श्रीधर दुबे का आलेख “वेदना उस मुक्त जीवन की”
श्रीधर दुबे |
अभी हाल ही में हाथरस की एक बलात्कार पीड़िता जीवन और मौत से संघर्ष करते हुए अस्पताल में ही चल बसी। गैंग रेप की शिकार उस पीड़िता ने अभी अपने कैशोर्य जीवन में प्रवेश किया था। स्त्रियों को देवी मानने वाले हमारे समाज का यह कुत्सित चेहरा है। रोज ही शर्मसार करने वाली ऐसी तमाम घटनाएँ घटती हैं और हम जैसे इसके अभ्यस्त से हो चले हैं। वस्तुतः हमने अपने समाज की जो संरचना की है, उसी के मूल में यह प्रवृत्ति है। कवि वीरेन डंगवाल की पंक्ति याद आ रही है : 'यह कैसा समाज हमने रच डाला है/ जो चमक रहा शर्तिया काला है।' किसी भी सभ्य समाज के लिए ऐसी घटनाएं कलंक की तरह होती हैं। हम इस कुकृत्य और कुत्सित मानसिकता की कड़ी निंदा करते हुए यही कहना चाहते हैं कि ऐसे दरिंदों को कड़ी से कड़ी सजा दी जाए। कवि श्रीधर दुबे ने महिलाओं के वेदनापूर्ण जीवन को अपने एक ललित निबन्ध में उकेरने की कोशिश की है। आज पहली बार पर पढ़ते हैं कवि श्रीधर दुबे का ललित निबन्ध 'वेदना उस मुक्त जीवन की'।
“वेदना उस मुक्त जीवन की”
श्रीधर दुबे
एक नन्हीं बच्ची से दुष्कर्म की खबर सुन कर भीतर ही भीतर बैचैनी से भर उठा हूँ। तभी से बचपन का एक सुना हुआ गीत मन में बार बार अपनी डुगडुगी बजाये जा रहा है। उस सुने हुए गीत में बेटी को हिरनी मान कर उसे समझाया जा रहा है कि वह चरने के लिये कहीं दूर न जाये, नहीं तो बहेलिये आयेंगे और उसे उठा ले जायेंगे। उत्तर में बेटी कहती है कि अगर बहेलिये आयेंगे तो वह किसी घनी झाडी या फिर माँ की गोद में छिप जायेगी।
बेरिया के बेरि तोहँ के बरिजीं ए हरिनी ।
दूर चरनि जनि जाहुँ, बहेली लोग अईहें॥
जो रे बहेली लोग, आइ हो जइहें।
झाडी-झँखाडिया लुकाइब, बहेली लोग फिर जइहें॥
बेरिय के बेर तोहँके बरिजीं ए बेटी।
सगरा नहाय जनि जाहुँ, सजन लोग अइहें॥
जो रे सजन लोग, आइ हो जइहें।
माई के कोरवा लुकाइब, सजन लोग फिरि जइहें॥
(बार-बार तुम्हें मना करती हूँ हिरनी।
कि दूर मत जाओ खेलने, बहेलिये आएँगे॥
अगर बहेलिये आ ही जाएँगे।
मैं घनी झाडियों में छिप जाऊँगी, बहेलिये लौट जायेंगे॥
बार-बार तुम्हें मना करती हूँ बेटी।
कि नहाने तालाब पर मत जाओ, सजन लोग आएँगे॥
अगर सजन लोग आ ही जाएँगे।
मैं माँ की गोद में छिप जाउँगी, सजन लोग लौट जाएँगे॥)
इस गीत के मार्फत उस दिन की याद ताजा हो उठी है जब छोटी बहन का विवाह तय हुआ और साथ ही साथ विदाई की बात भी तय हो गई। उस रोज पिता की ललछौह आँखों में उतर आया पानी आज तक स्मृति से ओझल नहीं हो पाया। माँ उस वक्त बँधी हुई गाय जैसी दिखी थी, अपने खूँटे के ही इर्द-गिर्द अपने बछडे के लिये व्याकुल इधर से उधर बैचैन हो फिरती हुई। अगले कई रोज तक मैने देखा कि माँ घर में रखे छोटी बहन के एक एक सामान को मोह से भरी हुई दृष्टि से देखती और बार-बार रो पड़ती।
