रमाशंकर सिंह की कविताएँ
रमाशंकर सिंह |
समाज में ऐसे तमाम तबके हैं जिनकी इस दुनिया को बेहतर बनाने में बड़ी भूमिका है। यह अलग बात है कि ये तबके आमतौर पर साहित्य और इतिहास से विलग ही रखे गए। बदलते समय के साथ लेखन का रंग ढंग और मिजाज भी बदला है। सौन्दर्य को देखने परखने की दृष्टि भी बदली है। यह अनायास नहीं कि उपेक्षित वर्गों को आज साहित्य ही नहीं बल्कि समाज विज्ञान के क्षेत्रों में भी केन्द्रीय स्थान मिलने लगा है। रमाशंकर सिंह इतिहास के अध्येता हैं और मल्लाहों के जीवन पर इनका महत्त्वपूर्ण शोधकार्य है। रमाशंकर जनपक्षधर कवि हैं और इसके सरोकारों को लेकर कविताएँ लिख रहे हैं। शव ढोने वाले लोग हों या नगडची या फिर गोरु चरवाह, रमाशंकर की कविताओं में पूरा स्पेस पाते हैं। आज पहली बार पर प्रस्तुत है रमाशंकर सिंह की कविताएँ।
रमाशंकर सिंह की कविताएँ
शव ढोने वाले लोग
उनके लिए हर फोन करने वाला
ग्राहक है
भले ही उसकी आवाज़ रुँधी ही क्यों न हो
अस्पताल में मौत
बिजली के आने-जाने जितना है सामान्य
उनके लिए
वे मुस्तैदी से ले जाते हैं शव
अस्पताल से देश के कोने अँतरे तक
गाँव शहर गली मोहल्ले तक
वे ठीक-ठीक से पहुँचा आते हैं
एक मृतक देह
नाम गोत्र धर्म हीन
मरते हैं अस्पताल में
मरते हैं बेपता
पत्नी पुत्र संबंधी विहीन लोग मरते हैं
किसी ख़ुफ़िया जगह
निपटा आते हैं शव ढोने वाले
बड़ी ही शाइस्तगी से
जब उनकी पाली बदल जाती है
तो बाजार से सब्जी लाते हैं
अपने बच्चों के लिए कोई अच्छी सी आइसक्रीम
पत्नी को ढेर सारा प्यार कर के
सो जाते हैं शव ढोने वाले।
नगड़ची की हत्या
उसके पैदा होने पर
न सप्तर्षियों ने की कोई बैठक
न ही दिखा कोई तारा
उत्तर दिशा में
न ही उस दिन नदी में यकायक आया ज्यादा पानी।
उस दिन तो सूरज भी
थोड़ा कम लाल उगा
बिलकुल भोर में चिड़ियाँ न बोलीं
सुग्गे तो सुग्गे उस दिन कौवे भी अलसाए थे
एक नामालूम सी घड़ी में जन्मा वह
नगाड़ा बनाने वाले कारसाज के यहाँ।
पता था उसे सबसे अच्छा चमड़ा
किस पशु का है
उम्र, कद-काठी सब पता थी उसे पशुओं की
किस जगह के चमड़े से बनता है जूता
कहाँ से निकलती है मशक
कहाँ के चमड़े से बनता है नगाड़ा।
कहाँ से निकलती है गगनभेदी आवाज़
किस चमड़े की बनती है ढोल
ढोल कसने का ताँत निकलता है कहाँ से
कहाँ के चमड़े से बनता है डमरू
जिससे निकलते हैं
पाणिनि के माहेश्वर सूत्र
व्याकरण के सिरजे जाने से पहले
ध्वनियों के प्रथम साक्षी थे उसके पुरखे।
देश के सारे गीतों के बोल
निर्धारित हैं उन वाद्य यंत्रों से
बनाए थे उसके बाप-दादों ने
इस महाद्वीप की नर्तकियों का लास्य
ढोल के उन चमड़ों का ऋणी है
जो कमाया गया था सैकड़ों साल पहले।
तो हुआ एक दिन क्या
उसने बनाया नगाड़ा
आवाज़ गूँजती पाँच कोस जिसकी
और अगहन की एक सर्द सी शाम
नगड़ची राजधानी चला आया।
राजधानी में देस के राजा का घर था
उसे लगा कि यही मुफीद जगह है
विरुदावली गायी जाय उसकी
प्रजा के सुख बताए जाएं
दिल्ली के बड़के अर्थशास्त्री को भी
देस के हाल बताया जाए
आखिर वह था देस की गाथाओं का आदिम संरक्षक
वंशक्रम, कीर्ति
सब था उसकी जिह्वा पर
हजारों-हजार वर्ष से उसके पुरखों ने
ऐसे ही सुरक्षित रखा था इतिहास
इतिहासकारों का वह पुरखा
राजधानी में गाने आया था देस का इतिहास।
लेकिन यह क्या?
