अनिता गोपेश के उपन्यास ‘कुंजगली नहिं सांकरी’ का एक अंश

 

अनिता गोपेश

 

स्त्री पुरूष समानता का आदर्श अब तक एक सपने सरीखा ही रहा है। पितृ सत्ता हमारे समाज के जड़ में कुछ इस तरह फैली हुई है कि इस अवधारणा के समर्थक भी अक्सर घर के अन्दर अपने पुरुष रूप में पाए जाते हैं। स्त्री जो प्रायः हर बात के लिए दोषी ठहरा दी जाती है, करे भी तो क्या। वह अपने जीवन में लगातार धोखा खाने, अपमान सहने के लिए, जैसे अभिशप्त होती है। यही नहीं, अगर स्त्री अपने इच्छानुसार अपना जीवन जीने का कदम उठाती है, तो यह भी दुनिया को सहन नहीं हो पाता। कुछ ऐसे ही परिवेश को समेटते अनिता गोपेश का उपन्यास 'कुंजगली नहिं साँकरी' हाल ही में लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद से आया है। अनिता गोपेश का यह उपन्यास उस बनारस पर केन्द्रित है  जो अपने अलबेलेपन के लिए ख्यात है। कुंजगली केवल वृंदावन में ही नहीं होती, बल्कि यह बनारस में भी हो सकती है। अनिता इसी मौलिक सोच और भावभूमि पर आगे बढ़ते हुए एक ऐसी आदर्श स्थिति की परिकल्पना करती हैं, जो हाल फिलहाल यूटोपिया जैसा ही लगता है। आज पहली बार पर प्रस्तुत है अनिता गोपेश के उपन्यास 'कुंजगली नहिं साँकरी' का एक अंश।

 

 

कुंजगली नहीं सांकरी

 

अनिता गोपेश

 

 

            

ये वृन्दावन की नहीं, बनारस की कुंज गली है। चिता की कभी न बुझने वाली आग वाले मणिकर्णिका घाट के पास, ठीक कचौड़ी गली से लगी, जहाँ कभी हर दिन साड़ी के व्यवसाय में लाखों के वारे-न्यारे हो जाते थे। आज सूरत की सस्ती टिकाऊ साड़ियों के चलते भले ही उस की वक्त थोड़ी कम हो गई है, पुराने समय में पुरानी ज़मीदाराना कोठियों की तरह इसकी रौनक देखते ही बनती थी। “साँप सीढ़ी खेल के साँपों जैसी पतली, एक दूसरे से जुड़ती-कटती गलियों, उनके ऊपर छज्जों, छतों, बारादरियों तक जाती खड़ी-खड़ी सीढ़ियों वाला ये बाज़ार “साँप सीढ़ी के खेल जैसा ही लगता है। यहाँ दूसरे बाज़ारों की तरह सुबह-सुबह चहल-पहल नहीं होती। दिन चढ़ने के बाद, धीरे धीरे आढ़तियों की छोटी-छोटी, गहरी लम्बोतरी, अन्दर को जाती दुकानें खुल जाती हैं। जमीन पर बिछे गद्दे, उन पर रखे बुर्राक सफेद तोशक-तकिये और चाँदनी वाली इन दुकानों पर शादी की खरीदारी करने वाले लोग आते तो उन्हें गद्दे में धँस कर, मसनद से टेक लगा कर ही बैठना होता। दुकान पर कोई माल नहीं होता। गणेश-लक्ष्मी की तस्वीर या चाँदी की मूर्ति ज़रुर होती जिस पर फूल माला चढ़ा कर और सिर नवा कर दिन की शुरुआत होती। ग्राहक और बेचने वालों के बीच बिचौलिया का काम करते ये आढ़तिये, दोनों तरफ से कमीशन लेते हैं। कमीशन की कमाई ही इनका व्यवसाय है। कमीशन की कमाई को कभी दलाली की कमाई कह कर हिकारत की नज़र से देखा जाता था। पर अब नहीं। अब तो हर कहीं दलाली का बोलबाला है। वे दुकान खोल कर कर इंतजार करते हैं कारीगरों का। साड़ी की ऐन तह के बराबर दफ्ती के डिब्बे पर डिब्बे साधे, पतली गलियों से गुजरते इन कारीगारों की अपनी सांकेतिक भाषा है और कन्धे रगड़ते एक दूसरे के सामने से गुज़रते ये अपनी भाषा में एक दूसरे बताते चलते हैं कि किस आढ़त पर किस तरह की साड़ी की माँग है। साड़ी के सबसे बड़े आढ़तिया पं सूरजभान मरोलिया साड़ियों के व्यवसाय में ही बड़े आदमी हो गए। उनकी आढ़त कभी महल सी रही इमारत की छत पर लाइन से लगे कमरों में से दो कमरों में थी। उनका काम बहुत फैला हुआ था। साख बड़ी पक्की थी। वे जो साड़ी दिलवा दें उसकी जरी सालों बाद भी काली नहीं पड़ती और “जलाने पर सचमुच उसमें से सोना या चाँदी निकला”, उनके ग्राहक ऐसा बताते। उनके ग्राहक भी बरसों पुराने पुश्तैनी, घरैतिने, आतीं तो उनसे परदा करके ही बैठती। उनकी शादी में भी तो साड़ियाँ इसी आढ़त की चढ़ी थी। काम बहुत फैल गया है उनका और देखने वाले कम हैं। उनके दो बेटियाँ ही हैं। एक बेटी कलकत्ता में है। अपने घर परिवार संग। दूसरी यहाँ मरोलिया के साथ। काम में मदद करने को एक दामाद भर हैं। तीसरी पीढ़ी में भी कोई देखने वाला नहीं। बेटी की भी दो बेटियाँ ही हैं। कभी-कभी उनके मन में आता है भगवान से पूछें “ऐसा क्यों भगवान? सब कुछ दे कर देखने वाला क्यों नहीं दिया। पर एक ठन्डी साँस ले कर रह जाते है। भाग्य में जितना बदा होता है उतना ही मिलता है।

           

दूसरी बेटी के जन्म के कुछ महीने बाद ही बीबी कैंसर से चल बसी। कैंसर का तब कोई इलाज नहीं था। परिवार बढ़ने का सवाल ही नहीं रहा। उनकी आढ़त पहली दुछत्ती पर है। उसके ऊपर एक और छत है। खड़ी-खड़ी सीढ़ियाँ मालूम होता है कि स्वर्ग को ही जा रही है- ऊपर चढ़ने को दाहिनी ओर एक मोटी लोहे की जंजीर है साथ ही एक मोटी रस्सी भी उससे लिपटती हुई। इतना ना हो तो एक बार में ही टूट जाए रस्सी और जंजीर दोनों ही, क्योंकि जो भी चढ़ता उसे हाथ से थाम पीछे को झुका ही जाता ऐसे कि पूरे शरीर का बल रस्सी और दीवार पर, जिसमें कुन्दे लगे थे जिनमें रस्सी बँधी थी। उसे पकड़े बिना चढ़ना तो क्या उतरना भी मुश्किल था। पर एक शख्स है जो बिना उसे पकड़े सरसरा कर ऊपर पहुँच जाता है। साड़ियों के डिब्बे उसके बायें कन्धे पर दीवार की तरह जमे होते-एक के ऊपर एक। बसन्त को बिल्कुल आलस नहीं लगता जबकि सुबह एक दो घर की पूजा निपटा कर ही बाज़ार में आ पाता है। नवरात्रि के दिनों में उसकी माँग और बढ़ जाती। मशीन की तरह दुर्गा-सप्तसती या सुन्दरकाण्ड का पाठ निपटाता- एक घर खतम तो दूसरे घर-दूसरे से तीसरा-तीसरे से चौथा। तीर की तरह काम निपटाता चलता। दस दिन बाद एक साथ पैसा मिल जाता, उतने घरों का। बड़ी बहन की फीस भरनी होती तो कभी मकान का किराया देना होता। पिता जी की दवाइयों का खर्चा अलग से।

           

पता चला जामदानी चन्देरी की दरकार है सुरजू लाला के यहाँ। बसन्त के पास दर्जन भर थी। पहुँच कर लाइन में लग गया। उससे पहले जो दिखा रहा है दिखा ले तभी वह आगे बढ़ेगा, पेशे का अपना उसूल। अपनी पारी आने पर दिखाई उसने साड़ियाँ। हमेशा की तरह दाम पर बहसा-बहसी। सूरजभान लाला बोले “छोड़ जा छोरे थोड़ी देर को। अभी फैसला करवा लेते हैं। मँहगी साड़ी हो तो ग्राहक को थोड़ा समय तो देना ही होता है।

           

नहीं लाला जी-अभी का अभी तय कर लो-लेनदार बहुतेरे बैठे हैं कुंजगली में। मेरे पास इतना समय ना है। बसन्त ने चहक कर जवाब दिया। “ओहो रे छोरे, हवाई जहाज पे चढ़ कर आया है क्या। सूरजभान जी बोले।

           

मुझे शाम को और भी बहुतेरे काम करने होते हैं। सरस्वती टाकीज वाले अग्रवालों के यहाँ सप्ताह फाँदा है। अबेर हो जाएगी।

           

पंडित का छोरा है? यहाँ कहाँ आ पड़ा जुलाहों के काम में?” सूरजभान को मजा आने लगा इस चटख बालक के संग।

           

काम तो लाला जी बुरा कहा जावे। लोग कहवें कि दलाली की कमाई फलती ना है। पर मेरी माँ बोलती कि काम कोई बुरा ना होवे-जुलाहे का हो चाहे पंडित का-बस खरा ईमानदारी का होना चाहिए। बस चोरी-चकारी बुरी होवे। मैं तो जी सिनेमा में इन्टरवल में समोसे बिस्कुट भी बेच लेऊँ।

           