विवाह के बाद जैसे जैसे उसकी (बहन) विदाई के दिन नजदीक आने लगे थे वह एक एक कर अपना सामान अपने उस घर से समेटने लगी थी जिस घर में उसके जीवन के 23 साल बीते थे और जिस घर का रेशा-रेशा उसके होने से प्राणवान था। उन बीते तेइस सालों में मेरा और उसका वह अल्हण और निर्विकार बचपन भी था जो अब कहीं पीछे छूट चला था लेकिन विदाई के दिन करीब आने के साथ वह भी रह रह स्मृतियों में लौट आता था।
विदाई के रोज विदा के वक्त अधीर हुआ जाता मन तब और भी अधीर हो उठा था जब पिता से भी बढ कर स्नेह देने वाले बडे पिता जी के कन्धे पर छोटी बहन ने रोते रोते अपना सर टिकाया था। जिस बडे पिता को मैने संकट में भी कभी धीरज खोते नहीं देखा था और न ही किसी के विछोह की पीड़ा से उनकी आँखों में कभी नमी देखी थी वे भी अपने रुदन का अवेग नहीं रोक पाये। उसके बाद तो सारा का सारा घर कारुणिक रुदन के प्रवाह में दह गया था। मैं तत्क्षण घर की एक् कोठरी की ओर जी भर कर रो लेने के लिए भागा लेकिन वहाँ पहले से ही पिता जी बेड पर बेसुध लेटे रोये जा रहे थे। फिर छत वाली कोठरी में गया तो वहाँ भी छोटा भाई पहले से विराजता हुआ रो रहा था।
बहन की विदाई के बाद घर ठीक वैसे ही शांत हो गाया था जैसे तूफान के बाद कुछ देर का सन्नाटा हो, लेकिन घर के कोने-कोने में उसकी व्यप्ति बहुत दिनों तक बनी रही।
बचपन में मेरे द्वारा सुना हुआ यह गीत बहुत पुराना है, शायद तब का, जब बहेलिये इतना मान रखते थे कि झाड़ियों में या माँ की गोद में छिपी हिरनी को छोड़ देते थे। लेकिन पुराना हो कर भी यह गीत आज के परिवेश को देखते हुए कई सारे सवालों के साथ और भी ज्यादा प्रासंगिक हो उठा है।
उस प्रासंगिकता में मेरे भी मन में यह सवाल उठ खडा होता है कि जिस देश की सँस्क़ृति में कच्चे आम को तोडने तक का भी निषेध है वहाँ अभी अर्धविकसित भी नहीं हुई कली के समान नन्हीं बच्चियों के साथ ऐसा दुष्कर्म।
काँची अमिया न तुरिह बलमु काँची अमिया
मोरे टिकोरवा न रसवा पगल हो
हियरा में गुठली अबले जगल हो
मोरे अमिअरिया में मोजरा न अईले हो
डरियन डरियन पतवा ललईलें हो
चोरीया आ चोरिया जो लगले टिकोरवा
जाँचि बतिया न छुईह बलमु जाँचि बतिया
काँची अमिया न तुरिह बलमु काँची अमिया
“काँची अमिया न तुरिह बलमु काँची अमिया” इस लोक गीत में मुझे एक चेतावनी सुनाई देती है, जिसमें आम के कच्चे टिकोरे को न तोड़ने का आग्रह इसलिए है क्योकि अभी उसमें न रस आया, न ही गुठली। अर्थात वह अभी भोग के लिए भी परिपक्व नहीं है इसलिए उसके परिपक्व होने तक धीरज रखने का आग्रह है। धीरज रखने का यही आग्रह ही भारतीय जीवन, भारतीय कला और भारतीय संस्कृति का प्राणतत्व है। इसी धीरज की ही वजह से असह्य दुख में भी गीत गाने का उल्लास बना रहता है जिसे गाते ही क्षण भर का ही सही पर दुखिया को अपने दुख से विश्रांति जरूर मिल जाती है। लेकिन स्त्री पुरुष के रिश्तों में यौवन के विषय भोग में धीरज का आग्रह अगर है तो वह इसलिए है ताकि स्त्री केवल भोग का उपकरण मात्र बन कर न रह जाये।
