शुभनीत कौशिक का आलेख : 'कला को समर्पित एक जीवन : कपिला वात्स्यायन' (1928-2020)
कपिला वात्स्यायन |
बहुमुखी प्रतिभा की धनी कपिला वात्स्यायन को साहित्य एवम संस्कृति की परंपरा विरासत में मिली थी। उनका मूल्यांकन सटीक एवम प्रमाणिक तथ्यों पर आधारित होता था। आम भारतीय के चरित्र का मूल्यांकन करते हुए कपिला जी ने लिखा है - 'वह ‘पाखंडी और विखंडित, दोनों, और जीवन व्यवहार में न केवल दोहरे बल्कि अनेक मानदंडों से चलने वाला होता है। वल्गैरिटी और भद्दापन जिस का स्वभाविक परिणाम होना ही है। अनुभूति और बौद्धिक निष्ठा के बीच एक तीखा अंतर्विरोध उभरता है और अपने हर अर्थ में सुरुचि का अभाव ही वह अंतिम स्वाद है, जो बचा रह जाता है।' कपिला जी का व्यक्तित्व कुछ ऐसा जादुई था कि उनको देखते ही मन में श्रद्धा और आदर की भावना उपजती थी। विशुद्ध भारतीय हिंदू परिवेश की दिखने वाली कपिला जी की सोच और दृष्टि अत्यन्त विशद थी। उनके व्यक्तित्व का निर्माण साहित्य, संस्कृति, इतिहास, पुरातत्त्व, रंगमंच के बहुमुखी संगम से हुआ था। वे सचमुच में एक स्कॉलर थीं। विगत 16 सितम्बर 2020 को कपिला जी के निधन से जो खालीपन आया है उसकी भरपाई हो पाना सम्भव नहीं दिखता। उनके प्रति श्रद्धांजलि व्यक्त करते हुए आज हम पहली बार पर प्रस्तुत कर रहे हैं शुभनीत कौशिक का आलेख 'कला को समर्पित एक जीवन :कपिला वात्स्यायन'। शुभनीत इस समय बलिया के सतीश चन्द्र स्नातकोत्तर महाविद्यालय में इतिहास के प्राध्यापक हैं और सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में गंभीर काम कर रहे हैं।
कला को समर्पित एक जीवन : कपिला वात्स्यायन (1928-2020)
शुभनीत कौशिक
कला-मर्मज्ञ, शास्त्रीय नृत्य, भारतीय स्थापत्य व मूर्तिकला की अप्रतिम अध्येता एवं प्रसिद्ध कला इतिहासकार कपिला वात्स्यायन का 16 सितंबर, 2020 को निधन हो गया। उन्हें प्रत्यक्ष सुनने का अवसर मुझे पहली और आख़िरी बार 12 मार्च, 2013 को साहित्य अकादेमी के स्थापना दिवस समारोह के दौरान मिला था। जहाँ उन्होंने साहित्य अकादेमी द्वारा आयोजित स्थापना दिवस व्याख्यानमाला के अंतर्गत पहला व्याख्यान दिया था। अपने वक्तव्य में कपिला जी ने साहित्य अकादेमी के आरंभिक दिनों की याद करते हुए जवाहर लाल नेहरू, मौलाना अबुल कलाम आज़ाद, डॉ. ज़ाकिर हुसैन की भूमिका और उनसे जुड़े रोचक संस्मरणों को साझा किया था। उल्लेखनीय है कि आज़ादी के बाद भारत में जिन तीन महिलाओं ने कला-संस्कृति को बढ़ावा देने, सांस्कृतिक संस्थाओं के निर्माण और सांस्कृतिक विरासत को सहेजने-सँजोने में अहम योगदान दिया था। उनमें कमला देवी चट्टोपाध्याय, रुक्मिणी देवी अरुंडेल के साथ कपिला वात्स्यायन भी शामिल थीं।
पद्म विभूषण, संगीत नाटक अकादेमी और ललित कला अकादेमी फ़ेलोशिप से सम्मानित कपिला वात्स्यायन वर्ष 1985 में स्थापित इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र की संस्थापक-निदेशक रहीं। उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय और मिशिगन यूनिवर्सिटी से उच्च शिक्षा हासिल की। प्रसिद्ध इतिहासकार वासुदेव शरण अग्रवाल के शोध-निर्देशन में उन्होंने बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी से पी-एच. डी. की थी। उनका यह शोध-ग्रंथ बाद में संगीत नाटक अकादेमी द्वारा ‘क्लासिकल इंडियन डांस इन लिटरेचर एंड द आर्ट्स’ शीर्षक से प्रकाशित हुआ।