किसका बेटा है? पंडितों की तो पूरी बिरादरी मैं जानूँ। इस बार साथ लगे दामाद विसनाथ बाबू ने धीरे से झुक के बताया, बिरजू मामा जी का छोरा है। आपने पहचाना नहीं। सुरजू लाला को तीर सा लगा-ये उनके ममेरे भाई बृजभान और कल्याणी का बेटा है! इतना बड़ा हो गया-कितने साल का होगा, तेरह चौदह ......इतने साल बीत गये। कितना ऊँच-नीच देखा उन्होंने इन चौदह  सालों में, कितना बिरजू के परिवार ने। किस पर गई है शक्ल छोरे की! बिरजू पर? ना ये तो अपनी माँ पर गया है!! हाँ, नैन नक्ष तीखे तीखे वैसे ही तो हैं। वैसे ही जैसे उनको पहली झलक में दिखे थे जब उन्होंने कल्याणी को देखा था।

           

जी हाँ, पाठकों ऐन यहीं से कहानी शुरु  होती है। नहीं, शुरु नहीं होती शुरु तो हुई थी कोई 14-15 साल पहले। ये तो जैसे उस कहानी के बहाव के बीच में आ गई एक मणि है, ठीक वैसी ही जैसी सिन्धिया घाट पर है गंगा में तैरते हुए लोग जब थक जाते हैं तो थोड़ी देर सुस्ता लेते हैं, उस पर बैठ कर और बैठे बैठे निगाह डालते हैं गंगा के विहगंम विस्तार की ओर। कुछ देर अपनी ताकत थाह लेने के बाद फिर कूद जाते हैं वापस किनारे जाने को या फिर और गहरे में तैरने को।

           

सुरजू लाला भी पीछे की ओर मुड़ने लगे थे समय की पिछली धारा में। जा कर ठहरे वहीं जहाँ से ये कहानी शुरु हुई थी, जिसे ठन्डे बस्ते में डाल रखा था इतने बरस।

 

 

मणिः सिन्धिया घाट की 

           

सूरजभान, पंडित गोपाल महारज के बैठका में कल्याणी के सामने खड़े थे-कल्याणी दरवाजे़ की डेहरी पर खड़ी आँख चुरा-चुरा कर उसे देख रही थी, नहीं भी देख रही थी। पंडित जी का गुरु गम्भीर स्वर आज भी सूरजभान के कानों में गूँज गया “कल्याणी बिटिया। लो ठीक से देख लो। अब ना कहना कि बिना दिखाए ब्याह कर देते हैं। उन्होंने पहले ही कह दिया था कि अपनी बेटी को दिखाए बिना वे उसका विवाह नहीं करेंगे, दुनिया वाले चाहे जितनी भी पंचायत करें। यही तो परेशानी आ खड़ी हुई थी शातिर दिमाग सूरजभान की योजना में। अपने ममेरे भाई की शादी करा कर उनकी जिम्मेदारी से मुक्ति पाना चाहते थे। कहने को वे इस घर के पाहुन थे। मामा के घर पले बढ़े। माँ एक बेटे के बाद ही गुजर गई तो नाना उन्हें अपने घर ले आए थे। मामा के एक ही बेटा था। उन्हें लगा था एक और सही। बेटा ही तो है-पड़ा रहेगा कहीं किसी कोने में। पर कोने में पड़े रहने वाली बुद्धि नहीं पाई थी सूरजभान ने। हर चीज में चटक, अपने ममेरे भाई से उलट। देखने में सुदर्शन, गोरा-चिट्टा, घने घुँघराने बाल, काली चमकीली आँखें। बड़े भाई की सुस्ती उसकी चटक्वाही के आगे और बढ़ती गई। बनारस में नशेड़ी-भंगेड़ी तरह-तरह के। घाटों पर घूमो चाहे पतंग उड़ाओ साथ-साथ ये सुख मुफ्त में। सूरजभान जहाँ सिन्धिया घाट से गंगा पार करने का अभ्यास करता बृजभान इन सारे बवालों में लगे रहते। पढ़ाई में मन नहीं लगता देख पिता ने दुकान पर बैठने को कह दिया। सूरज पढ़ता भी और काम भी सीखता गया। मामा अपने बेटे की चिन्ता में घुलते जाते। तिस पर न जाने कहाँ से बेटे ने तपेदिक का रोग पकड़ लिया। उम्र बढ़ती जा रही थी। काम धाम करना नहीं। साड़ी के पुश्तैनी  धंधे के बहाने कोई लड़की मिल जाए तो घर बस जाए वरना बीमारी की खबर फैल गई तो कोई अपनी लड़की भी नहीं देगा। तपेदिक तब असाध्य रोग हुआ करता था। गो कि शुरुआती दौर में थी बीमारी पर खाँसी और दम फूलना शुरु हो गया था। मामा के सपने को पूरा करने का बीड़ा उठाया तेज़ दिमाग सूरज ने। दुकान भी सँभाला और बृजभान की जिम्मेदारी भी। काशी-दर्शन को अलवर से आए पंडित गोबरधन ने अलवर के पंडित गोपाल महाराज की बेटी का रिश्ता सुझाया तो सूरज तुरन्त दौड़ लिए। पत्री-पंचाग सब मिल गए पर समस्या तब आई जब पंडित गोपाल महाराज ने कहा कि मैं अपनी बेटी को लड़का दिखा कर ही शादी पक्की करुँगा। बृज की सेहत उनकी बीमारी की चुगली खाती थी। सवाल ये कि ऐसे में कोई कमसिन लड़की उन्हें कैसे पसन्द करेगी।

           

खुड़पेची दिमाग ने सूरजभान को रास्ता सुझाया। बिना किसी को बताए अलवर पहुँच गए बृजभान बन कर। खतरे उठाने में बचपन से माहिर थे सूरजभान। छोटे थे तो हाथ से छिपकली को दुम से पकड़ नचा लेते थे बन्दर से बन्दर का बच्चा छीन पाल लेते थे। साँप को दुम से पकड़ लेते और बच्चों को डरा कर धौंस जमा लेते थे। सोच लिया उन्होंने कोशिश कर के देखते हैं। लह गई तो लह गई। नहीं लही तो वापस काशी।

           

अलवर में ब्राह्मणों की भारी संख्या हुआ करती थी। जितने जैनी, अग्रवाले उतने ही उनके मान पंडित। पीढ़ियों से जजमानी चलती थी गोपाल पंडित की यहाँ। पढ़ाई की पर गाँधी जी के प्रभाव में बीच में छोड़ दी थी। पढ़े-लिखे विद्वान पंडित कम ही थे। इसीलिए गोपाल पंडित की बड़ी इज्जत थी। शादी जिससे हुई वह भी उस जमाने के मिषनरी स्कूल में आठवीं कक्षा तक पढ़ी थी। सो जब बेटियाँ हुई तो दुःखी होने के चलन को दोनों ने ललकार दिया।

           

भगवान दो ही जान देते हैं- बेटा या बेटी। दोनों जब भगवान की देन तो उसमें फर्क क्या करना। और न होगी लड़कियाँ तो बेटा जनेगा कौन। पंडित गोपाल महाराज बेटियों को देख कर कहते।

           

अपनी पहली बेटी का नाम रखा कल्याणी। दूसरी का वैभवी पर पुकारते विभा। उसके बाद हुआ बेटा उसका नाम रखा कार्तिकेय। कल्याणी को लड़के जैसे कपड़े पहनाते। शहर में मिशनरीज के कई एक स्कूल खुल गए थे जहाँ इक्का-दुक्का लड़कियाँ पढ़ने जाने लगी थीं। कल्याणी वैभवी का नाम भी वहीं लिखा दिया था पंडित गोपाल जी ने। लड़कियों को स्कूल भेजने वाले अभिभावकों की खूब भर्त्सना होती। गोपाल पंडित की भी हुई। पर उन्होंने परवाह नहीं की। गाहे-ब-गाहे काम करते कल्याणी गाने लगती “इसूमसी मेरे प्राण बचैया। पार करो मेरी जीवन नइया तो सुन कर पंडित हँस देते “लो पंडिताइन सुन लो। ठाकुर जी तो अपने थे ही तुम्हारी बिटिया ने इसू मसीह को भी अपना बना लिया।  

           

ऐसे में जब कल्याणी की शादी की बात चली तो एक दिन छोटी वैभवी ने खाने के समय पिता को बताया “बाबा हम एक बात बताएँ?  दीदी गुस्सा हो रही थी। कह रही थी। कल्याणी ने उसे आँखों से बरजा। पर पंडित गोपाल जी ने पूछ ही लिया “हाँ-हाँ, बता तो सही, क्या कह रही थी तुम्हारी दीदी।

           

 

दीदी कहती है भेड़-बकरी की तरह अनजान आदमी के साथ बाँध देते हैं। ये भी कोई तरीका हुआ रिश्ते का।

           

अच्छा भई छोटी। बता दे अपनी दीदी को उसे दिखाए बिना और उसके हामी भरे बिना हम उसकी शादी नहीं करेंगे। अब तो ठीक?” कल्याणी की आँख चमक गई। उस समय के लिए इतना भी कुछ कम क्रान्तिकारी नहीं था।

           

चूल्हे पर चढ़े तवे पर रोटी डालती अम्मा की आँखें खुशी से चमक गई। अपनी सयानी हो गई बिटिया की तरफ देख कर प्रगल्भ से भर गई- “नाजों पाली हमारी बिटिया। कुछ दिन की मेहमान इस घर में। अब चली जाएगी अपने घर।” और प्रार्थना की भगवान से “कभी उस पर दुख की छाया न पड़े भगवान।

 

 

बनते बनते बन गया बानक

           

दरअसल बृज की जगह अपने आप को दिखाएगें- ऐसा सोच कर नहीं चले थे सूरजभान। पर दुविधा जरुर थी कि बात को बनाए कैसे! और बानक अपने आप बनता चला गया। “सुबह की गाड़ी से पाहुन आएगें ऐसी खबर थी, जब से यह खबर मिली थी बिन्दु, रामरती, अनुसूया सभी सहेलियाँ बहुत उत्साहित थी। सुबह सबेरे कल्याणी को ले कर गेहूँ बिनने के बहाने ऊपर छत की दुछत्ती में जमा हुई सब। सामने झिर्रीदार मुंडेर से प्रवेश द्वार सीधे दिखाई पड़ता था। तय हुआ कि पाहुन जैसे ही गेट खड़काएंगे, हम सब यहीं से देख लेंगे।

