दिनेश कर्नाटक की कहानी 'खोज'
दिनेश कर्नाटक |
सोशल मीडिया आज का एक बड़ा सच है। कहने के लिए यह दुनिया आभासी जरूर है लेकिन इसके प्रभाव से इनकार नहीं किया जा सकता। फेसबुक की लाइक्स और कमेंट्स ने भी लोगों के जीवन व्यवहार और सोच को बदला है। हालांकि इस लाईक और कमेंट्स में बड़ा लोचा होता है। दिनेश कर्नाटक ने इस सोशल मीडिया को केन्द्र में रख कर ही एक कहानी 'खोज' लिखी है। तो आइए आज आज पहली बार पर पढ़ते हैं दिनेश कर्नाटक की कहानी 'खोज'।
खोज
दिनेश कर्नाटक
राजधानी का पत्रकार अपनी खबरें निपटा कर जब शाम के धुंधलके में घर की ओर लौटता तो उसका ध्यान दीगर चीजों के बजाय समय से घर पहुंचने पर होता। न तो कहीं पर बाइक रोक कर कुछ खरीदने और न ही किसी से बातचीत का मन करता। थकान इस कदर हावी होती कि घर पहुंच कर एक बढ़िया सी चाय की बात उसके दिमाग में रहती। लोगों की ओर देखने के बजाय तेजी से घोंसले की ओर लौट रही चिड़िया की तरह उसका ध्यान घर पर होता। मगर गांव को राजधानी से विभाजित करने वाले पुल पर आ कर उसकी नजरें महेश को ढूंढने लगती। उसे पता था, यह महेश के दिखाई देने का समय नहीं है, फिर भी इस जगह पर पहुंच कर उस का ख्याल आ जाता। महेश सुबह के समय ही नजर आता। पिछले कुछ दिनों से वह उसे कुछ ज्यादा ही आकर्षित करने लगा था। उसे लग रहा था, उस पर सोशल मीडिया पर जोरदार पोस्ट लिखी जा सकती है। महेश का किरदार लोगों को अलग सा लगेगा और खूब आकर्षित करेगा।
महेश को देख कर पहले की तरह अब उसके भीतर किसी प्रकार के अफसोस, परेशानी या बेचैनी का भाव नहीं उठता। अपनी आंखों के सामने उसे सभी एहसासों के पार जाते देखा था। सुबह जब वह घर से प्रेस को जाता तो पुल के पास उसे महेश हमेशा की तरह कुछ ढूंढता हुआ नजर आता। उस के दोनों हाथ पैंट को रोकने की कोशिश में तैनात होते। साफ दिखता कि अगर हाथ हटेंगे तो पैंट गिर जायेगी। पैंट के पोंचे घिसटते रहते। जैसे महेश वही था, कपड़े भी वही थे - बासी, पुराने, जर्जर तथा मैले। चेहरा संवेदना तथा जीवंतता खो कर समय के किसी कोठार में ठहर सा गया था।
हर बार महेश एक ही कोण में नजर आता। उसका सिर कौवे की तरह आगे को झुका होता और वह बड़ी तल्लीनता से कुछ खोजता हुआ आगे को चलता जाता। वह पुल के आस-पास के दो सौ मीटर के दायरे पर ही चीजों को खोजता। न उससे आगे जाता और न पीछे को लौटता। बस, वहीं पर परिक्रमा करता। करीब दस साल से इसी तरह वह किसी चीज को खोज रहा था। निंरतर। सर्दी, गर्मी और बरसात की परवा किये बगैर। चीज मिल नहीं रही थी। उसे पूरा भरोसा था कि वह वहीं कहीं थी और कभी भी उसे मिल सकती थी। इतने वर्षों से हर रोज मेहनत करने के बावजूद उसकी तत्परता और एकाग्रता में कोई कमी नहीं आई थी।
शुरु-शुरु में जब उसने महेश को पुल के आस-पास कुछ खोजते हुए देखा तो उसकी बिगड़ी दशा का अंदाज हो गया था। यह भी समझ में आ गया कि उससे बात करने या न करने से कोई फर्क नहीं पड़ना। फिर भी पता नहीं क्यों एक दिन उसके आगे मोटरसाइकिल रोक कर आवाज दी - ‘महेश .....महेश .... क्या ढूंढ रहा है?‘
