सबिता एकांशी की कविताएं
सबिता एकांशी |
विकास के दौर में हम साधन सुविधाओं के मामले में भले ही समृद्ध हुए हों, लेकिन जैविक रूप से हम लगातार विपन्न होते जा रहे हैं। गिद्ध, कौवे, गौरैया हो या फिर जुगनू इनकी उपस्थिति अब दुर्लभ से दुर्लभतम होती जा रही है। ये महज जीव भर नहीं हैं, बल्कि इन्होंने मनुष्य के जीवन में रंग भरे हैं। ये कहीं न कहीं हमारे पर्यावरण से जुड़ कर जीवन को समृद्ध करते रहे हैं। पंचतंत्र और हितोपदेश जैसे ग्रंथों में तो ये जीव जीवन्त पात्रों की तरह आ कर हमें जीवन की सीख तक देते हैं। कवि सबिता एकांशी ने इन जीवों को न केवल जिया है, बल्कि महसूस भी किया है। सबिता ने बेतकल्लुफी से अपनी कविता में इन्हें याद किया है और उस प्रतीक के रूप में चिन्हित किया है जिससे मनुष्य सही मायनों में मनुष्य बनता है। 'वाचन पुनर्वाचन' शृंखला की तीसरी कड़ी में नासिर अहमद सिकन्दर ने सबिता एकांशी की कविताओं को रेखांकित किया है। इस कड़ी में हम प्रज्वल चतुर्वेदी और पूजा कुमारी की कविताएं पहले ही प्रस्तुत कर चुके हैं। 'वाचन पुनर्वाचन' शृंखला के संयोजक हैं प्रदीप्त प्रीत। कवि बसन्त त्रिपाठी की इस शृंखला को प्रस्तुत करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका है। कवि नासिर अहमद सिकन्दर ने इन कवियों को रेखांकित करने का गुरुत्तर दायित्व संभाल रखा है। तो आइए इस कड़ी में पहली बार पर हम पढ़ते हैं सबिता एकांशी की कविताएं।
सबिता एकांशी की कविताएं : उर्दू काव्य परंपरा के प्रतीकों का निर्वहन एवं समकालीन कविता से जुड़ाव
नासिर अहमद सिकंदर
मैंने अपने स्तंभ में, समकालीन कविता के दो बिल्कुल नये कवियों प्रज्वल चतुर्वेदी और पूजा कुमारी की कविताओं पर टिप्पणियां की थीं। इस स्तंभ के तीसरे कवि के रूप में युवा कवयित्री सबिता एकांशी की कविताओं पर बात करना इस कारण भी मुनासिब है कि पूर्व के दोनों कवियों की कविताओं से न केवल कथ्य भाषा के स्तर पर सबिता आगे दिखती हैं बल्कि संवेदना और ब्यौरों के स्तर पर भी अव्वल पाता हूं। उनकी एक खूबी यह भी है कि वे हिंदी-उर्दू की प्रगतिशील काव्यधारा से भी अपना संबंध जोड़ती हैं। इस काव्य परंपरा में फ़ैज़, केदार, मुक्तिबोध, मजाज़ के भीतर काव्यकथ्य की समानताएं विचारधारात्मक रूप में एक सी आती हैं। जैसे कि मजाज़ की नज़्म ‘सरमाया-दारी’ तो मुक्तिबोध की ‘पूंजीवादी समाज के प्रति’। उसी तरह सबिता एकांशी ने अपनी कुछ कविताएं इसी परंपरा के प्रतीकों को केन्द्र में रख कर लिखी हैं। उनकी ‘उजाला’ शीर्षक कविता ‘जुगनू’ को प्रतीक बना कर लिखी गई ऐसी कविता है जो तत्कालीन संदर्भों और आसपास के ब्यौरों से उपजी हैं। उर्दू काव्य परंपरा में ‘जुगनू’ पर सबसे पहले अल्लामा इक़बाल ने दो नज़्में लिखी थी। उनकी नज़्मों के शीर्षक थे ‘‘जुगनू’’ तथा ‘‘एक परिंदा और जुगनू’’। आगे फ़िराक़ ने एक लंबी और मार्मिक नज़्म ‘‘जुगनू’’ शीर्षक से मां की याद में लिखी। उस मां के लिए जो कवि के बचपन में गुजर चुकी थी-
“मिरी हयात ने देखी हैं बीस बरसाते
मिरे जनम ही के दिन मर गई थी माँ मेरी
वो माँ कि शक्ल भी जिस माँ की मैं न देख सका
जो आँख भर के मुझे देख भी सकी न वो माँ”
