को
स्वयं से
खोलता हूँ
स्वयं से
खोलता हूँ
तुम सफेद कागजों को काला मत करना
तुम सफेद कागजों को
काला मत करना
तुम भूरी, काली, मटमैली मिट्टी पर
हरी स्याही से लिखना
छाया, हवा और पानी
काला मत करना
तुम भूरी, काली, मटमैली मिट्टी पर
हरी स्याही से लिखना
छाया, हवा और पानी
तुम लिखना
कि हर ज़ायका मिट्टी का ही ज़ायका है
कि हर खुशबू मिट्टी की ही खुशबू है
कि हर गीत मिट्टी का ही गीत है
कि हर कहानी मिट्टी की ही कहानी है
तुम यह भी लिखना
कि जमीन से ही खूबसूरत दिखता है आसमान
और अन्त में यह भी लिखना
कि एक दिन सब मिट्टी में मिल जाते है
बस एक मिट्टी है
जो कभी नही मिटती
(मिट्टी और हरियाली से बेइंतहा मोहब्बत करने वाले अपने भाई के लिए)
अब मैं क्या और तुम कौन
ओ महासमुद्र के
सान्द्र
सान्द्र
तुमने मुझे
हर ही लिया
हे सत्व
तुमने मुझे
वर ही लिया
ध्वनियों के सकल
ओ मेरे मौन
अब मैं क्या
और तुम कौन
(इस पोस्ट
में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)
सम्पर्क
मोबाईल
: 7905915416
बहुत सुन्दर कविताएं।
जवाब देंहटाएंजी शुक्रिया
हटाएंसुन्दर कविताएं।
जवाब देंहटाएंबहुत आभार
हटाएंसुन्दर कविताएं
जवाब देंहटाएंआभारी आपके
हटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 10.9.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
सौभाग्य हमारे महोदय आभार आपका हृदय से
हटाएंएक एक कर सारी कविताऐं पढ़ डालीं आशुतोष जी... क्या खूब लिखते हैं ...वाह
जवाब देंहटाएंआपका हृदय से आभार
हटाएंबहुत सुंदर,हृदय के पास का सृजन ,मोहक!
जवाब देंहटाएंआभार सहित धन्यवाद आपका
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