श्वेतांक कुमार सिंह की कविताएँ




'हम भारत के लोग' के बरक्स अपने देश में 'हम सड़क के लोग' भी हैं। अलग बात है कि आजादी मिलने के बाद से ले कर अब तक ये लोग उपेक्षित हैं। भारत विभाजन के पश्चात पहली बार पूरी दुनिया ने इन सड़क के लोगों को सड़क पर हजारों किलोमीटर की त्रासद यात्रा करते देखा। आज अपने देश दुनिया की जो शक्ल है उसे गढ़ने में इन सड़क के लोगों की ही अहम भूमिका है। अलग बात है कि इनके लिए आज तक रोटी, कपड़ा और मकान की आधारभूत सुविधाएं भी मुहैया नहीं हो सकीं। जबकि ये सबके लिए रोटी की व्यवस्था करने, सबके लिए कपड़ा तैयार करने और सबके लिए मकान बनाने में अग्रणी भूमिका निभाते आए हैं। युवा कवि श्वेतांक कुमार सिंह ने इन 'सड़क के लोगों' की पीड़ा को अपना स्वर दिया है। एक संवेदनशील कवि ही उपेक्षित वर्ग की पीड़ा को महसूस कर उनका स्वर दे सकता है। इस युवा कवि में काफी संभावनाएं हैं। आज पहली बार पर प्रस्तुत है श्वेतांक कुमार सिंह की कविताएँ।



श्वेतांक कुमार सिंह की कविताएँ




पुरबिया


दुनिया उसे 'मेहनती' कहती है

ये शब्द प्रशंसा का है

छल का भाई बंधु है

या कोई अपशब्द है

इस पर बहस हो सकती है

पर हम पुरबिया लोग

इस शब्द को सुन कर

खिलखिला उठते हैं

मालिक के प्रति समर्पण के

पीढ़ी प्रदत्त वफादारी-भाव से।


हम पुरबिया जैसे हीं

थोड़ा परिपक्व होते हैं

कोई 17 से 18 साल के,

हमारा एक बड़ा हिस्सा

उगते सूर्य की जमीन से

डूबते सूरज की ओर 

जाने के लिए विवश होता है


और इस प्रक्रिया में

सरकारों, राज नेताओं और अन्य जिम्मेदार लोगों से

बिना कोई सवाल पूछे

अपनी दुर्दशा पे 

बिना किसी की जवाबदेही खोजे

पारंपरिक रुप से

अपनी फूटी किस्मत को कोसते और गरियाते हुए

हम पश्चिम जाने वाली

किसी ट्रेन के सामान्य डिब्बे में

ठूँस दिए जाते हैं

गेट से प्रवेश न मिल पाने की स्थिति में

आपातकालीन खिड़की से भी


हमारे साथ छेद- छेद हुआ एक बैग

उसमें तीन सांझ की लिट्टी

एक जरकिंग आर्सेनिक युक्त पानी

सतमेंझरा सातू

दो सेट कपड़े

कुछ हरे नीम के दातुन

एक गमछी

और उस गमछी में बंधे

भोजपुरिया सपने होते हैं

इन सपनों को पूरा करने के लिए

बैग के ऊपर वाली चेन में

ठेकेदार का मोबाइल नंबर

सबसे जरूरी आइटम है

सुख लोक का 'एंट्री पास'।


एक जरुरी सवाल

कभी पूरब के माननीय नेताओं

और पूरब की देवतुल्य जनता ने

पूरे मन से शायद हीं पूछा हो

कि ऐसी किसी ट्रेन से

ऐसे कुछ 'पश्चिमिया' जवान

क्यों कभी पूरब नहीं आते?