महेश पर जैसे उसके रूकने या पूछने का कोई फर्क नहीं पड़ा। एक बार चेहरा उठा कर उसकी ओर देखा, फिर सिर झुका कर अपनी खोई हुई चीज खोजने लगा। और यह उसे जाते हुए देखता रहा।
धीरे-धीरे महेश का पुल के आस-पास कुछ खोजना, उसके लिए रोज का तय दृश्य बन गया। वह एक छोटे राज्य की बड़ी राजधानी के बड़े अखबार का पत्रकार था। हर रोज बड़े-बड़े लोगों से मिलता। राजनीति की दो या तीन जबरदस्त कहानी लिखता। उन्हें फेसबुक पर साझा करता और प्रसंशकों की प्रतिक्रियाओं को जो ‘वाह, कमाल का लिखा, अद्भुत, शानदार, छा गये के रूप में होती’ स्वाभाविक मान कर चलता। उसे अपनी काबिलियत का अंदाजा था, इसलिए अपने प्रशंसकों की प्रतिक्रियाओं पर जवाब देना जरूरी नहीं समझता था। वह जानता था, जिस मुकाम पर आज वह है, वहां पर लोगों द्वारा उससे निकटता बनाने के लिए उसकी पोस्ट पर आना स्वाभाविक है।
उसे सामान्य बने रहना तथा साधारण लोगों के साथ घुलना-मिलना पसंद था। उसे अपनी इस प्रतिभा पर गर्व था कि वह एक साथ जीवन के दो विपरीत छोरों के लोगों के साथ सहजता से संबंध स्थापित कर सकता है। कभी वह किसी निर्माणाधीन बिल्डिंग के सामने सुस्ता रहे मजदूरों के बीच चला जाता और कभी किसी सरकारी स्कूल के परिसर में खेल रहे बच्चों के बीच जा कर सेल्फी खींचता। दूसरी ओर कभी वह राज्य के मुख्यमंत्री, कैबिनेट मंत्री या देश के प्रधानमंत्री के साथ खिंची गयी सेल्फी फेसबुक पर पोस्ट करता। देखते ही देखते दो-तीन दिनों में उसे हजार से डेढ़ हजार लाईक और डेढ़-दो सौ कमेंट मिल जाते। वह मन ही मन मुस्कराता, यह तो होना ही है, मेरे पास चीजों को उस एंगल से देखने की काबिलियत है जो हरेक में नहीं होती।
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चलिए अब अपने खोजकर्ता महेश को और करीब से जानते हैं। दरअसल महेश, रमेश का छोटा भाई है। अब आप पूछेंगे यह रमेश कौन है और इस कहानी में रमेश की क्या भूमिका है तो ध्यान दीजिए; रमेश राजधानी के बड़े पत्रकार के छोटे से गांव का नाई है। वह उसके गांव का सबसे पुराना नाई है। अब गांव के चार कोनों में नाइयों की चार दुकानें हैं। एक समय रमेश की अकेली दुकान होती थी। वह रमेश नाई के जीवन का स्वर्णकाल था। उन दिनों रमेश गांव वालों का रमेश दा हुआ करता था। पहले रमेश दा गांव की छोटी सी बाजार के ऐन चैराहे पर अपनी दुकान चलाया करता था। उन दिनों आज का खोजकर्ता महेश रमेश की सहायता के लिए दुकान पर आता और बड़ी निष्ठा से अपना काम किया करता। वह सुबह दुकान खुलने पर झाड़ू लगाता, धारे से पानी ले कर आता और बच्चों के बाल काटना उसकी जिममेदारी होती। रमेश उससे जो कहता वह बगैर कुछ कहे मुस्कराते हुए करता जाता। बड़ा पत्रकार और महेश एक ही उम्र के थे। कभी जब दुकान में काम नहीं होता तो महेश भी पत्रकार और उसके दोस्तों के साथ क्रिकेट खेलता। महेश यहां भी मुस्कराते रहता। आउट होता तो मुस्कराता। बाल के पीछे दौड़ता तो मुस्कराता। कोई उसे गाली देता तो मुस्कराता। कोई कुछ बोलता तो मुस्कराता। कोई न बोलता तो मुस्कराता। बाद में उसकी मुस्कराहट बढ़ती ही चली गई। इतनी कि उसकी मुस्कराहट देख कर सामने वाला भी शरमाने लगता। इस बढ़ती मुस्कराहट के चक्कर में उसका दुकान पर आना भी बंद कर दिया गया।
