बलभद्र का आलेख 'भोजपुरी लोकमानस में राम'

 

बलभद्र


भारतीय लोक मानस में राम कुछ इस तरह घुले मिले हैं कि वे उसके बिल्कुल अपने लगते हैं। ये राम उग्र राम नहीं बल्कि सदाशयी राम हैं। ये वे राम हैं जो पत्नी सीता का हरण करने वाले रावण से बवाल नहीं चाहते बल्कि अन्तिम समय तक समझौते के हरसम्भव प्रयास करते रहते हैं। ये वे राम हैं जो भारतीय मानस को हर संकट के समय याद आते हैं। ये राम उन राजनीतिज्ञों के राम नहीं हैं जो सब कुछ मिटा देने पर तुले रहते हैं। लोक के राम उसके तीज त्यौहारों, रीति रिवाजों, परंपराओं से जुड़े हैं। लोक के राम उसके लोकगीतों से जुड़े राम हैं। लोक के राम वे राम हैं जिसमें वह सत्य के दर्शन करता है। बलभद्र ने अपने इस आलेख में इस राम का एक अवलोकन करने का प्रयास किया है। किसी रचना की प्रस्तुति भी अत्यन्त महत्त्वपूर्ण होती है। बेहतर रचना अगर इस्तेमाल करने की दृष्टि से छापी जाए, तो वह अपना अर्थ खो देती है। जैसे कि उर्वर बीज को ऊसर भूमि में डाल दिया जाए तो वह अपना अर्थ खो बैठता है। बलभद्र का दर्द भी कुछ इसी तरह का है। बहरहाल यह हमारे समय की नियति है। इसके लिए हम लेखकों को खुद जागरूक रहना होगा। किसी भी यथार्थपरक रचना के गलत इस्तेमाल होने के खतरे आज कहीं ज्यादा हैं। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं बलभद्र का आलेख 'भोजपुरी लोकमानस में राम'।



'भोजपुरी लोकमानस में राम'


          

बलभद्र



लोक के राम बैठे ठाले वाले नहीं हैं। काम काजी हैं। उनके जिम्मे ढेरों काम हैं। लोक में जितने काम हैं, सारे काम राम को भी करने होते हैं। वे जितने सबल हैं उतने ही दुर्बल भी। उनको भी राशन -पताई की चिंता है। उनको भी किसी की बात लगती है। अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्र राम से अधिक निर्वासित राम लोक के करीब हैं। राम के निर्वासन में लोक को अधिक दिलचस्पी है। लोक ने उसे अपना निर्वासन माना है। राम, सीता और लक्ष्मण की भूख-प्यास लोक की भूख-प्यास है। सीता के संदर्भ में भी ध्यातव्य है कि लोकमानस निर्वासित सीता के ज्यादा करीब है। वह शबरी, केवट और जटायु के साथ है। लोक ने राम और सीता की छोटी-छोटी बातों को भी स्मृतियों में संजोया है। 



भोजपुरी अंचल में राम किस ढंग से लोक-स्मृतियों में हैं, समझने के लिए बहुत नहीं महज चालीस-बयालीस साल पीछे पलट कर देखने पर भी कई बातें स्पष्ट तौर पर समझ में आने लगेंगी। एक उदाहरण अनाज की तौल से संबंधित है। खलिहान में दवनी-ओसवनी के बाद अन्न की राशि को किसान तराजू-बटखरे से तौला करते थे। लघु और मझौले किसान खुद से तौल लिया करते थे। बड़े किसानों के यहां तौलने के लिए अलग से बनिये बुलाए जाते थे। तराजू के एक पलड़े पर पांच सेर का बटखरा रखा जाता था और दूसरे पर तौला जाने वाला अनाज चढ़ाया जाता था। तौलने वाला व्यक्ति चाहे वह बनिया हो, मजदूर या किसान पहले अनाज की राशि और तराजू और बटखरे को प्रणाम करता था फिर तौलना शुरू करता था। तौलते समय गिनती का आरंभ वह एक, दो, तीन की संख्या से न करके रामह जी रामह, दुअह जी दुअह, तिनह जी तिनह से किया करता था। कई जगहों पर तो रामह जी रामह, रामह जी दुअह, दुअह जी तिनह, तिनह जी चारह से गिनती आरंभ हुआ करती थी। तौलने वाला एक लय में तौलते जाता था। जैसे ही चालीस पूरा होता था, झम्म से रुक कर तराजू को फेर देता था। मतलब यह कि अनाज वाले पलड़े पर बटखरा और बटखरे वाले पलड़े पर अनाज। तराजू फेरने से पासंग का समाधान हो जाया करता था। और फिर उसी तरह से गिनती प्रारंभ होती थी। भूल कर भी एक, दो, तीन नहीं। एक की संख्या के लिए रामह जी रामह। राम के नाम से अनाज की तौल का आरंभ कृषि-संस्कृति में राम की व्याप्ति का एक सुंदर उदाहरण है। 'गरीबों की मड़ैया के रामरखवार' (गरीबों की मड़ैया के राम रखवाले) वाली उक्ति भी खूब सुनाई देती थी। इसमें भोजपुरी क्षेत्र के वैसे आम-अवाम की निस्सहायता का संकेत है जिनकी माली हालत बहुत चिंताजनक है। यहां तक कि अपने घर को लोग राममड़ैया भी कहा करते थे। फूस की मड़ैया हो चाहे खपरैल घर, यह राममड़ैया लोक जीवन की सामान्यता और सादगी की प्रतीक थी। अब तो पूरा परिदृश्य ही बदल चुका है। अब तो न वे राम रहे, न वह राममड़ैया। 