कपिला वात्स्यायन ने अच्छन महाराज से कथक और गुरु अमोबी सिंह से मणिपुरी नृत्य की बारीकियाँ सीखीं। साथ ही, उन्होंने शास्त्रीय नृत्य, लोक-नृत्य, भारतीय रंगमंच, नाट्यशास्त्र, भारतीय चित्रकला पर विचारोत्तेजक पुस्तकें लिखीं। वे राज्यसभा की सांसद भी रहीं। वर्ष 1956 में उनका विवाह कवि व लेखक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन ‘अज्ञेय’ के साथ हुआ। किन्तु तेरह वर्ष बाद 1969 में वे दोनों अलग हो गए।
दलाई लामा के साथ कपिला जी |
साहित्य और कलाओं में शास्त्रीय नृत्य की छवियाँ
साहित्य और कला में बिखरी हुई भारतीय शास्त्रीय नृत्य से जुड़ी सामग्री का गहन विश्लेषण करते हुए कपिला वात्स्यायन ने पाँच दशक पूर्व अपनी चर्चित किताब लिखी थी। उनकी दिलचस्पी उन सैद्धांतिक आधारों को जानने-समझने में थी, जिनके धरातल पर भारतीय नृत्य परंपरा और नृत्य-कला संबंधी परंपरागत तकनीकों का निर्माण हुआ था। वर्ष 1968 में संगीत नाटक अकादेमी से प्रकाशित उनकी इस किताब का शीर्षक है : ‘क्लासिकल इंडियन डांस इन लिटरेचर एंड द आर्ट्स’।
विधाओं की सीमा से परे जाकर कला को समझने वाली इस पुस्तक के महत्त्व को रेखांकित करते हुए कपिला जी ने लिखा था कि ‘यद्यपि रस सिद्धांत सभी भारतीय कलाओं के लिए समान महत्त्व का है, लेकिन विविध कलाओं और रस-सिद्धांत के अंतरसंबंधों का समांतर अध्ययन अभी तक नहीं हुआ है। यह किताब इसी दिशा में एक प्रयास है।’ भारतीय कला-स्वरूपों के अंतरसंबंधों और उनके साझे सैद्धांतिक आधारों को समझते हुए उन्होंने भारतीय कला के वास्तविक चरित्र और विशेषताओं को उसकी समग्रता में समझा। उन्होने दर्शाया कि शास्त्रीय नृत्य, साहित्य और दृश्य-श्रव्य कलाओं के स्वरूपों व आदर्शों की सर्वोत्कृष्ट कलात्मक परिणति है।
विविध कलाओं के गूढ़तम अंतरसंबंधों को समझने के लिए उन्होंने प्राचीन काल से लेकर मध्यकाल के आरंभ तक उपलब्ध साहित्य और मूर्तिकला संबंधी स्रोतों का अनूठा इस्तेमाल किया। यह उल्लेखनीय कार्य करते हुए भी उन्होंने बड़ी विनम्रता से लिखा कि ‘मेरा उद्देश्य नई सामग्री खोजने का उतना नहीं है, जितना कि उपलब्ध सामग्री को सुव्यवस्थित रूप देने, सुसंगत बनाने और उसके सहसंबंधों के ऐतिहासिक विश्लेषण से है ताकि भारतीय शास्त्रीय नृत्य को उसकी समग्रता में समझा जा सके।’
उनकी यह किताब सिद्धांत और व्यवहार दोनों का उत्कृष्ट सम्मिश्रण है। और ख़ुद उनकी कलात्मक अभिरुचि, गहन अध्यवसाय की परिचायक भी। अकारण नहीं कि जहाँ सैद्धांतिक पक्ष को समझने के लिए उन्हें ऐतिहासिक स्रोतों के साथ-साथ वासुदेव शरण अग्रवाल, पंडित गोपीनाथ कविराज, डॉ. वी. राघवन, डॉ. मोती चंद्र जैसे विद्वानों का मार्गदर्शन मिला। वहीं दूसरी ओर, शास्त्रीय नृत्य के व्यावहारिक पक्ष को समझने के लिए उन्होंने मीनाक्षीसुंदरम पिल्लै, भारतम नारायणस्वामी भागवतार, गुरु अमोबी सिंह, महाबीर सिंह, अच्छन महाराज जैसे गुरुओं का सान्निध्य प्राप्त किया।