रमेश ने गांव में अपने स्वर्ण काल की बदौलत सिर्फ इतनी तरक्की की कि बाजार से हट कर मुख्य सड़क के किनारे लकड़ी का एक छोटा सा खोमचा बना लिया। यहां भी उसका अच्छा दौर चलता रहा। वह लोगों के सुख-दुख में शामिल होता। गांव वाले उसे नामकरण, जनेऊ तथा शादी में निमंत्रण देते। वह दिन भर लोगों के बाल काटता, दाढ़ी बनाता और शाम को किसी के द्वारा खुशी-खुशी दी हुई फल-सब्जी आदि ले कर साइकिल से शहर के उस मुहल्ले की ओर चला जाता, जहां से वह हर रोज आया करता। उसे किसी के खेत या आंगन में बेल में लौकी, खीरा, कद्दू या तुरई नजर आती तो वह बेझिझक दुकान में भिजवाने को कह देता। गांव भर में उसका डंका बजता। उसका होना गांव तथा लोगों के सही-सलामत होने का सबूत होता। रमेश नाई के एकछत्र राज के पतन की शुरुआत तब हुई जब गांव के दूसरे छोर पर ‘माडर्न बारबर’ की दुकान आरंभ हुई। सच तो यह कि पतन की शुरुआत एकदम नहीं हुई। लोग रमेश दा से बाल कटाने के अभ्यस्त थे। वे उसी के पास जाना पसंद करते। मगर रमेश दा इस बात को बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था कि कैसे उसके अपने गांव के लोगों ने जहां वह दो पीढ़ियों से काम कर रहा था, एक अनजान नाई को जगह दे दी। यह उसके लिए असहनीय था।
रमेश दा इस बात के लिये गांव के हर व्यक्ति से नाराज था और दुकान पर आने वालों को ‘उल्टी-सुल्टी’ बातें कह कर अपने भीतर मची उथल-पुथल से परिचित कराने की कोशिश करता। मगर लोगों के लिये उसकी यह बातें कोई खास महत्व नहीं रखती थी। जो लोग उसके देर से दुकान पर आने या किसी दिन दुकान न खोल पाने पर ‘माडर्न बारबर’ के वहां बाल कटवा आते, उन्हें वह पूरे अधिकार से गलियाता ‘सालो, अपनी मां के खसम के वहां हो आये’। उसकी बात पर लोग हंस देते, जैसे उसने कोई चुटकुला कहा हो।
धीरे-धीरे लोगों को लगने लगा, रमेश दा मजाक नहीं करता है बल्कि जानबूझ कर गाली देता है। गांव के दूसरी छोर के लोगों के लिए ‘माडर्न बारबर’ नजदीक भी था और उसके वहां लोहे की ऊंची गद्देदार शहरों जैसी कुर्सी, नए शीशे, बिजली से चलने वाली मशीनें तथा सबसे बढ़ कर था उसका व्यवहार। वह ग्राहकों के आने पर स्वागत में बिछ सा जाता। लोग नए वाले के वहां अच्छी सुविधा मिलने के बावजूद बार-बार रमेश दा के वहां जाते। रमेश दा उनके बालों को देखते ही समझ जाता कि वे उसके शत्रु के वहां बाल कटा कर आये हैं। धीरे-धीरे उसकी गांव वालों से नाराजगी और भी बढ़ने लगी। वह गांव वालों को गन्दी-गन्दी गालियां देने लगा। गांव के आवारा तथा लड़ाकू किस्म के दो-तीन लड़कों ने तो उसके साथ मार-पीट भी कर दी। धीरे-धीरे गांव के दूसरे छोर के लोगों ने उसके वहां आना छोड़ दिया।
पत्रकार अभी भी रमेश दा के वहां जाता। रमेश दा इधर वालों के बाल काटने के दौरान उधर वालों को गाली देता और उधर वालों के बाल काटने के दौरान इधर वालों को गाली देता। सोचता, इस तरह उसकी पीड़ा लोगों तक पहुंचेगी। अब पत्रकार को भी पहले की तरह उसकी बातों में रस नहीं आता था, बल्कि उसकी गालियां बुरी लगने लगी थी। हालांकि वह उन गिने-चुने लोगों में से था, जो उसकी बेचारगी को समझते थे। वह लोगों को उसकी गालियों की वजह समझाता। मगर रमेश दा में कोई बदलाव होने के बजाय उसकी गालियों के बढ़ते जाने के कारण वह सोचने लगा कि मैं भी फिजूल में इसकी गालियां क्यों सुनूं। कई बार उसकी जली-कटी बातों को सुन कर दो हाथ रसीद करने का मन करता, पर रमेश दा गांव का आदमी था। उम्र में बड़ा था। कभी उससे बात करने में डर लगता था। उस रिश्ते से उसे न तो मारा जा सकता था, न पलट कर गाली दी जा सकती थी।