स्त्री और पुरुष की समानता की बात उन्हें समान बनाये या न बनाये पर उन्हें एक दुसरे का प्रतिद्वन्दी अवश्य बनाती है। जबकि इसके इतर वे दोनों एक दुसरे के पूरक हैं। और उस पूरक होने भी जो स्त्री पुरुष को और जो पुरुष स्त्री को केवल देह की एकात्मकाता तक ही लक्ष्य कर के देखता है उसे न स्त्री में वह असल स्त्री दिखती है और न ही उस पुरुष में असल पुरुष दिखता है। क्योंकि इस रिश्ते में देह की एकात्मकता के अतिरिक्त मन की एकात्मकता भी प्रधान होती है और वही मन की एकात्मकता ही इस रिश्ते को बाँधे रखने की मजबूत डोरी होती है। भागवत महापुराण के दशम स्कन्ध में जहाँ अन्य गोपियाँ अंगस्पर्श के द्वारा श्रीकृष्ण के साथ विविध प्रकार से सम्बन्ध जोड़ती हैं वहीं एक गोपी ऐसी भी दिखती है जो अपने आँख़ के सम्पुट में उन्हें भरती है और उनसे एकात्म होती है।
“पुलकाङगमुपगुह्यास्ते योगीवानन्दसम्प्लुता।
सर्वास्ताः केशवालोकपरमोत्सवनिर्वृता।“
चाहे वह लोक हो या शास्त्र दोनों जगह धीरज की ही बात बार दोहराई गई है। इसी की एक बानगी सिन्दुरदान के वक्त गाये एक गीत में भी मिलती है कि जब वन के बीच फूलती हुई बेला के रूप पर माली रिझता है और रीझ कर यह कहते हुए अपना हाथ बढाता है कि तुम मेरी हो। लेकिन बेली माली को यह कहते हुए बरजती है कि मत छुओ माली, मत छुओ: अभी मैं कँवारी हूँ। आधी रात को बेला जब फुलेगी तब होऊँगी तुम्हारी।
बन बीच फूले बेईलिया, अधिक रूप आगरि।
मलिया हाथ पसारे, त हौउ तू हमार॥
जनि छूअ ए माली, जनि छुअ, अबहीं कुँआर।
आधी रात फुलिहे बेइलिया, त होईबों तोहार॥
(बन बीच फूलती है बेली, अधिक रूप की अगारि।
हाथ पसारता है माली कि तुम मेरी हो॥
मत छुओ माली, मत छुओ; अभी कुमारी हूँ।
आधी रात को बेली जब फुलेगी तब होउगी तुम्हारी॥)
इसी गीत के शरुआत की कड़ी जब कानों में घुलती है तो मुझे पडोस की आराधना बुआ का दुख अवसन्न करने लगता है। अपनो से मिली परायेपन की पीड़ा की पीर क्या होती है यह पडोस की आराधना बुआ से बेहतर भला कौन जान पाया होगा? इस गीत में जब जब एक बेटी को अपने पिता से लगाये भाई सबको पुकारते हुए सुनता हूँ ऐसा लगता है कि वह कोई और नहीं बल्कि आराधना बुआ या उन्ही जैसी असँख्य बेटियों की पुकार है जिन्हें कोई नहीं सुनता और अंततः वे सब कि सब कहती हैं कि एक सुन्दर है जो सेन्दुर दान कर रहा है और मैं पराई हुई जा रहीं हूँ।
“बाबा बाबा गोहारिनेले, बाबा ना जागैं
देत सुनर एक सेनुर, भईलीं पराई॥
भैय्या भैय्या गोहारिलें भैय्या न जागैं
देत सुघर एक सेनुर भईलीं पराई॥“
दुर्लभ सौन्दर्य था आराधाना बुआ का। अपने अतिशय सौन्दर्य से ही वह समवयस्क युवकों की स्पृहणीय् थीं तो युवतियों के अनायास ईर्ष्या का कारण भी। बुआ के रूप में इतना सम्मोहन था की मेरा बाल मन भी एक अबूझ आकाँक्षा से बूआ की ओर बरबस खिंचा रहता था। लोग उनको देख कर कह बैठते कि धन्य होगा वह कुल जिसमें लक्ष्मी बन वह विराजेंगी।
