स्वप्निल श्रीवास्तव की कहानी 'बांसुरी की खोज'
स्वप्निल श्रीवास्तव |
कवि का गद्य आमतौर पर काव्यात्मक सुघड़ता लिए होता है। जो कवि कहानियाँ लिखते हैं उनकी कहानियों में भी एक काव्यात्मक प्रवाह होता है। स्वप्निल श्रीवास्तव प्रतिष्ठित कवि हैं। कहानियों का उनका एक संग्रह भी है। आज पहलीबार पर प्रस्तुत है स्वप्निल श्रीवास्तव की कहानी 'बांसुरी की खोज'।
बांसुरी की खोज
स्वप्निल श्रीवास्तव
गांव की पूरब दिशा में एक नदी बहती थी। वह बहुत छोटी नदी थी। वह एक ताल से निकल पांच किलोमीटर दूर दूसरे ताल में विसर्जित हो जाती थी। उसके बीच में कई गांव पड़ते थे – उसके पानी से लोग अपने खेत सींचते थे। गर्मियों में उसके गांठ भर पानी रहता था लेकिन बारिश के दिनों वह नदी विकराल हो जाती थी, उसे पार करना मुश्किल हो जाता था। नदी जब उफनती थी, उसका पानी पास के बाग में फैल जाता था। पानी के साथ नदी की मछलियां को देखते बनता था। वे खूब किलोल करती थीं। खुशी में अपने पंख फडफ़ड़ाती थीं। वे बाग के पानी की धार के साथ पंक्तिबद्ध चलती थीं। इसमें छोटी-बड़ी मछलियां होती थीं। हम उन्हें हाथ में उठा कर सहलाते थे और फिर पानी में छोड़ देते थे। नदी के एक तरफ ताल और बाग थे तो दूसरी ओर जंगल था। वह विभिन्न रंग की चिड़ियाएँ आती थीं। जैसे तोता, मैना, कबूतर, उठदेखनी, नीलकंठ, कठफोरनी, कोयल और कौवें खास थे। वहां हम ऐसी चिड़िया देखते थे जिनके नाम हमे मालूम नहीं थे लेकिन वे हमें अच्छी लगती थीं। उनकी आवाज मधुर होती थी। जब वे एक साथ बोलती थीं तो लगता था कि एक साथ कई तरह की संगीत ध्वनियां प्रवाहित हो रही हो। हम संगीत में डूब जाते थे। चिड़ियों के अतिरिक्त वहां जंगली जानवर भी रहते थे जैसे खरगोश, लोमड़ी, बनबिलाव, सियार। सियार रात में दिखाई देते थे और हुंआ-हुंआ करते थे। दिन में अधिकांश जानवर जंगलों और झाडियों छिपे रहते थे।
पिता बताते थे कि उनके समय में जंगल बहुत बड़ा था – अब उसका बहुत सा हिस्सा कट चुका है। लोग जंगल को काट कर खेत बना लिये हैं। वहां यदा–कदा बाघ और लकड़बग्घे आते थे। उनका शिकार बकरियां होती थीं। कभी-कभी लोग उसके चपेट में आ जाते थे और आसपास के गांवों में दहशत फैल जाती थी। लोग शाम होते उधर से नहीं गुजरते थे। फसलों की रखवाली के लिये यहां लोग मचान बनाते थे और रात में उस पर बैठ कर खेत को जंगली जानवरों से रक्षा करते थे। जंगल में मक्के के खेत थे, कुछ लोग आलू और कलाकंद उगाते थे। भालू दूर के जंगलों से आते और आलू खा कर चले जाते थे। जंगली सुअरों का आतंक कम नहीं था। वे फसलों को खाते तो कम थे, उन्हें रौद कर चले जाते थे। जंगल के इन खेतों में खरबूजे, खीरे और साग-सब्जियां खूब होती थी। कुछ लोगों ने यहा अमरूद, शरीफे और कटहल के पेड़ लगा रखे थे। कटहल भले ही खाने में अच्छे न लगे, वे पेड़ पर बहुत सुंदर लगते थे। यहां के अमरूद और पपीते बहुत स्वादिष्ट होते थे।
