यतीश कुमार की किताब 'बोरसी भर आँच' की शिव कुमार यादव द्वारा की गई समीक्षा 'जीवन का यथार्थ'।

 




अतीत में जा कर, वहां की सैरबीन कर स्मृतियों को शब्दबद्घ करना किसी भी रचनाकार के लिए आसान नहीं होता। किन संदर्भों को छोड़े, किन संदर्भों को रेखांकित करे, रचनाकार के लिए यह एक बड़ी चुनौती होती है। यतीश कुमार अपने अन्तर्मन से एक कवि और कहानीकार हैं। इसलिए वे इस बात को बखूबी जानते समझते हैं कि कौन से वे सन्दर्भ हो सकते हैं जिससे  पाठक अपनी नजदीकियां महसूस कर सकता है। यही वह कड़ी होती है जिससे रचनाकर बड़ी शिद्दत के साथ अपने पाठक से जुड़ता है। और यही किसी रचनाकार की सबसे बड़ी सफलता होती है। हाल ही में यतीश कुमार की राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली से एक किताब आई है 'बोरसी भर आँच'। आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं यतीश कुमार की किताब 'बोरसी भर आँच' की शिव कुमार यादव द्वारा की गई समीक्षा 'जीवन का यथार्थ'।



जीवन का यथार्थ  

                       

शिव कुमार यादव 


  

"बोरसी भर आँच" यतीश कुमार की तीसरी पुस्तक है। कविता, कहानी या उपन्यास लेखन से रचनाकार की प्रतिबद्घता का पता तो चलता ही है मगर, जीवन का सरोकार कथेतर से छन कर आता है। कथेतर लेखन आसान नहीं होता है। लेकिन यतीश कुमार ने अपनी स्मृतियों से अपने जीवन के सबसे सूक्ष्म दिनों को “बोरसी भर आँच” में भर कर आसान बना दिया है। यह तभी संभव होता है, जब आदमी सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक स्तर से प्रौढ़ होता है।

    


इसकी प्रस्तावना: तमाम रंगों का मेला, प्रसिद्ध कथाकार और संपादक अखिलेश ने लिखी है। पुस्तक के अंतिम पृष्ठ पर हिन्दी कथा साहित्य के प्रतिष्ठित कथाकार उदय प्रकाश ने वल्लर्भ लिखा है। इससे पुस्तक की आँच में तेजी आ गई है। हालाँकि इस पुस्तक के दो शीर्षक है। एक "बोरसी भरी आँच" दूसरा "अतीत का सैरबीन"। शीर्षक के संबंध में अखिलेश जी कहते हैं कि शीर्षक "बोरसी भर आग" भी हो सकता था पर यतीश आग नहीं आँच लिखते हैं। आग दिखती है किन्तु महसूस आँच होती है। तो आदरणीय "बोरसी भर आग" सही है या "बोरसी भर आँच"? अपनी अल्प बुद्धि से जो मैं समझता हूँ "बोरसी भर आँच" ही सही है। कारण कि बोरसी की उपयोगिता आँच के लिए ही की जाती है। आग तो तत्कालिक होती है जो किसी भी वस्तु को क्षण भर में जला कर राख कर देती है। लेकिन आँच, बुझी हुई राख में नीचे देर तक मौन बैठी रहती है। जब तक कि उसे उकेरा नहीं जाता है, अपनी गरमी का एहसास नहीं कराती है। और यह तो संस्मरण है। आँच की तरह बोरसी के तल में छुपा हुआ। जब भी याद आती है, स्मरण हो आता है।

   


दूसरी बात उदय प्रकाश जी की कि पूरी उम्मीद है समकालीन रचनात्मक परिदृश्य में "बोरसी भर आँच" अपनी खास जगह बनायेगी। इसमें दोमत नहीं कि आप की भविष्यवाणी सत्य न हो।मैं तो कहूँगा कि सौ प्रतिशत सत्य होगी। क्योंकि जिस बोरसी को भरने में उदय प्रकाश और अखिलेश जैसे सिद्धहस्त कलमकार, कलाकार का योगदान हो, वह भला निरर्थक कैसे हो सकता है।फिर आप का ही कहा है कि यतीश कुमार ने अपने बचपन और अतीत में जाने के लिए जिस "युक्ति" का आविष्कार किया है, उसे वे "अतीत का सैरबीन" का नाम देते हैं।

  


तो धीरे-धीरे ही सही लेकिन पूरी तरह से यतीश कुमार जी के "अतीत का सैरबीन" उर्फ "बोरसी भर आँच" को उकेर उकेर कर तापने की यहाँ चेष्टा होगी।

  