वह गाने लगा अपने पूर्वजों के सोग
सदियों के संताप नगाड़े पर बजाने लगा वह
बताने लगा कि गाँव में तालाब में किसकी लाश उतराई थी
पिछले महीने
किसने लगाई छप्पर वाले टोले में आग
किसने कब्जा कर लिया चारागाह
सब कुछ उसने सुनाया
बूढ़े पत्रकार को
पत्रकार केवल इतना बोला
तुम बोलते हो ऋषियों की तरह
राजधानी में भला उनका क्या काम
कल आना मेरे घर
पिलाऊँगा फ्रांस की दारू।
न तो नगड़ची को फुर्सत थी
न बूढ़े पत्रकार को
नगड़ची राजधानी नगाड़ा बजाने आया था
पत्रकार हर मिलने वाले से कहता था
घर आना
नगड़ची उसकी आँखों की ऊष्माहीनता से जान गया था
वह केवल उसे मन बहलाव के लिए बुला रहा
उन्हीं दिनों माघ के महीने में
राजधानी के दिल और दिमाग पर कुहरा छाया था
उसने सेंका अपना नगाड़ा एक बार फिर
राजधानी में काठ नहीं बचा था
वह केवल लोगों के कलेजे में था
उसने टाइम मैगजीन को जला कर ही
नगाड़े के मर्म पर लगाई चोट
अब वह शहर के साहित्यकारों की करने लगा मुनादी
उनका गुण-रूप-रस
भाषा-रूपक-भाव
सब कुछ बताने लगा
नगाड़े की चोट पर
उनका संगीत और कला प्रेम
उसके लाभार्थियों की सूची
उसने बताई
पिछले सात पुश्तों की
फागुन की सनसनाती हवा
नगाड़े की आवाज ले जाने लगी
मुगल गार्डेन में घूमते लोगों तक
उसने पिछली सदी के कलेक्टर कवि के औसतपने की खोल दी पोल
कि उसने चुराई हैं कविताएँ
अपने टाइपिस्ट की
यह बात उसने नगाड़े की दो टंकी लगा कर कही
मंडी हाउस मेट्रो पर
इंडिया इंटनेशनल सेंटर में जब व्याकरण के पंडित
एक नयी भाषा खोजे जाने की कर रहे थे प्रेस कांफ्रेंस
तो उसने जोर से बजाया नगाड़ा
'यह तो मेरे पुरखों की भाषा है
चुरा रहा है यूनिवर्सिटी का प्रोफेसर'
दिल्ली विश्वविद्यालय की आर्ट फैकल्टी पर
एक बड़े से मजमे में में उसने बताया कि बैंक का अफसर
विज्ञापन का कौर डालता है संपादक को
और उसे साल का बेहतरीन कवि घोषित कर देता है
एक चित्रकार
उसकी पत्रिका में
फिर होली के दिन
शहर के सारे कवि-संपादक-पत्रकार
प्रोफेसर और नेता
आंदोलनकारी और मुक्तिदाता इकठ्ठा हुए
राजा भी आया अपनी लाव लश्कर के साथ
एक जज एक वकील भी आया
स्टेनो टाइपिस्ट आए
मुकर्रर की गई उसकी सजा
नगड़ची को झोंक दिया जिंदा
होली के दिन होली की आग में
वह जल ही रहा था अभी
उस पर कविता लिखी
एक घण्टावादी कवि ने
ठीक तीन महीने बाद
उसे दिया गया बेहतरीन कवि का पुरस्कार
और राजधानी में काव्य संस्कृति ऐसे ही पनपती रही।
गोरू-चरवाह
अवध क्षेत्र में 'गोरू- चरवाह' हैं वैसे
जैसे मलीहाबाद में आम
बनारस में मल्लाह
गया-जगन्नाथ में पंडे
कायदे से वे गाय-भैंस चराने का काम करते हैं
कुछ पूर्णकालिक होते हैं
कुछ अंशकालिक
लेकिन वे 'मनई' भी चराते हैं
वे सहज ज्ञानी होते हैं
बादल और खेत की तासीर जानते हैं
जानते हैं कि अगला ग्राम प्रधान कौन होगा
यहाँ तक कि वे प्रधानमंत्री के बारे में जानते हैं
कि रात में प्रधानमंत्री खाते क्या हैं
थोड़े से दुष्ट होते हैं वे
वे गाय-गोरू के साथ मनुष्यों की भी फितरत जानते हैं
वे जानते हैं 'चारे की तलाश' में