भोजपुरी अंचल में 'राम-सलाम' की संस्कृति रही है। भेंट-मुलाकात होने पर लोग 'राम-राम भाई' कहते थे। मुस्लिम समाजों में भी यह संस्कृति काम कर रही थी। हिंदू मित्रों के लिए 'राम-राम भाई का' प्रयोग बेतकल्लुफी से किया करते थे। खेती-किसानी में लगे दोनों समुदायों के लोग इस राम-सलाम की संस्कृति से बहुत आत्मीय तौर पर जुड़े हुए थे। तब 'राम-राम' का उच्चार राजनीति से नहीं, लोकव्यवहारों से प्रेरित था। तब  यह विभाजनकारी नहीं, मेल-मिलाप और साझी संस्कृति का परिचायक था। बहुत-बहुत पहले से यह संस्कृति कारगर रही है। राम-सलाम तो था ही, राम-राम कहते दुख भरा जीवन लोग काट लिया करते थे। दुःख में राम, सुख में राम, हरस और विषाद में राम। चंद्रकला त्रिपाठी के उपन्यास 'चन्ना तुम उगिहो' के 'देह से झर गया, खिला था जो' खंड की आरंभिक पंक्ति इस संदर्भ में उल्लेखनीय है - 'राम-राम करके तीन महीने बीत गए, तब बड़ी के मन में कल पड़ा।'¹ भोजपुरी समाज में बीमार पड़ने के अर्थ में 'बेराम' शब्द का प्रयोग चलता है और ठीक होने के अर्थ में 'राम' का। उदाहरण देखें -


"का हो का हाल बा, लउकत ना रहs?"

 उत्तर मिला-" ढेर दिन ले बेराम रहीं।" 

"अब का हाल बा ?"

"राम हो गइल बा। तनिकी कमजोरी रह गइल बा।"

लोकजीवन के इस प्रसंग की तरफ प्रकाश उदय का भी ध्यान गया है। उन्होंने भोजपुरी के अपने एक ललित गद्य में इसका जिक्र किया है।





लोकस्मृतियों में राम की व्याप्ति को चैत मास में मनाई जाने वाली रामनवमी से भी समझा जा सकता है। यह पर्व बड़े ही सादगी के साथ धूमधाम से मनाया जाता रहा है। अब इसका रूप काफी विकृत और हिंसक हो गया है। सादगी और सद्भाव की जगह उन्मादी नारों, हिंसक भीड़ और नफरत ने ले ली है। यह लोक का नहीं, उन्मादी सत्ता-संस्कृति का परिचायक हो गया है। मुझे याद है अपने गांव और जनपद की रामनवमी। यह पर्व विशुद्ध रूप से खेती-किसानी का पर्व रहा है। इसको मनाने का तरीका बिलकुल खेत, फसल और श्रम से संबद्ध था। इसका समय रब्बी की कटाई का है। पहले कुम्हार के यहां से मिट्टी के घड़े, मिट्टी के दीए, मिट्टी की ढकनी आदि आते थे। जिस घर या स्थान पर पूजा होती थी उसको लीप-पोत कर तैयार किया जाता था। दीवारों पर सीताराम लिखा जाता था और लाल रंग में पांचों अंगुलियों के छापे दिए जाते थे। पुआल के बिट्ठे पर अपने-अपने घर के अनुसार कलश रखे जाते थे। जैसे दो भाइयों के सम्मिलित परिवार में दो कलश रखे जाते थे। कलश में पानी भरा जाता था। उसके ऊपर आम के पत्ते और उसके ऊपर मिट्टी की ढकनी जिसमें सात खेतों से सात फसलों की चुनी हुई बालियां और ढेंढियां रखी जाती थीं। उसके ऊपर घी अथवा सरसो तेल के दीये रखे जाते थे। कलश को नए लाल अथवा पीले वस्त्रों से ढंक दिया जाता था। इस वस्त्र के लिए भोजपुरी क्षेत्र में, खासकर भोजपुर जिला में 'दवनी' शब्द प्रचलित है। रात में ठेकुआ, गुलौरा, पूड़ी आदि बनते थे और यही उस समय के प्रसाद हुआ करते थे। इनको पकाते समय औरतें देवी गीत और राम के जन्म से संबंधित सोहर आदि गाती थीं। आज की तरह कोई शोर शराबा, कोई हंगामा न था। 



