रुचि बहुगुणा उनियाल के संग्रह पर बीना बेंजवाल की समीक्षा

 



आम तौर पर समाज के वे लोग जो अपनी समकालीन विद्रूपताओं से असंतुष्ट होते हैं रचनाकार की भूमिका में सामने आते हैं। वे अपनी पीड़ाओं, मनोभावों और विडंबनाओं को सार्वभौमिक रूप देने का यत्न करते हैं। रुचि बहुगुणा उनियाल ऐसी ही रचनाकार हैं जो गद्य के साथ साथ पद्य में भी साधिकार लेखन कर रही हैं। रुचि का हाल ही में एक कविता संग्रह 'मन को ठौर' बोधि प्रकाशन, जयपुर से प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह की एक समीक्षा लिखी है बीना बेंजवाल ने। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं रुचि बहुगुणा उनियाल के कविता संग्रह पर बीना बेंजवाल की समीक्षा 'प्रेम की जीवन्त थाती'।



'प्रेम की जीवन्त थाती'


बीना बेंजवाल        



'जब लिखती हूँ कविता 

तो हो जाती हूँ मुक्त 

शब्दों में मौन को आकार दे

मौन को वाचाल स्वरूप दे देती हूँ 

रहती हूँ धरा के एक कोने में 

पर छू लेती हूँ अनंत व्योम 

घटाटोप अँधियारे में भी 

नहा जाती हूँ अनगिन सूर्य रश्मियों से!'


  

रुचि बहुगुणा उनियाल के पहले हिन्दी कविता संग्रह 'मन को ठौर' में संकलित 'मुक्ति' कविता की इन पंक्तियों के अनुसार कविता लिखना उनके लिए मुक्ति का एहसास है। 'कविता और मैं' आत्मकथन में रुचि कहती हैं जो रचनाएँ हैं वे वस्तुतः मेरे स्वयं से संवाद हैं। शब्दों की ये भेंट उन्होंने उन प्रियजनों को दी है जो इनका मोल समझ कर उनकी परख रखते हैं और शब्दों का शिल्प गढ़ पाते हैं।


     

अपनी पहली ही कविता में काव्य धर्म का अनुपालन करती हुई वे कविता से माफी मांग कर अपनी काव्य यात्रा प्रारंभ करती है। वे कहती हैं _


'आह! 

मेरी कविता 

मुझे माफ करना 

मैं नहीं लिख पाई तुम्हें वैसा 

कि हो पाती तुम पुरस्कृत 

कि इतराती तुम साहित्य के 

दमकते सम्मान से सजे

मैडल और प्रशस्ति पत्र से!'' 


'खारिज कर दो' कविता में वे इसी कवि कर्म को न समझने वाले को आड़े हाथों लेती हैं।


     

प्रेम इन कविताओं का प्राण तत्व है। प्यार की आँच में 'सोने' सी निखरी प्रेम कविताओं में पल भी प्यार के गुलाबी सुर्ख लाल रंग में रंगे मिलते हैं। प्रिय का रूठना यहाँ कविताओं का भी रूठ जाना है। इसीलिए वो कविता से प्रेम को क्षरित नहीं होने देना चाहती हैं। रुचि स्वयं लिखती हैं कि  'यह लिखित दस्तावेज़ मेरे दोनों बच्चों के लिए एक जीवंत थाती है इस बात की, कि तुम्हारी माँ ने कैसे हर परिस्थिति में केवल प्रेम करना सीखा। हर चीज़ से प्रेम किया, प्रेम ओढ़ा, प्रेम बिछाया, प्रेम सिखाया और उस प्रेम ने तुम्हारी माँ को इन कविताओं से मिलवाया'। एक माँ का संतान के प्रति, पिता का बेटियों के प्रति, संतान का माता-पिता के प्रति, गली के कोने में खेल रहे दो बच्चों एवं प्रिय के प्रति व्यक्त होता यह प्रेम सकल विश्व को अपनी परिधि में ले लेता है। 


अनुभव करना तुम

क्षितिज पर लिखी इच्छा

तुम काग़ज़ पर मिलते हो

तुम्हें याद करते हुए

अगले जनम फिर मिलोगे क्या?