ये जमीन भी तो इसी देश का 

एक पवित्र हिस्सा है

या कोई अभिशप्त क्षेत्र है


मेहनती के साथ साथ

हम बड़े हिम्मती भी होते हैं

हमारे सारे सुख-चैन, ऐशोआराम

सौंदर्य और यौवन

फैक्टरियों की भट्टी में

तप कर झूल जाते हैं

हमें पता हीं नहीं चलता

कि सामाजिक न्याय की खोखली नीति

और एक समान क्षेत्रीय धन आवंटन की

मृगतृष्णा ने

हमें कब भरी जवानी में

वरिष्ठ नागरिकों की श्रेणी में

खड़ा कर दिया है

हम पुरबिया

बस खटना जानते हैं

और पीढ़ी दर पीढ़ी 

खटते खटते शहीद हो जाना


मैं पूछता हूँ

1857 की क्रांति का बिगुल फूँकने वाला पुरबिया

सबसे पहले देश को आजादी देने वाला पुरबिया

प्रधानमंत्रियों की एक लंबी सूची देने वाला पुरबिया

पूरे देश को उच्चाधिकारियों की

कामयाब जमात देने वाला पुरबिया

गौरवशाली इतिहास देने वाला पुरबिया

गणित और विज्ञान के क्षेत्र में 

महत्वपूर्ण मौलिक आयाम देने वाला पुरबिया

सीमाओं की सुरक्षा में बढ़ चढ़कर

अपने प्राणों का बलिदान देने वाला पुरबिया

आज इतना परेशान क्यों है?


सीधा सादा, भोला भाला

मीठी भोजपुरी 

बोलने वाला पुरबिया

इस देश की सौतेली संतान क्यों है?


मेरे प्रेमचंद


मैं व्यथित हूँ

पिछले हफ्ते भर से

कुछ लिख नहीं पाया

मुंशी प्रेमचंद की मानें तो

कुछ न लिखने वाले को

उस दिन खाने का कोई हक नहीं

इसलिए मुझे भी नहीं होना चाहिए


पर आजकल

बिना कुछ लिखे

बिना कुछ पढ़े

बिना कुछ सार्थक किए

साहित्य से राजनीति तक में

सब कुछ छीन लेने की

चारों तरफ

गलकट और हलकट होड़ मची है


मुंशी प्रेमचंद के साहित्य को

कूड़ा करकट कहने वालों को

कौन समझायेगा कि

कई भाषाओं में 

इतना महत्वपूर्ण और सशक्त लिखकर भी

कुछ न पाने की चाह रखने वाला

अगर हमारा आदर्श नहीं होगा तो

होगा कौन?


