शैलेन्द्र कुमार शुक्ल की कविताएं
शैलेन्द्र कुमार शुक्ल |
समय के अनुसार प्रतिमान बदलते रहते हैं। यह जरूरी नहीं कि जहां बेहतर चल रहा हो वहां बदतर घटित नहीं हो सकता। कहा जा सकता है कि समय का भी प्रति समय होता है। आज जो सत्ता में प्रतिष्ठित हैं उनके प्रतिमान बिलकुल अलग हैं। यह बात सबको पता है कि गांधी जी ने राष्ट्रीय आन्दोलन का नेतृत्व किया। लेकिन यह दुखद है कि आज उन लोगों को प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया जा रहा है जिन्होंने न केवल गांधी जी की हत्या की बल्कि उनके सिद्धांतों और आदर्शों की हत्या कर दी। कवि शैलेन्द्र कुमार शुक्ल अपने ढब के कवि हैं। उन्होंने कविता की छन्दात्मकता को बचाए रखने का प्रयास किया है। शैलेन्द्र वर्तमान स्थितियों से आक्रोशित होते हुए लिखते हैं : 'एक हत्यारे की सहज मृत्यु से भयावह/ क्या हो सकता है महाराज!/ यह उत्तर सत्य का जमाना है/ सूचनाओं में गुम होता एक हत्यारा/ क्या अब सिर्फ विभत्स श्रद्धांजलि/ का हकदार रह गया/ अपने मुंह पर थूको/ नहीं थूक सकते तो/ शर्म को शर्मसार करो।' शैलेन्द्र ने हिंदी कविताओं के साथ-साथ अपनी बोली अवधी में भी उम्दा कविताएं लिखी हैं। आज पहली बार पर हम उनकी कुछ हिंदी कविताओं के साथ दो अवधी कविताएं भी प्रस्तुत कर रहे हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं शैलेन्द्र कुमार शुक्ल की कविताएं।
शैलेन्द्र कुमार शुक्ल की कविताएं
पड़िया के जन्म पर सोहर
चलनिया में भर कर नाज
उतार रहीं थीं महतारी
धन में श्रेष्ठता के सबसे पुराने मान
गोधन पर
ले आये गए हैं थनिहा के पात
बन रहा है सोठौरा
गमक रही है
एकेहुला पर चढ़ी कड़ाही में गुड़
टोले में चर्चा है
कि आज बियायेगी भैंसिया
दुकन्दार की
अम्मा सुमिर रही हैं
देई-देउता भली के ताईं
कि महिषी उठ-बैठ रही है ओसारे में
प्रसव पीड़ा से बेहाल
पिता मुस्तैद हैं
किसानी दुनिया के तमाम अनुभवों के साथ
एक कुशल चिकित्सक जैसे
मंगा कर रख लिए हैं
देशी दारू का एक पउवा
सद्य प्रसूता महिषी की मालिश के लिए
मां सुलगा रही हैं कंडी
कर रही है धुमायित
दहकती आग पर सरसौ और अजवाइन
सुरक्षित हो रहा है परितः
अभी-अभी उबर आयी है भैंस
चाट रही है अपना शावक
चिहुँक रही है पड़िया
आह्लादित हो गया है पूरा घर
मुझे याद आ रही है पुराने अवधी सोहरों की धुन
स्मृति में अशेष है ढोलक की थाप।
सत्ता की आत्मकथा
उसकी नाभि में अमृत था
और कारागार में जिसका
बंदी था यमराज
जो हिमालय को अपने बाहुबल से
उठा लेता था स्कन्ध पर
उसके पास अहंकार के दस सिर थे
उसे वरदान था कि
जिसके सिर पर रख देगा वह हाथ
भस्म हो जाएगा
कहते हैं कि
उसकी मृत्यु नहीं हो सकती थी
धरती पर
आकाश में
पाताल में
वह किसी अस्त्र शस्त्र नहीं मर सकता था
उसने पी लिया था अमृत
वह सूर्य और चंद्रमा को
अपना ग्रास समझता था
वह अपने देश में
विकराल बहुमत से बन बैठा था चांसलर
उसे जिनसे घृणा थी
गोली से नहीं ऑक्सीजन की कमी से मारा
उसकी विजय पताका पर लिखा था
सुनामी
वह साक्षात अकाल था
उसे महामारियाँ सिद्ध थीं
वह इतना ताकतवर था कि
उसने बदल डाले थे हजारों अत्यंत आवश्यक
शब्दों के अर्थ
वह जिसकी हत्या करता
उसके परिजन और पुरजन सदा के लिए हो जाते थे उसके मुरीद
उसे सबसे प्रिय था शमशान में मंगल गीत गाना
वह जिससे प्रेम करता था
उसे रखता था भूखा और बेजार
बड़े इश्क से मारता था उसे
कि उसकी सड़ती हुई लाश में पड़े हर कीड़े से
सरकार बना लेने का वायदा था उसका
वह सच में अपनी जनता के बीच
ईश्वर का परदादा था
उसने उंगली पकड़ कर
बरसों से बेघर घूमते अपने गरीब पोते को
दे दिया था एक आलीशान घर
यह कविता यहीं खत्म नहीं हो जाती
इसका अंत
इसकी शुरुआत में ही है।
हत्यारे की मृत्यु पर
मेरा सिर आज राष्ट्रीय झंडे की तरह
झुक गया है
ये खामखाँ आंखों पर काली पट्टी बांधे गांधारी
अरे सुन!