बाद में महेश गांव के बजाय शहर की सड़कों पर हंसते हुए नजर आने लगा। कोई उससे कुछ पूछता तो वह पूछने वाले की ओर हंसते हुए देखता। फिर आगे बढ़ जाता। इसी दौरान रमेश दा से सौ कदम की दूरी पर पप्पू भाई ने ‘बांबे बारबर’ के नाम से नई दुकान खोल दी। पप्पू भाई के वहां भी शुरु में कोई नहीं गया, लेकिन जो एक बार गया, उसे बिलकुल नए तरह का अनुभव हुआ। वह झुक कर आइए भाई साहब, बैठिये भाई साहब कहता। उसके वहां भी कुर्सी से लेकर हर चीज नई थी। टेप पर शानदार गीत बजते। पत्रकार को जिस एक चीज ने रमेश दा से दूर कर दिया, वह थी कैंची। रमेश दा की कैंची बाल काटने के दौरान निर्दयता से बालों को नोचती, जबकि पप्पू भाई की कैंची ‘कच्च-कच्च’ की सुरीली आवाज करते हुए बालों को ऐसे काटती जाती, गोया बाल काटने के बजाय उन्हें सहलाया जा रहा हो। बाद में वह तबियत से उसके सिर की मालिश करता और पैसे पूछने पर मना कर देता। पत्रकार को सिर की मालिश जरूरी लगने लगी और वह पप्पू भाई का पक्का ग्राहक हो गया। पत्रकार ही नहीं, धीरे-धीरे सभी स्थानीय लोग पप्पू भाई के बांबे बारबर और इरशाद के माडर्न बारबर के ग्राहक हो गये।
फिर होते-होते ऐसी स्थिति आ गई कि एक-दो को छोड़ कर रमेश दा के वहां गांव के सभी लोगों ने जाना छोड़ दिया। रमेश दा आता, दुकान में सफाई करता और बैंच पर बैठ जाता। कोई भूला-भटका ही उसकी दुकान में आता। जो लोग दूर से ‘रमेश दा नमस्कार’ कहा करते थे, अब वे भी उसे नजरअंदाज करते हुए आगे बढ़ने लगे। लोग अपने नामकरण तथा शादियों में भी पप्पू भाई तथा इरशाद को बुलाने लगे। चिढ़ा हुआ रमेश दा अपने वहां आने वाले ग्राहकों से ऐसे लोगों की बुराई करते हुए कहता- ’कैसा समय आ गया, लोग अपना धर्म भी भूल गये।’ हिन्दू-मुस्लिम पर यकीन न करने वाले लोगों तक रमेश दा की गालियां पहुंचती तो वे भी उससे दूर होने लगे। अलबत्ता भेदभाव को मानने वाले लोग रमेश दा को बुलाते, मगर रमेश दा बाल कटाई और भेंट में मनमर्जी की रकम के लिए जिद पकड़ लेता। रमेश दा की जिद देख चुके लोग आगे से शहर से तय कर के किसी हिन्दू नाई को बुला लेते मगर रमेश दा को नहीं बुलाते। इस तरह रमेश दा ने धीरे-धीरे न सिर्फ अपने ग्राहक खोये, बल्कि लोगों के दिलों से भी उतरता चला गया। अब वह ग्यारह-बारह बजे दुकान आता और दो-तीन बजे खाली हाथ घर को चल देता।