बारिश के दिनों में जंगल खूब हरे-भरे हो जाते थे। गर्मियों में जो पेड़ सूख जाते थे, वे बारिश होते ही हरीतिमा ओढ़ लेते थे। आम के बाग आम से लदे होते थे। वहां लोग झोपड़ियां छा कर रहते थे। जरा सी हवा चलती तो आम लद्द-लद्द गिरने लगते थे। वे हमारे स्वर्णिम दिन होते थे। जैसे गर्मी की छुट्टियां खत्म होने लगतीं हम उदासी में घिरने लगते थे।
बारिश के बाद जाड़े का मौसम आता था, उसका भी रंग अलग था। घास के मैदान की घास बढ़ जाती थी। जंगल के बीच दूर तक घास के मैदान थे। यह चरवाहों के आने का समय होता था। वे भेड़ों के रेवड़ के साथ आते थे। उनके पास सैकड़ों की संख्या में भेड़े थी। चरवाहे दो तीन की संख्या से ज्यादा नहीं थे। उनके पोशाक निराले थे। वे घुटने तक की धोती और मोटे कपड़े की मिर्जई पहनते थे। हां, उनकी पगड़ी उनके सिर से बड़ी होती थी। उससे उनके कान तक ढक जाते थे। उनकी मूंछें लम्बी और नुकीली होती थी। वे बेतरतीब चेहरे पर बिखरी रहती थीं। उनकी मूंछों से हमें महाराणा प्रताप की मूंछे याद आती थी। दिन भर वे जंगल में भेड़ों के साथ घूमते थे और रात को किसी छतनार पेड़ के नीचे ठिकाना बना लेते थे।
वे ईंटों को जोड़ कर चूल्हा बनाते थे। प्राय: वे मोटी–मोटी रोटी और जंगल में पायी जाने वाली वनस्पतियों की सब्जियां पकाते थे। भेड़ के दूध की खीर उनका मनपसंद व्यंजन था इसी तरह रेगिस्तान के लोग ऊंटनी के दूध कई प्रकार की खाद्य सामग्री बनाते हैं। हमारा घर सबसे पूरब दिशा में था इसलिए उनके जलते हुए चूल्हे की रोशनी दिखाई देती थी। हम सोच कर हैरान रह जाते थे कि वे इस जंगल में कैसे अकेले रहते होंगे। रात गुजारने के लिये उनके पास भेड़ की ऊन का बुना हुआ कम्बल होता था जो ओढ़ने पर चुभता था। वे अक्सर उसे अपने कंधे पर रखे रहते - जैसे ठंड बढ़ती वे उसे उसे देह में लपेट लेते थे। बहुत ठंड होने पर वह जंगल की लकडियों का अलाव जला लेते थे। अलाव से जंगली जानवर उनके पास नहीं फटकते थे। वे दिन भर भेड़ों के पीछे दौड़ते हुए इतने थक जाते थे और उन्हें आसानी से नींद आ जाती थी। सुबह उठ कर वे नदी में स्नान करने बाद अपनी दिनचर्या शुरू करते थे। देखने में उनका जीवन रोमांचक लगता था लेकिन उस तरह से रहना हमारे लिये आसान नहीं था। हम सुविधा में रहने के इतने अभ्यस्त हो गये थे कि तनिक भी असुविधा बरदाश्त नहीं कर सकते थे। वे घर से दूर रहते थे और हम घर से दूर रहने की कल्पना से डरते थे। भूत-प्रेत की कहानियां हमें बहुत भाती थीं। दादी बताती थी कि चुडैलें बहुत खूबसूरत होती हैं। वे जंगलों और सूनसान जगहों पर रहती हैं। वे चांदनी रात में बाहर निकलती थी। बहरहाल मैं कहां मूलकथा से भटक गया। जंगल का जिक्र हुआ तो वहां के रहवासी याद आ गये।
......