इसके पहले यतीश कुमार के दो काव्य संग्रह “अन्तस की खुरचन” और “आविर्भाव” पाठकों के अंतर्मन में छाप  छोड़ चुके हैं। यह तीसरी पुस्तक है। कविता की नहीं बल्कि संस्मरण की।पुस्तक के मुखड़े को देख कर कोई भी धोखा खा जाए, आँख…खुली आँख को देख कर। 



“ ये जो आँख है

या तकलीफ का उमड़ता हुआ समुन्दर

इस दुनिया को जितनी जल्द हो सके

बदल देना चाहिए।”



कवि गोरख पाण्डेय के इन शब्दों से लोक की अभिव्यक्ति उपजती है। विमर्श के फूल खिलते हैं।

    


पहले तो मुझे यह पुस्तक कविता जैसी लगी। "बोरसी भर आँच" शीर्षक को पढ़ कर कोई भी धोखा खा जाए। मैं भी धोखे में रहा।जब तक कि इसके भीतर झांका नहीं। इसके लिए कवि निशांत का आभार। उन्हीं के आवास पर इस पुस्तक के पन्नों को पलटना शुरु कर दिया। किसी भी कृति का समर्पण-भाव पुस्तक की अन्तर्वस्तु से परिचय कराता है। इनका समर्पण भी कुछ इस तरह का है- "दिदिया-तुम्हारे लिए, अपने बचपन की ढ़ाल के लिए...।" अर्थात लोक वाणी में अमीर खुसरो की जुबानी कही गई दास्तान-सी लगती है।

   


यह पुस्तक राधाकृष्ण प्रकाशन नई दिल्ली, राजकमल प्रकाशन समूह से प्रकाशित है। इस पुस्तक से परिचित कराते हैं,कथा की दुनिया के महत्वपूर्ण कथाकार उदय प्रकाश और अखिलेश। शव्दों के इन जादूगरों ने इनकी आँच को हवा देने का काम किया है। पहले अध्याय से ले कर अंतिम अध्याय तक के सफर में जिस तरह की कलात्मकता की वैचारिकी दिखती है, यह स्वाभाविक ही श्रेष्ठ प्रदर्शन है।

    

यतीश कुमार 



कल से रंगों का त्योहार चल रहा है। त्योहार की इस खुमारी में बोरसी की बुझती स्मृतियाँ गुलाल बन कर छाने लगीं -



"स्मृति की वीथियों से

एक लम्बी टेर आ रही है

चिनगारियाँ बुझ गईं

पर ताप है कि कम ही नहीं हो रहा है।"



यह पंक्ति यतीश के जीवन की सच्चाई है, जो कविता, कहानी से हट कर कथेतर की ओर मुड़ती है। यथार्थ से जब जब सामना होता है, मनुष्य होने का सुख फूट पड़ता है। यह तभी संभव हो पाता है जब किसी परिपक्व मानस में अतीत का विस्तार होता है। समर्पण का भाव जागृत होता है। "दिदिया..." मात्र कंठ की अभिव्यक्ति नहीं है बल्कि, पूरा का पूरा एक लोक जीवन है जिसे याद करते हुए यतीश जी चालीस साल पीछे लौटते हैं अपने बचपन के दिनों में। उनके साथ होती है प्रौढ़ता, समझने और समझाने की कलात्मक शैली, स्मृतियों की तपन और परिदृश्य की अकुलाहट। नदी, पहाड़, गाँव और उसके आस-पास के जीवन से  रू ब रू होती बचपन की खट्टी-मीठी यादें। यादों के झुरमुट से झांकता बचपन सीधे सीधे अपने काल से साक्षात्कार करता है।

     


इस बचपन के साथ होती है माँ, दीदी, भैया, पिता, मौसी और चीकू। चीकू मतलब यतीश, दीदी मतलब दिदिया और माँ मतलब संघर्ष, पीड़ा और प्रेम। और हर किसी के लिए एक अध्याय। हर अध्याय के लिए एक चुनिन्दा कोटेशन या किसी कविता की एक पंक्ति। पंक्तिबद्ध, लयबद्ध तरीक़े से अतीत में उतरना, इस पुस्तक की खासियत है।

   


लखीसराय, किऊल नदी, वह अस्पताल और अस्पताल परिसर के भीतर की द्वंद्वात्मक ज़िन्दगी के हलफनामे, भविष्य की मुट्ठी में बंद रेत की मानिंद फिसल रहे हैं, जिसे देखने के लिए मुझे भी फिसलना पड़ा, कई वर्ष पूर्व अपनी दुनिया में। हर किसी का बचपन सपनों, स्मृतियों और घटनाओं का सृजनात्मक पहलू होता है कि नहीं..।