ऊपर सात खेतों से चुनी हुई सात फसलों की बालियों और ढेढियों का जिक्र है। उल्लेखनीय है कि जिन खेतों में फसलों की कटाई हो गई रहती थी, उन्हीं खेतों से गिरी हुई बालियां और ढेंढियां चुननी होती थीं। वह भी किसी भी पात्र में नहीं। कुम्हार के यहां से पूजा के लिए लाई गई मिट्टी की ढकनी में ही बालियां चुननी होती थीं। जिस घर में यह पूजा होती थी उसी घर के किसी आदमी को बालियां चुन कर लानी होती थीं। वही ढकनी जल भरे कलश के ऊपर रखे आम के पल्लो के ऊपर रखी जाती थी जिस पर दीया सारी रात जलता रहता था। उल्लेखनीय है कि गेहूं और जौ में बालियां होती हैं,  मटर, चना, खेंसारी आदि में ढेंढियां। 



भोजपुरी की एक लोककथा में वन गए राम और लक्ष्मण खेतों में गिरी हुई बालियां बीन कर ले आते हैं। सीता उसे कूटती-सुखाती हैं। उसे खाने लायक बनाती हैं। लक्ष्मण लकड़ी ले आते हैं। राम कुंआ से पानी ले आते हैं। सीता रसोई बनाती है। पहले दोनों भाइयों को खिलाती है तब स्वयं खाती है। जंगल में सीता एक कुशल गृहिणी के रूप में है। राम के वनवास को लोक ने अपनी स्मृतियों में अनेक रूपों में संजोया है। वन में राम के पास अयोध्या जैसी सुविधाएं तो थी नहीं। खाने-पीने की कठिनाइयां अवश्य रही होंगी। किसी के खेत की फसल काट लाने का अधिकार तो उनको था नहीं। लोकमानस ने उस हालत में उन तीनों को जीने के लिए सामान्य जन की तरह कड़ी मशक्कत करते हुए गढ़ा है। रामनवमी में सात खेतों से सात फसलों की बालियां चुन कर लोक ने राम के वनवास की कठिनाइयों को अपनी स्मृतियों में इस तरह भी संजोया है।



रामनवमी के अवसर पर शहरों में तो अब आक्रामक नारे गूंजने लगे हैं। हथियारबंद जुलूस निकलने लगे हैं। क्रुद्ध राम झंडे पर लहराने लगे हैं। पर, इस वर्ष भी अपने गांव की औरतों को नहा-धो कर चैत में नौ दिन नीम के पेड़ में पानी डालते देखा। नंगे पांव चलती ये औरतें लोटा में पानी ले कर नीम के पेड़ तक जाती हैं और एक लोटा पानी दे कर नीम के पांच फेरा लगाती हैं। नीम में जब पानी पड़ना शुरू होता है, नीम के पत्ते तक तोड़ना मना रहता है। हालांकि अब कौन इस पर ध्यान देता है। रामनवमी के दिन पानी डालने वाली औरतें नीम में पानी डाल कर गुलौरा चढ़ाती हैं। नीम के पास की गीली मिट्टी का टीका लगाती हैं। जिस नीम को पानी देती हैं उसे 'निमिया माई' कहती हैं। जब मैंने बनारस के कमच्छा तिराहे पर नीम के पेड़ के नीचे 'नीमा माई का मंदिर' देखा तब सुखद आश्चर्य हुआ। अपने गांव की निमिया माई का यह पूजन याद आया। यह वही समय है जब पतझड़ के बाद नीम में नए-नए कोमल पत्ते निकलते हैं और कहीं-कहीं फूलों की कच्ची कलियां भी झांकती दिख जाती हैं।