न्याय की देवी
किसी सिगरेट पीते बिगड़ैल लौंडे से
मांग कर लाइटर
सच में फूंक देना चाहता हूँ
नकली आदर्शों का जाली दंभ
जानता हूँ कि न्याय कुछ नहीं होता
जानता हूँ कि सत्य कुछ नहीं होता
लेकिन समय के शागिर्द सब कुछ होता है
एक बलात्कारी के शिश्न पर
गोली दागने की खबर
मैं भारत के सबसे राष्टवादी अखबार में पढ़ना
चाहता था
मैं पढ़ना चाहता था
अदालत का फरमान
कि उस हत्यारे की फाँसी
मुकम्मल वक्त पर होगी
एक हत्यारे की सहज मृत्यु से भयावह
क्या हो सकता है महाराज!
यह उत्तर सत्य का जमाना है
सूचनाओं में गुम होता एक हत्यारा
क्या अब सिर्फ विभत्स श्रद्धांजलि
का हकदार रह गया
अपने मुंह पर थूको
नहीं थूक सकते तो
शर्म को शर्मसार करो
अपनी काबिलियत पर ढोल पीटने वाले गदहों
अपनी चालाकी पर भीख मांगने वाले नेताओं
धिक्कार है तुम्हें
एक भाषा का धिक्कार!
हिंदी कविता का संक्षिप्त इतिहास
दिल्ली के तख़्त पर बैठा है सिकंदर लोदी
और गंगा के तट पर खड़े हैं कबीर
आज भी
सीकरी से आया है फरमान
शाहेवक्त का
और कुम्भन की टूटी हुई पनही मांग रही है ब्याज
एक महान नौरत्नी बादशाह
जिसका मुरीद है मुगलिया इतिहास
नहीं खरीद सका गरीब गोसाईं के स्वाभिमान को
एक बार फिर घिरे हैं भीड़ में महाकवि गंग
अरी ओ सत्तेश्वरी
जिन्हें तुम अपना आशिक मान बैठी हो
वे शूर नहीं भड़ुवा हैं
विदा लेते दहाड़ रहा है हिंदी का कवि
हमारे समय का शाह बड़ा बहमी है
जिसने बेंच दी है सल्तनत की लाश
और एक भाषा का ईमान खरिदने निकल पड़ा है
उदात्त
उत्सव के रंग में भीगी है
मेरे बालमन की
उतरते हुए पहर सी धूप
पीली मिट्टी से
सनी है
किसी अन्तःस्थल के
भव्य भवन की कच्ची दीवार
स्मृतियों में नहीं
सिर्फ गेंदई परतों के घर में
स्कूल से लौटा हूँ
कांधे पर टंगे झोरे को झटकते हुए
बहन की खिली है
नीम की छाँह सी
निर्दोष हँसी
चैत की साँझ से बस
थोड़ा पहले
जिस सीढ़ी से चढ़ रहा हूँ छत
चुपचाप
जब वे प्रतिष्ठित हो रहे थे
कोशिश हो रही थी कबीर को बांधा जा सके
सत्ता की जंजीरों से
कि डुबाया जा सके जहाज अहंकार की गड़ही में
जब उन्हें मिल रहे थे छंद पर छत्तीस लाख
गोसाईं को खेदा जा रहा था नगर से
फेंकी जा रही थी पोथी गंगा में
जब वे ले रहे थे महाकविराय की उपाधि
खानखाना को मुक़र्रर हो चुका था देशनिकाला
हृदय पर दाग दिया गया था सदी का सबसे भयावह दुःख
जब चापलूस खां को ओढ़ा रहा था दुशाला
रंगीला बादशाह
नादिरशाही में कटा हुआ घनानंद का हाथ
लिख रहा था इश्क की इबारत