कूड़ा करकट बीनने वालों को

अपनी कहानियों से 

महान नायक बनाकर

अमर कर देने वाला व्यक्ति

हिंदी की दुनिया का 

वास्तविक सम्राट है,


बिना देह का 

एक ऐसा कालजयी सम्राट

जो आज भी

मेरे जैसे हजारों हाथों से

हमारे देश की व्यथा 

चुपचाप लिख रहा है

बिना कुछ पाने की चाह लिए।


धोखा


एक शख्स

गीता पे हाथ रख कर

हजार झूठी कसमें खाता है


वही 

हर शाम

हजारों की भीड़ को

मोक्ष के मार्ग बताता है।





सीधे हवा में उतार देना कविता


लिखने के जुर्म में

कभी

गिरफ्तार कर लिए जाओ

और जंजीरों से 

बाँध दिये जाएं दोनों हाथ


संभव है

हाथों से जबरन

कलम और पन्ने भी

छीन लिए जाएं

और काली पट्टियां

बांध दी जाए आंखों पर

ताकि सच न देख सको


तब निराश न होना 

सीधे हवा में उतार देना

प्रतिरोध की अपनी कविता


तुम्हारे झोले में जड़ी

अब तक की 

सारी कविताओं में

सबसे मजबूत और असरदार होगी 

उनके कैद में गढ़ी ये कविता।



अपनी भोजपुरी में लौट जाऊँगा


मैं

भोजपुरी में पैदा हुआ

पला बढ़ा हिंदी में


अब अंग्रेजी में

खूब कमा रहा हूँ


पर बूढ़ा हो कर

लौट जाऊँगा

फिर से

अपनी भोजपुरी में


बुढ़ापे का

सबसे सुरक्षित ठौर

मेरी भोजपुरी है

मेरे बचपन की भोजपुरी

मेरे बाप दादाओं की भोजपुरी।।



 दंगे के दिन


दंगे के दिन

एक नदी हो गयी

हमेशा के लिए लाल

और

रोज सवेरे 

उगने वाला सूर्य

महीनों तक रहा अस्त

शायद

उसकी लालिमा को

खून के छींटों ने

अपवित्र कर दिया था।


अँधेरे में सिर्फ

तलवारें चमक रही थीं

और उनकी धार को

मजबूत कर रहीं थीं

कहीं गोलियों की धायं-धायं

तो कहीं पेट्रोल बमों के

मजहबी धमाके।


जिस शहर की पहचान

मंदिरों के नामों से थी

और मस्जिदों की गलियां

जिसका पता बताती थीं

वहाँ, इस तरह का 

कुछ भी 

अब नजर नहीं आ रहा था।

चारों तरफ

बिखरे हैं

बड़े-बड़े पत्थर

झुलसे हुए चेहरे

क्षत-विक्षत शरीर

उजड़े हुए घर

परिवार के एकाध बचे लोग

और अपनी माँ को

खोज रहे दूध-पीते मासूम

जिनके आंसुओं को

दंगे की आग ने

सोख लिया है।


इनमें से अधिकांश वाकये

लगातार मीडिया में

दिखाए जा रहे हैं

अलग-अलग चैनलों में

अलग-अलग कौम के लोग

जलाए जा रहे हैं।

पर 

वहाँ मृत मिले हैं

कुछ 'बेक़ौम' 

जानवर 

निर्दोष पक्षी

और मासूम बच्चे 

जिनकी आत्मा

लगातार ये पूछ रही है

कि दंगे क्यों होते हैं

ये कौन करता है

वह कौन है

जो इतनी क्रूरता से

मनुष्यता जलाता है।


वहीं धड़ाम से

ढहा दी गयी है

मोहन के घर की छत

जिसे अब्दुल ने

पूरे एक साल की

कड़ी मेहनत से बनाया था।


शहर के जलने के साथ-साथ

लोगों की 

दुआएँ भी जली हैं

मनुष्यता के मरने के 

साथ हीं

उनके विश्वास भी मरे हैं।


जहाँ सब कुछ

इतना 

डरावना और भयानक है

वहीं कुछ लोग

अभी भी निडर हैं,

दंगे के बीच

डटें हैं मनुष्य की तरह

जैसे

कुछ हिन्दू,

मुस्लिम भाइयों-बहनों को

अपने घरों में छुपा रहे हैं

दूसरी तरफ

कुछ मुसलमान,

हिन्दुओं को 

अपनी टोपी दे कर

उनकी जान बचा रहे हैं।


इस महान दृश्य को

अपने देश की

किसी मीडिया ने

शायद हीं दिखाया है

पर

मैं दावे के साथ

ये कह सकता हूँ कि

ऐसे हीं कुछ दृश्यों ने

इस देश की

पवित्र-आत्मा को 

जिंदा बचाया है।।





ये लोग कौन हैं


पर्दे के गिरे होने तक

हम एक महाशक्ति थे

न्याय, समरसता

सबका साथ सबके विकास का देश

एक छोर से दूसरे छोर तक

द्रुतगामी ट्रेनों का देश

बुर्ज खलीफा से हाथ मिलाते

आधुनिक स्थापत्य का देश

शीशे से चमकती चौड़ी चौड़ी

सड़कों का देश

चाँद और मंगल तक पहुंच जाने वाला देश

स्वच्छ, स्वावलंबी, तकनीकी रूप से दक्ष देश

कोरोना ने जबसे पर्दा खींचा है

एक हल्की सी बारिश से 

उज्बुजाई चींटियों जैसे

दिख रहे हैं बहुत सारे लोग 

रास्तों पर लोग और केवल लोग

चींटियों के अंडों को 

अपने सिरों पर ले जाते लोग

मसले जाते

कुचले जाते

रौंदे जाते  

भिगोए और डुबोये जाते लोग

आंकड़ो के बाहर के लोग

विकास के व्यास के बाहर 

सकपकाते लोग

सिर्फ बरसात के समय उतराने वाले लोग

बैलगाड़ी को बुलेट ट्रेन बनाने वाले लोग

सूट केस के पहियों पर 

जीवन को डगराने वाले लोग

विकास की जमीन पर

बिलों में छुप जाने वाले या

छुपा दिए जाने वाले लोग?