बुआ का ब्याह आश्चर्यजनक रूप से एक खाते पीते सम्पन्न परिवार में बिना दहेज की माँग के तय हुआ। दुल्हा भी इतना रूपवान था कि लोगों ने बुआ के भाग्य को खूब सराहा। पर इन सबके भीतर का छिपा हुआ भेद कुछ और ही था और उस भेद का रहस्यभेदन बुआ के सुहाग की रात तब हुआ जब उन्हें पता चला कि उनका सुन्दर दिखने वाला वर पूरी तरह से मानसिक स्तर पर विक्षिप्त है। बुआ अपने सुहाग की पहली रात ही समझ गई किं उनके जीवन में पति के होने का कोई मतलब ही नहीं। वो तो दरसल इस घर में सास ननद और दो जेठानी की खिदमत के लिए बतौर नौकरानी इस घर में ब्याह कर लाई गई थीं।
और बिना दहेज के विवाह का मामला घर के ही एक झगडे में सास से प्रतिवाद के दौरान सास ने उजागर करते हुई बताया गया कि दहेज लेने की जगह उल्टे बुआ के पिता को इस शादी के लिए कुछ पैसे दिए गये थे। और बुआ के निर्धन पिता ने वो पैसे इस मजबूरी मे लिए थे कि उसी पैसे से अगली बेटी की शादी भी निपट जायेगी।
बुआ के हाथ और पाँव की मेंहदी तो शादी की रात ही उतर गई और अगले ही दिन से उन्हें घर की रसोई और बाकी का काम सौप दिया गया। बाकी बुआ की पीडा मसलन की हर रोज मार खाना आदि आदि तमाम सास ननद और दोनों जेठानियों द्वारा प्रदत्त तकलीफें लोगों से सुनने को मिलती थीं लेकिन बुआ की तकलीफों को असल में दृश्य रूप में मैंने तब देखी जब गर्मियों की एक सुबह पडोस में रोना धोना और कोलाहल सुनाई दिया। सब भागे भागे गये। पता चला कि आराधना बुआ अपने ससुराल से भाग कर आई हैं।
उस वक्त मैंने देखा था कि बुआ के सौंदर्य का लोप हो चुका था और देह पर कई कई जगह जलने और कटने के काले और नीले निशान थे। बुआ की देह के निशान को देखने के बाद उन पर जिस दुख का बज्रपात हुआ था उसको किसी प्रमाण की आवश्यकता नहीं थी। बुआ अपनी माँ और पिता जी से बस यही गुहार लगा रहीं थी कि “बाबु जी मैं वहाँ अब नहीं जाउँगी क्योंकि वो सब मुझे मार डालेंगे। मुझे अपने ही पास रहने दो, मैं तुम्हारे घर का सारा काम नौकरानी की तरह करूँगी। कहोगे तो मजूरी कर के तुम्हें पैसे भी दे दूूंगी लेकिन बाबू जी तुमको मेरी कसम है कि मुझे दोबारा वहाँ मत भेजना।" माँ बाप ने अपनी बेटी को धीरज बँधाया और आश्वस्त किया कि उन्हें वापस नहीं भेजा जायेगा। उसके बाद बुआ अपनी माँ की गोद में नन्हीं बच्ची की तरह सिमट कर देर तक सुबकती रहीं थीं।
बुआ ने दृढ संकल्प के साथ अपने लिए अपने ससुराल का रास्ता हमेशा के लिए बन्द कर लिया था। धीरे-धीरे उनका जीवन पुनर्जीवित होने लगा था। उन्होने अपने अतीत के दुखों की गठरी को यह सोच किसी गँगा में प्रवाहित कर दिया था कि अब तो वापस ससुराल नहीं जाना। लेकिन कुछ ही दिनों में उन्हें माँ-बाप के चहरे पर चिंता की वह लकीर खिचती दिखने लगी जिसका मतलब यही था कि अगर बुआ अपने मायके में रहीं और ससुराल नहीं लौटी तो अन्य बेटियों के विवाह में यह बात व्यवधान डालेगी।
