निशान्त का आलेख 'रचनाकार का आलोचक होना'

 



रचनाकार और आलोचक के सम्बन्धों पर तमाम बातें पहले भी हो चुकी हैं और आज भी ये बातें निरन्तर जारी हैं। इन दोनों के बीच का सम्बन्ध किसी दुश्मन जैसा नहीं होता बल्कि ये दोनों एक सिक्के के ही दोनों पहलू की तरह होते हैं। हर रचना खुद के लिए आलोचक का बाट जोहती है जबकि हर आलोचना किसी न किसी रचना को केन्द्र बना कर ही आगे बढ़ती है। यानी यह सम्बन्ध अन्योन्याश्रित है। इसी क्रम में कवि निशांत की एक आलोचना पुस्तक 'कविता पाठक आलोचना' हाल ही में सेतु प्रकाशन, नई दिल्ली से प्रकाशित हुई है। इसी कृति को 29वां देवी शंकर अवस्थी सम्मान प्रदान किया गया है। आलोचना की दुनिया में यह प्रतिष्ठित सम्मान है। पहली बार की तरफ से निशांत को बधाई एवम शुभकामनाएं। आज हम इसी पुस्तक का एक अंश प्रस्तुत कर रहे हैं। सरस आलोचनात्मक आलेखों को विस्तार से पढ़ने के लिए आप इस पुस्तक को मंगवा सकते हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं निशान्त का आलेख 'रचनाकार का आलोचक होना'।



'रचनाकार का आलोचक होना'

     


निशान्त



एक किताब (भावन) पढ़ते-पढ़ते मन में प्रश्न उठा कि रचनाकार, आलोचक कब बनता है? कब उसके अंदर आलोचना का जीव द्रव्य हिलकने लगता है। वह कवि, नाटककार, गद्य लेखक से आलोचना की प्रस्तर प्रतिमा का निर्माण करने लगता है। रचना से दूर जा कर आलोचना के राहों का वह रहबर बन जाता है। 



रचना और आलोचना में छत्तीस का आंकड़ा होता है? होता तो है? इसलिये कई रचनाकार आलोचना से संतुष्ट नहीं हो पाते और बार-बार आलोचकों की तरफ चातकीय निगाह से ताकते रहते है।



रचना और आलोचना को समझना है तो रचनाकार और आलोचक को समझना जरूरी है। एक ही व्यक्ति के भीतर यह दोनों होता है। यही तो मुकुंद लाठ जी के शब्दों में 'भावन'है। भावन की परिभाषा देखें- "भावन का कुछ ऐसा लक्षण किया जा सकता है: व्यंजित भाव का भावचित्र में रहते हुए ही विमर्श- निमज्जन-अवगाहन-आलोडन-परीक्षण।" (भावन, पृष्ठ 141) आक्टोवियो पाज याद आते हैं- "प्रत्येक पाठक दूसरा कवि है।" अर्थात हर रचनाकार के अंदर एक आलोचक होता है क्योंकि आलोचक सहृदय रचनाकार ही होता है। वह दो स्तरों पर रचना से जुड़ता है- पहला पाठक-आलोचक तो दूसरा रचनाकार- पाठक। रचनाकार-पाठक सिर्फ अपने आनंद के लिए लिखता- पढ़ता है। इसलिए ऐसे लेखक-पाठक कहां, किस गली में छिपे होते हैं; हमें जानने में समय लगता है। पहला जो पाठक- आलोचक होता है, वह पढ़ने के बाद उसके गुणों और अवगुणों से अपने आसपास के लोगों को अवगत कराता है। कमला प्रसाद ने इसकी सुंदर व्याख्या की है, देखें- "एक ही नागरिक कवि और आलोचक दोनों का कार्य करता है। आलोचक के नाते वह रचना का विवेक अर्जित करता है तथा रचयिता होने की वजह से तात्विकता को रच कर आकृतिबद्ध करता है। रचना में तत्वों की खोज आलोचक करता है तथा आलोचना में जीवनी-शक्ति का समावेश रचना की अंतरंगता में डूबने से होता है। दोनों विधाओं का संबंध द्वंदात्मक होता है और इस संबंध से दोनों का भला होता है, यानी गति आती है। एक व्यक्ति यह काम करें जैसा कि निराला और मुक्तिबोध ने किया या दो व्यक्ति अलग-अलग करें जैसा कि नागार्जुन और नामवर सिंह ने किया- कोई हर्ज नहीं। एक व्यक्ति करता है, तो खतरा है कि वह अतिशय निजी पसंद का सामान्यीकरण आलोचना में न करे जैसा कि अज्ञेय ने किया और दो अलग-अलग व्यक्ति करते हैं, तो खतरा है कि कहीं आलोचक किसी कारणवश रचना से संपर्क छोड़ कर निष्कर्ष न निकाल ले, जैसा कि शास्त्रवादी आचार्यों ने किया। इस रास्ते में स्वस्थ मार्ग बहुत पेचीदा है।" (रचना और आलोचना की द्वंदात्मकता, कमला प्रसाद, पृष्ठ -7) इस पेचीदे मार्ग को ले कर ही मन मे प्रश्न उठता है कि कब रचनाकार, आलोचक बनने का निर्णय लेता है।