इसी ‘जुगनू’ पर परवीन शाकिर के शे’र को भी भुला पाना मुश्किल है- “. . . . . .बच्चे हमारे दौर के चालाक हो गए”।
सबिता एकांशी की ‘उजाला’ कविता में ‘जुगनू’ उर्दू काव्य परंपरा के इसी प्रतीक की कविता है जिसमें ब्यौरों के रूप में नये संदर्भ उभरे हैं। यहां ‘जुगनू’, रात के पहले पहर के उजाले की फ़ेहरिस्त हैं जो आत्मा के अंधेरों को धोते भी हैं, मासूम बच्चों की हथेलियों से खेलते भी हैं। “खामोश और अंधेरे रास्ते” को लालटेन भी दिखाते हैं। कवयित्री प्रकृति व पर्यावरण से भी इतनी जुड़ती हैं कि उनके इस जुड़ाव को उनकी अन्य कविताओं में देखा जा सकता है। वे यहां ‘जुगनू’ के खतम होने का मतलब खूब अच्छी तरह समझती हैं। गावं, घर, द्वार, जंगल सहित वे ‘उजाले की एक क्रांति तथा एक पूरी की पूरी सभ्यता’’ के खत्म होने को ‘जुगनू’ का खत्म होना मानती हैं। जाहिर है कि ‘जुगनू’ उजाले के प्रतीक बिंब के रूप में उभरता है जो कविता की सामाजिकता को विस्तारित करता है।
प्रकृति से ही जुड़ी उनकी ‘‘सपना’’ शीर्षक कविता भी है जिसमें पहाड़, पेड़, पक्षियों, फूलों, आदि के खत्म होने पर जब वह लिखती हैं- ‘‘अवसाद को पालता एक सघन सपना ही बचेगा।’’ वे ब्यौरों की बारीकी तथा अपनी भाषा की संरचना में इतनी सिद्धहस्त प्रतीत होती हैं, कि इसे “तुम्हारे वास्ते” कविता में देखा जा सकता है। वे इस कविता में “सलाई से आसमान” बुनने की कोशिश करती हैं, “धरती को बुन कर खुशबू बोने” की कोशिश करती हैं। “सुबह को बुन कर सूरज को नहलाने” की कोशिश करती हैं। “पेड़ बुन कर गिलहरियों के मचलने और प्रसव करती पक्षियों” को वे देखना चाहती हैं। वे अपने “दुपट्टे पर एक औरत की ऐसी तस्वीर काढ़ना” चाहती हैं जो दुनिया का “सबसे सुंदर कोना” लगेगी।
वे अपनी “घर” शीर्षक कविता में भी अपने प्रकृति प्रेम को इस तरह जोड़ती हैं कि प्रकृति के साथ साथ सामाजिकता का पहलू भी नुमाया कर देती हैं। ये कविता पहाड़, पेड़ के कटने की ध्वनि से शुरू हो कर, चरमरा कर गिरे हुए डेनों पर बुलबुल और चिड़ियों के रोने से प्रारंभ हो कर, हंसते खेलते घर की दुआओं में खतम होती है।
इस तरह वे उर्दू काव्य परंपरा के प्रतीकों को ले कर वर्तमान के ब्यौरों में जीती हैं। वे विडम्बनाओं के ब्यौरों के साथ आगामी खतरों को आगाह करती हुई ऐसी कवियित्री भी हैं जो सकारात्मक सामाजिक भूमिका को भी अपनी कविताओं के केन्द्र में रखती हैं। सबिता की कविताएं इस संदर्भ में भी बहुत मानीखेज हैं कि उनकी उम्र को ध्यान में रखें तो उनकी अनुभवदृष्टि की परिपक्वता, उनके सामाजिक चिंतन को भी उनकी उम्र से कई गुना बड़ा बनाती है। ये माना हुआ सच है कविता के भीतर कवि की अनुभव दृष्टि जब बड़ी होती है तो वह कविता अपने सामाजिक सरोकारों में भी बड़ी हो जाती है।
निष्कर्षतः सबिता की कविता प्रकृति पर्यावरण से जुड़ कर छायावादी कविता की मानवीयकरण की कविता है। प्रगतिवादी काव्यधारा से जुड़ती हुई मानवीकरण से आगे जाती सामाजीकरण की भी कविताएं हैं। उर्दू काव्य परंपरा के प्रतीकों जुड़कर जिस तरह से सबिता अपनी बात रखती हैं, यकीनन वे उस काव्य परंपरा का निर्वाह करती हुई अपने समय समाज को देखने का एक अलग अंदाज़ बयां करती हैं।
नासिर अहमद सिकन्दर |
नासिर अहमद सिकंदर
मोगरा-76, बी ब्लाक, तालपुरी, भिलाईनगर
जिला-दुर्ग छ.ग.