चालाक जानवर जाते हैं किधर
गोरू-चरवाह इलाके भर की खबर रखते हैं
किसके पास कितनी ताकत है, वे सब जानते हैं
गोरू-चरवाह किसी पेड़ को अपनी लाठी से हूर-हूर कर सुखा सकते हैं
वे किसी भी तरफ जाकर
एक पगडंडी बना सकते हैं
यह काम संन्यासियों के अलावा केवल वे ही जानते हैं
गोरू-चरवाह चीजों को मिल-बाँट कर खाते हैं
बौद्ध- भिक्षुओं की तरह
गोरू-चरवाह जानते हैं कि
लाठी से किस जगह से मारना है
जब किसी जानवर को प्यार करना है
या सही में मारना है
लाठी उनका प्यार करने वाला हाथ है
गोरू-चरवाह जानते हैं
साँप कैसे और कब मारा जाना चाहिए
जब ताकतवर गाली देते हैं
वे उसकी फसल दूसरे दिन चरवा देते हैं
अपनी पसन्दीदा गाय से
और रात में मुस्कराते हैं घर जाकर नक्षत्रों को देखते हुए
गोरू-चरवाह कुछ भी कर सकते हैं।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स वरिष्ठ कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
संपर्क
मोबाइल - 7380457130
सभी कविताएँ बेहतरीन है। रमा भैया को इन कविताओं के लिए और पहली बार को इन कविताओं को लगाने के लिए साधुवाद। इधर की कविताओं में व्यक्ति चरित्र की कविताओं की कमी है जिसकी भरपाई ये कविताएँ करती हैं। ये कविताएँ कवियों के फरेब की शिनाख़्त करने वाली ईमानदार कविता है। जिसे परिधि पर रह कर एक विश्वसनीय सत्य की तरह रमा दर्ज कर रहे हैं।
जवाब देंहटाएंसभी कविताएँ बेहतरीन है। रमा भैया को इन कविताओं के लिए और पहली बार को इन कविताओं को लगाने के लिए साधुवाद। इधर की कविताओं में व्यक्ति चरित्र की कविताओं की कमी है जिसकी भरपाई ये कविताएँ करती हैं। ये कविताएँ कवियों के फरेब की शिनाख़्त करने वाली ईमानदार कविता है। जिसे परिधि पर रह कर एक विश्वसनीय सत्य की तरह रमा दर्ज कर रहे हैं।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया बंधु💐
हटाएंजी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (१९-१०-२०२०) को 'माता की वन्दना' (चर्चा अंक-३८५९) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
--
अनीता सैनी
कवि का अनुभव क्षेत्र विस्तृत है और कहने का ढंग भी अनूठा है। बहुत बधाई और शुभकामनाएँ!
जवाब देंहटाएंशुक्रिया सर। आपकी टिप्पणी मेरे लिए बहुत मूल्यवान है।
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंइस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
हटाएंरमा भैया हमारे समय के बेहद जरूरी कवि हैं।
जवाब देंहटाएंसुन्दर कविताएँ
जवाब देंहटाएंबहुत हु सुन्दर... लाजवाब कविताएं...
जवाब देंहटाएंवाह!!!
काफी गहरी संवेदनशील रचनाएं पढ़ने को मिली, शुक्रिया
जवाब देंहटाएंबेहतरीन कविताएं|इतनी सरल और व्यंजक भाषा आपकी काव्यसामर्थ्य का ही प्रमाण है |भाषा और वस्तु दोनों स्तरों पर इतनी सरल कविताएं कि एक आलोचक के पास भी कहने के लिए कुछ नहीं, महसूसने के लिए एक पूरी लोक दुनिया छोड़ जाती हैं आप की कविताएं|
जवाब देंहटाएंAwesome sir
जवाब देंहटाएंबढ़िया
जवाब देंहटाएं