रचना मन की मौज है तो आलोचना उस मौज का जस्टिफिकेशन। मौज को सही ठहराने का उत्सुकतापूर्ण तर्क। 



कोई आलोचना रचनाकार को संतुष्ट कर दे, संभव होता हुआ नहीं दिखता। क्योंकि रचना और आलोचना के बीच वही सम्बन्ध है जो एक भाला और ढाल बनाने वाला अपने भाले और ढाल  की बड़ाई में कह रहा था कि मेरा भाला दुनिया के किसी भी ढाल को भेद सकता है और मेरा ढाल दुनिया के किसी भी अस्त्र-शस्त्र को रोक सकता है। कुछ -कुछ आलोचना और रचना का सम्बंध इसी तरह का होता है। खैर, रचनाकार बनता ही इसलिए है कि वह अपनी रचना की आलोचना से संतुष्ट नहीं होता। यह एक साधारीकरण या सामान्य सा सिद्धांत है। ठीक उसी तरह लेखक प्रकाशक इसलिए बनता है ताकि उसकी किताबों के लिए उसे ठीक ठाक रॉयल्टी प्रकारांतर से पैसा मिल सके। पर बात इतनी सी ही है क्या?



पूर्वजों की कही हुई बात याद आती है कि हर बात का किसी दूसरी बात से सम्बन्ध होता है। लेखक-प्रकाशक या रचनाकार-आलोचक, मालिक (प्रकाशक)-कर्मचारी (लेखक भी इसमें शामिल किया हुआ मान सकते है।) का सम्बंध अधिकतर सांप और नेवले जैसा ही होता है! और इनका सम्बन्ध कई सम्बन्धों या कई बातों पर निर्भर करता है।



रचना और आलोचना का सबन्ध भारत-पाकिस्तान जैसे होते हैं। दोनों निकले एक ही जगह से होते हैं पर वैमनस्य कम नहीं होता। दूसरे शब्दों में उनमें कौरव-पांडव जैसा संबंध विकसित हो जाता है। कहीं-कहीं और कभी-कभार ही राम-भरत या कृष्ण-बलराम जैसे संबंध दिखते हैं। कभी नलिन विलोचन शर्मा ने 'मैला आंचल' के लिए और रामविलास शर्मा ने निराला के लिए यह सहृदयता दिखलाई थी। निराला ने एक ही आलोचना पुस्तक लिखी, एकमात्र रवीन्द्र नाथ पर वह भी पैसों के लिए। रेणु ने कभी आलोचना नहीं लिखी, लेकिन आजादी के बाद लेखकों- रचनाकारों के व्यक्तित्व में काफी बदलाव आया और उन्होंने आलोचना की तरफ भी रुख किया। 