खेतों की पूजा भी रामनवमी की सुबह हुआ करती थी। यह अभी भी थोड़ी-बहुत बची हुई है। यह पूजा या तो होली के समय होती थी नहीं तो रामनवमी की सुबह। पूजा की विधि भी बहुत सहज और सादगीपूर्ण थी। रात में बने प्रसाद जैसे गुलौरा, ठेकुआ, पूड़ी और एक लोटा पानी पूजा की सामग्री होते थे। इसमें किसी पंडित अथवा पुरोहित की ज़रूरत नहीं होती थी। घर की कोई स्त्री या लड़की खेत के कोने में थोड़ी मिट्टी हटा कर निर्मित प्रसादों में से एक-एक मिट्टी के नीचे रख कर लोटा का पानी वही गिरा देती थी और खेत को प्रणाम कर घर चली आती थी। राम और रामनवमी से जुड़े इतने सारे प्रसंगों को अनदेखा नहीं किया जाना चाहिए। इसमें जो भी है वह शास्त्र की नहीं, लोक की निर्मिति है। पूजा और प्रसाद की विधि और तैयारी से ले कर उसकी सांस्कृतिक-सांगीतिक निर्मिति गीत गवनई सब तो लोक और लोकमानस की निर्मिति हैं। 





भोजपुरी अंचल में प्रचलित लोकगीतों और लोककथाओं में राम, लक्ष्मण और सीता के साथ-साथ रामकथा के अनेक पात्र और प्रसंग मिलते हैं। ये पात्र और प्रसंग बाल्मीकि और तुलसी की रामकथा से अभिन्न भी हैं और बहुत कुछ भिन्न भी। लोकमानस किसी प्रसंग अथवा विषय को अगर कहीं से लेता या उठाता है तो उसे हू ब हू नहीं लेता। बल्कि उसे बिलकुल अपने अनुरूप, अपनी भाषा में ढाल कर, अपना बना कर प्रस्तुत करता है। कुछ इस तरह कि वह उसका हो जाता है। नकल के तो सवाल ही नहीं उठते। यह लोकमानस की अपनी रचनाशीलता और कल्पनाशीलता है। भोजपुरी सहित अन्य लोकभाषाओं के रामकथा से संबंधित लोकगीतों में इसे बखूबी देखा जा सकता है। लोक ने जिस राम या रामकथा को अपनाया है, वह कई अर्थों में विशिष्ट है। राम और रामकथा को अपने गीतों और कथाओं में ढालते हुए लोकमानस ने अपनी जीवन स्थितियों का अनदेखा नहीं किया है। उसने अपने संघर्षों, स्थितियों और मनोभावों के अनुरूप इस कथा और उसके विशिष्ट पात्रों को गढ़ा है। इस बात को समझने के लिए विद्यानिवास मिश्र के निबंध 'अयोध्या उदास है' और 'मेरे राम का मुकुट भींग रहा है' देखना जरूरी होगा। इन निबंधों में मिश्र जी जी ने आम जीवन में राम, सीता और लक्ष्मण की छवि देखी है। वन गए तीनों पात्रों में बिहार और उत्तर प्रदेश के उन युवकों की छवियां दिख जाती हैं जो काम-धाम की तलाश में घर से दूर किसी पराए शहर में गए हुए हैं और अनेक कठिनाइयों में रहने को बाध्य हैं। जांता चलाती औरतें गीत गाती हैं, जिसे जंतसार कहते हैं। उस गीत में वे राम, सीता और लक्ष्मण के वन की तकलीफों को कौशल्या के मार्फत गा रही हैं। राम के वनवास से कौशल्या  चिंतित और उदास हैं, वह बिसूर रही हैं-