           

और ऐसा ही हुआ भी। लोहे के गेट के सामने रिक्षे से उतरे सूरजभान, तजवीज रहे थे किधर कहाँ क्या आवाज लगाएँ कि सामने ऊपर छत की मुंडेर से “खिल-खिल-खिल-खिल करती कई लड़कियाँ उठ खड़ी हुई। सूरज को समझते देर न लगी कि उसमें से सुन्दर वाली लड़की ही कल्याणी होगी। कल्याणी ने वहीं से भरपूर देखा सूरजभान को और समझा कि मना करने का कोई कारण नहीं। सूरज को ही विवाह का पात्र समझ लिया सबने। वैसे ही आवभगत होने लगी तो सूरज ने सच बोलना जरुरी नहीं समझा। सोचा बात एक कदम तो आगे बढ़ी। अब आगे की आगे सँभालेगा वह।

           

बात तय हो गई और सारे मोहल्ले में बात उड़ चली कि कल्याणी का वर बहुत सुन्दर है। सूरजभान ने भी तैयारियाँ शुरु कर दी- इतनी सुशील, सुन्दर और कमउम्र लड़की से शादी कराने के एवज में धन्धे का आधा हिस्सा लिखवा लिया सूरजभान ने अपने नाम। बृजभान इतने मगन कि किसी भी कागज पर दस्ताखत करने को तैयार, कुछ भी दे देने को तत्पर....। उन्हें पता ही नहीं चला कि किस-किस चीज पर दस्तखत करा लिया था सूरजभान ने। वैसे भी साड़ी का सारा धंधा सूरजभान ही सँभाल रहे थे। हिस्सा बाँट कर लिया था शादी के पहले और बृज के बूते का ये काम था भी नहीं। अलग होते ही घाटा होना शुरु हो गया था। पर शादी के उत्साह में कुछ भी सोचने की फुरसत नहीं थी बृजभान को। घर के बाहर चबूतरे पर बैठकर गप मारना, बड़ी-बड़ी ढींगे हाँकना उनका पुराना शगल था। तैयारी कुछ खास होनी नहीं थी-दस बीस जनों को ले कर अलवर पहुँच जाना था। शादी में जो पैसा लगाना था वह सूरज ने पहले ही तिलक में ले लिया था। एक जोड़ी शेरवानी चूड़ीदार बनवा दिया था। पर जनवासे में पहुंचने तक उसने बृज को छिपा कर ही रखा-खुद अच्छे कपड़े पहने डोलते रहे। गोपाल पंडित के दरवाजे पर सुबह से ही नौबत बज रही थी। शाम  को बारात की अगवानी के बाद बाहर वाले आँगन में पतुरिया का नाच भी रखा गया था। गुलाब केवड़े के छिड़काव और बेले-चमेली की माला से बरातियों का स्वागत किया गया। दूल्हे का स्वागत कर महफिल में बैठाया गया। सूरजभान पेट खराब होने का बहाना कर जनवासे में ही रुक गये थे।

           

जयमाल की रस्म तब होती नहीं थी। द्वार पूजा के बाद पंगत बैठा दी गई खाने की। सब कुछ निपटते-निपटाते रात के एक डेढ़ बजने को आ गए। लोग खा पी कर अपने घर जाते रहे। पाणिग्रहण के लिए थोड़े से करीबी लोग ही रह गए थे। मंडप में पाणिग्रहण की रस्म होने के बाद कन्या की बुलाहट हुई-सप्तपदी के लिए। कन्यादान, लावा, परछन, सिंदूरदान सब हो गया। अब दूल्हा-दुल्हन को कोहबर में लाया गया। कोहबर की रस्म के लिए दुल्हन की सहेलियों ने आग्रह किया “जीजा जी, क्या दुल्हन की तरह मुँह छिपाए बैठे हैं। अब तो सेहरा हटा दीजिए ना। छन्द नहीं सुनाएंगे? सुनाना ही पड़ेगा बृज ने सहारे के लिए इधर उधर देखा, पर सूरजभान आसपास नहीं थे। लड़कियों के पीछे पड़ने पर उन्हें सेहरा उठाना ही पड़ा। सेहरे का उठना था कि पानी की परात में कँगना खिलाती पंडितानी की भाभी चौंक पड़ी- “ये क्या जीजी? मैंने तो सुना था कल्याणी का वर बहुत सुन्दर है। पंडितानी ने देखा तो पछाड़ मार कर बेहोश हो गई।

           

अचानक कोहबर से ले कर बाहर वाले हाते तक सन्नाटा खिंच गया। कोहबर में कल्याणी की शालू की गाँठ दूल्हे के दुपट्टे से खोल कर उसे अन्दर कमरे में भेज दिया गया। पंडित गोपाल जी अन्दर बुलाए गए। पंडितानी ने रो-रो कर बताया “धोखा हुआ है हमारे साथ। ये वह लड़का नहीं जिसे हमें दिखाया गया था हमारी फूल सी लड़की के लिए ये बिमरहा-दुहाजू लड़का नहीं चलेगा। वापस कर दो बारात। मैं नहीं मानती इस शादी को। कहाँ गया वो हरामी सूरजभान जिसने इतना बड़ा स्वांग किया हमारी बेटी के संग।पंडितानी शर्म परदा सब भूल गई-रोती कलपती रही।

           

पंडित जी ने गंभीरता से नौशे से कहा “फिलहाल तो आप प्रस्थान करो जनवासे और सूरजभान को भेजो। हमें सोचना पड़ेगा- हमें क्या करना है। बृजभान हक्के-बक्के से पगड़ी उतार हाथ में ले जनवासे की तरफ चले गए। 

           

सुबह तक शादी  का आँगन मातम में बदल गया। पंडितानी किसी भी तरह इस शादी को मानने को तैयार नहीं थी। बिरादरी के बड़े-बुजुर्गों को बुलाया गया-सबसे बात कर के पंडित गोपाल जी भीतर कमरे में आए। रो-रो कर आँख का काजल और नांरगी सिन्दूर चेहरे पर फैलाए कल्याणी आधी अधूरी दुल्हन सी सामने बैठी थी- पंडित जी का कलेजा मुँह को आ गया जी में आया, उसका सिन्दूर गीले कपड़े से पुँछवा कर बारात वापस भेज दें। पर ये हो नहीं सकता। आँसू भर भर रोये फिर सँभले “कितने जतन से पाला। कितने सँभल-सँभल कर वर खोजा अपनी इस बेटी के लिए। पर इसके भाग में तो कुछ और ही लिखा है- भाग्य के आगे तो हर कोई हारा है- अब जो लिखा है उसके भाग में वह तो झेलना ही होगा। समझाना मुश्किल था पंडितानी को पर समझाया “शादी  के फेरे तो उलटे नहीं जा सकते थे। माँग में पड़ा सिन्दूर भी पोंछा नहीं जा सकता।   

           

रोते-कलपते निरीह पिता ने कल्याणी के आगे हाथ जोड़ दिए तो कल्याणी जैसे उसी पल बड़ी हो गई। जीवन के धागों ने उसे कैसा उलझाया हैं ये समझ ही न सकी कल्याणी। जिस इंसान के साथ जीवन के अंतरंगतम पलों की कल्पना में ऊब-डूब रही थी पिछले कई महीनों से, आज इस समय उसके प्रति सिर्फ नफरत से भरी हुई थी। सामने पड़ता तो न जाने क्या करती उसके साथ और ऐसे कल्याणी अपनी उम्र से बीस बरस बड़े, निठल्ले बृजभान के साथ रोती-कलपती बनारस अपने घर पहुँच गई। एक टूटे फूटे पुराने से घर में सूरजभान की पत्नी ने ही सारी रस्में निपटवाई थीं। कमरे में आई तो मनोरमा ने इशारा किया- “भाभी जी आपके देवर आपको पा लागी कह रहे हैं। घृणा से कल्याणी ने मुँह दूसरी तरफ फेर लिया। जिस चेहरे के सपने देखते उसने पिछले कई महीने बिताए थे उस चेहरे की तरफ देखने का उसका मन नहीं हुआ- डरे सहमें अपने पति पर बल्कि उसे ममता हो आई। पन्द्रह और पैंतीस का फासला बराबर कर वह उससे पाँचेक साल आगे निकल गई। जिस घर में आई थी वहाँ कोई और नहीं था जो उसे कुछ बताता। 

 

 


 

 

शादी के बाद की पहली रात :  

 

खिन्न-मन ज़मीन पर बिछे बिस्तर पर कोने मे सहमी सिकुड़ी सी बैठी ऊँघ सी रही थी वह। अचानक से बृजभान आए थे और एक झोंके में जीवन के इस अनुभव से पहला परिचय हुआ। निवृत हो बगल में बिछी खाट में निश्चिन्त सो गए थे वह, उससे ये कह कर “सो जाओ- कल से घर गृहस्थी तुम्हें ही सँभालनी है। मैं आठ बजे चला जाऊँगा दुकान। वह जमीन के उस बिस्तर पर वैसे ही सोने की कोशिश करती रही सोचते हुए-अपनी सहेलियों से कभी इस अनुभव की बात ही नहीं हुई। दरअसल ज्यादातर की शादी नहीं हुई थी, जिनकी हुई थी उनका गौना नहीं हुआ था। कल्याणी ने मान लिया था ऐसा ही होता होगा सभी के साथ। अगले ही दिन उसने कमर कस ली अपना घर और पति सहेजने संभालने को। समझ लिया था उसने अकेले ही संभालना है सब उसे। उफ़ भी नहीं करना है। क्योंकि उसकी उफ़ की ताब उसके माँ-बाप के पास पहुँची तो उनका दुख दूना हो जाएगा। माँ तो उस सदमे से उबर ही नहीं सकेगी। अब यही संसार है उसका।

           