पिन 490006
मोबाइल – 9827489585
सबिता एकांशी की कविताएं
परिचय
गोरखपुर में जन्म
पाखी, बहुमत, प्रयाग-पथ एवं अन्य पत्रिकाओं में कविताएं एवं समीक्षाएं प्रकाशित
(शोध छात्रा, हिंदी विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय)
1. सपना
एक दिन जब पहाड़ खत्म हो जायेंगे
कट जायेंगे सारे पेड़
तब नदिया भी हिलोरे नही लेंगी
पक्षियां नही करेंगी कोई प्रसव
दम तोड देगा बुरांस का फूल
उस बीहड़ उचाट में
अकेले ताकता हुआ
एक दिन इनके विरोध में
वो चला आएगा
तुम्हारे सपनों में बिन बुलाए
जिसका ललछऊपन भर देगा
तुम्हारे आंखों में रक्त
वह रोएगा, कलपेगा, और पूछेगा प्रश्न
आखिर क्यों?
और उसे बताने को नही होगा
तुम्हारे पास कोई उत्तर
तुम्हारे पास बचेगा केवल सपना
अवसाद को पालता एक सघन सपना।
2. तुम्हारे वास्ते
इक रोज तुम्हारे वास्ते
मैं सलाई से बुनूंगी एक आसमान
जिसमें परिंदे बेफिक्र उड़ेंगे
काढूंगी एक इंद्रधनुषी दुनिया
जिसमें रंगों को मिल सकेगी पनाह।
इक रोज तुम्हारे वास्ते
बुनूंगी एक धरती
जिसमें बो दूंगी दुनिया की तमाम खुशबुओं को
और बुनूंगी एक सांझ
जिसमें थका हारा दिन कर सकेगा आराम।
एक रोज तुम्हारे वास्ते
सुबह बुनूंगी
जिसमें नहाएगा उगता सूरज हर रोज
और बुनूंगी एक पेड़
जिसकी साख पर गिलहरियां
मचलेंगी दिन भर
जिसमें प्रसव करती पक्षियां
निडर हो कर बच्चों को
दे सकेंगी निवाला
एक रोज तुम्हारे वास्ते
एक घर बुनूंगी
और बुनूँगी अपने दुप्पटे पर
जीवन काढ़ती एक औरत
जब तुम देखोगे
उसे इतनी सुंदर दुनिया काढ़ते
तो तुम जान सकोगे यकीनन उनको
जिन्होंने बचाए रखा है
दुनिया का सुंदर कोना।
3. उजाला
जुगनू जन्में थे
अजोरिया के पहले साथी बन कर
उजाले की फेहरिस्त में जुगनू
हमेशा आगे खड़े मिले
आत्मा के अंधेरों को
धो देने आए थे जुगनू
मासूम बच्चों की हथेलियों से
खेलने आए थे जुगनू
खामोश और अंधेरे रास्ते को
लालटेन दिखाने आए थे जुगनू
वो चमकते थे, उजास करते थे
उन बच्चों की आंखों को भी
जिनको अंधेरो ने पाला था
अब जुगनू खत्म होने को है
तो सिर्फ जुगनू नहीं
अब खत्म होने को है
गांव, घर, दुआर, जंगल
और जंगल के लोग
खेतों से खत्म होने को हैं दूब
पेड़ों पर झिलमिलाती पत्तियां,
और तितलियों का एक पूरा का पूरा झुंड
अब सिर्फ जुगनू नहीं
खत्म होने को हैं
उजाले की एक क्रांति
एक पूरी की पूरी सभ्यता।
4. घर
पहाड़ों के उस पार से
हरे पेड़ों के कटने की
आती है एक ध्वनि बार बार
एक करुण विलाप घेर लेती है
और मुझे बेचैन करती है
चरमरा कर गिरे हुए डैनो पर
एक बुलबुल और कुछ चिड़िया रोज रोती हैं
यह रोना खतरनाक है
मैंने पहाड़ नहीं देखा
लेकिन देखा है बहती हुई नदी
मैंने जंगल नहीं देखा
लेकिन देखा है हंसता खेलता घर
और जंगल उनका घर है
घर सबका बचा रहना चाहिए।
5- शांति युद्ध
एक दिन टूट जायेगा उनका धैर्य
तब स्त्रियां नही गाएंगी कोई शोकगीत
वो करेंगी एक शांति युद्ध
तब दुनिया की तमाम महफिलें,और बाजार सुन्न पड़ जायेंगे
तुम जितना उखड़ोगे
वो बरगद बनेंगी
जो उग उठेंगी हर बार तुम्हारी जड़ हो चुकी सोच पर
और फैला देंगी अपनी जड़े चारों ओर
इनके मस्तिष्क की नसें
देश के मानचित्र पर एक रेखा बन कर उभरेंगी
ये मुठिया भींच कर खड़ी होंगी