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अब आप समझ चुके होंगे कि महेश, रमेश तथा राजधानी के बड़े पत्रकार का आपस में क्या रिश्ता है! राजधानी का पत्रकार अपनी खास तरह की खबरों से न सिर्फ पाठकों का, बल्कि अपने प्रबंधन का भी चहेता बन चुका था। हर रोज वह ऐसे मुद्दे पर रिपोर्ट करता कि आफिसों, घरों तथा नुक्कड़ों पर बैठे लोग उसी की खबर की चर्चा करते। उसके नए-नए आइडियाज से प्रतिद्वंद्वी सकते में पड़ जाते। रात 12 बजे अस्पतालों तथा चौराहों, थानों में तैनात स्टाफ की जमीनी हकीकत तथा दिन के ठीक 10 बजे विभिन्न आफिसों की वस्तुस्थिति वाली उसकी रिपोर्टो ने लोगों के बीच मीडिया के प्रति भरोसा पैदा कर दिया था। इसी वजह से बड़े-बड़े नौकरशाहों से उसका अच्छा-खासा परिचय हो गया था।
जैसा कि पहले भी संकेत दिया था कि जितना नवोन्मेशी वह अपनी पत्रकारिता के लिए था, उतना ही ध्यान वह सोषल मीडिया में भी दिया करता। उसकी फ्रेंड लिस्ट में राज्य की दोनों मुख्य पार्टियों सहित विभिन्न पार्टिंयों के कार्यकर्ता, कर्मचारी संघों के नेता, लेखक, कलाकार, सामाजिक कार्यकर्ता शामिल थे। वह किसी एक पार्टी की बुराई करने के बजाय दोनों में संतुलन बना कर चलता। वह जानता था, उसकी पोस्टों को ध्यान से देखा जाता है, इसलिए सत्ता पक्ष के अच्छे लगने वाले कार्यों की तारीफ कर दिया करता। जब जिसकी सरकार होती, उसका हो जाता। वह उन्हीं मुद्दों पर बोलता, जिसमें विवाद की गुंजाइश नहीं होती। इस तरह वह अपने को निष्पक्ष दिखाता और उसकी साख स्वतंत्र किस्म के पत्रकार की बन चुकी थी।
वह चाहता था, उसकी फेसबुक पोस्ट पर लाइक्स की संख्या 1000 से ऊपर ही होनी चाहिए। 500 लाइक्स को वह अपना अपमान समझता। वह जानता था, पोस्टों की विलक्षणता ही लोगों को पोस्ट पर ठहरने और पढ़ने को प्रेरित करती है। मगर धीरे-धीरे उसके लाइक्स कम होते जा रहे थे। इसी दौरान उसका ध्यान महेश की ओर गया। और जैसा कि हमने पहले कहा था, उसे लगा महेश उसके काम आ सकता है।
एक दिन आफिस से आते हुए राजधानी का पत्रकार खोजकर्ता महेश को देख कर रूक गया और उसके नजदीक आने पर एक के बाद एक फोटो खींचने लगा। महेश को उसके फोटो खींचने से कोई फर्क नही पड़ा। वह हमेशा की तरह कुछ ढूंढते हुए आगे को बढ़ गया। पत्रकार ने पीछे से भी कुछ फोटो खींच लिए। घर जा कर इत्मीनान से चाय पीने के बाद वह पोस्ट लिखने लगा- ‘जिन्दगी कब किस तरह से चौंका दे कोई भरोसा नहीं। महेश मेरे बचपन का दोस्त था। खुशमिजाज और मिलनसार। पिछले कुछ दिनों से आते-जाते उसे देख रहा था। यकीन नहीं हो रहा था कि यह व्यक्ति मेरे बचपन का दोस्त ही है। सुध-बुध खोया हुआ एक अलग इंसान। पिछले दिनों रूक कर ध्यान से देखा तो शंका दूर हुई वह महेश ही था। बात करने की कोशिश की, मगर वह मुझे पहचान नहीं रहा था। उसकी यह हालत देख कर बहुत दुःख हुआ।’ साथ में पत्रकार ने विभिन्न कोणों से खींचे हुए उसके तीन फोटो लगा दिए।
पोस्ट के अपलोड होते ही फोन लाइक्स तथा कमेंट से घनघनाने लगा। अगले दिन सुबह उसने देखा उसकी जो पोस्ट तीन दिन में 1000 के पार जाती थी। एक दिन में ही हजार के आंकड़े को छूने लगी। कमेंट दो सौ से ऊपर पहुंच चुके थे। अधिकांश टिप्पणियां सलाम, शानदार, बढ़िया, लगे रहो, वाह, क्या बात है, वेलडन, तुस्सी ग्रेट हो के रूप में आई थी, जबकि कुछ ने विस्तार से लिखा था-‘आपकी संवेदनशीलता को सलाम’, ’आप अपने बचपन के दोस्त को नहीं भूले‘, हम तो रोज ही पुल से गुजरते हैं, हमें तो महेश कभी नहीं दिखा!’ ‘आप सचमुच महान हो!’