जब तुम उदास होते हो

आओ तुम्हारा स्वागत है

तुम अकेला कर गए

आँखें, 


'सहमा सकुचा प्रेम', प्रेम के उस शाश्वत, सर्वव्यापी भाव से सराबोर करती रचनाएँ हैं।

                


संग्रह में आठ कविताएँ ऐसी हैं जिनका शीर्षक या तो कविता है या शीर्षक में कविता शब्द कहीं न कहीं आया है। ये हैं 'मुझे माफ करना मेरी कविता', 'कैसे लिखती हो कविता', 'धूप की कविता', 'प्रस्फुटित हुई कविता', 'कविता', 'कविता कुछ नहीं', 'पहाड़ी कविता', 'कविता उगाती हूँ'। इनमें से 'धूप की कविता' की कुछ पंक्तियाँ दृष्टव्य हैं __


       

'एक कविता लिखी धूप ने 

जब धूप उतरी

चाँदी के दमकते श्वेतालय में! 

.... धूप बाँज के जंगलों में रख आई

जड़ों से फूटते 

मीठे पानी के 'धारों' पर 

कविता के कुछ छंदों को

..... रखी थी कुछ कविताएँ 

धूप ने शहर के लिए भी 

लेकिन बड़ी-बड़ी इमारतें 

निगल गई 

धूप की कविता को! 

एसी की आर्टिफिशयल 

ठंडक ने मार दी है 

धूप की गुनगुनाहट से भरी 

मासूम कविता! '


     

कविता के साथ-साथ उनकी संबोध्य हैं धरती, स्त्री, हवा। 'सुनो धरती' कविता में धरती को संबोधित करते हुए वे कहती हैं -


'सुनो धरती 

जितनी भी कल्पनाएँ थीं 

उन सबको साथ पिरो कर भी 

तुम्हारे सौंदर्य का 

हजारवाँ हिस्सा भी उतार न सकी मैं'! 


प्रकृति के साथ रागात्मक संबंधों से बँधी रुचि की कविताएँ प्रकृति के विभिन्न उपादानों से आत्मीय संवाद करती हैं। 'हवा तुम' कविता में उनकी कलम कहीं अल्हड़ पहाड़ी हवा की शोख़ी से मिलवाती है तो कहीं कस्बाई हवा के घुंघरुओं की छम-छम सुनाती है। महानगरों में हवा को रुग्ण होता देख वे उसे देवदार के घने जंगलों में ही झरनों के संग खेलने की सलाह देती हैं।


रुचि बहुगुणा उनियाल 


         

घर की चहारदीवारी में पौ फटने से ले कर लौ बुझने तक की यात्रा करती स्त्री पर केन्द्रित कविताएँ हैं, अस्तित्व, पहाड़ी औरतें, वर्जनाएँ, स्त्री तुम, तुम पुरुषोत्तम हो और यात्रा। इनमें जमाने में फैली जहरीली हवा से स्वयं का अस्तित्व बचाती स्त्रियों की दूरदर्शिता है। वर्जनाओं से डरी-सहमी दबी चीखें हैं। तो कहीं नदी, हवा, आग, शिराओं में बहते रक्त से हृदय के स्पंदन का कारण बनती स्त्री का आसमान सा विस्तृत, असीम, अद्भुत, अतुल्य, अरेखित अस्तित्व है। पहाड़ी स्त्री के चेहरे की झुर्रियों में पूरा पहाड़ देखने वाली उनकी सूक्ष्म काव्य दृष्टि का परिचय देती है कविता  'पहाड़ी औरतें'। वे कहती हैं -


'पहाड़ की औरतें 

नहीं डरती चढ़ाइयों को देख कर

यूँ ही नहीं घबराती हैं 

उतरती रपटीली पगडंडियों 

पर चलने से 

क्योंकि वे रोज ही 

भरती हैं कुलाँचें

किसी कस्तूरी मृग सी

इन रास्तों पर 

असल में पहाड़ी औरतें 

रखती हैं एक पूरा पहाड़ 

अपने अंदर! 

उनके गुठ्यार में लिखी होती हैं 

पहाड़ की पीड़ाएँ'! 