रात को जब हम लोग खा-पी कर सोने लगते थे तो हमे चरवाहों की बांसुरी की तान सुनाई पड़ती थी। अजीब बात यह थी कि अंधेरे पाख और उजाले पाख में बांसुरी की आवाज अलग-अलग ढंग से सुनाई पड़ती थी। अंधेरी रात में लगता था कि बांसुरी की आवाज समीप से आ रही है जबकि चांदनी रात में बांसुरी की धुन छिटकी हुई लगती थी – जैसे उसकी आवाज चांदनी की तरह वन–प्रांतर में बिखर गयी हो। यही तो बांसुरी का जादू था, जो हमें सोने नहीं देता था। हमे कृष्ण के बांसुरी की याद आती थी जिसे हम रसखान, रहीम और बिहारी के साहित्य में पढ़ चुके थे। हमारे मिडिल स्कूल के मास्टर साहब इस प्रकरण को डूब कर सुनाते थे – जैसे वह उनका देखा हुआ दृश्य हो। मां की कथाओं में कृष्ण की बांसुरी का जिक्र होता था, वह बताती थी कि कृष्ण की बांसुरी की धुन पर आदमी क्या, पशु-पक्षी मुग्ध हो जाते थे। जब हम बड़े हुए तो हमे मालूम हुआ कि बंशी गोपिकाओं को कितनी प्रिय थी। बांसुरी की धुन सुन कर हमें बांसुरी के बारे में जानने की जिज्ञासा हुई। हम कल्पना करने लगे कि काश हमारे पास भी बांसुरी होती और उसे हम चरवाहों की तरह बजा पाते?
गांव में हम तीन दोस्त बहुत मशहूर थे। हमें तिगड़ी कहा जाता था। मैं यानी सुदीप – दूसरे का नाम रवींद्र और तीसरे को केसरी के नाम से जाना जाता था। रबींद्र बहुत तिकड़मी और साहसी था। वह हमारे बिगड़े हुए काम बना देता था। केसरी की तकनीक अच्छी थी। वह बिगड़ी हुई सायकिल को बना देता था। वह थोड़ा नाक में बोलता था। कभी-कभी हम उसकी हंसी उडा देते थे तो वह नाराज हो जाता था लेकिन उसे गांव के बाजार में चाय और समोसे का प्रलोभन दे दिया जाय तो मान भी जाता था। वह जिभचटोर था। हाट-बाजार में खाने की दुर्लभ चींजें खोजने लगता था। रबींद्र की खासियत अलग थी, वह सर्रेदार पेड़ पर आसानी से चढ़ जाता था और सबसे ऊंची डाल को हिला कर हमें आम मुहैय्या कराता था।
हम तीनों ने तय किया कि हमें किसी तरह बांसुरी हासिल करनी है। यह बांसुरी कहां और कैसे मिलेगी, इसके बारे में चरवाहों से बेहतर कौन बता सकता हैं। हमने तय किया कि हम चरवाहों से सीधे बांसुरी के बारे में नहीं पूंछेगे, पहले कोई भूमिका गढ़ेगे।
वह रविवार का चमकदार दिन था। धूप खिली हुई थी। बकरियों के झुंड बाग में चर रहे थे। घसिहारिने रंग बिरंगे साड़ी में घास काटने के लिये सीवान में आ चुकी थी। कुछ छलिया किस्म के लड़के उनके पीछे लगे हुए थे। उसमें से कुछ उनके प्रेमी थे, कुछ प्रेमी होने की कोशिश कर रहे थे। गांव में डेटिंग का यह नया रूप था। गांव से दूर सीवान के एकांत का वे लाभ उठा रहे थे। शाम को जब लोग अलाव पर इकट्ठा होते तो उनकी कहानियां सुनने को मिल जाती थी। हम इन सब घटनाओं से बेजार थे। हमारे भीतर तो बांसुरी बसी हुई थी।
सुबह के दस बज चुके थे। चरवाहे एक पेड़ के नीचे बैठे हुए थे लेकिन उनकी नजर भेडों पर थी। वे अपनी चिलम पीने का इंतजाम कर रहे थे। कोई गांजा मल रहा था। कोई चिलम के छेद पर रखने के लिये टिप्पड़ खोज रहा था। यहां हमे श्रम विभाजन का नया ढंग देखने को मिला। वे बड़े मनोयोग के साथ इस काम में लगे थे। हमने सोचा कि हमे उनकी इस प्रक्रिया में कोई व्यवधान नहीं डालता चाहिए अन्यथा उनकी समाधि भंग हो जायेगी। जब वे इस आयोजन से निवृत हुए तो हम कछुए की धीमी चाल से उनके पास पहुंचे और उन्हें अदब से सलाम किया। उन्होंने हम से पूछा – बच्चों, तुम लोग किस गांव के रहने वाले हो।
.. हम लोग पास के गांव के हैं। आप लोग किधर से आये हुए हैं।
.... हम लोग पहाड़ के पास से आये हुए हैं।
... आप लोग सीधे यहां आये हैं
.. नहीं बचवा हम रास्ते में रूक–रूक कर आते हैं। जहां घास का मैदान होता है वही डेरा डाल देते है फिर आगे बढ़ जाते हैं।
.. आप लोगो की जिंदगी तो बहुत कठिन है।
.. हां, बेटा जीने और परिवार पालने के लिये बहुत कुछ करना पड़ता है। बारिश के दिनों को छोड़ कर हम इन भेड़ों के साथ घूमते रहते हैं।
.. जब भेड़ों के बाल बढ़ जाते है तो इन्हें कैसे काटते हैं। क्या उन्हें तकलीफ नहीं होती?