आजादी के बाद पहली बार 

दिख रहे हैं 

खेतों और फैक्टरियों के बाहर

मजदूरों जितने कंगाल लोग


आखिर कहाँ गायब थे आज तक

देश के बच्चों ने जिन्हें

कथाओं में सुना था

जी पी एस, रडार, मानव सूचकांक 

खुफिया एजेंसियों

समदर्शी सरकारी प्रक्रियाओं

इन सभी जांचों के बाहर के लोग

ये अपने देश के नहीं होंगे

हो हीं नहीं सकते

वरना 73 वर्षों में कभी तो दिखे होते

ये अचानक से आये लोग


ये बल्ब की रोशनी में

पतंगे से लोग हैं

आत्मनिर्भर भारत के

आत्मनिर्भर लोग

देश से स्वदेश भागते लोग

पतलून से धोती में

टोपी से पगड़ी में

तौलिये से गमछे में

पत्थरों से मिट्टी में

कल्पनाओं से सच्चाई में

चाँद से चारपाई में

मेट्रो से तांगे में

फ्रीज से सुराही में

पूरे देश से 

पूरब की ओर भागते पुरबिया लोग

खेतों में पड़े

तरबूजों में पानी से लोग

पर्दा गिरने के बाद

मनरेगा के मान से फिर 

बाहर निकाले जाएंगे 

सरकारी सहायता मिलते हीं

कारबारी इन्हें फिर बुलाएंगे

जो चार्टेड विमान धूल से भरे

हरियाली तलाश रहे हैं

मजदूरों के रक्त से बने ईंधन से

फिर सेंसेक्स की ऊँची छलांग लगाएंगे।।



कतारें


ये कतारें 

तिजोरियों तक जाती हैं

जैसे चींटिया 

जाती हैं गुड़ तक

घुन जाते हैं गल्ले तक

दीमक जाते हैं

घर के मुख्य किवाड़ तक

और जैसे 

मदिरा पहुंच जाती है

दूध की बोतल से 

बोतलों के अंबार तक।




हम सड़क के लोग


कवियों और कथाकारों ने

हमारी पीड़ा को खूब उकेरा

जितना हो सका

जनसेवियों ने हमारी मदद की

सरकार और देवदूतों के

हम हृदय से शुक्रगुजार हैं


हम सड़क के लोग किसी को

परेशान करना नहीं चाहते

न किसी को 

आफत में डालना चाहते हैं

हम निकलना नहीं चाहते थे सड़कों पर

लेकिन हमारे घरों में 

लोग हीं बामुश्किल अटते हैं

उसमें दो सांझ से अधिक के

राशन नहीं अटते हैं,

बच्चों की सुरक्षा की चिंता से भी

निकलना पड़ा कमरों से

दुर्भाग्य है हमारे कमरों के बाहर

सीधे सड़क मिलती है

कोई गलियारा, कोई बैठक

कोई लॉन नहीं होती।


हम संकट की घड़ी में

शहर आये थे

और इस संकट में

नहीं चाहते थे गांव लौटना

जब हमारा घर छूटा था

आत्मा वहीं छूट गयी

माँ का साथ छूटा

पिता के स्नेह से बिफरे

पत्नी का हाथ छूटा

लेकिन इन मानवीय भावों को

आंसुओ के साथ सुखा कर

हम शहर आये 

क्योंकि वात्सल्य से भूख जीत गयी।


हम सड़क के लोग

जानते हैं

हम गांव के भी प्यारे नहीं रहे 

न अपने लोगों के दुलारे रहे

अपने लोगों के बीच रहने की

एक समय पूरी पहल की थी हमने

पान की दुकान तक लगाया

ट्रैक्टर चलाया

मजदूरी की

बहुतों का घर बनाया

दूध भी बेंचा

खेत भी जोता

चूने से लोगों का घर भी पोता

चूल्हा-चौका, झाड़ू-पोंछा किया

नौकर-चाकर बन कर

ऐसे समस्त किरदारों में

खुद को झोंका था

ताकि घुले रहें गांव की हवा में

पर इन सबके एवज में जो मिला

वह बहुत अपर्याप्त था

इतनी कोशिशों के बावजूद भी 

जब हम अपना पेट न भर सके

तब अपने कदम

शहरों की ओर बढ़ाया था।


हम सड़क के लोग

मरते नहीं किसी महामारी से

सैनिटाइजर के छिड़काव से भी नहीं