बृजभान जीवन में एक स्त्री के आने से अति प्रसन्न थे। नयी दुल्हन के चाव में कुछ दिन तो ठीकठाक चले पर फिर अकर्मण्यता के अपने पुराने ढर्रे पर वापस आ गए। धन्धा किसी खचाड़ा गाड़ी की तरह चल रहा था। उसमें उनका दीदा रत्ती भर न लगता, हाँ शरीर का सुख उन्हें नषे की तरह लगता था। उसमें किसी भी तरह कमी न होने देते। मर्दानगी बखानने को एक नया मुद्दा मिल गया था उन्हें। होते-होते चार साल में कल्याणी के एक गर्भपात और दो प्रसव हो गए। बेटी हुई तो तुरन्त धन्धे में हाथ बँटाने वाले बेटे की रट लग गई। रत्ना के बाद एक गर्भ खराब हुआ फिर पेट से रह गई कल्याणी। इस बार बसन्त हुआ तब जा कर यह सिलसिला रुका। रसहीन जिन्दगी के तलहट पर कल्याणी रत्ना और बसन्त में जीवन का राग ढूढ़ने लगी। बृजभान की बीमारी जिसकी खबर भी कल्याणी को नहीं दी गई थी, अब अपना असर दिखाने लगी थी। एक बार और सूरजभान पर लानत मलामत भेज कर कल्याणी ने फिर कमर कस ली अपने प्रारब्ध से दो-दो हाथ करने को।

 

कहानी का दूसरा छोर

           

बनारस की सँकरी गलियों में खोमचें पर लगी छोटी-छोटी, गोल गोल  आलू से भरी, खस्ते की टिकिया, चने की घुघरी, मूली के लच्छे और हरी चटनी के साथ बिकती है। गर्म-गर्म ऐसी कि मुँह में रखो तो मुँह जल जाए। कितने बरस-महीने बीते उसे खाने का ख्याल न बसन्त को आया, न घर पर ही किसी को। माँ और जिया तो दिन-रात तरह तरह के अचार-पापड़ बनाती रह जाती हैं। आज बसन्त को पैसा मिला तो उसका मन उमग आया। “आज तबियत से जिया और अम्मा को खस्ता कचौड़ियाँ खिलाऊँगा। अम्मा के हाथ में पैसा दे कर कहूँगा अम्मा जिया को इम्तहान देने के लिए फार्म जमा करवा दो-साल बेकार नहीं जाएगा।  घर चलाने के चलते जिया का कालेज जाना तो छूट ही गया। प्राइवेट परीक्षा देने चली तो फीस के पैसे कम पड़ गए। पढ़ने में कितना जी लगता है जिया का। पर बेचारी ने तसल्ली कर ली। प्राइवेट ही तो देना है अगले साल दे लेंगे। तब तक बाबू जी की तबियत भी सँभल जाए शायद। कुछ पैसे दवाई के भी कम होंगे फिर।

           

तीर की तरह दौड़ता सीधा घर की तरफ भागा बसन्त। जमीन पर बिछी पुरानी चद्दर और धोतियों पर पापड़ फैलाती अम्मा के सामने दोना रख दिया “लो अम्मा, आज गरम गरम कचौड़ी खाओ। हाथ धो कर आता हूँ। मेरे लिए भी लगाओे। हाथ धो कर आने तक अम्मा और जिया पहेली बूझने में लगी रही। “ये सब आया कहाँ से। याद आया बसन्त को। पैन्ट की जेब में रखे दस दस के दस नोट निकाल कर अम्मा के हाथ में धर दिया “अम्मा ये लो। जिया की फीस जमा करवाओ फटाफट उसकी उमंग दोनों औरतों की पकड़ में नहीं आ रही थी। अम्मा ने हाथ पकड़ बैठाया। “पतंग की तरह उड़े मत। ये सब कहाँ से आया छोरे।ये क्या अम्मा। मेहनत से कमा के लाया हूँ।

           

कौन सा काम करने लग पड़ा। और अभी तक सनक भी नहीं लगने दी। मेहनत तो जुआ खेलने में भी लगती है। जीवन में जितना दुख झेला है अम्मा ने, विश्वास करना ही भूल गई है।

           

अम्मा तुम तो इतना शक करती कि बस। सुन्दर काण्ड का पाठ और सत्यनारायण की कथा बाँचने वाला पंडित क्या चोरी-चकारी कर सके?” बसन्त ने बात टालने की कोशिश की। पर जिया कुछ कम दादी-अम्मा है! “तुम्हारे खानदान के एक पंडित ने ही बिलटाया है सारा राज पाट बाबू जी का। तुम्हें पता नहीं क्या?” इस प्रकरण की चर्चा अक्सर ही सुनता आया है बसन्त। अभी तक ध्यान देने लायक उम्र नहीं हुई उसकी। लड़कियाँ थोड़ा जल्दी समझने लगती है सब।

           

अम्मा अब तक हाथ धो आई थी। आँचल से पोछते-पोछते एक टहोका लगा ही तो दिया बसन्त के गाल पर ओ बसन्त। जरा सच सच बता कहाँ काम कर रहा है और क्या?”

           

सुरजू लाला ने मना किया था बताने को, सो टालने की कोशिश की। “विश्वास भी करो अम्मा तुम्हारा बेटा कोई गलत काम नहीं करेगा। तीन महीने की तनखाह एक साथ मिली है- लो रखो। और आज बाबू जी को कचौड़ी गली की लस्सी भी पिलवा देना।

           

मुझे तेरा भरोसा नहीं। छिछोरे खानदान का है तू। बाप हवाई किले तैयार करता जमीन पर आ गिरा। बाकी खानदान की तो पूछो ही मत।

           

अम्मा, मुँह में पानी आ रहा है-जल्दी से दो ना। कितने दिन हो गए विसनाथ गली की खस्ता कचौड़ी खाए।

           

अम्मा को विश्वास तो नहीं हुआ पर बेटे की तरसती जबान के आगे उन्होंने फिलहाल जासूसी स्थगित कर दी। पर कितने दिन......

           

तीसरे ही दिन जब फिर ऐसे ही खोंगा बँधवा कर लाया तब तक अम्मा को उनकी घुमन्तू पड़ोसन ने बता दिया था कि बसन्त सुरजू लाला की आढ़त पर काम कर रहा है। खोंगा ले कर बसन्त आँगन पार चौके में गया कि “खोंगा अम्मा को पकड़ा दे अम्मा के तो जैसे बिच्छू ने डंक मार दिया। दन्न से पैकेट दरवाजे पर फेंका और चिमटा ले कर खड़ी हो गई “नासपीटे, हरामजादे तुझे नाक रगड़ने को वही चौखट मिली थी। और कोई नहीं बचा था पूरे शहर में, जिसके यहाँ बेइज्जत होकर काम माँग लेता। निकल बाहर, निकल जा इस घर से।

           

अम्मा का रौद्र रुप देख बसन्त ने चौके से अपना पैर बाहर खींच लिया पर दरवाज़े का कोना पकड़े-पकड़े बोला- “अम्मा क्या हुआ! हुआ क्या? मैं नहीं गया था उनकी देहरी पर नाक रगड़ने। उन्ने ही बुला कर गद्दी पर बिठाया मुझे सो भी इतने इज्जत से।

           

हाँ, उसी गद्दी पर जो उसने हड़प ली थी तेरे बाप से। आज बड़ा एहसान किया उसने जो तुझे वहीं वापस बुला कर चाकर रख लिया।

           

बसन्त हक्का-बक्का। रुलाई और गुस्से के बीच हँफरती अपनी अम्मा को कहाँ से सहेजे समझ नहीं पा रहा था-निरीह बन कर भूखे होने का अभिनय करने लगा जिस पर हमेशा  अम्मा पिघल जाती थी अम्मा वह लगा कर दो ना, बड़ी जोर से भूख लगी है। पेट जल कर कन्डा हो गया है।

            नाश्ता... लगा कर दूँ!!... ये ले, ये। ये रही तेरी कचौड़ी और ये रहा तेरा जलेबा। उठा कर अम्मा ने खोंगे फेंके दरवाजे की तरफ तो जैसे कोई तके हुए था- दरवाजा खुला और जलेबी कचौड़ी, चना, मूली, चटनी सब किसी के पैरों पर बिखरे हुए थे।

           

आँसू और आग भरी आँखें उठाई तो जो चेहरा नज़र आया उसने समय को वहीं रोक दिया। वहीं देहरी पर जैसे समय पीछे जा रहा था- रिवाइन्ड होती रील की तरह। गुरु गंभीर स्वर पहले कभी सुना नहीं जो “मैं जानता था तुम्हारा गुस्सा इसीलिए मैं बसन्त के पीछे-पीछे आया। गुस्सा मुझ पर है। बेचारे इस बच्चे ने क्या कुसूर किया है जो उसे डाँट रही हो। उसे काम की जरुरत थी, मुझे काम में बँटाने वाले हाथ की। हाथ अपना हो तो क्या बुरा है। सुरजू लाला ने बचाव के लिए तर्क जुटाए।

           

इतने दिनों बाद याद आया कि कोई अपना भी है। तब नहीं आया जब किसी की जिन्दगी में आग लगाया था। जब अपने भाई को भिखमंगा बना के छोड़ा था। कल्याणी ने पीछे से पल्ला सिर पर खींचते हुए तीर सा जवाब फेंका।

           

देर से ही सही अगर कोई पछतावा और गुनाह का प्रायश्चित करना चाहे तो उसे मौका नहीं मिलना चाहिए क्या। सुरजू बाबू एक कदम आगे बढ़ आँगन में आ गए। पीछे हाथ कर गली में खुलते दरवाजे को बन्द कर दिया। जैसे अतीत पर दरवाजे बन्द कर रहे हों।

           

कल्याणी के सामने सूरजभान वैसे ही खड़े थे जैसे पन्द्रह साल पहले वे गोपाल महाराज के पुराने बैठका में उसके सामने खड़े थे।



 

 

ठहरे हुए अतीत से वापसी

           

शादी के बाद से आज तक कल्याणी ने सूरजभान की सूरत न देखी। जैसे कि अपनी दुनिया से उन्हें बेदखल कर दिया था उसने। जब याद किया मन में क्रोध ही उफनता पाया। आज वह सारा गुस्सा कल्याणी ने सूरजभान पर उतार दिया। गुस्सा जब उतार पर आया तब तक उसकी साँस फूल चुकी थी हाँफते हुए वहीं देहरी पर ढेर हो गई। मन का सारा गुबार रुलाई में बह निकला, अन्दर कमरे से बृजभान भी आ कर खड़े हो गए थे- इतने दिनों बाद सूरजभान ने अपने भाई को देखा पहले से बहुत कमजोर। गाल पिचके, बाल सिर से गायब होते हुए,  सामने के दो दाँत गायब। कोई जोड़ नहीं था उसका कल्याणी के साथ। तीर की तरह एहसास कौंधा मन में “हाँ, ज्यादती तो बहुत हुई कल्याणी के संग।  अकड़ते हुए बृज ने कहने की कोशिश की “क्यों टाँग अड़ाते हो हमारी जिन्दगी में? अभी चैन नहीं पड़ा है क्या तुम्हें?”