.. हमारे पास उनके बाल उतारने के लिये एक खास तरह की कैची होती है। भेड़ों को कोई तकलीफ नहीं होती। उनकी देह हल्की हो जाती है। उनका लद्धड्पना गायब हो जाता है। वे तेजी से दौड़ती हैं।
... तुम लोग किस क्लास में पढ़ते हो।
.. हम सब दर्जा सात में पढ़ते है
.. ठीक है खूब दिल लगा कर पढ़ना, नहीं तो तुम्हें भी मेरी तरह भेड़ चरानी पड़ेगी।
मैं उनके सवालों का जबाब दे रहा था और रबींद्र मुझे देख कर कुढ़ रहा था। शायद मैं बेकार के सवालों में उलझ गया था। मुझे असली बात पर पहुंचना चाहिए। मैं स्वभाव से संकोची था लेकिन रबींद्र असल मुद्दों पर हमसे पहले बोलता था। हमने देखा कि छोटी सी बांसुरी उनके पगड़ी में खुसी हुई है। रबींद्र ने कहा कि जब सोने लगते थे तो आप लोगो की बांसुरी की मधुर आवाज हमें सुनाई पड़ती है। आपके बांसुरी की आवाज बहुत मधुर है – जैसे कोई कानों में रस घोल रहा हो।
रबींद्र की आवाज सुन कर उनका चेहरा चमक उठा। प्रशंसा किसे नहीं अच्छी लगती। मैंने अपनी बात आगे बढ़ाई – आप को यह बांसुरी कहां मिली?
... यह बांसुरी हम ने खुद बनाई है – क्यों, क्या बात है?
हम लोग भी ऐसी बांसुरी चाहते हैं – यह केसरी की आवाज थी।
.. बांसुरी बांस से बनाई जाती है। फिर उसमें छेद किया जाते है। बांसुरी में सात या नौ छेद होते हैं।
... लेकिन यह छेद कैसे बनाए जाते हैं।
... बस कोई लोहे की नुकीली चीज गर्म कर दो और जब लोहा लाल हो जाये, उसी से बांस में छेद कर दो। यह जरूर ध्यान देना चाहिए कि छेद के बीच में समान दूरी हो।
.. लेकिन बांसुरी को कैसे बजाया जाए।
... जब तुम लोग बांसुरी बना लोगे और बजाने की कोशिश करोगे तो उंगुलियां खुद अपने स्वर को खोज लेंगी। हां, सांसों पर नियंत्रण होना चाहिए।
.. लेकिन बांसुरी के लिये इस तरह के बांस कहां मिलेंगे।
... यह खोज तो तुम लोगों को करनी पड़ेगी। क्या तुम्हारे गांव में बांस नहीं हैं?
नहीं, है तो खोजो। इस तरह के बांस–वन नदियों के आसपास होते हैं। तुम उन बंसफोड़ो से मिलो जो बांस से बेने और मौर आदि बनाते हैं।
हमें बांसुरी के निर्माण की विधि के सूत्र मिल चुके थे। बस हमें बांस की खोज करनी थी।
......