जब उन्हें बनाया गया था कुलपति
हजारों प्रसंशकों की पैदल भीड़ जयघोष कर रही थी
दारागंज की एक निरीह कोठरी में
बटलोई में चढ़ाए अदहन चिंतन में डूबे थे महाप्राण
जब बुलाकी ग्रहण कर रहे थे
बीसों भुजाओं से ज्ञानपीठ
बाबा जेल की हवा खा रहे थे
जब आध्यत्मिकता की वीणा पर बज उठा था
तमगा साधे सदी का दरबारी राग
सन 64 की बची हुई आखिरी बीड़ी का कस
खींच कर बेचैन हो गए थे मुक्तिबोध
जब सुख के रस में भीग रहे थे समाचार
तब त्याग की कसौटी पर चिह्नित हो रहा था
साहित्य का इतिहास
चुपचाप
गर्मियों के दिन
स्याले ये गर्मियों के दिन
और
किसी शहर की छत पर धूप में तपता हुआ कमरा
बगल के खंडहरनुमा घर के पिछवाड़े
हरामी कबूतरों की बदबूदार आवाज
कुत्तों की लपलपाती लाल जीभें
काले जबड़ो के बीच
खूंखार दांतों की बेहया पाबंदियां
मेरी तरुणाई की तबाह कहानियां हैं
और कुछ नहीं
ये स्याले गर्मियों के दिन
समय के चूल्हे पर
अपेक्षाओं की बटुई में
अदहन सा उबला जा रहा है मेरा खून
कौन सुनेगा मेरी
इन स्याले गर्मियों के दिनों में मेरी बात
उतरते हुए दिन की लंपटता
शाम होने से पहले
पीली बर्र सी चबाए जा रही है मुझे
शाम और कुछ नहीं
गंदी शराब पीने से हुई कै से मिली
एक राहत जैसी
हर बार कैसे झेलता हूँ
इन स्याले गर्मियों के दिनों को
अहा! वो भी क्या दिन थे गर्मियों के
जब निमकौड़ियो से लदे नीम के नीचे
कच्चे घर का छप्पर
पक्की गगरी का पानी
कच्ची अमिया
पुदीने की पत्तियाँ
चोर सिपाही वाली पर्चियाँ
बाबा की रमायन
दादी की दसनी
और दुपहरी में बच्चों के लंबे चलने वाले खेल
ये नॅस्टोल्जिया
मैं प्रौढ़ताओं में तंदूर हुआ जा रहा हूँ
ऊपर से ये स्याले गर्मियों के दिन
भाई के बियाह के अवसर पर
मेरी दाहिनी भौंह पर
एक निशान है
तुम्हारे पहली बार
धरती पर छुट्टा-मुट्टा
खड़े होने का
तुम्हें पिता से ज्यादा प्यार मिला
मुझे रश्क होता था बचपन में
मैं पढ़ने में बहुत कमजोर था मेरे भाई
तुमसे पूछता रहता था शब्दों की वर्तनी
लेकिन तुमने मुझे जाहिल नहीं समझा
हमने साथ-साथ की चरवाही
ग्रीष्म और वर्षा दोनों ऋतुओं ने
एक साथ पहचाना था हमें
तिपतिया से भादा तक
इकरा से पियाजा तक
कंटिलवा से सिलवारी तक
लहसुआ से पेहेंटुवा की बेल तक
दूब घास पर तुमरी खुरपी की धार
एम एससी की डिग्री से कम प्यारी नहीं थी
हम जवान हुए थे
बाबा की मूछों पर थिरकन से
हमने संघर्षों की दुनिया देखी
रपटीली सी डगर पर
हम भारतवर्ष के तमाम शहरों में रहते रहे वर्षों
हजारों किलोमीटर दूर से पकड़े रहे हाथ