यह सब तो पत्रकार को खुश करने वाली बातें थी। मगर कुछ लोगों ने ऐसा लिख दिया था, जिसकी वह पहले कल्पना नहीं कर पाया था- ‘आपका दोस्त मानसिक रोग का शिकार है, उसको इलाज की जरूरत है।’ ‘आपने उसके लिए क्या किया?’ ‘महेश को बचाना होगा।’ ‘कुछ कीजिए। वह आपके बचपन का दोस्त है।’ ‘उसे इस तरह छोड़ा नहीं जा सकता!‘ ‘आप जिस तरह की सहायता चाहते हैं, हम तैयार हैं!‘
इन बातों ने उसे परेशान कर दिया। महेश के इलाज की सामान्य सी बात उसके दिमाग में क्यों नहीं आई? क्या वह भी परले दरजे के स्वार्थी इंसान में बदल चुका है? क्या उसे भी सिर्फ अपने फायदे से मतलब है? उसे लग रहा था, इस पोस्ट के माध्यम से लोगों ने खुद मुझे मेरा चेहरा दिखा दिया है। वह प्रशंसकों की टिप्पणियों को लाइक करता, पर लोग मानने को तैयार नहीं थे। वे कमेंट के ऊपर कमेंट करते जा रहे थे। ‘आप के दोस्त महेश को ऐसे नहीं छोड़ा जा सकता!’ हार कर उसने लिखा - ‘सभी साथियों की शुभकामनाओं के लिए आभार। मैं महेश के इलाज के लिए कोशिश कर रहा हूं। शीघ्र ही आप सभी को आगे की कार्यवाही से अवगत कराया जाएगा!’
महेश अब हर समय उसके दिमाग में घूमता रहता। उसने खुद ही आफत मोल ली थी। वह उसके बारे में सोचने लगा था- ‘महेश अपने बड़े भाई के साथ ही रहता होगा। वरना इतने दिनों जीवित कैसे रहता? इंसान के लिए जीवित रहना, कोई मुश्किल काम नहीं है। जीवित रहने के लिए इंसान को दो समय का खाना चाहिए। रात बिताने के लिए कोई छोटी सी छत। जब जानवरों की बसर हो जाती है तो महेश के लिए क्या समस्या। वह इंसान है और खाना तो लोग दे ही देते होंगे। इतनी इंसानियत अभी बची हुई है। रमेश उसका इलाज न करा पाया हो, रहने को एक कोना तो देता ही होगा!‘
वह लौटते समय महेश को देखता और सोचता, ‘कहां फंस गया, महेश को अपना दोस्त कहने की क्या जरूरत थी? कभी तीन-चार बार साथ खेलने और दो-तीन मुलाकातों से क्या कोई दोस्त हो जाता है? क्या दोस्त होने के लिए यह जरूरी है कि आप लगातार साथ रहे हों? किसी के अच्छे स्वभाव से भी तो हम किसी के करीब हो जाते हैं। एक-दूसरे की खिंचाई, प्रतियोगिता तथा राग-द्वेश रखने वाले साथियों के बीच महेश का मुस्कराते रहना उन दिनों कितना अच्छा लगता था। उसमें संतों के जैसे गुण थे। जब कोई उसे अबे गधे या अबे चूतिये कह कर पुकारता था तो मुझे बुरा क्यों लगता था?’