           

तुम्हारे लिए नहीं, इस लड़की की खातिर। इन बच्चों की खातिर आया हूँ, तुम्हारे दरवाज़े पर इतने सालों से जीवन की चक्की की मशीन के पुर्जे की तरह लगी कल्याणी ने अपने लिए “लड़की  शब्द का इस्तमाल सुना तो मन के भीतर कुछ तरल-सा हुआ। पर बाहर अकड़ कायम रही। “हमारे लिए कुछ भी करने की जरुरत ना है। हमारे पति का धन्धा मकान हड़प लिया-अब क्या बाकी है जो लेने आए हो। पता नहीं चला कब कल्याणी ने सूरजभान को हमउम्र का दर्जा दे दिया। “जाओ यहाँ से। चले जाओ और फिर कभी न आना हमारी जिन्दगी में।

           

नहीं आऊँगा, पर हाथ जोड़ के बिनती करता हूँ बसन्त को मत रोकना। कहीं तो काम करेगा। हमारे यहाँ ही सही।

           

क्यों बनारस के और व्यापारी मर गए हैं क्या? आदमी जहाँ मेहनत करेगा वहाँ उसे चार पैसा मिल ही जाएगा। आज अपनी गरज आ पड़ी है तो चले आए। इतने बरसों नहीं आए पूछने।

           

आँगन में फैले हुए पापड़ बता रहे थे मेहनत का कारोबार घर तक फैला हुआ है। माँ के साथ-साथ बेटी भी जुटी रहती है। माँ के गुस्से का अन्त होते न देख रत्ना ने कहा “माँ की तबियत खराब करके ही मानेंगे क्या? आपसे हाथ जोड़ कर बिनती है चले जाइये। अब तक चुप खड़ी रत्ना पर एक निगाह डाल नीचे बैठी कल्याणी को भरपूर देखा फिर अपना छाता उठाते हुए बोले “जा रहा हूँ पंडितानी। पर एक बार ठण्डे दिमाग से सोच कर ही फैसला करना। मानता हूँ कि जो हुआ बहुत बुरा हुआ। पर इसकी भरपाई जीवन में हो गई है। मेरा घर, घर नहीं रहा। व्यवसाय देखने वाला कोई नहीं रहा। अब मन पछतावे से भरा है। किसी और का नहीं बस तुम्हारा गुनहगार हूँ। कुछ गलत है क्या अगर मैं कुछ भूल सुधार कर लूँ।” आँखों में पश्चाताप के आँसू नकली भी हो सकते हैं क्या? सोचती बैठी रह गयी कल्याणी वहीं देहरी पर। उसे हाथ पकड़ कर उठाया रत्ना ने तो जैसे कल्याणी वापस लौटी वर्तमान में।

 

 

धीरे‌-धीरे धुलती मैल 

           

सूरजभान चले गए, पर घर में जैसे एक कोहराम उठा गए। बसन्त तो सहम गया था पर मोर्चा संभाल लिया बृजभान और रत्ना ने। उन्हें कोई आपत्ति नहीं दिखती थी बसन्त के उसके यहाँ काम करने से “कैसे आदमी हो जी तुम? इतना नुकसान किया उस इंसान ने तुम्हारा, पर तुम्हें उसमें कोई बुराई नहीं नजर आती। वा रे भरत भाई! पर मैं तुम्हारे इस भाई को जिन्दगी मे कभी माफ़ नहीं कर सकती।

           

दरअसल इस एक मुद्दे पर पति-पत्नी के एहसास की ज़मीनें एकदम फर्क थी। कल्याणी की सारी पीड़ा एक बेमेल इंसान से बाँध दिये जाने की थी तो बृजभान के मन में उसका घर कल्याणी जैसी लड़की से बसा देने के एहसान से भरा था। कल्याणी के एतराज में उनके कुपात्र होने की जो छिपी हुई प्रतीति थी उसके चलते उन्होंने चुप रह जाना ही बेहतर समझा। एक बोलती हुई चुप्पी के बीच सबने खाना खाया और अपने-अपने बिस्तर पर जा पड़े। कल्याणी पति के तख्त के नीचे बिछे बिस्तर पर बच्चों के साथ पड़ गई। आँखों के सामने सूरज का छत के झरोखे से देखा चेहरा याद आता रहा। इतने वर्षो की प्रौढ़ता ने जैसे सूरज को और सुदर्शन बना दिया था। पहलवानी शरीर हमेशा की तरह गढ़ा हुआ था आज भी....।

           

तख्त पर से लेटे-लेटे ही रोज़ की तरह बृजभान का हाथ कल्याणी के शरीर को टटोलने लगा। इस खुराक के बिना बृजभान को नींद नहीं आती। कल्याणी हमेशा निष्क्रिय सी उसके आगे पड़ जाती थी, पर आज कल्याणी का मन बड़ा बेचैन था। यह बेचैनी उसके समझ के बाहर थी। उसने झटके से पति का मचलता हाथ झटक दिया। “चैन से रहने दिया करो कभी। अपनी तकिया उठा, कल्याणी बच्चों की परली तरफ सोने चली गई।

 

           

किसी और का नहीं, बस तुम्हारा गुनहगार हूँ सूरजभान की कही इस बात में उसके प्रति छिपी मुलामियत थी जिसे कल्याणी बार-बार जी लेना चाहती थी। शादी के बाद से बराबर उससे नफरत करती रही थी। पूरी ईमानदारी से पति का हो कर रही थी कल्याणी। भूले से भी कभी उसकी दुनिया में झाँकने को कोशिश  न की कल्याणी ने। पर नाते-रिश्ते दारी में जब कभी उसके बारे में अगल-बगल कुछ सुनाई पड़ा तो कान उधर दिए जरुर। सूरजभान की शादी पहले ही हो गई थी। पता चला ठेठ मारवाड़िन थी उसकी बीबी। दो बेटियों के बाद एक बेटा हुआ। पर आठ साल का होते-होते हैजे में गुजर गया। उसके सदमें में पत्नी बीमार पड़ी। और कुछ महीनों में ही वह भी गुजर गई। भरा पूरा घर आँगन जैसे खाली हो गया। इतना फैला हुआ व्यापार, सुख-सुविधा सब कुछ पर, देखने सहेजने वाला कोई नहीं। दोनों बेटियों के ब्याह बाहर हुए थे- एक कलकत्ते में, तो एक इलाहाबाद में। इलाहाबाद वाली बेटी ने, सुना यही आ कर घर गृहस्थी जमा ली है। दमाद बिजनेस में हाथ बँटाने लगा। कलकत्ते वाला दामाद वहीं से व्यापार चलाता है। दरअसल सूरजभान के तन-मन-धन तीनों को ही देखने वाला कोई नहीं रहा। करवट बदलते सोचती रही “कल्याणी सच कहा गया है ऊपर वाले की लाठी में आवाज नहीं होती। एक अनजान सा संतोष भी हुआ उसे। करवट बदल कर लम्बी साँस ली उसने फिर सोचा “वैसे इतना गलत भी क्या किया बेचारे ने। अपना व्यापार खो देने में कुछ दोष बृजभान के निठल्लेपन का भी है। उनके पिता ने कामकाज यूँ ही सूरजभान को नहीं सौंप दिया होगा। जीवन में कुछ न कर के, शेखचिल्ली की तरह ऊँचे-ऊँचे ख्वाब देखने और अकर्मण्यता से घिरे लोगों के भाग्य ऐसे ही सो जाते हैं जैसे बृजभान के सोए। और अपने सपनों के लिए बड़े से बड़ा जुआ खेलने की हिम्मत और हौसला रखने वाले एक दूसरे ही तरह के लोग होते हैं जो सूरजभान की तरह ज्यादातर सफल ही होते हैं। अपनी सूझबूझ और मेहनत से सूरजभान ने धीरे-धीरे ही सब कुछ बृजभान से जीता होगा। पुराना घर, फिर दुकान, फिर काम। कोई साफ-साफ बता भी नहीं सकता कि सूरज ने क्या बेईमानी की अपने ममेरे भाई के साथ।

           

आज भी बृजभान क्या काम करते हैं! बीमारी का तो बहाना भर है वरना व्यापार तो बुद्धि से होता है। जो छोटी दुकान बची थी वह भी बन्द ही पड़ी रहती है। बेचारा बसन्त ही देखता है कभी-कभार। वरना तो वह भी चली ही जाती।

 

दिवाली इस बरस

           

बसन्त की छोटी सी दुकान इस दीवाली रंग रोगन हो गई। नए गणेश-लक्ष्मी रखा कर धनतेरस के दिन उसमें पूजा का सामान भरवा दिया गया। बहुत उत्साहित था बसन्त- “अम्मा शाम को आना जरुर, पहला दिया तुम्हें ही जलाना है।

           

क्या रे, बाबूजी को नहीं कह रहा है?” कल्याणी बेटे का उत्साह देख खुश थी, पर उसका पिता को किनारे कर देना खटक गया।

           

वे दुकान पर बैठेगे तो वहाँ काम कम होगा, महफिल ज्यादा सजेगी। अम्मा उन्हें घर से ही काम करने दो। आखिर को थोक का सामान यहीं घर पर ही तो रखाएगा।

           