और ले लेंगी अपना अधिकार
और रचेंगी अपने लिए एक आजाद दुनिया
रंगों से भरे कैनवास पर।
6- लाल रंग
गुलमोहर! तुम मुझे पसंद थे
क्योंकि तुम्हारा रंग लाल था
और तुम मेरी आंखों में
पैदा करते थे प्रेम
सड़क पर चलते
तुम्हारी लदी डालियों को कूद कर
चूम लेती थी
और टांक देती थी अपने सपने
तुम्हारी टहनियों पर।
सपने जिनमें तुम थे
और रंग थे
मेरी हर
फरवरी अगोरती रही तुम्हें
कि तुम प्रेम बन कर आओ
ताकि मैं जान सकूं
दुनिया में रंगों का महत्व
इक रोज
तुम आए
और क्या खूब आए
और मेरे इंतजार की दीवार पर
उग उठे चटख लाल-कत्थई रंग
अब समझती हूं बकायदा
जीवन में रंगों का होना
लेकिन मैं जानना चाहती हूं
जो प्रेम नहीं करते
कैसे पहचानते हैं वो रंग।
7- विदा
अब हमें मिलना चाहिए
पार्क और खूबसूरत घाटियों से ज्यादा
किसी स्टेशन पर
हाथ में हाथ बांधे
बैठेंगे किसी बेंच पर
और देखेंगे
हाथ पकड़ कर उतरते हुए प्रेमियों को
और विदा लेते हुए यात्रियों को
ताकि हम महसूस कर सकें
सहजता से प्रेम का आना और जाना भी।
8- पतंग
मां घर के सारे काम करती
मगर निराश नही होंती
लेकिन अरगौनी पर कपड़े डालते वक्त उड़ती पतंग देख
निराश होती है
ऐसे ही अनचाहे ब्याह दी गई स्त्रियां
कभी पतंग थीं
और अब उनकी डोर
घर के आंगन की अरगौनी में
उलझ गई है
जिसे वह ताउम्र छुड़ा नही पाई
कभी मां भी पतंग थी
आसमान में उड़ने वाली पतंग।
9. पूरा नाम
वह स्त्री थी
गांव छोड़ कर आयी थी
दोस्ती करना चाहती थी
मगर दोस्ती से पहले ही पूछ लिया गया
उसका पूरा नाम
स्कूल में, कॉलेज में, बाजार में, कई जगह
बताया उसने अपना नाम
वो नाम कमाने शहर आई थी
और शहर ने दे दिया उसे वही पुराना नाम
दलित, हरिजन, नीच, चमार, वगैरह वगैरह
उन नामों में सबसे ज्यादा प्रसिद्ध हुआ 'चमारिन'
वो कहती थी
एक दिन रेत में मिला देगी जातियों के नाम
और बेनाम हो कर बनाएगी अपना नाम
आजादी के रंग में रंग कर
रचेगी प्रेम की दुनिया
लेकिन कहां पता था
कि जातियों का भी अपना एक गहरा रंग होता है
उसने देखा है जाति पूछने वालों के आंखों का रंग
नाम का कितना महत्व है
वो यहीं आ कर जान पाई।
10.दृष्टा
घर की दहलीज से निकल
सूनसान सड़क पार करते
हाथ में सपनों की गठरी बांधे
निकल पड़ता है
वह जितना ज्यादा शहर में घुसता है
उतना ही कम बचता है उसका गांव
और एक झटके में फिसल जाती है उसकी उम्र से
मां का स्नेह, बच्चों का बचपन, पड़ोस के लोग,
मुनिया गाय की चमकती आंखे, लुगाई का प्रेम
और बरगद के पेड़ के छांव में सुस्ताने का सुकून भरा मन।
दो जून रोटी के लिए
छानता है पूरा शहर
गांव की याद ले कर
सोता है डिवाइडर पर
झरी हुई चादर के बीच
घुटने मोडे बचा देखता है
वो गांव के सपने में
सपनों का गांव।
विकास के नाम पर देखता है
मेट्रो, बस, लंबी सड़कें,
टंगा हुआ तिरंगा
और चिपका हुआ
अमृत महोत्सव का पोस्टर।
शहर की तड़कती धूप में खुली आंखों से
नापता है जिंदगी का वक्त
वो शहरी गरीब देश का
सिकुड़ता हुआ भविष्य
हर रोज सरेआम देखता है।
(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)
संपर्क -
सबिता एकांशी
96A चिल्ला रोड,
गोविंदपुर, प्रयागराज 211004
ई मेल - kmsabita523@gmail.com
बहुत सुंदर
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