"चारि मंदिल चारि दीप बरे हमरो अकेल बरे हो।

रामा, मोरे लेखे जग अंधिआर राम मोरे बन गइलें हो।।"²



यह बिसूरना गहन अर्थों में जांता चलाती और जंतसार गाती महिलाओं के खुद का बिसूरना है। वे खुद कौशल्या की भूमिका में हैं और उनके ही राम और लक्ष्मण परदेस गए हुए हैं। वे खुद के वियोग को गा रही होती हैं। जंतसार गाती स्त्रियां किसान परिवारों की हैं और उनके ही पुत्र आर्थिक तंगी में निर्वासन झेलने को अभिशप्त हैं। अनेक लोकगीत इसके प्रमाण हैं। महेंदर मिसिर के पूर्वी गीतों में भी इस समाज के बिछोह की करुण अभिव्यक्ति है।



खेती-किसानी में राम के संदर्भ में एक उड़िया गीत याद आता है जिसमें राम हल जोतते हैं और सीता बीज गिराती हैं। वह गीत देवेंद्र सत्यार्थी की प्रसिद्ध पुस्तक 'बेला फूले आधी रात' में  'राम बनवास के उड़िया-गीत' में है। सत्यार्थी जी लिखते हैं -"उत्कल के लोक साहित्य के राम घर का काम काज अपने हाथों से करते हैं। राम हल चलाते हैं, लक्ष्मण जुताई करते हैं और सीता जी बीज बोती हैं।"³


" चलो चलो बल्द न करो भालोनी

आऊरी घड़िए हेले पाईबो मेलानी

खाईबो कंचा घास जे ... पीईबो ठंडा पानी हो...

बूढ़ा बल्द कु जे हलिया मंगु नांईं

राम बांधे हल लईखन देवे माई

आऊरी कि करिबे जे

सीताया देवे रोई जे।⁴

- (चलो चलो,बैल, देर न करो,

जरा ठहरकर तुम्हें छुट्टी मिल जाएगी।

खाने को ताजा घास मिलेगी

पीने को ठंडा पानी।

किसान बूढ़े बैलों को पसंद नहीं करता।

राम हल चला रहे हैं

लक्ष्मण जुताई करेंगे

सीता जी के लिए और क्या काम है

वे बीज बो देंगी।)



एक उड़िया गीत में तो राम ढेंकी पर बैठ कर धान कूटते हैं और लक्ष्मण धान डालते हैं। एक गीत में तो लक्ष्मण को चटनी प्रेमी बताया गया है। सीता उनके लाए आम की चटनी पीसती है। एक में सीता गाय दुहती है।



राम, सीता और लक्ष्मण को इस रूप में देखना कितना प्रीतिकर है और यह सब लोकमानस ने संभव किया है। जो वाल्मीकि और तुलसी के यहां संभव नहीं हो सका है। इसे देवेंद्र सत्यार्थी जी ने लक्ष्य किया है। यहां इस बात का उल्लेख अवश्य किया जाना चाहिए कि उड़िया ही नहीं, भोजपुरी, मैथिली, अवधी आदि अन्य अनेक भाषाओं के लोकसाहित्य में भी राम, सीता सहित अनेक पात्र जनभावनाओं के अनुरूप सृजित हैं।



भोजपुरी के एक लोकगीत में तो सीता को चूने से चुनवटे पोखरे में स्नान कर उसके अरार पर बाल सुखाते हुए दिखाया गया है और उनके दोनों बेटों लव और कुश को गुल्ली डंडा खेलते। शिकार को राम और लक्ष्मण निकले हुए हैं। लक्ष्मण की नजर गुल्ली डंडा खेलते बालकों पर पड़ती है। उनसे वे परिचय पूछते हैं। पिता का नाम। बालक सहज उत्तर देते हैं कि बाप का नाम तो नहीं मालूम, हमारी माता का नाम सीता है और लक्ष्मण हमारे पितिया (चाचा) हैं। इतना सुनते ही लक्ष्मण दोनों बच्चों की धूल झाड़ते हैं और अपनी गोद में बैठा लेते हैं। फिर वे सीता से भी मिलने जाते हैं जो पोखरा के अरार पर अपने लम्बे-लम्बे केशों को सुखा रही हैं। वे सीता से अयोध्या वापस चलने का आग्रह करते हैं। सीता उनके आग्रह को सीधे अस्वीकार कर देती हैं। वह कहती हैं- "रामहीं पपिया के मुंह नाहीं देखबो जिनि पापी दियो बनवास।'⁵



लोक के राम पोखर किनारे बैठ कर दतुअन करते हैं और उनके भी कलेजे में किसी बात को लेकर धकधकी होती है- 