क्या वह महेश का इलाज करवाएगा? उसके लिए यह कौन सी बड़ी बात है? कितने लोग तैयार हैं। हर जगह तो उसके संबंध हैं। लोगों से जान-पहचान है। उसे अपने काम के लिए किसी से सिफारिश करना पसंद नहीं है, मगर यह उसका अपना काम थोड़ा है। उसे सिर्फ कहना ही तो है। पहले डाक्टर को दिखाना होगा। वह बताएगा, उसे क्या परेशानी है और उसका क्या इलाज हो सकता है? फिर लोगों या संस्थाओं से सहयोग लिया जा सकता है। मगर वह इन सब चक्करों में क्यों पड़ेगा। इससे उसे क्या मिलेगा? वैसे ही उसके पास सांस लेने की फुरसत नहीं होती। ऊपर से यह आफत। नहीं वह इन चक्करों में नहीं पड़ेगा। चुपचाप अपना काम करेगा। दसियों साल से महेश इस हालत में है। अब वह कहां ठीक हो सकेगा? उसका कुछ नहीं हो सकता।
उधर लोगों की बेचैनी थी कि थमने का नाम नहीं ले रही थी। वे इनबाक्स में आकर पूछ रहे थे, आपने कहा था- अवगत करायेंगे, क्या हुआ? कुछ कह रहे थे, महेश तो अभी भी वहीं भटकता हुआ दिखता है, आपने क्या किया? पत्रकार मन ही मन उन्हें गाली देता, मैंने ठेका ले रखा है क्या उसे सुधारने का।
अब वह कोई और पोस्ट लिखता तो लोग कमेंट बाक्स में महेश के बारे में पूछते। शायद लोग भी सारे मामले को समझ चुके थे। उसे फंसा हुआ समझ कर मजे ले रहे थे। बदले में वह भी चुप रहता और लिख देता, कोशिश चल रही है। लोग कहते, कोशिश हमें भी बता दीजिए। आए दिन नेताओं के संपर्क में रहने के कारण वह उनसे बहुत कुछ सीख गया था। इसमें आश्वस्त करने या भरोसा देने वाली ट्रिक सबसे जोरदार होती थी। उसने लिखा, दोस्तो जल्दी ही एक प्रतिष्ठित संस्था महेश की जिम्मेदारी ले लेगी। यह तरीका कामयाब रहा। लोगों ने शानदार, बढ़िया, यह हुई न बात, दोस्त ने निभाई दोस्ती, दोस्ती सबसे महान जैसे कमेंट्स की झड़ी लगा दी।
कोई मिलता महेश वाले प्रसंग पर उस की तारीफ करने लगता। महेश से पीछा छुड़ाने में करीब तीन महीने लग गए। धीरे-धीरे लोगों ने उसके बारे में बात करना छोड़ दिया। मगर पत्रकार यह देख कर हैरान था कि वह खुद महेश से किनारा नहीं कर पा रहा था। जब भी वह फुर्सत में होता महेश उसके सामने आ कर खड़ा हो जाता। एक दिन वह अपने परिचित डाक्टर के क्लिनिक पर गया। सारी स्थिति जानने के बाद डाक्टर ने कहा कि अब बहुत देर हो चुकी है। उस का नार्मल होना अब संभव नहीं। फिर भी कुछ कहा नहीं जा सकता। उसे मानसिक चिकित्सालय में भर्ती करवा सकते हो। क्या पता वहां भर्ती करने से धीरे-धीरे ठीक हो जाये?
पत्रकार समझ गया था। इनमें से वह कुछ भी करने की स्थिति में नहीं था। वह आफिस को जाता तो उसे महेश हमेशा की तरह पूरी तल्लीनता और उत्साह से कुछ खोजता हुआ दिखता। उसके कदमों और चेहरे की चमक को देख कर लगता जैसे अगले ही कदम पर उसे कुछ मिलने वाला है। शायद इसी उम्मीद से वह वर्षों से कुछ खोजने में लगा हुआ था। क्या वास्तव में महेश के दिमाग में कोई खोई हुई चीज है? कहीं ऐसा तो नहीं है कि चीज तो कुछ भी नहीं है और उसका दिमाग उसे खोजने का आदेश देता है। हो सकता उसके दिमाग में कोई चीज हो। कभी कुछ खोया हो और वह खोना उसके दिमाग में फ्रिज हो गया हो।
कभी वास्तव में महेश को उसके द्वारा खोजी जा रही चीज मिल जायेगी तब वह क्या करेगा, कहां जाएगा? क्या तब भी वह रोज यहां आ कर परिक्रमा करेगा? क्या इसके बाद वह सामान्य जीवन जीने लगेगा? इन सब सवालों के जवाब जानने के लिये महेश का ठीक होना जरूरी है। कौन कराएगा महेश का इलाज? क्या मैं कराऊंगा? महेश के बारे में मैं ही तो सोच रहा हूं! मैंने ही तो महेश से लोगों को परिचित कराया है? तब उसका इलाज कराना क्या मेरी जिम्मेदारी नहीं है?