आज तुम्हारा बियाह है
और तुम्हारे तमाम एहसानों से दबा भाई
एक हजार किलोमीटर दूर हूँ
तुम्हारे लिए शुभकामनाओं की मेरे पास एक गठरी है
जिसे सिर पर उठाए खड़ा हूँ
और मेरी रेल छूट गई है
वे कवि नहीं
उसकी बाँह पर ज़ख्म था
और हाथ में छूरा
उसने बड़ी मुलायमियत से आहिस्ता आहिस्ता
लगाया दुख गए घाव पर उम्दा मरहम
मेमने को ज़िबह करने के तुरंत बाद
उसने तपती जेठ की दुपहरी में
एक फले हुए जवान बिरुए
पर चलाया कुल्हाड़ा
भहरा कर गिरे रूख को
देख रही है उसकी गर्भवती पत्नी
छाया में बैठी टुकुर टुकुर
लकड़हारा पसीने से बेहद परेशान है
उसने ताल में छपाक से फेंका जाल
एक गीत गाते हुए कि जाल में फँसना चाहती हैं वे
जब खौलते तेल के कड़ाह में
तलफला रहीं थी मछलियाँ
शिकारी का कंठ सूख रहा था
बेजोड़ गीत गाते गाते
वे कवि नहीं कसाई हैं
वे कवि नहीं लकड़हारे हैं
वे कवि नहीं शिकारी हैं
उनकी कविताएँ अकादमिक समीक्षाओं में कही जाती हैं
उम्दा !
बेहद !!
बेजोड़ !!!
आओ तुमको गले लगा लूँ मेरे भाई
(प्रिय विहाग वैभव के लिए)
तुम सदियों के अंधकार में नई
सुबह बन कर आए हो
नया घाम ले कर आने पर
अगहन के मन को भाए हो
नई गंध इस नए राग संग मिल कर आई
आओ तुमको गले लगा लूँ मेरे भाई
भनति हमारी अपने कवि को ढूंढ रही थी
परंपरा निज स्वाभिमान को परख रही थी
निरख रही है वसुधा अपनी
प्रतिभा का यह शावक
अपने युग दर्शन से तोड़ेगा
पत्थर दिल गायक
हूक उठेगी सोई है जो प्रबल प्रताप कमाई
विकल विश्व का हाथ गहेगी जिंदादिल सच्चाई
सूर्य शलभ के अष्टधातु पर अम्बर भर ऊँचाई
धन्य धन्य दस दिशा कहेंगी गूँजेगी कविताई
नव विहाग का यह वैभव है करुणा भर तरुणाई
आओ तुमको गले लगा लूँ तुम हो मेरे भाई
गीतों से परिवर्तन उतरे
धरती पर हो खेती
समता की मूरत कविता के बाहर भी हो जीती
उतरें वे भी जो अटके हैं
कुंठा के घट तोड़ें
मिलो और संवाद करें हम
या तुरंग को मोड़ें
नए मोर्चे पर गाता कवि विदा गीत अरुणाई
आओ तुमको गले लगा लूँ मेरे भाई
अवधी कविताएं
मनई मनई का नौकरु है
यहि धमाचौकड़ी मा ककुआ फगुआ कै रंग उड़ाय गवा
दुइ ध्याला केरि चाकरी मा सिधुवा मनु चक्कर खाय गवा
पेटऊ पापी दोखी दुनिया मरजाद चिरइया गरगइया
खुंखार चील के पंजन मा हैं प्रान फँसे मोरी अइया
जलमिस हमका जो महतारी है नार गड़ा वहि धरती मा
आजाद बयारि जियाइस वह पौरुष सिंचिस जो साँसन मा
को जानत रहे गुलामी मा जीवन की कटी जवानी यह
को मानत रहे यहे कीमति! आजादी केरि कहानी यह!