यह उत्तरदायित्व रबींद्र को दिया गया जिसकी जवार में खूब जान–पहचान थी। हाट–बाजार सप्ताह में सोमवार के दिन लगता था और उस दिन मंगलवार था। हम इतनी लम्बी प्रतीक्षा नहीं कर सकते थे। हम सभी लोग अपने–अपने सूत्रों से बांस–वन की जानकारी लेने में लग गये। तीसरे दिन रबींद्र ने बांस-वन की जानकारी दे कर चौका दिया। पता चला कि यहां से चार कोस दूर नदी के पास कठबांस का एक जंगल है। वहां पहुंचने के लिये नदी पार करनी पड़ती थी। नदी हमारे घर से दूर थी। हम कभी नदी के पास नहीं गये थे। ऐसी कोई जरूरत ही नहीं पड़ी।
हम लोग मिल कर यह योजना बनाने लगे कि नदी के पास कैसे पहुंचा जाय। इस काम के लिये घर से अनुमति नहीं मिल सकती थी, उल्टे मार पड़ती। पिता कहते यह तुम लोगों के पढ़ने–लिखने के दिन है और तुम लोग इस तरह के बेकार काम में लगे हुए हो। पहले के पिता आज के पिता की तरह उदार नहीं होते थे। उनका स्वभाव कडक होता था। जब हम कभी तफरीह के लिये निकलते थे तो बिलम्ब से लौटने पर खबर ली जाती थी। भले ही मार न पड़ती हो लेकिन कान जरूर उमेठे जाते थे। केसरी के पिता क्रोधी स्वभाव के थे। वे गुस्से में आ कर उसे धुन देते थे और हमे भी उल्टा–पुल्टा कह जाते थे। अत: यह जरूरी था कि प्लान ऐसा बनाया जाय कि घर वालों को कोई संदेह न हो।
तय यह किया गया कि जब हम पढ़ने के लिए स्कूल निकलें तो कक्षा में न पहुंच कर नदी की ओर निकल लिया जाय। हालांकि नदी और स्कूल का रास्ता विपरीत दिशाओं में था। बांस को काटने के लिये एक चोख कुल्हाड़ी या गड़ासे की जरूरत थी। इस काम को केसरी के मत्थे सौपा गया। हम जानते थे कि उसके यहां की कुल्हाड़ी बड़ी धारदार है। कई बार पिता के कहने उस कुल्हाड़ी को मांगने भी जा चुका था। हम लोगो ने उसे ताकीद की कि वह रात में ही अपने बस्ते में छोटी सी कुल्हाड़ी को सम्भाल कर रख ले।
नदी के पास पहुंचने में दो घंटे से ज्यादा समय लगा। हमें रास्ता मालूम नहीं था इसलिए लोगो से पूछना पड़ा। जैसे हमने नदी के पास का गांव पार किया, हमे दूर चमकती हुई नदी दिखाई थी। नदी एक कोस दूर थी लेकिन लग रहा था कि वह हमारे बहुत नजदीक है। नदी की तरह पहाड़ भी समीप दिखते है लेकिन वे हमसे दूर होते हैं। जाड़े में नदी सिकुड़ जाती है बस उसके पाट दिखाई देते हैं। थोड़ी देर के बाद हम नदी के पाट पर थे। वहां बालू ही बालू थे। हमारे पांव बालू में धंस रहे थे। मन हुआ कि हम यहां कोई खेल खेले लेकिन हम किसी दूसरे अभियान पर थे।
नदी के घाट पर कोई भीड़ नहीं थी। नदी एक अकेली नांव तैर रही थी। मांझी का कोई पता नहीं था। हमनें घाट पर अपना मुंह धोया और नदी में पैर डाल कर अपनी थकान मिटाने लगे। थोड़ी देर बाद खैनी ठोकता हुआ मांझी नमूदार हुआ, उसने हम लोगो से कहा कि तुम लोग यहां क्या कर रहे हो? रबींद ने कहा कि हम लोगो को नदी के उस पार बंजारों के गांव पम्पापुर जाना है।
.... वहां तुम लोगो का क्या काम हैं।
उसके इस सवाल से हम घबरा गये। इस सवाल का जबाब केसरी ने दिया। उसने कहा कि मेरे चाचा के घर पर बच्चे के मुंडन का काम है, बंजारों को गाने के लिये बुलाना है।
मुझे याद आया कि बंजारे रबी–खरीफ की फसले कटने के बाद अपनी खझड़ी और ढ़ोल ले कर आते थे और दरवाजे–दरवाजे गा कर लोगों से अनाज वसूल कर ले जाते थे। शादी–व्याह के अवसर पर उनकी औरते गाना गाने के साथ नाचती भी थी। मुझे क्या पता था कि हम उनके ही गांव जा रहे हैं।
मांझी ने कहा कि नदी पार कराई में अठन्नी लगेगी। हम उसके लिए हम तैयार हो गये थे। नदी का पाट चौडा था। हम लोग पहली बार नांव से नदी पार कर रहे थे। गांव की नदी तो वैसे ही पार कर कर जाते थे। ज्यादा पानी होता तो अपने कपड़े उतार कर उसे सिर पर बांध लेते थे लेकिन यह तो बड़ी नदी थी, उसे देख कर डर लगने लगा था।
