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श्रीधर दुबे का ललित निबंध “गाँव की गंध”

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  श्रीधर दुबे                          अभी कुछ वर्षों पहले की बात है जब हम भारत को गांव का देश कहा करते थे और इसमें गर्व की अनुभूति हुआ करती थी। भले ही गांव के रहने वाले लोगों को गंवई संबोधन दिया जाता हो लेकिन हमें खुद अपने को गांव का कहते बताते हुए कभी कोई हिचक या संकोच नहीं हुआ। सचमुच गांव के सद्भावपूर्ण और प्रकृतिमय जीवन को देख कर ही पंत जी ने कभी बरबस ही कहा होगा 'अहा ग्राम्य जीवन'। शायद गांव के उन बीते दिनों का ही प्रताप है कि हमारे अंतस में गांव हमेशा कहीं न कहीं टहलता घूमता रहता है। गांव की सद्भावना, वहां के लोगों के आपसी मेल मिलाप, सहज और निश्छल जीवन, तीज त्यौहार और शादी विवाह के मौसम गांव को सचमुच इकट्ठा और जीवंत कर देते थे। लेकिन आज गांव के बारे में ठीक ऐसा ही नहीं कहा जा सकता। यह अपने अनुभव के दम पर भी मैं कह सकता हूं कि गांव तो छोड़िए, अब घर परिवार के सदस्यों के बीच भी वह आपसी सद्भावना नहीं रही जो पहले कभी ग्राम जीवन का प्राण तत्त्व हुआ करती थी। बहरह...

श्रीधर दुबे का आलेख “वेदना उस मुक्त जीवन की”

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श्रीधर दुबे अभी हाल ही में हाथरस की एक बलात्कार पीड़िता जीवन और मौत से संघर्ष करते हुए अस्पताल में ही चल बसी। गैंग रेप की शिकार उस पीड़िता ने अभी अपने कैशोर्य जीवन में प्रवेश किया था। स्त्रियों को देवी मानने वाले हमारे समाज का यह कुत्सित चेहरा है। रोज ही शर्मसार करने वाली ऐसी तमाम घटनाएँ घटती हैं  और हम जैसे इसके अभ्यस्त से हो चले हैं। वस्तुतः हमने अपने समाज की जो संरचना की है, उसी के मूल में यह प्रवृत्ति है। कवि वीरेन डंगवाल की पंक्ति याद आ रही है : 'यह कैसा समाज हमने रच डाला है/ जो चमक रहा शर्तिया काला है।' किसी भी सभ्य समाज के लिए ऐसी घटनाएं कलंक की तरह होती हैं। हम इस कुकृत्य और कुत्सित मानसिकता की कड़ी निंदा करते हुए यही कहना चाहते हैं कि ऐसे दरिंदों को कड़ी से कड़ी सजा दी जाए। कवि श्रीधर दुबे ने महिलाओं के वेदनापूर्ण जीवन को अपने एक ललित निबन्ध में उकेरने की कोशिश की है। आज पहली बार पर पढ़ते हैं कवि श्रीधर दुबे का ललित निबन्ध 'वेदना उस मुक्त जीवन की'।             “वेदना उस मुक्त जीवन की”     श्रीधर दुबे   ...