संपर्क
दिनेश कर्नाटक
ग्राम/पो.आ. - रानीबाग,
जिला - नैनीताल
(उत्तराखंड) पिन-26 31 26
मोबाइल - 94117 93190
वाह। क्या कहानी है "खोज".. वैसे आजकल लोगों को यही लगता है फेसबुक पर जिस पोस्ट पे जितना लाइक और कमेंट वो पोस्ट दमदार .. उसी हिसाब से अपने विचारो को भी प्रकट करने लग जाते है। बाकी गालियों पर भी कम लाइक नहीं मिलता है..
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंकर्नाटक जी की कहानियां सीधे हृदय से संवाद करती हैं। बिना किसी लाग लपेट के मनोमस्तिष्क को झकझोर देती हैं। आज के समाज और मानव का यथार्थ चित्रण करती है यह कहानी खोज। हर व्यक्ति कुछ खोज रहा है... उसकी खोज उसकी बेलगाम भूख का नतीजा है.. जिसके अंत का भान उसे स्वयं भी नहीं है।
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हटाएंफेसबुक माद्यम से प्रचार पाने की आकांक्षा पर अपने तरह की अलग कहानी जो इसी बहाने सामाजिक सरोकारों को भी अपने से जोड़ पा रही है।
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हटाएंबेहतरीन फ्रेम में गुँथे हुये, छोटे मगर महत्वपूर्ण सामयिक मुद्दे और उनसे जुड़े आम जिंदगी के चरित्र कथानक को लगातार हमारे अधिक नज़दीक बनाए रखते हैं. पात्रों के कुछ द्वंद और निष्कर्ष को लेकर अपनी चरम परिणिति पर पहुँचती हुई कहानी, आखिर में हमारे लिए कुछ सवाल छोड़ जाती है. शायद वह केवल 'बड़े पत्रकार' के लिए छोड़े गए सवाल बिल्कुल नहीं है ..
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हटाएंआपकी इस प्रस्तुति का लिंक 15.10.2020 को चर्चा मंच पर दिया जाएगा। आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ाएगी|
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
दिलबागसिंह विर्क
धन्यवाद
हटाएंबेहद प्रासंगिक कहानी है। इस दौर के सत्य का उद्घाटन करता यह कथानक कल कैसा परिदृश्य बनाएगा, सोचकर डर लगता है। यह कहानी एक बड़ी बहस की मांग करती है।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंबहुत ही सुंदर हृदय का मार्मिक वर्णन, संवेदनाएं जीवित हैं स्वरूप बदल गए हैं! भगत सिंह कहते हैं कवि, पागल और प्रेमी तीनों एक ही चीज से बने होते हैं।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंबहुत संवेदनशीलता के साथ रची गई कहानी है। समाज अपनी इकाई को बनाता हुआ स्वयं का सृजन भी करता है।..वह कैसा हो जाये शायद उसे ख़ुद नहीं मालूम। अपनी स्थूलता में तब वह अपने किरदार खो बैठता है।
जवाब देंहटाएंधन्यवाद
हटाएंबहुत संवेदनशीलता के साथ रची गई कहानी है। समाज अपनी इकाई को बनाता हुआ स्वयं का सृजन भी करता है।..वह कैसा हो जाये शायद उसे ख़ुद नहीं मालूम। अपनी स्थूलता में तब वह अपने किरदार खो बैठता है।
जवाब देंहटाएंबढ़िया
जवाब देंहटाएंसामयिक दौर को प्रतिबिंबित करती कहानी।
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