अंततः बुआ को एक दिन पता चला कि उसके मायके वालों को उन्हें लेने के लिए बुलाया गया है। बुआ फिर से अपने बाबू जी का पाँव पकड कर गिडगिडाने लगी थी। लेकिन पिता के न्यायालय में उनकी कोई भी सुनवाई न थी। और अंततः फैसला यही हुआ कि लोग आयेंगे और उन लोगों के साथ बुआ को ससुराल जाना होगा। लेकिन बुआ यह जानती थीं कि वापस होने पर सास, ननद और दोनों जेठानियों की मार्फत उनकी देह पर क्या बीतने वाली है।
उस रोज से ससुराल के लोगों के आने के रोज के एक रात पहले तक बुआ कितने संकल्पों विकल्पों से गुजरी होंगी यह तो उनका मन ही जानता होगा। बुआ ने अपने ससुराल वालों के आने से एक दिन पहले की रात बहुत कुछ सोचा होगा, उन्होने कई रास्ते निकालने चाहे होंगे लेकिन सारे रास्ते बन्द दिखे होंगे, तब जा कर चुपके से रसोई घर में रखे मिट्टी के तेल का कनस्तर अपने उपर उडेला होगा और माचिस की तिली से खुद को आग के हवाले किया होगा।
लेकिन बुआ के जीवन के दुखों का अभी अंत न था। उन्हें आधे जले और आधे बचे हुए की हालत में घर और पडोस के लोगों द्वारा बचा लिया गया। उसके बाद करीब एक महीने तक का जीवन खाट पर लेटे-लेटे आहों और कराहों में बीता। और फिर एक दिन सुबह उनकी देह में हरकत नहीं दिखी तब पता चला कि बुआ अब नही रहीं।
बुआ अब मुक्त हैं। जीवन से मुक्त हैं, मरण से मुक्त हैं और जीवन मरण के बीच की मरणदायी जीवन से भी मुक्त हैं। वह अतीत के किसी कालखण्ड में ही कहीं काल कवलित हो गई हैं। अब न कहीं बुआ का ही जिक्र है और न ही उनकी उस पीडा का ही, जिसने उनके जीवन के हर क्षण को मृत्यु की वेदना का ही क्षण बनाये रखा था।
मेरे बालमन की कोरी होथेली पर जिस स्त्री के रूप और स्नेह की अमिट छाप आज तक अँकित है वह स्त्री आराधान बुआ ही हैं। जो इस लोक से विदा हो कर भी मेरी स्मृति के लोक से आज तक विदा नहीं हो पाई हैं। आज भी किसी स्त्री को सँकट में फसा हुआ देखता हूँ तो मन में उस गीत की वह कडी डुगडुगी बजाने लगती है जिसमें बेटी माँ की गोद और झाडी में छिपने की बात कहती है।
जो रे बहेली लोग, आइ हो जइहें।
झाडी-झँखाडिया लुकाइब, बहेली लोग फिर जइहें॥
जो रे सजन लोग, आइ हो जइहें।
माई के कोरवा लुकाइब, सजन लोग फिरि जइहें॥
(अगर बहेलिये आ ही जाएँगे।
मैं घनी झाडियों में छिप जाऊँगी बहेलिये लौट् जायेंगे॥
अगर सजन लोग आ ही जाएँगे।
मैं माँ की गोद में छिप जाउँगी, सजन लोग लौट जाएँगे॥)
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेंद्र जी की हैं.)
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लोकार्पण की अपूर्व मार्मिकता से भरा निबंध । बधाई और शुभकामनाएँ ।
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