उनकी इस किताब की भूमिका लिखी थी प्रसिद्ध कलाविद राय कृष्णदास ने, जो उस वक़्त भारत कला भवन के निदेशक थे। राय कृष्णदास ने लिखा कि आज़ादी के बाद भारतीय संस्कृति के विविध आयामों से जुड़ी किताब की मानो बाढ़-सी आ गई। लेकिन जल्दबाजी में लिखी गई उन किताबों ने भ्रामक सूचनाएँ दे कर और गलत विश्लेषण व निष्कर्षों के ज़रिए भ्रम की स्थिति पैदा कर दी। ऐसे में उन्होंने कपिला वात्स्यायन की इस किताब को उसके तार्किक और अंतर्दृष्टिपूर्ण विश्लेषण, शोध और अन्वेषण की गहराई के चलते एक नई बयार के रूप में देखा।
राय कृष्णदास ने लिखा कि भारत में शास्त्रीय नृत्य के इतिहास की पुनर्रचना के किसी भी प्रयास के लिए यह ज़रूरी है कि वह सिर्फ़ नृत्य संबंधी प्राचीन ग्रन्थों और उन पर लिखी टीकाओं तक सीमित न रहे, बल्कि वह नृत्य के व्यावहारिक पक्ष को भी जाने-समझे। अकारण नहीं कि उन्होंने कपिला वात्स्यायन की इस पुस्तक को सराहते हुए लिखा कि यह किताब भारतीय शास्त्रीय नृत्य के सौंदर्यशास्त्रीय आयामों और ऐतिहासिक पक्षों के उद्घाटन और उनके गहन विश्लेषण में सफल रही है।
इस पुस्तक के प्रकाशन के छह वर्षों बाद 1974 में कपिला जी ने भारतीय शास्त्रीय नृत्य के इतिहास पर किताब लिखी। ‘इंडियन क्लासिकल डांस’ शीर्षक वाली यह पुस्तक प्रकाशन विभाग द्वारा प्रकाशित की गई। इस पुस्तक में उन्होंने शास्त्रीय नृत्य के इतिहास, सिद्धान्त और तकनीकों का विवरण देते हुए भरतनाट्यम, कथकली, कथक, ओड़िसी और मणिपुरी नृत्य के बारे में लिखा था।
कला और साहित्य के अंतरसंबंधों को समझने के क्रम में उन्होंने भारतीय कला परंपराओं में जयदेव कृत ‘गीत गोविंद’ की विविध प्रस्तुतियों पर ध्यान केंद्रित किया। इसके लिए उन्होंने लघु चित्र कलाओं और क्षेत्रीय परंपराओं को अपना आधार बनाया। इस परियोजना की विशालता पर टिप्पणी करते हुए उन्होंने लिखा कि ‘गीत गोविंद के व्यापक प्रभाव और समूचे भारत पर इसकी कलात्मक छाप से तो मैं अवगत थी। लेकिन मुझे इस बात का बिलकुल भी अंदाज़ा नहीं था कि भारतीय कला परंपरा में गीत गोविंद की प्रस्तुतियों के अध्ययन की यह परियोजना इतना विशाल रूप ले लेगी। इन वर्षों में इस विषय का मैंने जितनी ही गहराई से अध्ययन किया है, इसकी विराटता के सामने ख़ुद को उतना ही क्षुद्र पाया है। गीत गोविंद ने मानो अपने प्रसार और वैविध्यपूर्ण प्रस्तुतियों में महासागर की गहराई और गंगा का सतत प्रवाह हासिल कर लिया है।’
गीत गोविंद के सौ से अधिक संस्करण, अनुवाद और उस पर लिखी टीकाएँ तो पूर्व-प्रकाशित थीं। लेकिन अप्रकाशित पाण्डुलिपियों, अभिलेखीय दस्तावेज़ों, टीकाओं, अनुवादों की संख्या पंद्रह सौ से भी अधिक थी। गीत गोविंद का समग्र ऐतिहासिक-सांस्कृतिक मूल्यांकन करने हेतु पहले इस प्रचुर सामग्री का वर्गीकरण, दस्तावेजीकरण और विश्लेषण अपेक्षित था। कपिला वात्स्यायन ने इस श्रमसाध्य काम को बख़ूबी अंजाम दिया।
मनमोहन सिंह के साथ कपिला जी |
रंगमंच की भारतीय परंपरा