मानव संसाधनु है कलंक सामंतवाद कै थूहरु है
मनई मनई का नौकरु है।
फगुई मा होत तैयारी है रजऊ सिंघासन पै चढ़िहैं
खरिहानन मा फसली कटिके दिल्लीपति की संपति बनिहैं
भूपति के चाकर राजतंत्र का लोकतंत्र मा रंगति अहैं
घोटालन का अँधरी आँखिन पुरसारथ आपन कहत अहैं
अधिकारी भांग पियावत हैं फिर लिपिक खूब गरियावत हैं
साहेब की चौखट पर पसरे सोहर डहुँकति औ रोवति हैं
तुम करम करौ फलु हम देबा ईसुर के पप्पा हमहे हन
तुम अमिय पूत माहुर चाटौ भारत के भाग्य विधाता हन
जल्लादन ते समता सिखौ ममता बांगर मा ऊसरु है
मनई मनई का नौकरु है।
हम करी चाकरी जालिम की जालिम जुल्मी ब्यौपार करै
सत्ता के सौदा सुलुफन पै को कुलुफ बने ब्यौहार के करै
बसि यहे तिजोरी मा ककुआ जनता कै गाढ़ि कमाई है
जो छीनी गई जतन ते है जो खून ते रंगी रंगाई है
कोउ माहुर खाये मरा परा कोउ फसरी लिहिसि लगाय हियाँ
ध्याला ध्याला रोवै यहिका नठिहाई है बिल्लाति हियाँ
चंगेज्वा है लूटिस बल भर नादिर सहवा छिछियाय गवा
बसि यहे खजाना का रुपया लै चोरवा लंदन भाजि गवा
चौकीदरवा कुंजी दीन्हिस सेठिया कसाई'क कूकुर है
मनई मनई का नौकरु है।
यह धरती का अदमी की है केवल अदमी यहिका राजा
सर्वस्व सृष्टि का लूटी लिहिसि मानवता का दीन्हिसि झांसा
मानवता पसुत'ति ढेर भली हम नैतिक दीक्षा चाटे हन
मनई सबका करता धरता हम खोदि खोदि के पाटे हन
सबु न्याय सत्य हालै द्वालै लौटै पौटै सासानु यहिका
मानवता की नस नस जालिम सोहराय लेउ तनि जसु यहिका
चलाकि'ति बनी हवेली है इकदिन खड़हरु यह हुइ जाई
भद्रता रही ना ध्याला की बर्बरता नवा बीजु लाई
कटकट मुरहा इसलोकु पढ़ै जसु कहिका ज्यादा धूसरु है
मनई मनई का नौकरु है।
जेहिके बल घंटा ठनकि रहे गड़वा हाथी अस फूलति हौ
जेहिकी मेहनति पै राजा हौ वहिपै आफति अस झूलति हौ
पसुता ते खरी मनुजता है लेकिन खाली हमहे जानी
बर्बरता क्यार पुलिंदा यहु है भेदभाव की जजमानी
मनई मनई ना रहिगा है मनई मा सूंड़ी लागि अहै
राजा परजा साहेब चाकरु साधन सवार की चालु अहै
कोइ'कि होरी मा सात रंग कोउ निपटे निपट अकेला है
कोई का है दरबार लाग कोइ सासन का दुखु झेला है
गद्दार कसाई सासकु यहु अदमी का बूझत कूकुरु है
मनई मनई का नौकरु है !