'कैक्टस' कविता में वे लड़कियों को भी कैक्टस की तरह होने की चाह रखती हैं।


                 

'सतत गतिमान' पवित्र गंगा जल यहाँ जीवन की जीवंत पहचान है। कहीं 'क्षितिज पर लिखी इच्छा' है तो कहीं छोटे-छोटे नंगे पैरों के निशान संजोए घर के आंगन और 'तकती पगडंडियाँ' हैं।  'जीवन नश्वर', 'जीवन के लिए युद्ध', 'वेटिंग रूम', 'निर्मम काल की गति', 'सुख और दुःख' जीवन दर्शन पर केन्द्रित जीवन की अलग-अलग छवियाँ प्रस्तुत करती रचनाएँ हैं। यहाँ केदार नाथ आपदा की याद दिलाता 'हरा ठूँठ' है। स्मृतियों का 'पानी' है। 


'पलाश के फूलों वाले 

लकदक पेड़ों की 

फुनगियों पर अब

झरता है खून' 


लिखने वाली कवि की कलम 'अफीम की खेती' करके सभ्यता की पौध को रौंद कर बारूद और नफरत बोने वालों की अच्छी खबर लेती है।


           

संग्रह की अन्य कविताओं में कहीं 'रूठी चाँदनी', कहीं 'उजाले की लाश', कहीं 'धरती का विलाप' तो कहीं मकानों की छतों और पेड़ों के कांधों पर 'सूर्यास्त' के सूरज की थकान है। तालाबंद दरवाजे के 'वर्चस्व' को नकार खिड़की की आँखों से देखता कमरा है। खुशी का अवसर देने वाली रात को भय का प्रतीक मानने पर 'क्षमा प्रार्थना' है। 'घर' रसोई का  'इंतज़ार' से 'उर्वर मन' और  'देह के नमक' की बात करती हैं ये कविताएँ। 'लौट आओ' रचना पलायन की त्रासदी झेलते घरों के मौन को वाणी देती है।


             

'ईश्वर तुम अपने होने से इन्कार कर दो' कविता भी संग्रह की प्रमुख कविता है जिसमें कवि ईश्वर को संबोधित करते हुए कहती हैं कि सुना है कि तुम्हें धरती पर सबसे अधिक प्रिय बच्चों की मुस्कानें हैं। चिड़ियों की चहचहाहट तुम्हारा संगीत है, तितली के पंखों के रंग से करते हो श्रृंगार, समझते हो प्रेम की भाषा, तो क्यों नहीं देते सजा उन्हें जो बच्चों का बचपन उजाड़ देते हैं, चिड़ियों के पंख कतर देते हैं, तितलियों के पंख मसल देते हैं और सिखा रहे हैं भय, नफरत, हथियारों की भाषा। मनुष्य के आविष्कारों से कवि को लगता है कि 'ईश्वर आतंकित है'।

          

        

'विश्वास' के विषय में वे कहती हैं -


'विश्वास उस पराग कण की भाँति है 

जिसे फूलों की तरह पवित्र 

मन ही सहेज सकता है'। 


फिर वे 'संदेह' पर लिखती हैं -


'चाट जाता है 

हमारे विश्वास को

जैसे दीमक चाट कर 

नष्ट कर देती है 

किताबों के पन्ने'। 


कवि का मानना है कि समय के वक्षस्थल पर एक अमिट 'हस्ताक्षर' होंगी उनकी कविताएँ।


         

समृद्ध भाव बोध वाली ये कविताएँ अपने शिल्प से भी पाठकों को बाँधे रखती हैं। 'पहाड़ी औरतें' कविता में धारे, बंठा, कुट्यारी, समूण, गुठ्यार जैसे आंचलिक शब्दों का प्रयोग अनूठा है। उपमा, रूपक जैसे अलंकारों की छटा दर्शनीय है। पुराने विषयों को नई अर्थ द्युति देता कवि का भाषा कौशल भावों को नीले रंग की स्वेटर पहनाता है। उनहत्तर कविताओं का संकलन है 'मन को ठौर'। बोधी प्रकाशन से प्रकाशित 136 पृष्ठों की इस काव्य कृति का आवरण संयोजन बोधि टीम ने किया है तथा इसका मूल्य 150 रुपए है। हिन्दी साहित्य जगत में अपनी इस काव्य कृति से सशक्त उपस्थिति दर्ज कराने वाली रुचि को शब्द यात्रा हेतु अनंत शुभकामनाएँ!


प्रकाशक - बोधि प्रकाशन

आवरण - अंजना टंडन

 ISBN NO - 978 93 90419 46 3

मूल्य - 150/




बीना बेंजवाल 



सम्पर्क :

           

बीना बेंजवाल                   

फोन नंबर - 9458343964

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