भारतीय कलाओं के विविध स्वरूपों और उनके आयामों को समझने के क्रम में शास्त्रीय नृत्य और लोक नृत्य की परंपरा के गहन अध्ययन के बाद कपिला वात्स्यायन ने अपना रुख परंपरागत भारतीय रंगमंच की ओर किया। इस विषय पर उनकी महत्त्वपूर्ण किताब ‘ट्रेडीशनल इंडियन थिएटर : मल्टीपल स्ट्रीम्स’ वर्ष 1980 में प्रकाशित हुई। उल्लेखनीय है कि शास्त्रीय नृत्य और लोक नृत्य पर आधारित अपनी पूर्वप्रकाशित पुस्तकों में कपिला जी क्रमशः प्राचीन भारत की नृत्य परंपरा और समकालीन भारत की लोक नृत्य परंपराओं का विश्लेषण कर चुकी थीं। लेकिन इन दोनों ही अध्ययनों में दसवीं से उन्नीसवीं सदी तक लगभग एक सहस्राब्दि के काल में हुई कला की विकास-यात्रा समाहित नहीं थी। मध्य काल में कला की विकास-यात्रा को समझने का काम निश्चय ही चुनौतीपूर्ण था। कारण कि यह समय भारत में क्षेत्रीय भाषाओं, राज्यों और संस्कृतियों के उभरने का दौर था। स्पष्ट है कि इस कालखंड में कला के इतिहास को समझने के लिए क्षेत्रीय भाषाओं में उपलब्ध स्रोत अत्यंत महत्त्वपूर्ण हो उठते हैं और अध्येता के लिए भाषिक चुनौती भी पेश करते हैं।
कपिला जी ने अपनी भाषाई सीमाओं को स्वीकार करते हुए भी परंपरागत भारतीय रंगमंच की विकास-यात्रा की पड़ताल का जिम्मा उठाया। लोक और शास्त्र के परस्पर संबंधों को समझने के क्रम में उन्होंने क्षेत्रीय भाषाओं और मौखिक परंपरा से प्राप्त होने वाली अंतर्दृष्टियों का बख़ूबी इस्तेमाल किया। रंगमंच को उन्होंने ‘अनुभव की सम्पूर्णता’ (टोटल एक्सपीरियंस) के रूप में देखा, जिसमें लोक, नाट्य और अभिनय तीनों का समावेश होता है।
इस पुस्तक में उन्होंने कूडियाट्टम, यक्षगान, भागवत मेला और कुचिपुड़ी, छऊ (मयूरभंज और पुरुलिया), रामायण और रामलीला, रासलीला और कृष्णलीला, अंकिया नाट और भावना, यात्रा, भवाई, स्वांग, ख़्याल, नौटंकी और तमाशा के बारे में लिखा। भारत में कलाओं की वैविध्यता को स्वीकार करते हुए कपिला जी ने परंपराओं को भी उनकी बहुलता में देखा। ये परंपराएँ विधा, स्वरूप, शैली और तकनीक की विविधताओं से समृद्ध थीं और किसी क़िस्म के सतही सरलीकरण को चुनौती देती थीं। कपिला जी का मानना था कि कला के इन क्षेत्रीय और स्थानीय स्वरूपों ने शास्त्रीय कला को रचने-गढ़ने और महाकाव्यों के साहित्यिक रूपों को उनका वर्तमान स्वरूप देने में अहम योगदान दिया।
क्षेत्रीय और स्थानीय स्तर पर विद्यमान इन कला परंपराओं ने सामाजिक-आर्थिक स्तरों की सीमाओं से परे जाकर सामाजिक अंतःक्रिया और संवाद को संभव बनाया। भारतीय समाज के विभिन्न स्तरों और भारतीय उपमहाद्वीप के विभिन्न इलाकों में मौजूद ये परंपराएँ जटिलता और विविधता से लैस थीं। लेकिन इसके बावजूद गहराई से पड़ताल करने पर इन्हें उनकी कलात्मक शैली और स्वरूपों के विकास और उनके सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ के विश्लेषण के जरिए पहचाना जा सकता था। ऐसा करते हुए सांस्कृतिक पैटर्न के कालक्रम का वह खाका भी तैयार किया जा सकता था जिसमें कला का कोई स्वरूप विकसित और समृद्ध होता है। कपिला जी ने प्रस्तावित किया कि एशिया की सांस्कृतिक परंपराओं और कलाओं में सार्वभौमिक और साझे तत्त्वों की खोज संभव है। परंपरागत रंगमंच के तुलनात्मक अध्ययन को कपिला जी ने मूर्तन और अमूर्तन, विविधता और एकता, क्षेत्रीय कलाओं के अंतरसंबंधों और एक ही क्षेत्र के विभिन्न कला-स्वरूपों की परस्पर निर्भरता को दर्शाने के प्रयास के रूप में देखा। ऐसा करते हुए उन्होंने भारतीय कला में अंतर्निहित शाश्वत और समकालीन, परिवर्तन और स्थायित्व, स्वतन्त्रता और स्वायत्तता, एकता और बहुलता के तत्त्वों को रेखांकित किया।