नांव जैसे मझधार में पहुंची, उसने नांव रोक दी। मैंने कहा कि क्या बात है? उसने जबाब दिया कि नदी में एक घड़ियाल रहता है और कभी–कभी नांव को रोक देता है। मैं उसे देख लूं तो आगे बढ़ूं।
घड़ियाल का नाम सुनते ही हमारी देह में झुरझुरी सी हो गयी। हम अपने देवी–देवता को मनाने लगे। घड़ियाल के जबड़े बड़े और दांत नुकीले होते हैं। वे आदमी को साबुत निगल जाते हैं। यह सोच कर हम भीतर से भयभीत थे। बहरहाल यह संकट टल गया। मांझी ने कहा – घड़ियाल राम किसी दूसरे घाट की तरफ चले गये होंगे, नहीं तो पानी में कोई हलचल जरूर होती।
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हम नदी पार कर चुके थे। एक घने पेड़ के नीचे बैठ कर थोड़ा सुस्ताने लगे। रास्ते की थकान और यहां तक पहुंचने का तनाव सिर पर भारी था। जैसे एक सुरंग से हो कर यहां तक पहुंचे हो। थोड़ी भूख भी सता रही थी, सो घर से मिले नाश्ते से अपनी क्षुधा मिटाई और नदी में झुक कर पानी पिया। अब हम निश्चिंत हो चुके थे। हम अपनी मंजिल तक पहुंचने के करीब आ गये थे। नदी से आगे देखा तो उधर गांवों के छोटे-छोटे समूह थे। ज्यादातर झोपड़ियां थीं, उसके बीच एक दो मकान पक्के थे। जंगल का रास्ता आरम्भ हो चुका था। वहां कठजामुन, गूलर और आम के पुराने जंगली पेड़ थे। ये पेड़ परिंदों से भरे हुए थे। नदी से बांस-वन की दूरी एक कोस से ज्यादा थी। चलते–चलते वह बांस–वन दूर से दिखाई दिया। हम किलक उठे।
बांस–वन में एक नहीं कई कोठ थे, वे बेतरतीब दूर तक फैले हुए थे। बांस एक दूसरे से लिपटे हुए थे। कुछ सीधे थे, कुछ टेढ़े–मेढ़े थे। सीधे बांस ऊपर की ओर निकले हुए थे। कठ-बांस के विकास में कोई क्रम नहीं था। उनकी बाढ़ अराजक थी। हम बांस-वन को देख कर इतने खुश हुए कि उत्साह में बांसों की तरह एक दूसरे से लिपट गये। इतनी खुशी तो अमेरिका की खोज के बाद कोलम्बस को भी नहीं हुई होगी। हम लोग बांसुरी के हिसाब से बांस खोज रहे थे। बांस मोटा न हो और न इतना पतला कि उससे बांसुरी न बन सके। अंत में हमे उस तरह का बांस मिल गया। उस बांस को काटने की जिम्मेदारी रबींद्र को दी गयी जो इस तरह के कामों में पारंगत था।
रबींद्र को हम लोगो ने ताकीद की थी कि वह बांस–वन के भीतर सावधानी के साथ जाये। जमीन को देख ले। हमें बताया गया था कि बांस–वन में जहरीले सांप होते है। बिच्छुओं के ठिकाने बने होते हैं। रबींद्र ने कुल्हाड़ी निकाली, उसे प्यार से चूमा, डीहवार बाबा का नाम लिया और बांसों के झुरमुट में उतर पड़ा। जैसे वह अंदर गया, फड़फड़ा कर एक साथ कई पक्षी उड़े। हमने देखा वे महोखे थे। वह थोड़ी देर के लिये ठहर गया। उसनें बांस को ध्यान से देखा ताकि हमें दुबारा न आना पड़े। बांस कुल्हाड़ी के तीन-चार वार से कट गया था। वह बांसों के बीच फंसा हुआ था, हम तीनों ने जोर लगा कर उसे बाहर निकाला। जैसा हमने तजबीज किया था, बांस उसी तरह था। हम पूरे बांस कि कंधे पर लाद कर नहीं ले जा सकते थे। उसे सावधानी से आठ टुकड़ों में काट लिया। हर एक टुकड़ा एक हाथ से लम्बा था। बांसुरी बनाने में कुछ हिस्से काटे भी जाने थे। हम लोगों ने अपने–अपने झोलों मे इन टुकड़ों को रख लिये थे।
घर पहुंचते हुए देर हो गयी थी। पिता ने दरवाजे पर ही पूछा – आज इतनी देर क्यों हो गयी? तो मैंने कहा – रास्ते में दोस्त का घर था, उसने चाय के लिये हमें रोक लिया था।
...ठीक है, समय से घर आया करो।
पिता आगे कोई सवाल पूछे, मैं तीर की तरह घर में दाखिल हो गया था। फिर मां ने पिता के पूछे गये सवाल की तरह सवाल किया और मैंने पिता को दिया गया जबाब दोहराया। मां मेरे देर से घबड़ा जाती थी इसलिये कहीं भी जाता था तो समय से आने की कोशिश करता।
.......
