अनिल अनलहातु की कविताएं

अनिल अनलहातु आज की कविता उन चिंताओं से दो चार है जो समूची मानवता के लिए लगातार खतरा बनी हुई है। स्थानीय लगती हुई यह चिन्ता वैश्विक स्वरूप में दिखाई पड़ती है। यानी कि समूचे विश्व की समस्या अब स्थानीय हो गई है। इन्हीं अर्थों में लगातार बदलते संदर्भों और सवालों से आज की कविता मुखातिब है। कवि को स्थानीय विडंबनाओं के साथ वैश्विक विडंबनाओं से परिचित होना ही होगा तभी उसकी कविता समय के साथ नजर आएगी। अनिल अनलहातु हमारे समय के सजग कवि हैं जो इस बात से भलीभांति वाकिफ हैं कि यह समय इतना खौफनाक है कि ' कहीं भी, किसी भी समय/ हो सकती है लिंचिंग'। आदमी जिस क्षण भीड़ में तब्दील हो जाता है अपना विवेक, अपनी संवेदना गिरवी रख देता है। दुखद है कि दुनिया के तमाम लोकतंत्र भी उस वोट के लिए भीड़ में तब्दील होते जा रहे हैं जो उसे सत्ता के शिखर तक पहुंचाने की ताकत रखता है। आज सब गड्ड मड्ड हो गया है। कवि इस बात से भी अवगत है कि 'हत्यारा ‘डोमा जी उस्ताद’/ संसद के गलियारों में,/ विश्व शांति स्थापना/ की बहस में शरीक/' मैत्रेय बुद्ध' बना हुआ है।' अब न्याय की उम्मीद किससे की जाए। आइ...