अच्छा रहने दे। हम नहीं आएंगे उनके बिना। खाना खाते बसन्त का मुँह बन गया कैसे होगा अब? दुकान पर नारियल फोड़ने को तो चाचा जी को कह आया है। आखिर को तो सारा सामान उन्होंने ही धराया है दुकान पर। ये अम्मा भी ना! झाम फँसाने में बड़ी उस्ताद है। कुछ न कुछ सूँघ रही होगी जरुर! पर अब ज्यादा पूछताछ नहीं करती। न जाने क्या बात है।

           

सूरजभान खूब समझते हैं कल्याणी को। दिन में ही आ कर पूजा करा गए दुकान की। शाम को माँ बाबू जी और रत्ना तीनों आए- आँख भर आई अम्मा की “क्यों रे बसन्त! बड़ा हो गया तू। कैसी अच्छी दुकान लगा ली- भगवान करे, तेरा काम चल निकले। दिन बहुरे हमारे भी। आँचल के कोने से आँसू पोछते इस पूरे फैलावे के पीछे छिपे हाथ को अनदेखा नहीं कर सकी। “इतनी बड़ी दुनिया में अकेले इस बच्चे को किसी का तो सहारा चाहिए। अपने आप अकेले इतने वर्षो जूझती रही जिन्दगी से। अपने हिसाब-किताब बेटे की झोली में क्यों डालूँ! कुछ गलत है क्या अनजान बने रहने में? भगवान जाने! पर है, तो हुआ करे! भगवान से भी तो गलत हुआ है कभी-कभी। उनने माफ़ी किससे माँगी। मैं तो फिर भी माँग लेती हूँ। भगवान मुझे माफ करना

 

बसेसरगंज की गुलाब कोठी  

           

करवट काशी की तंग गलियों से निकल कल्याणी सपरिवार बसेसरगंज की गुलाब कोठी में पहुँच गई थी। बसन्त बुद्धि का तेज था। प्राइवेट ही पढ़ाई भी करता रहा और दुकान भी देखता रहा। चोरी छिपे सूरजभान की आढ़त पर भी जाता रहा। घर की स्थिति थोड़ी बेहतर होने लगी। पुश्तैनी धंधा था बृजभान के खानदान का। बृजभान का शहर के व्यापारियों में अभी भी नाम था। लोग भी लिहाज करते थे, सो उसे काम भी मिलने लगा था। अम्मा और रत्ना का पापड़ बनाने का सिलसिला अब रुक गया था। रत्ना का एडमिशन भी आर्य कन्या महाविद्यालय में करा दिया था। नीला कुर्ता सलवार पहन और उस पर सफेद दुपट्टा डाल, बालों की दो लम्बी चोटियों को मोड़ कर रिबन दोनों तरफ बाँध कर कालेज जाती रत्ना तो कल्याणी को अच्छा लगता। वह नहीं जा पाई थी स्कूल कालेज कभी। लगता है अब जा रही है।

           

बसेसरगंज की तंग गलियों से काफी सारी लड़कियाँ जाने लगी थी पढ़ने। गली के दोनों तरफ बने तंग अंधेरे घरों में पंचायत बहुत होती इस बात की “क्या पढ़ा लिखा कर कमाई खानी है बेटियों की? आखिर को तो चूल्हा-चौका करना ही ठहरा। गुलाब कोठी कभी कोठी रही होगी पर आज बम्बई के एक चाल जैसी थी। एक पुरानी कोठी में रहते कई परिवार। एक बड़े आँगन के चारों तरफ बरामदे और बरामदे से लगे कमरों में रहने वाले किरायेदारों के बीच जिन्दगी न चाहते हुए भी साँझे की हो जाती थी। बरामदे में और आँगन के बीचो बीच लगे चाँपा कल (हैण्डपम्प) से बर्तन भर कर लाते समय या वहाँ बर्तन माँजते समय बातचीत करनी ही पड़ती कल्याणी को। और बातचीत अक्सर ही कहा-सुनी मे समाप्त होती। रत्ना बड़ी हो रही थी। कल्याणी नहीं चाहती थी कि वह इन सब पचड़ों में पड़े। उसका जी करता ऐसे साँझे घर से अलग एक अपना घर हो चाहे एक कोठरी ही हो पर जीवन इतना सार्वजनिक न हो। उसे बार बार याद आने लगता अपना तीन आँगन वाला बड़ा सा घर। वह अब भी है। उसका भाई बड़ा हो गया है। पर जाने का मन हाथ से ठेल कर परे हटा देती है हरदम। वहाँ जाने से इधर के जीवन की विषमता और कठिन लगने लगती उसे। जहाँ हैं, वहीं की स्थितियाँ सुधारने की कोशिश करे, यही बेहतर होगा।

           

बृजभान का मन तो घर से ले कर गली तक पंचायत करने में खूब लग जाता था, पर परिवार के बाकी सदस्यों को अपनी-अपनी परेशानी  थी। कल्याणी की समस्या अपनी जगह। बसन्त की दुकान विश्वनाथ गली में थी, वहाँ से आने-जाने में काफी समय निकल जाता था। घर से सामान ले जाने में दिक्कत आती थी। इसका हल निकाला था सुरजू लाला ने एक ज़रुरतमंद लड़का रख दिया था जो माल लाने, ले जाने का काम करने लगा था। दुकान जिस जगह पर थी वहाँ दुकानों के ऊपर एक बड़ी पुरानी धर्मशाला थी। प्राचीन स्टाइल की बनी धर्मशाला कोई पुरानी हवेली रही होगी। उसके प्रवेश द्वार से ऊपर आँगन तक पहुँचने के लिए जो सीढ़ियाँ थी, उनमें बीच-बीच में दोनों तरफ अँधेरी कोठरियाँ खुलती थी। शायद दरबानों चैकीदारों के लिए बनी होगी। उनमें से एक कोठरी किराये पर ले दी थी। अब अपने माल का गोदाम उसी को बना लिया था बसन्त ने।

           

पर रत्ना की समस्या का हल निकाल पाना किसी के बस की बात नहीं थी। थोड़ा बहुत स्थितियों के बेहतर होने से मिलने लगी अच्छी खुराक और किशोर से युवा होती उम्र के चलते रत्ना का शरीर गदराने लगा था। रंग तो साफ था ही अब उसमे गुलाबीपन भी आ जुड़ा था। राह चलते लोगों की निगाह खिचतीं थी उसकी ओर। बसेसरगंज से चलकर टाउन हाल की तरफ से होते हुए बुलानाला तक जाते हुए उसे बनारस की उन खास तरह की गलियों से गुजरना पड़ता जहाँ “राँड़-साँड़ सीढ़ी सन्यासी तो होते ही व्यापारियों के जवान होते मनचले लड़के और दोनों तरफ दुकानों में खड़े अधेड़ ग्राहकों की भीड़ भी होती। बदन को बचाते हुए निकलना यूँ भी मुश्किल होता था। दिन भर यहाँ से गुज़रती कमउम्र और अधेड़ सारी औरतों को गलियों से गुजरने वाले लोगों की खास हरकत से गुजरना पड़ता जिसे रत्ना ने “कोहनीबाजी का नाम दे रखा था। किसी भी उम्र का, किसी भी वर्ग का मर्द, सामने से आती हुए भीड़ का हिस्सा बना सीधा सा चलता होता। जैसे ही उल्टी दिशा में आ रही लड़की या औरत के बगल से गुजरता झट से अपनी कोहनी उठा देता, कोहनी की नोक कच्चे पक्के वक्ष को एक झटके से छू जाती। आगे चलते हुए फिर वहीं निर्विकार मुद्रा-जैसे कुछ हुआ ही न हो। चलते-चलते जैसे ही कोई दूसरी जनानी दिखी फिर वही हरकत। बृजभान को तो इस बात से कोई फर्क ही नहीं पड़ा। इतने बरसों से काशी  की उन्हीं गलियों से हो कर नित्य प्रति इतनी जनानियाँ जाती रही हैं गंगा नहाने, राजघाट से लेकर रामनगर तक। आज एक तू ही बड़ी अनोखी जवान हुई जो मर्द तुझे कोहनी मारने लगे।  बाप की जगह लेने की कोशिश करते बसन्त को बात लग गई। बात का जिक्र तो नहीं किया, पर बेहतर जगह मकान लेने का जिक्र अपने चाचा से कर दिया आढ़त पर बैठते वक्त।

 

बिसनाथ मन्दिर से मर्णिकर्णिका के बीच  

           

चौक के पास कचौड़ी गली में एक बड़े से हाते के अन्दर बने इस हिस्से को तय कर लिया सूरजभान ने। मलमास बीता, अच्छे दिन शुरु  हुए कि उस मकान से इस मकान आ गए बृजभान, सपरिवार। अब गली-गली न जा कर, गली से सीधे सड़क पर निकल, सड़क के रास्ते जाना होता कालेज रत्ना को। बनारस के ज्यादातर मकानों की तरह ये भी तिमंजिला मकान था नीचे एक आँगन, आँगन के दाये या बायें से ऊपर को दूसरे तल्ले, फिर तीसरे को, फिर छत को जाती हुई अँधेरी सँकरी सीढ़ियाँ। आँगन के ऊपर बीचो बीच लोहे की छड़ वाली जाली, हर मंजिल पर। चारों तरफ चलने को पतली-पतली गलियों सी जगहें। अन्दर कमरों से बाहर को खुलती हुई खिड़कियाँ एक तरफ चौका, एक तरफ शौचालय। नीचे आँगन में अक्सर एक कोने में कुँआ, एक चाँपाकल। इस बार बसन्त ने नीचे का तल्ला ही लिया था। पर सोने के लिए ऊपर छत पर ही जाना पड़ता था। छत प्रायः सभी घरों की बड़ी हुआ करती थी जहाँ से काशी  विश्वनाथ मंदिर का ध्वज-कलश दिन भर दिखाई पड़ता था। उन छतों पर ही पतली-पतली नालियाँ होती। ज़रा सा घेर कर आड़ बनी हुई। रात में पेशाब करने बच्चे-मर्द वहीं बैठ लेते। पर औरतों को नीचे जाना पड़ता।

           

