श्रीधर दुबे का ललित निबंध “गाँव की गंध”

श्रीधर दुबे अभी कुछ वर्षों पहले की बात है जब हम भारत को गांव का देश कहा करते थे और इसमें गर्व की अनुभूति हुआ करती थी। भले ही गांव के रहने वाले लोगों को गंवई संबोधन दिया जाता हो लेकिन हमें खुद अपने को गांव का कहते बताते हुए कभी कोई हिचक या संकोच नहीं हुआ। सचमुच गांव के सद्भावपूर्ण और प्रकृतिमय जीवन को देख कर ही पंत जी ने कभी बरबस ही कहा होगा 'अहा ग्राम्य जीवन'। शायद गांव के उन बीते दिनों का ही प्रताप है कि हमारे अंतस में गांव हमेशा कहीं न कहीं टहलता घूमता रहता है। गांव की सद्भावना, वहां के लोगों के आपसी मेल मिलाप, सहज और निश्छल जीवन, तीज त्यौहार और शादी विवाह के मौसम गांव को सचमुच इकट्ठा और जीवंत कर देते थे। लेकिन आज गांव के बारे में ठीक ऐसा ही नहीं कहा जा सकता। यह अपने अनुभव के दम पर भी मैं कह सकता हूं कि गांव तो छोड़िए, अब घर परिवार के सदस्यों के बीच भी वह आपसी सद्भावना नहीं रही जो पहले कभी ग्राम जीवन का प्राण तत्त्व हुआ करती थी। बहरह...