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ललन चतुर्वेदी के कविता संग्रह पर विनीता बाडमेरा की समीक्षा

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        कविता लिखना  जितना आसान समझा जाता है,  उतना होता नहीं। कविता जीवन का निचोड़ होती है। यह जीवन को सूक्ष्म और संवेदनशील दृष्टि से देखने की वह कला होती है, जिसे शब्दबद्ध करने का हुनर सिर्फ और सिर्फ कवि ही जानता है। ललन चतुर्वेदी हमारे समय के महत्त्वपूर्ण कवि हैं। शोरोगुल से दूर वे कविताएं लिखते रहे। हाल ही में उनका पहला कविता संग्रह प्रकाशित हुआ है  “यह देवताओं के सोने का समय है”। इस संग्रह की समीक्षा लिखी है  विनीता बाडमेरा ने। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं  ललन चतुर्वेदी के कविता संग्रह पर विनी आईता बाडमेरा की यह समीक्षा। एक ही समय सबके लिए समान नहीं होता  विनीता बाडमेरा मुझे कई बार लगता है  कहानी से कविता लिखना अधिक कठिन है क्योंकि बहुत कम शब्दों में अपने मन की बात कहना किसी कवि के लिए आसान नहीं होता है। न जाने कितने दिनों की नींद और जाग मिल कर एक कविता  रचती है। इन दिनों कुछ ऐसी ही नींद और जाग से मिल कर कविताएं पढ़ी, ललन चतुर्वेदी जी की किताब। “यह देवताओं के सोने का समय है” से। ललन जी  कविता रचते नहीं जीते हैं। उनकी कविताएं भाषाई मकड़जाल से दूर कुछ ऐसा बुनती है कि हम हतप्र

सन्तोष चौबे के कविता संग्रह पर अन्नू श्रीवास्तव की समीक्षा।

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  गति प्रकृति का नियम है। ब्रह्माण्ड के सारे तारे, ग्रह, उपग्रह गतिमान हैं। जीवन के होने में भी गति का प्रमुख हाथ है। जीवन का गति से चोली दामन का सम्बन्ध है। जहां गति नहीं होती, वहां जीवन नहीं होता। लेकिन शर्त यह है कि गति अपनी होनी चाहिए। उसी गति के अपने मायने हैं। सन्तोष चौबे गति के कवि हैं। वे उस गति को अपनी कविताओं में रेखांकित करते हैं, जो कविताओं से प्रायः नदारद रखी जाती है। सन्तोष चौबे का हाल ही में एक नया कविता संग्रह 'घर-बाहर' प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह की समीक्षा अन्नू श्रीवास्तव ने लिखी है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सन्तोष चौबे के कविता संग्रह पर अन्नू श्रीवास्तव की समीक्षा। 'वैपरीत्य भाव की कविताएं' अन्नू श्रीवास्तव जिस समय कविताओं की श्रेष्ठता एवं फेसबुक के लाइक्स, इंस्टाग्राम के फॉलोअर्स से तय हो रही हो तब उसे पूरे घटाटोप या फेनामिना से इतर जा कर संतोष चौबे की कवितायें पढ़ना एक अलग संतोष का अनुभव करना ही है। रोजमर्रा की दैनिंदन भाषा, सहज-सरल शिल्प और अनुभव का अनूठापन उनकी कविताओं को विशिष्ट बनाता है। 'घर बाहर’ उनका नया काव्य संग्रह है। लम्बी प

गोविन्द निषाद का संस्मरण 'साधू'