शुरु-शुरु में तो सभी को अच्छा लगा। बसन्त की दुकान से घर बिल्कुल करीब हो गया था। दिन में कई-कई बार चला आता। किरपा को भी अब दूर नहीं जाना पड़ता। बल्कि वह जब बसन्त दुकान पर नहीं होता तो उसकी जगह दुकान सँभाल लेता, दुकान मालिक ही बन जाता। दिन भर बड़ी चहल-पहल रहती गली में। नीचे दुकाने थी अचार मुरब्बे की, मिठाई की, पूजा के सामान की, पत्थर की मूर्तियों की, गिफ्ट आइटमों की, कचौड़ियों की। दिन भर बड़ी चहल-पहल रहती। ढेरों आवाज़े थीं। मन्दिरों के घन्ट घड़ियालों की, कुंजगली को जाने वाले साड़ी के कारिन्दों की। चबूतरे पर बैठ दिन भर राजनीति की जुगाली करते लोगों की इन आवाजों और गन्धों में साथ-साथ बीच-बीच में राम नाम सत्य है या बोल बम की आवाजें भी आती रहती। पास के मणिकर्णिका घाट को जोड़ती इन गलियों से दिन तो दिन, रात में भी “बनारस में जल कर मोक्ष की राह को पक्का कर लेने वालों की आवाजाही लगी रहती। मणिकर्णिका घाट को रत्ना ने कभी नहीं देखा पर सुना जरुर था कि इस शमशान घाट की आग बरसों से अनवरत जल रही है। कभी बुझी ही नहीं और यहाँ पर अन्तिम संस्कार का सौभाग्य पाने वाले को सीधा मोक्ष प्राप्त होता है। इस घर में आने के बाद उसने महसूस किया कि मौत की भी अपनी एक गन्ध होती है। धूप अगरबत्ती, कपूर, बेला और गुलाब की मिली जुली। अलावा इसके रातों में जब छत पर सोती तो नाक में एक और गंन्ध घुसती, माँस के चिरायन्ध की। हवा के साथ मणिकर्णिका घाट पर शवों के जलाने की शुरुआत में उठती माँस की चिरायन्ध घर तक आ जाती। और रत्ना उठ बैठती। सामने आसमान में उड़ते “चिटचिट करते धुएँ में उसे आग की चिटचिटाती चिन्गारी भी दिखती सो उसमें जलने वाले की आत्मा दिखने लगती। वह घबरा कर नीचे चली आती। रातों को सो न पाने के कारण उसकी आँखें लाल बनी रहती। आँखों के नीचे काले घेरे दिखने लग थे।

           

अब भगवान के सामने जलती अगरबत्ती की महक से उसे शव की बास आती लगती। माँस की चिरायन्ध चौबीसों घण्टे जैसे उसके दिमाग में बसी रहती। उसे कम करने के लिए वह खुशबूदार टेलकम पाउडर लगाने लगी। उसे समझ में आ गया था कि इस मकान में भी बहुत दिनों तक रहना नहीं हो पाएगा उनका। रात में खाते समय ज़िक्र किया कल्याणी ने बसन्त से “बेटा हमारा और रत्ना का बिस्तर ऊपर न ले जाना। हम यहीं नीचे ही सो लेंगे।

           

खाते-खाते बसन्त रुक गया “क्यों! इतनी गर्मी में नीचे कोठरिया में सोओगी।” “हाँ सो लेंगे हाथ का पंखा है ना। उससे काम चल जाएगा।

           

पर क्यों अम्मा?” रत्ना कमरे में आने वाली परीक्षा की तैयारी में लगी थी। कल्याणी ने धीरे से कहा “उसे ऊपर डर लगता है।

           

किस बात का अम्मा? बगल में ही तो हम और बाबू जी सोए रहते हैं।

           

मसान से आती बदबू उसे बर्दाश्त नहीं हो पाती। फिर बुरे-बुरे ख्याल भी आते हैं। पढ़ नहीं पा रही। नतीजा खराब हो जाने की चिन्ता भी खाए जा रही है उसे।  

           

ये सब जवानी के चोचले हैं। खाना खा चुके बृजभान ने आंगन की नाली पर हाथ धोते हुए बीच में बात काटी माँ-बेटे की। जवानी चढ़ रही है राँड के। कहा पचास बार ये इतना इतर-फुलेल ना लगाया करो, इसी उम्र में जिन्न-चुड़ैल पकड़ लेवे लड़कियों को। पर तुमने ढील दे रखी है पढ़ाई के नाम पर। रोओगी एक दिन कहे देता हूँ।

           

कल्याणी का धैर्य से दबा कर रखा गुस्सा ऐसी बातों में पकड़ से बाहर हो जाता है। बिफरी शेरनी हो जाती है, जब उसके बच्चों पर कोई निगाह उठाता है “रो तो मैं तभी से रही हूँ जब से तुमसे ब्याह कर आई। थोड़ी सी खुशी  देने लगे मेरे बच्चे तो तुम्हें नहीं सुहाता। ऐसी ओछी तो निगाह पाई है कि वाह-वाह। अपनी बेटी में ही बेटी न दिखती तुम्हें, सिर्फ जवानी दिखे है। किसे न आई जवानी! तुम्हारे तो अभी बुढ़ापे में चढ़ी पड़ी है।

           

क्यों बच्चों के सामने ऐसी बातें करो हो कल्याणी। शर्म न आती तुम्हें बीमार आदमी को ऐसे बोलते हुए?”

           

क्यों जब तुम्हें शर्म न आई अपनी बेटी के बारे में बोलते हुए तो मैं ही कब तक शर्म लाज रखूँ? और क्यों रखूँ? लड़कियों को जिन्न-चुड़ैल पकड़ते हैं। सोच के देखो, आदमियों को और छोरों को क्यों ना पकड़ते ये सब?” साँस भर को रुक कर फिर बोली “बुढ़ापा आने को हुआ पर रोज जा कर बैठे रहते हो दालमंडी में। खबर ना रहती क्या मुझे?”

           

अम्मा चुप भी करो। क्यों उलझती हो। बसन्त ने अम्मा को शांत कराने की कोशिश  की “खाना खाओ चुपचाप। मैं कल बात करता हूँ चाचा जी से। चाचा जी का नाम ले लिया गलत समय पर। पर मुँह से बात निकल ही गई। अब वापस तो नहीं हो सकती थी। लगा अम्मा का दूसरा दौर शुरु हो जाएगा चिल्लाने का। पर ये क्या? उन्होंने खाते-खाते निगाह उठा कर प्रश्नवाचक भाव से उसे देखा और झुक कर खाना खाने लगी। मौन सहमति सा कुछ समझ में आया बसन्त को।

           

अगले ही दिन से बृजभान मरोलिया को एक नया शगल मिल गया बतकही का। बेटी के लिए वर तलाशने का। इस तरह की चर्चाओं से वे अपनी चौकड़ी में जिम्मेदार व्यक्ति का आडम्बर खड़ा कर ही लेते थे। ज़बान-दर-ज़बान रत्ना की चर्चा ब्राह्मण कुनबों में होने लगी। होते होते बात विमला शांडिल्य तक पहुँची जो आर्य समाज महाविद्यालय की प्रधानाचार्य थीं। रत्ना उनके विद्यालय में बी.ए. की छात्रा थी और चर्चा में रहने वाली छात्रा थी। रंग-रुप में तो आकर्षक थी ही, पढ़ने मे भी अच्छी थी। पता चला उन्हीं की जाति की है तो उन्होंने अपने बेटे के लिए चुन लिया उसे। पति उनके वकालत करते थे। बेटा भी वकालत की पढ़ाई कर रहा था। गो कि अभी कुछ करता नहीं था, पर ये आशा थी कि वह वह भी बाप की बनी बनाई लाइन पकड़ लेगा। घर उनका अपना था। बृजभान अपने मित्र सावजी के साथ गए बात करने। घर भी देख आए, लड़का भी और उसे अपने हाथ में पड़ी सोने की पुरानी अँगूठी पहना आए।

           

घर में आकर घोषणा की तो जैसे बज्रपात हो गया सब पर। रत्ना माँ का पल्ला थामे भुनभुनाती रह गई। कल्याणी ने उसका पक्ष रखा “किसी से पूछा न ताछा, गए छेकइया कर आए। तुम्हारी तो बुद्धि मारी गई है।

           

अरे इतना अच्छा लड़का है। खाता पीता घर है। अपना निजी मकान है। और कोई जिम्मेदारी नहीं। बहन ब्याह कर अपने घर गई। माँ भी पढ़ी लिखी है। और क्या बाकी बचा था जिसके लिए हम राय-मशविरा करते।इतनी बार कहा तुमसे लड़की अपने पाँव पर खड़ी होना चाहती है फिर अभी उम्र ही क्या है उसकी जो ब्याह दें। कल्याणी अब चुप नहीं रहती थी।

           

अरे उतनी में तुम एक पेट गिरा चुकी थी। अभी उम्र नहीं है तो पढ़ते-पढ़ते उम्र करा दोगी तुम। बृजभान ने शर्म लिहाज़ ताक पर रख दी।

           

बाबू जी मैं पढ़ना चाहती हूँ। हिम्मत करके रत्ना आगे आई “तो पढ़ना ना। कौन मना कर रहा? तुम्हारी सास ने तम्हें पढ़ाई की वजह से ही स्वीकार किया है। जितना चाहोगी, उतना पढ़ाएगी वह तुम्हें। और तुम्हें क्या चाहिए इस तर्क की कोई काट नहीं थी किसी के पास। एक और ट्रम्प कार्ड चला बृजभान ने “फिर तुम्हें इस शमशानी घर से निजात भी मिल जाएगी। तीन मंजिले पक्के मकान की रानी बन कर रहोगी तुम रत्ना रानी। तब याद करोगी अपने इस बीमार बाप को।

           

कल्याणी को भी बात कुछ वज़नदार लगी। रत्ना का मन जानने को दाल थाली में परसते-परसते उसका चेहरा पढ़ने लगी। पर चेहरे पर कुछ  भी लिखा न दिखा। उसे पता था रत्ना को भी अपना भविष्य चुनने का हक नहीं मिलने वाला। इस फैसले में अपनी कुछ बेहतरी के तार खोजने लगी रत्ना और जैसे मिल ही गया। तिनके को सहारा मिलता लगा। रत्ना को लगने लगा उसके अच्छे दिन आने को है अब।

 

अच्छे दिन इतनी आसानी से आते हैं क्या ?      