हम बांस के टुकड़े को सोने की गिन्नी की तरह छिपा कर रखे थे। अगली प्रक्रिया उस बांस के टुकड़े को बांसुरी में तब्दील करने की थी। यही हमारी असली अग्निपरीक्षा थी। बांसुरी बनाने के लिये एक तेज चाकू और छेद करने के लिये नुकीली चीज की जरूरत थी। मेरे घर में एक लम्बा चाकू था जिसमें जंग लगी हुई थी। उसमें सान धरा कर चोख करना था। सोमवार के बाजार में सान आती थी, अत: हर हाल में बाजार के दिन का इंतजार करना था। यह काम हमने केसरी के हवाले किया। हम शिद्दत से सोम की प्रतीक्षा कर रहे थे।
चाकू चमचमा रहा था। उसकी धार इतनी तेज थी कि छू लो तो खून निकल आये। उसे हमने कागज की कई परत में छिपा कर रखा था।। वह घर में ऐसी जगह रखा गया था, जहां कोई न पहुंच सके।
अब हमे कार्यस्थल की खोज करनी थी। वह हमारा घर कत्तई नहीं हो सकता था। इसके लिए गोपनीय जगह चाहिए। बाग से बढ़िया जगह क्या हो सकती थी। हम दिशा–मैदान के लिए बाग़ जाते थे और ताल में हाथ–पांव धोते थे। बाग बहुत बड़ा था। इस काम के लिये बाग का दक्षिणी कोना सुरक्षित था। उधर से शाम के समय कोई आता जाता नहीं था। बाग में महुए का विशाल पेड़ था जिसकी शाखाएं दूर तक फैली हुई थी। दिन के समय वहां घनी छांह होती थी। यह जगह हमारे लिये उपयुक्त थी। घर वालों से आंखे चुरा कर हम एक शाम हम सारी सामग्रियां ले कर बाग की ओर रवाना हुए। बांस के टुकड़ो के साथ चाकू, पेंसिल, इंच टेप, सूजा, दियासलाई और टार्च थी। केसरी ने अपने झोले में कुछ सूखी लकड़ियां रख ली थी। बाग में कौन सूखी लकड़ियां ढ़ूंढ़ने जायेगा? छेदों के बीच बराबर दूरी के लिये पेंसिल और इंच–टेप जरूरी था। हम तीनों के अलावा किसी दूसरे को इस अभियान का पता नहीं था। हम तीनों को बाग में जाते देख किसी को कोई संदेह नहीं था। हम हर दिन इसी समय बाग में जाते थे और पोखरे पर इकट्ठा होते थे।
सबसे पहले हमें बांसुरी पर निशान खीचना था। एक तरफ का छेद तोपना था, उसके लिए हम पहले से लकड़ी की कार्क गढ़ चुके थे। जब तीनों बांस के टुकड़ों पर निशान बन गये तो हमने आग जलाई और छेदने को गर्माने लग गये। जब उसका कोना सुर्ख हो गया, हमने उसे छेद के निशान पर रख दिया और आराम से छेद हो गया, फिर उस छेद को बड़ा करने लगे। इस कठिन साध्य काम में घंटों का वक्त लग गया लेकिन हम अपने लक्ष्य में सफल हो गये।
हमारी खुशी का कोई अंदाजा नहीं लगा सकता था। अगर खुशी नापने का कोई थर्मामीटर होता तो वह टूट जाता। इतनी खुशी तो बिजली के आविष्कारक अमेरिकी थामस एडीसन को भी नहीं हुई होगी जिसने इस दुनिया को रोशन किया था। हम अपने इस आविष्कार में किसी वैज्ञानिक से कम नहीं थे। अब बांस बांसुरी बन चुकी थी। हम उसके रूपांतरणकर्ता थे।