'नवहुँ खंड के पोखर, राम दतुअनियां करे हो।

ललना धकर धकर जिउवा करे, कहां से नउवा आवेला हो।।⁶ 



यह धकधकी वन में सीता के पुत्र जन्म का लोचन ले कर अयोध्या आए नाई को देख कर राम के कलेजे में होती है। सीता ने स्पष्ट तौर पर यह लोचन राम से नहीं सुनाने की हिदायत के साथ नाई को भेजा है। सीता ने समझा कर भेजा है कि यह खुशखबरी सबसे पहले राजा दशरथ को देनी है, तब कोसिला रानी को, इसके बाद बबुआ लछुमन को। (शास्त्र के विपरीत लोक के दशरथ राम के वनगमन के बाद भी जीवित हैं।)  वन की देवी सीता को समझाती हैं कि वह एक बार राम को माफ कर दे। पर, सीता इसके लिए बिलकुल ही तैयार नहीं होती। इस गीत के अनुसार यह तथ्य प्रकट होता है कि संतान नहीं होने के चलते सीता का निष्कासन हुआ था।

सीता कहती हैं- 



"एके गो होरिलवा लागि उदबसलन, राम बन भेजलन हो।

ललना, हम ना सहब सामी बात, धरती तर समायेब हो।"⁷ 

सीता के निष्कासन को ले कर लोक ने, उसमें भी खासकर महिलाओं ने राम को बिलकुल ही माफी नहीं दी है। राम को अपने तईं सवालों के बीच खड़ा किया है। यह लोकमानस का रचनात्मक प्रतिरोध है।





भोजपुरी समाज में राम की अनेक छवियां हैं। उनको किसी एक जगह से समझना, किसी एक मकसद से समझना ठीक नहीं होगा। भोजपुरी समाज के राम तुलसी, कबीर और रैदास के भी हैं। वे रामजियावन दास 'बावला', महेंदर मिसिर और भिखारी ठाकुर के भी राम हैं। वे योगियोंओ, जिनमें मुसलमान योगी भी हैं, के भी हैं। बावला को तो भोजपुरी का तुलसीदास कहा जाता है। राम वनगमन को लेकर बावला के कई मार्मिक गीत हैं। जैसे तुलसी का चित्त राम वनगमन वाले प्रसंग में खूब रमा है, वैसे ही बावला का भी। भिखारी ठाकुर के नाटकों में भी राम के सुमिरन हैं। भोजपुरी लोकमानस में राम को समझने के लिए इन और इन जैसे अन्य अनेक रचनाकारों को भी समझना होगा।

               ------------


संदर्भ :

1. चन्ना तुम उगिहों, चंद्रकला त्रिपाठी, प्रलेक प्रकाशन, पृष्ठ 53.

2. भोजपुरी लोकगीत में करुण रस, दुर्गाशंकर प्रसाद सिंह, हिंदी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग, पृष्ठ 108.

3. बेला फूले आधी रात, देवेंद्र सत्यार्थी, राजहंस प्रकाशन, दिल्ली, (1948),  पृष्ठ 122.

4. वही, पृष्ठ 123-124.

5. मां से सुना गीत.

6.भोजपुरी के संस्कार गीत, हंसकुमार तिवारी, राधावल्लभ शर्मा, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद, पटना, पृष्ठ 116.

7. वही, पृष्ठ 116.



(इस पोस्ट में प्रयुक्त पेंटिंग्स कवि विजेन्द्र जी की हैं।)

                      


सम्पर्क 

गिरिडीह कॉलेज, 

गिरिडीह - 815302, झारखंड।


मोबाइल : 09801326311

टिप्पणियाँ

  1. आज के दौर में जब राम के काम से केहू का मतलब नइखे रह गइल ,खाली राम के नामे भर भँजावल जा रहल बा-ई आलेख आँख खोल देबे वाला बा।-सुनील कुमार पाठक,पटना।

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  2. बलभद्र जी ने राम कि संस्कृति और लोक में उसकी व्यप्ति पर अच्छा आलेख लिखा हैँ. मैं अवध प्रदेश का निवासी हूँ और राम और सीता के महत्व को समझता हूँ. उसका उदाहरण राम लीलाएं है जो लगभग हर कस्बे और गांव में होती थी. वही के लोग रामलीला में लेते थे. कोई जाति और धर्म का बंधन नहीं था
    आज उनके स्वरूप का राजनितिक इस्तेमाल हो. रहा है. यह कितना त्रासद है
    स्वप्निल श्रीवास्तव

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    1. आपने पढ़ा और आपको पसंद आया। शुक्रिया!

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