कला संबंधी शास्त्रीय ग्रंथों का पुनर्प्रकाशन और किताबों की दुनिया
इन्दिरा गांधी राष्ट्रीय कला केंद्र का निदेशक रहते हुए कपिला वात्स्यायन ने ‘कलामूल शास्त्र’ और ‘कलातत्त्व कोश’ जैसी पुस्तक-श्रृंखलाओं के प्रकाशन की पहल की। जहाँ एक ओर ‘कलामूल शास्त्र’ के अंतर्गत मतंग मुनि रचित ‘बृहद्देशी’, दत्तिल कृत ‘दत्तिलम’, ‘पुष्पसूत्र’, ‘चतुर्दंडीप्रकाशिका’, ‘मात्रालक्षणम’, ‘नर्तन निर्णय’, ‘रागलक्षणम’ जैसे ग्रंथों का प्रकाशन संभव हुआ। वहीं ‘कलातत्त्व कोश’ के अंतर्गत भारतीय कला की मौलिक अवधारणाओं पर पुस्तकें प्रकाशित हुईं। इनमें आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक अवधारणाएँ शामिल थीं। मसलन, बेटिना बॉमर द्वारा संपादित ‘कलातत्त्व कोश’ के तीसरे खंड में प्रकृति, भूत-महाभूत, आकाश, वायु, अग्नि, तेजस/प्रकाश, पृथ्वी/भूमि के बारे में फ्रिट्ज़ स्टाल, एस.सी. चक्रवर्ती, के.ए. जैकब्सन, प्रेमलता शर्मा सरीखे विद्वानों ने लेख लिखे थे।
सांस्कृतिक नीतियों के निर्माण में भी कपिला जी ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। सत्तर के दशक में यूनेस्को द्वारा विश्व स्तर पर सांस्कृतिक नीतियों के निर्माण और उनके क्रियान्वयन के संदर्भ में पुस्तकों का देशवार प्रकाशन किया गया। इन पुस्तकों में संस्कृति और विरासत संरक्षण के क्षेत्र में आने वाली संस्थागत, प्रशासनिक और वित्तीय चुनौतियों पर ध्यान दिया गया। और तत्संबंधी देश की संस्कृति की अवधारणा, सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था, राजनीतिक दशा और तकनीकी विकास के पहलुओं को भी विश्लेषित किया गया। साथ ही, संसाधन और बजट, शिक्षा, सांस्कृतिक स्वायत्तता, प्रशिक्षण, सांस्कृतिक विरासत, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सांस्कृतिक सहयोग और सूचनाओं व अनुभवों के आदान-प्रदान जैसे पक्षों पर भी ज़ोर दिया गया। इस श्रृंखला के अंतर्गत कपिला जी ने ‘सम आस्पेक्ट्स ऑफ कल्चरल पॉलिसीज इन इंडिया’ शीर्षक से पुस्तक लिखी, जो 1972 में यूनेस्को द्वारा प्रकाशित की गई। इस पुस्तक में कपिला जी ने भारत की कला अकादमियों, पुरातत्त्व व सांस्कृतिक विरासतों, संग्रहालयों, पुस्तकालयों आदि के बारे में विस्तार से जानकारी दी थी।
कपिला जी भारत में पठन-पाठन की संस्कृति को बढ़ावा देने में भी सदैव तत्पर रहीं। वे अस्सी के दशक में राष्ट्रीय पुस्तक विकास परिषद द्वारा गठित उस वर्किंग ग्रुप से भी जुड़ी रहीं, जिसकी अध्यक्षता कांति चौधरी ने की थी। इस समूह ने ‘राष्ट्रीय पुस्तक नीति’ पर एक रिपोर्ट तैयार की थी। जिसमें पुस्तकों के प्रकाशन, लेखकों को आर्थिक प्रोत्साहन, लेखक-प्रकाशक सम्बन्धों में सुधार, कागज़ की अनुपलब्धता की समस्या, लाइब्रेरी आंदोलन खड़ा करने, क्षेत्रीय भाषाओं में पुस्तकों के प्रकाशन जैसे मुद्दों पर सुझाव दिए गए थे। डी. पी. पटनायक, कर्तार सिंह दुग्गल, पी. एन. हक्सर, कृष्ण कृपलानी जैसे लोग भी इस समूह से जुड़े हुए थे।
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