अच्छा और बुरा कह देने से बात नहीं बनती। अच्छा है तो क्यों और बुरा है तो क्या? विस्तार से, तफ्सील से सुनने के लिए रचनाकार के कान खड़े होते हैं। ऐसे भी रचनाकार के मन में बहुत सी बातें होती हैं जिनमें से वह कुछ को ही शब्द दे पाता है। इसलिए बाकी शब्दों को वह दूसरों के कंठ से सुनना/देखना चाहता है। इसीलिए उसे दूसरों की आलोचना पसंद आती है, लेकिन आलोचना के लिए पढ़ना होता है और पढ़ने वाले हमेशा से आबादी के बनिस्बत काफी कम रहे हैं। इसलिए रचनाकार को एहसास-ए-कमतरी महसूस होती है। इससे निकलने के लिए भी वो लिखता है। अपनी न सही दूसरों की रचनाओं के बहाने ही सही। वह एहसास-ए-कमतरी से एहसास-ए-बढ़ोतरी की तरफ बढ़ता है। 





वैसे भी सौ पृष्ठों या दो सौ या छह सौ पृष्ठों की रचनाओं पर दो तीन शब्द खर्च करना कहां का न्याय है? ज्यादा अच्छा लगना गूंगे के गुड़ की तरह हो सकता है। आपका मुंह गुड से बंद हो सकता है पर भाव के प्रकाश के लिए मुह के अलावा भी बहुत सारे अंग हैं जिनसे भाव प्रकट किए जा सकते हैं। जैसे आंखें, जैसे हाथ आदि। रचनाकार वही तो देखना/ सुनना चाहता है। लिख कर और कुछ मिले या न मिले, पाठकीय प्रशंसा भी मिले तो लेखक/लेखन की उम्र बढ़ती है।



लिखने को ले कर हमारे समाज में हमेशा अंदर ही अंदर एक नकारात्मक छवि काम करती हैं क्योंकि लेखन से पेट पालना, घर-संसार चलाना कठिन काम रहा है। प्रतिष्ठा भले मिल जाए, कवि-लेखक का पद भी मिल जाए पर है तो यह घर फूंक तमाशा देखना ही। इसलिए लेखक को पहली लड़ाई अपने घर में ही लड़नी पड़ती है। कई बार तो घर छोड़ कर या घर वालों की अपेक्षा के बीच रह कर सृजन कर्म करना पड़ता है। पहले सृजन कर के सीधे पाठकों तक पहुंचा जा सकता था। भीड़ में गाया जा सकता था, मेले ठेले में भी। नागार्जुन तक ने रेल में घूम-घूम कर अपना संग्रह बेचा था। पर जब से छपने-छपाने का रोग बढ़ा लेखक को लिख कर या लिखवा कर एक दूसरे पर क्योंकि अपने 'दही को सही' कहने से विज्ञापन या प्रचार जैसा होता है कि परिस्थितियों से गुजरना पड़ता था; इसलिए मित्र मंडली बनी। कमलेश्वर, राजेंद्र यादव और मोहन राकेश की दोस्ती काम आई।राजेश जोशी, अरुण कमल और मंगलेश डबराल की दोस्तियां भी। कोशिश तो और भी लोग, आज तक कर रहे हैं लेकिन समय इतनी तेजी से बदला कि अब दोस्तों को गोली मारो और अपना आत्म प्रचार खुद करो, पद पर हो तो नीचे वाले नीचता की हद तक करेंगे नहीं तो चाहे किताब हो या कविता या कहानी दूसरा नहीं करने वाला है। यह आत्म-प्रचार भी एक तरह का आलोचनात्मक लेखन ही है, पर एक तरह का ही है। 



होता यह है कि हम दूसरे की आलोचना से संतुष्ट नहीं होते। हो ही नहीं सकते। कारण स्पष्ट है कि वह दिल भी निकाल कर दे दे तो हमें लगेगा कि कुछ छूट गया। संतुष्टि का ग्राफ थोड़ा कमजोर हुआ है, हमारे अंदर इस बदलते हुए समय में। सब कुछ को तुरंत पा लेने की बेसब्री है। सब कुछ को तुरंत पा लेना या उपभोग कर लेना जिसे आजकल उपभोगतावादी मानस कहते हैं, ने रचनाकार और आलोचक के रिश्ते को बदल दिया है।