बापू द्याखौ आवा बसन्तु
सोचित मनई अब रही कहाँ चौगिरदा डटे लफंगा हैं
घर के भीतर घर के बाहर सब गांव सहर मा दंगा हैं
सब डहुँकि रहे हैं सड़वा अस खेतन मा फरी उदासी है
भूखे हैं पेट गरिबवन के खेती चरिगे सन्यासी हैं
दुखिया सुलगति हैं कंडा अस न ढूंढ़े पावै आदि अंतु
बापू द्याखौ आवा बसन्तु।
अब सत्य मरति है मौके पर बेड़िन मा कसी अहिंसा है
बाजार गरम है झूठ क्यार साहेब की बड़ी प्रसंसा है
का है मजाल जो बोलि देइ साहेब यह नीति नीकि नाहीं
घामे मा तपिगे रामगुनी चाकर चिहुँकैं छाहीं छाहीं
जल्लाद बनाये फंदा है फांसी देई कहिका महन्तु
बापू द्याखौ आवा बसन्तु।
वै चुरुवा भरि पानी ढूंढ़इं बूड़ै का जिनका नहीं ठौर
आगी मुतति माहिल होरे बगुला भगतन का करौ गौर
जिनकी अब पुलिस मलेटरी है वै सब कायर बलवान भये
बप्पा का पहिले दागि दिहिन अम्मा के ठेकेदार भये
जय ब्वालौ भारत माता की चिंघारि रहा है नवा सन्तु
बापू द्याखौ आवा बसन्तु।
बेकार जवानी हुइगै है बुढ़वन की मरगति बिगरि गई
हैं नीति परायण महाराज उनकी सद्गति लौ संभरि गई
लरिका सब भये कुपोषित है कक्का उनके सरताज भये
जिनके मन तनकिउ दया नहीं उइ धरम के पहरेदार भये
हमते तुम फिरि फिरि पुछेउ ना यहु विश्वगुरु है कौन जन्तु
बापू द्याखौ आवा बसन्तु।
कन्फूजन तुमका भले होय ई तौ सूधै निर्णायक हैं
काटौ तौ निकरै खून नहीं यै हिंसा मा सब लायक हैं
माघै मा फागु मचाय देइं इनके भेड़हा हैं सांति दूत
बखरी मा भरा अँधेरु खूब यै सोधि रहे हैं नवा भूत
बघवा छेगरी का पोटि रहा कहि रहा बनति है बनाबन्तु
बापू द्याखौ आवा बसन्तु।
सब लुच्चा लिंचिंग करति हियाँ सरगना बकैती छाँटति है
जिन के बल पर सरदार भये उकना भीतर ते बाँटति है
लाठी भांजति है पुलिस खूब सह पावति खूब लफंगा हैं
मनई की कौनिउ खैर नहीं सगरे बदमसवा चंगा हैं
लौंडा लहराय रहे कट्टा थर्राय रहे हैं दिग दिगन्तु
बापू द्याखौ आवा बसन्तु।
सम्पर्क
मोबाइल : 07498653618
डॉ. शैलेंद्र कुमार शुक्ल की कविताओं का मेयार कुछ अलग है। वे अपने समय की नग्नता और क्रूरता को बहुत संजीदगी से अभिव्यक्त करते है। उनको पढ़ने का अर्थ है - अपने समय के इतिहास को जनता की निगाह से पढ़ना। ऐसा करने वाले वे इकलौते नहीं है, साहित्य की दुनिया का कोई भी ऐसा क्लासिक कवि नहीं होगा जिसके यहाँ उसके समय का इतिहास वर्णित न हुआ हो। किसान परिवार में पला-बढ़ा कवि वहां के सौंदर्य और जीवन के उल्लास को जब अपनी कविता में ढालता है तो पाठक का मन सहसा वहां ठिठक जाता है। इतनी मार्मिक कविताओं के कवि को हृदय से बधाई और साधुवाद!
जवाब देंहटाएंसुन्दर रचनाएं
जवाब देंहटाएंशैलेन्द्र शुक्ल को पढ़ते हुए कविता की ताकत का पता चलता है। दबे पाँव आया विषाद पसरता है तो कवि के अकृत्रिम रोष की चिनगारियाँ उस अँधेरे से भिड़ जाती हैं।सड़ियल ट्रेजेडी पर अकुण्ठ आक्रोश भारी पड़ता है।
जवाब देंहटाएंजनता से नज़दीकी और तमाम अनुशासनों से संवलित वैचारिक तैयारी कवि के क्रोध को सर्जनात्मक बनाए रखती है।निस्तेज शब्द-विन्यास की कलाकारी से उफनाते समय में मजबूती से पाँव धरता, जनता का यह कवि किसी सलाह का मोहताज नहीं। मेरी असंख्य मंगलकामनाएं और अशेष धन्यवाद।
ये कविताएं हमारे सामने हमारे जीवन और समय के बहुरंगी तापमान का आकलन करती हैं। संवाद करती हुई संवेदनशील लोगों को आकर्षित करती हुई भी दिखाई देती हैं। आंचलिकता और ग्रामीण सौंदर्य को अभिव्यक्ति देने वाली है। बधाई शैलेन्द्र भाई।
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