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  गोविन्द निषाद पिता पुत्र का सम्बन्ध निरापद होता है। पिता अपने पुत्र को दुनिया की सारी खुशियां दे देना चाहता है। इसके लिए वह दिन रात एक भी कर देता है। दूसरी तरफ पुत्र के लिए पिता हमेशा एक आश्वस्ति की तरह होता है। पीठ पर पिता का हाथ वह सम्बल देता है, जो हमें कहीं और से मिल ही नहीं सकता। लेकिन समय के प्रवाह को कौन रोक पाया है भला। समय ऐसा भी आता है जब पिता अचानक अतीत हो जाते हैं और पुत्र सहसा खुद को निराश्रित महसूस करने लगता है। युवा रचनाकार गोविन्द निषाद के पिता का हाल ही में निधन हो गया। पिता की स्मृति पर गोविन्द ने एक संस्मरण लिखा है। इस संस्मरण इसलिए भी उम्दा है कि गोविन्द ने बेबाकी से इसे लिखा है। कहा जा सकता है कि किसी भी बनावट से दूर खांटी अंदाज में लिखा है। ईमानदारी और सादगी ही इस संस्मरण को और संस्मरणों से अलग और बेजोड़ बना देती है। इस संस्मरण में वह पिता सहज ही दिख जाते हैं जो प्रायः हमारे बचपन के बादशाह हुआ करते हैं। पिता की स्मृतियों को नमन करते हुए आज हम आपको गोविन्द का एक तरोताजा संस्मरण पढ़वाते हैं।  'साधू' गोविन्द निषाद पिता जी को गुजरे महीने हो गये। इस बीच वह बा

बलभद्र का आलेख 'भोजपुरी लोकमानस में राम'

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  बलभद्र भारतीय लोक मानस में राम कुछ इस तरह घुले मिले हैं कि वे उसके बिल्कुल अपने लगते हैं। ये राम उग्र राम नहीं बल्कि सदाशयी राम हैं। ये वे राम हैं जो पत्नी सीता का हरण करने वाले रावण से बवाल नहीं चाहते बल्कि अन्तिम समय तक समझौते के हरसम्भव प्रयास करते रहते हैं। ये वे राम हैं जो भारतीय मानस को हर संकट के समय याद आते हैं। ये राम उन राजनीतिज्ञों के राम नहीं हैं जो सब कुछ मिटा देने पर तुले रहते हैं। लोक के राम उसके तीज त्यौहारों, रीति रिवाजों, परंपराओं से जुड़े हैं। लोक के राम उसके लोकगीतों से जुड़े राम हैं। लोक के राम वे राम हैं जिसमें वह सत्य के दर्शन करता है। बलभद्र ने अपने इस आलेख में इस राम का एक अवलोकन करने का प्रयास किया है। किसी रचना की प्रस्तुति भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती है। बेहतर रचना अगर इस्तेमाल करने की दृष्टि से छापी जाए, तो वह अपना अर्थ खो देती है। जैसे कि उर्वर बीज को ऊसर भूमि में डाल दिया जाए तो वह अपना अर्थ खो बैठता है। बलभद्र का दर्द भी कुछ इसी तरह का है। बहरहाल यह हमारे समय की नियति है। इसके लिए हम लेखकों को खुद जागरूक रहना होगा। किसी भी यथार्थपरक रचना के गलत इस्तेम

प्रचण्ड प्रवीर का आलेख ‘जजमेंट’ के समर्थन में'

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  किसी भी व्यक्ति को 'जज' करना आसान नहीं होता। समस्या यह है कि जज करते समय हम किन बातों को प्रमुखता दे रहे हैं और किसे उपेक्षित कर रहे हैं। इस तरह जज करना बहुत कुछ हमारे पूर्वाग्रह और दुराग्रह पर आधारित होता है। लेकिन यह स्वीकार करना भी आसान कहां? क्योंकि जज करने वाला व्यक्ति स्वयं को सर्व ज्ञानी मान कर ही चलता है। और ऐसी स्थिति में इस जजमेंट पर ही सवालिया निशान उठ खड़े होते हैं। आम तौर पर आज गंभीर बातों को हवा में उड़ा देने या उपेक्षित करने का चलन ही चल पड़ा है। प्रचण्ड प्रवीर ने इस जजमेंट के बारे में एक गम्भीर आलेख लिखा है। इसके लिए वे उन दार्शनिक विचारों और तथ्यों की तह में गए हैं जहां सामान्य के लिए जा पाना सम्भव ही नहीं। इस आलेख को पढ़ने के लिए पाठकों के भी गम्भीर होने की जरूरत पड़ेगी। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं प्रचण्ड प्रवीर का आलेख ‘जजमेंट’ के समर्थन में'। ‘जजमेंट’ के समर्थन में' प्रचण्ड प्रवीर  इन दिनों यह बात फिल्मों, टी वी शो और अन्य मीडिया के माध्यम से जनमानस में बिठायी जा चुकी है कि हमें किसी को ‘जज’ नहीं करना चाहिए। ‘जजमेंट’ का अर्थ ‘निर्णय’, ‘अच्छ