सबको जल्दी है, इसलिए यहां आत्म विज्ञापन जलील होने जैसा अनुभव नहीं होने देता। इस पीढ़ी की आंखें ही खुली है विज्ञापनों के बीच। इनसे मतलब हमारी पीढ़ी से है और अब तो हमारी बाद की पीढ़ी से नैतिकता जैसे जुमलो की उम्मीद न ही रखे तो बेहतर। इस पीढ़ी में तो कुछ आलोचना को वरिष्ठों या असहमतों को ठिकाने लगाने के लिए अस्त्र की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है। कारण व्यक्तिगत हो या पुरस्कारगत या साहित्यिक- सामाजिक। (वैसे यह परंपरा भी काफी पुरानी है।) ऐसे रचनाकार भी आलोचक बनते हैं जिनका काम ही शिकार पर निकलना है। फिर वे शेर ही नहीं मारते, मासूम हिरणों-मेमनों का भी शिकार शौक से करते हैं और कहते हैं - 'शौक बड़ी चीज है'। ये धन्य है, इन्हें ... है। 



आज रचनाकारों की फौज है तैयार और आलोचक सेनानायक की तरह हर सैनिक की तलवारबाजी, भाला फेंक या अन्य कौशल को देख नहीं पाता। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो आलोचक उतना पढ़ नहीं पाता जितना लिखा जा रहा है। इसलिए भी रचनाकार को आलोचक बनना पड़ रहा है। यह एक सुखद स्थिति है। स्वागत योग्य कदम है। आज अधिकतर रचनाकार आलोचक हैं। इसमें काफी थोड़ा सा योगदान विश्वविद्यालय अनुदान आयोग का भी है। बस किसी-किसी दाल में हींग के जैसा ही। 



खैर, आलोचना है तो आलोचना ही। वह वस्तुतः रचना की व्याख्या ही करती है। इसीलिए मैनेजर पांडेय जैसे आलोचकों को कहना-लिखना पड़ा कि- "मैं आलोचना को कविता और कवि से बड़ा नहीं मानता" और आजकल शंभू नाथ जैसे आलोचक कवि बन गए हैं। मैनेजर पांडे ने तो कई कवियों की कविताओं का अनुवाद किया है। मुकुंद लाठ जी ने तो 'गगनवट' जैसी पुस्तक ही संस्कृत कवियों का हिंदी में 'स्वीकरण' (अनुवाद) करा दिया है। कविताएं तो लिखी ही है। अनुवाद करना भी एक तरह की रचना ही है। तो कहने का लब्बोलुआब यह है कि आलोचक भी रचना की तरफ प्रवृत्त होते हैं, उनके यहां कारण रचनात्मकता को पाने की प्यास ज्यादा बड़ी होती है। वे तृप्त होने की कोशिश करते हैं। यह कोशिश महत्वपूर्ण होती है। सफल होना हमेशा महत्वपूर्ण नहीं होता। यही कोशिश रचनाकार भी करता है और वह ज्यादा सफल होता है। कारण स्पष्ट है-वह भाव पक्ष को जितने अच्छे से जानता है, उतने ही अच्छे से कला पक्ष और दोनों की विशेषता को भी। इसलिए रचनाकार जब आलोचना लिखता या करता है तो वह ज्यादा सफल होता है। इतिहास तो यही कहता है।



यह मुहावरा भी बना कि असफल रचनाकार सफल आलोचक होता है। जबकि हम यह भूल जाते है कि उसके पास रचनाकर का मन होता है। वह सिर्फ आलोचक (पी-एच.डी. डिग्रीधारी) होकर, रचना का मर्म जान ही नहीं सकता। उसके लिए रचनाकार का मन होना जरूरी है, भले ही थोड़ा (असफल) हो।



खैर, रचनाकार क्या चाहता है या उसे चाहिए क्या होता है? अपनी रचना की प्रतिध्वनि।



रचना की प्रतिध्वनि में रचनाकार आलोचक हो जाने को अभिशप्त होता है।




Contact


Dr.Bijay Kumar Shaw

Assistant Professor

Department of Hindi

Kazi Nazarul University

Asansol-713340.

West Bengal.


Mob : 8250412914

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