हमनें बांसुरी को पोछ–पोछ कर स्वच्छ बनाया। तीनों बांसुरियो को एक जगह रख कर डीह बाबा की आराधना की और उनके प्रति कृतज्ञता ज्ञापित की। उन चरवाहों को दिल से याद किया जिन्होंने हमें बांसुरी बनाने के लिये ज्ञान दिया। अब यह देखा जाना था कि बांसुरी को कैसे बजाया जाय। उसके उदघाटन के लिये रबींद्र उचित पात्र था। उसने बांसुरी को माथे से लगाया और बांसुरी को ओठ से लगाया। जैसे उसने बांसुरी में फूंक मारी, एक महीन सी सुरीली आवाज हमारे आसपास फैल गयी। हम खुशी से नाचने लगे। यह हमारे जीवन के यादगार क्षण थे। हम खुल कर बांसुरी को बजा नहीं सकते थे। लोगों को पता चल जायेगा। हमारा परिवार संगीत विरोधी था। पढ़ने के अलावा हमें किसी चीज की छूट नहीं मिल सकती थी। बस कोल्हू के बैल की तरह बंधे–बधाये दायरे में घूमना था। ऐसा सलूक परिवार के लोगो ने अपने साथ किया था और यही उम्मीद वे हमसे कर रहे थे। वे बंद दिमाग के लोग थे और पुरानी लकीर पर ही चलते थे।
.....
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)
सम्पर्क
स्वप्निल श्रीवास्तव
510- अवधपुरी कालोनी – अमानीगंज
फैज़ाबाद – 224001
मोबाइल -09415332326
बहुत ही रोचक लगी ''बांसुरी की खोज"'
जवाब देंहटाएंशीर्षक पढ़कर मुझे लगा बांसुरी की खोज की कहानी होगी इसी उत्सुकता में पूरी कहानी पढ़ ली, स्कूल के दिन और गांव के साथ उस जमाने के लोगों के बारे मैं पढ़ना बहुत अच्छा लगा। ऐसे लगा जैसे हम भी साथ-साथ घूम रहे होंगे
अंततः बांसुरी का राज जानकार ही दम लिया आप सबने, बच्चे होते ही है ऐसे जिज्ञासु
मुझे भी कई बातें याद आयी इस दौरान पढ़ते-पढ़ते
बहुत सुन्दर कथा।
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 24.9.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
सुन्दर
जवाब देंहटाएंबढ़िया लगी
जवाब देंहटाएंरोचक कहानी
जवाब देंहटाएंसर, बांसुरी एक खोज, बाल-सुलभ सोच और व्यवहार को रोचक तरीके से सहज संगीतमय लय-ताल के साथ बढ़ती जाती है।
जवाब देंहटाएंमैं समझता हूं कि बांसुरी यहां प्रतीकात्मक रूप से प्रयुक्त है। वास्तव में जीवन भर हम ऐसी ही बांसुरी को बनाने और बजाने की कोशिश करते रहते हैं, जिससे खुशी और आनंद की स्वर लहरी झरती रहे।
सर, बांसुरी एक खोज, बाल-सुलभ सोच और व्यवहार को रोचक तरीके से सहज संगीतमय लय-ताल के साथ बढ़ती जाती है।
जवाब देंहटाएंमैं समझता हूं कि बांसुरी यहां प्रतीकात्मक रूप से प्रयुक्त है। वास्तव में जीवन भर हम ऐसी ही बांसुरी को बनाने और बजाने की कोशिश करते रहते हैं, जिससे खुशी और आनंद की स्वर लहरी झरती रहे।