क्योंकि हम मरे हुए 

जन्म लेते हैं।

जो लोग जानते हैं हमें

उनके लिए हो सकते हैं

हम जानवर जितना

या कभी कभी जानवरों से भी कम

हिंदुस्तान के मानचित्र में

ताजमहल दिखाया जाता है

हमारे हाथों को कभी नहीं।


हम सड़क के लोग

कभी बीमार नहीं पड़ते

कभी अपने ठेले- रिक्शे पे उठंग जाते

तो कभी फुटपाथ पे सो जाते

चार सौ रुपये की दिहाड़ी पा कर

खूबसूरत शहरों का सारा बोझ ढ़ोते

पूरे शहर को थोड़ा ठहर कर देखना

नीवों से इमारतों तक में

हमारे हाथ की परछाईं दिखेगी तुम्हें


हम सड़क के लोग

मुफ्त के राशन 

और तीन सिलिंडर के लिए

नहीं जा रहे गांव

मरने के डर से भी

नहीं आए सड़कों पर

हमें पता है

हमारी लाठी

सर पे रखी बेकार गठड़ी

हाथों में टूटे-फूटे डिब्बे

फटे हुए गंदे कार्टून

दोनों कंधों पर बिलखते बच्चे

और चप्पल के बाहर 

सड़े हुए बदसूरत पैर

हमें मरने नहीं देंगे

इन्होंने मिल जुल कर शरीर को 

अभेद्य किले सा बना दिया है।


हम सड़क के लोग

निकल गए हैं सड़कों पर

क्योंकि मालूम नहीं

हमें जाना कहाँ है

घर तो हमारे होते नहीं

हमारा दाना कहाँ हैं

हम सड़क के लोग

सदियों से सड़क के हीं है

जन्म-जन्मांतर से परित्यक्त

सभाओं में अनचाहे और अव्यक्त

सभ्यता से घबराए हुए

कोशिशें करते रहे लगातार

पर विधाता से दूर-दुराये रहे।


हम सड़क के लोग 

ये जानना चाहते हैं कि

क्या कोई जगह 

सड़क से

इतर नहीं है हमारी

क्या कोई दूसरा नाम

नहीं हो सकता हमारा

बीवी-बच्चे पूछ रहे हैं

कब बदलेगा हमारा ठिकाना

'हम सड़क के लोग'

'भारत के लोग' बनना चाहते हैं

कोई सवाल नहीं पूछ रहे

बस अपनी पीड़ा कहना चाहते हैं।



गोलियों ने किया हिमीकरण


गोलियों की धधक ने

आज अनेक परिवारों का

हिमीकरण कर दिया है।

इस हिमीकरण से

किसी तरह बचने वालों में

शामिल हैं कुछ

पत्नियां, बच्चे

माँ-बाप और दोस्त-मित्र

लेकिन ये सारे लोग भी

तरल हो कर ठहर गए हैं

सूख रहे 

पोखरे की तलछटी में।

मैं भी

उन्हीं लोगों के साथ

बैठा हूँ उनकी पाँत में

सौभाग्यवश

इस हमले में निरापद हैं

मित्र जितेंद शुक्ला

जिनका तबादला 

कुछ दिनों पूर्व हो गया था।

आबादी के बड़े हिस्से के लिए

ये खबर आपदाओं की 

पिछली खबरों जैसी हीं है

और ये भी

समय के साथ-साथ

घरेलू आपा-धापी में

कहीं विस्मृत हो जाएगी।

पर इस घटना ने

मुझे जड़ तक हिला दिया है

भले मैं

तरल हो कर ही बच गया

पर मेरे घुटनों में

भूसे के ढ़ेर से ज्यादा

ताकत नहीं बची है।

मेरे हृदय में तो

सबसे डरपोक तोते ने

अपना घोंसला बना लिया है

इसलिए ये तय है कि

एक धीमी बारूदी आवाज भी

मेरे जैसे लोगों के लिए

प्राणघातक होगी।


राजधानी से जंगलों तक

चूहों की आवाजाही से

जीवन की बहुमूल्यता

बहुत धूमिल हुई है।

मैं जानता हूँ

इस काले पृष्ठ पर

अभी तक

सारी स्याहियां बेअसर रही हैं

फिर भी

इन काले पन्नों पर

स्याही छिड़कने से 

खुद को नहीं रोक पा रहा हूँ।



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)


सम्पर्क


मोबाइल : 7704813001

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