           

तैयारियाँ तो खैर क्या होनी थी, फिर भी जरुरत भर की रस्में तो होनी ही थी। कल्याणी की जिन्दगी में पहली बार घर पर कोई उत्सव होने वाला था। अब तक अपने भाई और बहनों को हमेशा  संकट या जरुरत पर ही याद किया था कल्याणी ने। उल्लास से उसका जी भरा-भरा हो रहा था कि पहली बार अपनी बहन और भाई के परिवार को खुशी के आयोजन में बुलाएगी। तय हुआ था कि रत्ना की फाइनल परीक्षाओं के बाद ही विवाह होगा। साइत जून की निकली थी। धुर गर्मी का समय, पर अच्छा था। मेहमानों के लिए बिस्तर की व्यवस्था नहीं करनी होगी। ऊपर धर्मशाले की खुली छत पर सब चादर-दरी बिछा कर सो लेंगे।

           

धर्मशाला, जो ठीक दुकान के ऊपर थी, दस दिन पहले से ले लिया गया था। कल्याणी के सगे भाई बहन और चचेरे-फुफेरे भाइयों बहनों के परिवार भी काफी पहिले से आ गए थे। सबके बच्चों के इम्तहान के बाद गर्मियों की छुट्टियों जो हो गई थीं। कल्याणी की इलाहाबाद वाली बहिन की बेटी और भतीजी ने मिलकर जयमाल में नाचने की तैयारी कर ली थी। “ढ़ूढ़ो ढ़ूढ़ो रे साजना ढ़ूढ़ो रे साजना मोरे कान का बाला गाना खूब चला हुआ था उन दिनों। पूरे-पूरे दिन इस पर प्रैक्टिस चलती रहती जयमाल में नाचने की। जयमाल पंजाबी रस्म थी और ब्राह्मणों में पाणिग्रहण के पहले, लड़के का लड़की को देखेने का चलन नहीं था इसलिए उस पर बड़ी बहस चली। पर जब तिलक के समय लड़के की माँ की ओर से जयमाल की फरमाइश हुई तो परम्परावादियों को हथियार डालना पड़ा। तिलक के चढ़ावे को ले कर वैसे ही उधर वालों का कुछ मुँह बना हुआ था इसलिए छोटी सी बात पर बखेड़ा करने का इरादा सभी ने त्याग दिया। मेहमानों से किनारे जा कर बृजभान और लड़के के माँ-बाप में कुछ गहमा-गहमी हो रही थी। बसन्त तिलक की रस्मों से खाली हो कर जब तक उस तरफ गया, तब तक सुलह सफाई हो चुकी थी। बृजभान ने बसन्त को कहते हुए मोड़ लिया चलो चलो सब मनमुटाव खत्म हुआ बात हो गई।

           

पर सुलह सफाई हुई किस बात पर यह राज तो उस दिन खुला जिस दिन बारात आ कर दरवाजे पर लगी। घोड़े पर सेहरे में मुँह ढके दूल्हा बैठा था। बैण्ड बाजा,हनाई, पैट्रोमैक्स बराती सब धर्मशाले के आगे पीछे रुके हुए थे। गली की दुकाने बन्द हो चुकी थी कुछ बारात रुकी देख कर बन्द होने लगी थी। इसलिए कोई व्यवधान नहीं हो रहा था। मन्दिर को जाने वाले ज्ञानवापी की सीढ़ियों तरफ से चले जा रहे थे। दरवाजे पर द्वारचार होना था, उसके बाद आँगन में जयमाल। जयमाल में रत्ना के साथ चलने के लिए पाँच लड़कियाँ सजाई गई थी। उनमें से दो को जयमाल के बाद नाचना था। सामने बीच में चलने वाली छोटी बच्ची को वह जयमाल ले के चलना था जो रत्ना को अपने वर को पहनाना था। नाते रिश्तेदार सब ऊपर के बारजे से बारात का नजारा ले रहे थे। द्वारचार करने को लड़की के बाप को बुलाया गया तो बृजभान नदारद मिले। लामुहाला बसन्त को द्वारचार के लिए आना पड़ा। द्वारचार के लिए बसन्त दूल्हे को घोड़ी से उतारने आगे बढ़ा तो लड़के के वकील पिता ने आगे बढ़कर बसन्त को टोका “क्या सिर्फ रोली चावल से द्वारचार होगा?” बसन्त हकला गया “और किससे होगा? नारियल और रुपये भी तो हैं। रिश्तेदारों की मिलनी उसके बाद होगी।वह तो बाद में होगी। पहले द्वारचार के पाँच हजार कहाँ हैं? मैंने तिलक के दिन ही बृज बाबू से कह दिया था, कि तिलक में नहीं लाए, पर जब तक पाँच हजार की थैली हमें नहीं मिलेगी, दूल्हा घोड़ी से नहीं उतरेगा। बसन्त तो हक्का-बक्का! “इस बात की कोई खबर हमें नहीं थी, वरना हम करके रखते।

           

क्यों बाप-बेटे में बात नहीं होती क्या? बुलाओ बृजभान जी को पूछो, कहा था कि नहीं? हमने तो उसी दिन बात तोड़ने की बात की थी। पर उन्होंने ही कहा कि द्वारचार पर ये पैसे आपको मिल जाएंगें। उन्होंने न कहा होता तो कोई बात नहीं थी। कह कर मुकर जाना, ये तो अच्छी बात नहीं है।

           

बसन्त को घबराया देख, बसन्त के मामा, मौसा सभी आ गए। पैर छू कर माफी माँगते रहे, मिन्नतें करते रहे “अन्दर तो चलिए। जलपान ग्रहण कीजिए। बारातियों को भी करने दीजिए। फिर उसका इंतजाम भी हो जाएगा।

           

बारात में औरतें नहीं आती थीं उन दिनों, पर दूल्हे की माँ शिक्षिता थी इसलिए उन्होंने इस परिपाटी को तोड़ दिया था। पर अगली परिपाटी न टूटने पाए इसके लिए वह पीछे से आगे आ कर दहाड़ने लगी “कहाँ से हो जाएगा इंतजाम? पैसा बरसने लगेगा क्या कहीं से? या आप लोग दे दोगे! मुझे पता है एक बार फेरे हो गए तो आप सब अपने अपने घर। फिर हम क्या कर पाएंगे?” बसन्त के मामा ने हाथ जोड़ कर बिनती की “बहन, आप तो पढ़ी-लिखी हैं। पढ़ी लिखी कन्या दे रहे हैं आपको। फिर आपके पास कौन सी कमी है जो इसके न मिलने से आपका कुछ अकाज हो जाएगा।

           

सवाल पैसे का नहीं है भाई साहब! औकात का है। कँगलों के घर हम सम्बन्ध नहीं करते। बृजभान ने शादी  तय करते वक्त तो इतनी लम्बी चौड़ी हाँकी कि लगा बड़े भारी व्यापारी हैं। मुझे क्या पता था कि राई रत्ती की भी औकात नहीं है। कँगलों के घर शादी नहीं होगी हमारे इकलौते बेटे की। दुर्गा का स्वरुप हो गई थीं बिमला बहिन जी। और दूल्हा घोड़ी पर ऐसे निश्चल बैठा था जैसे मंदिर में मूर्ति भी क्या बैठेगी। लड़के के बहनोई ने आवाज लगाई “चलो जी बहुत हो चुका तमाशा। लौटा लें चलो बरात। कोई लड़की थोड़ी ना है कि कोई दूसरा नहीं मिलेगा। ऊपर बारजे से सब देख रही औरतों में खलबली मच गई। शालू ओढ़े लगभग दुल्हन बनी कल्याणी बेहोश हो गई।

           

रज्जन मामा ने पैर छू कर लौटती बारात को रोका। “ऐसा न करें। थोड़ा समय दें। मैं कुछ इंतजाम करता हूँ। बारात को आगे बढ़ाएँ। काहे की बारात? सूनी गली में सिर्फ घोड़ी पर दूल्हा और उसके कुछ परिजन बचे थे। सारे बाराती अपने अपने घर लौट गए। घराती मेहमान भी एक-एक कर निकल लिए। जयमाल के लिए सजी लड़कियाँ सजी-सजी ही सो गई। लाउडस्पीकर पर बजते गाने बन्द हो गए। हलवाई के कारीगरों ने कढ़ाई उतार कर चूल्हे में पानी के छींटे मार दिये। बड़ों की कौन कहे, बच्चे तक भूखे पेट सो गए। कल्याणी को पानी के छींटे मार कर होश में लाया गया। तो सामने छोटा भाई रज्जन खड़ा था। उसका हाथ पकड़ रोई कल्याणी “भइया आज मेरी इज्जत बचा लो। रज्जन को कुछ समझ न आया। शादी में आई घर की औरतों से कहा “अपने-अपने गहने उतार कर दो उन्हें गिरवी रख कर पैसे लाता हूँ। वायदा करता हूँ, मैं सब छुड़वा कर आपको वापस दिलाऊँगा। रज्जन की अभी-अभी ब्याह कर आई बहू कान्ति के हाथ से सोने की चूड़ियाँ उतरने में देर हो रही थी काँच की चूड़ियाँ उतर नहीं रही थी। रज्जन ने पास से एक ईंट उठा कर खुद चूड़ियाँ ऐसे तोड़ी कि कान्ति रो पड़ी।

           

सारे गहने रूमाल में बाँध निकलने को हुए रज्जन तो सवाल ये कि इतनी रात गए ये काम होगा कहाँ। बसन्त ने दिमाग दौड़ाया। सारी परेशानियों के बीच उसे तो हमेशा एक ही नाम याद आता है। अभी भी उन्हीं की याद आई। अपना साफ़ा उतार के रखा और दौड़ पड़ा उन्हें याद करता “चाचा जी पीछे‌‌-पीछे रज्जन।

 

 

 

 

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