यह जानने के लिए जहाँ से विकास का रास्ता निकलता है, वहीं से दुख-सुख का पुल भी निर्मित होता है। किऊल से ट्रेन खुली नहीं कि लखीसराय ठहर जाती है। किऊल नदी के ऊपर बना रेलवे पुल जो दो शहर, दो गाँव से जुड़ता है, जैसे जुड़ते हैं दो नयन। अकसरहां बक्सर, आरा, पटना की ओर जाते हुए या आते हुए पुल से गुजरना पड़ता है। पुल की धड़धड़ाहट सुनाई पड़ती है। उस वक्त कवि दुष्यंत याद आते हैं, 


"तुम किसी रेलगाड़ी-सा गुजरती हो,

और मैं किसी पुल-सा थरथराता हूँ।"


खिड़की से बाहर नदी को देखता हूँ। रेत में धंसी नौकाएँ दिखाई पड़ती है। ये नौकाएँ अंचल की विवशताओं का बखान करती हैं। विवशताओं की इसी नदी के आर-पार है यतीश का बचपना भी।

    


बचपन के दो पिताओं की धारा के संग बहता है माँ का प्यार। जटिलताओं और गहन संघर्ष से भरा प्यार। प्यार की निर्ममता का वह जंगल कितना भयावह जान पड़ता है। जन्म से जिस पिता का संबंध कायम था, उनकी मौत हो गई है। माँ के लिए तीन बच्चों को पालना और घर की जिम्मेदारियों को संभालना मुश्किल था। मुश्किल समय में पिता के दोस्त डाक्टर से माँ संबंध स्थापित करती है और उसी से विवाह कर लेती है। सत्य कटु होता है, कठोर होता है। इस आँच को समाज और परिवार के अन्य दूसरे लोग बर्दाश्त नहीं करते हैं। हालाँकि लेखक खुद भी इस पिता से अपने गुजरे पिता से तुलना करता है और कुत्सित हो कर इसे खड़ूस कहता है। यह पिता कम्युनिस्ट होते हुए सामाजिक प्रपंचों से लड़ नहीं पाता है और नशे का शिकार हो जाता है। यह सब लखीसराय के अस्पताल परिसर में घटने वाली घटनाएँ हैं।घटनाओं के इर्द-गिर्द लेखक का बचपन बवंडर की भांति मँडराता रहता है। कभी इस इलाक़े की खाक छानता फिरता है तो कभी पंक्तिबद्ध शरारतों से माँ से पिटाई भी खाता है। तब छोटे भाई के बचाव में उतरती है दिदिया, ढाल बन कर। दिदिया महज ढ़ाल ही नहीं बनती है, अपने और आसू यानी यतीश के जीवन-संघर्ष की साक्षी भी है। एक घटना लाल पहाड़ी की है। पहाड़ी पर बने सुरंग की है, जिसे देखने के क्रम में नीचे सुरंग में उतरने की कोशिश में फंस जाते हैं। तब दिदिया की तरकीब ही काम करती है, पुलिस से बच कर निकलने में। कसैला पानीफल की अनुभूति होती है।

  


इस संस्मरण में बचपन की ढेर सारी यादें यतीश के सौंदर्य को चार चांद लगाती हैं। होली का रंग दिखाती है। नदी और नहर के किनारे ले जाती है। मौत से जूझने की कला सिखाती है। और भी बहुत कुछ है जो देश, समाज और समय के साथ-साथ इतिहास और भूगोल की परिधि से भी अवगत कराती है। यह ममता और प्रेम के बीच बैरन डाकिया, डाक्टर और नर्स का एकीकरण पैदा करता है। लखीसराय, किऊल, गाँव और परिस्थितियों से अवगत कराता है। यतीश कुमार  का बचपन महज “बोरसी भर आँच” नहीं है बल्कि उनके अब तक के जीवन का दस्तावेज है जिसे ड्राइविंग से डर लगता है। मगर, वे निडरता के पन्नों पर कविता की खेती करते है। विचारों के बांध से सहेज कर रखने का काम करते हैं।

   


कुल मिला कर यह कहा जा सकता है कि यतीश कुमार की यह पुस्तक हिन्दी कथेतर लेखन की मिशाल कायम करती है।संस्मरण की अभिव्यक्ति का अनोखा प्रयोग है।



पुस्तक  - बोरसी भर आँच 

मूल्य  -  ₹ 350

प्रकाशन - राधाकृष्ण प्रकाशन, नई दिल्ली 

वर्ष  -   2024



शिव कुमार यादव

सम्पर्क- 


रामबांध, 

नियर सुकांत भवन, 

बर्नपुर - 713325


मोबाइल - 8617629553

टिप्पणियाँ

  1. यतीश कुमार इस तरह भी अलहदा हैं कि वे मजबूरी में साहित्य में नहीं आये।
    उनका अपना एक अलग कार्य जगत व अनुभव संसार भी है। हम उन्हें intruder भी कह सकते हैं, जोकि हिंदी के लिए शुभ है। हिंदी को मल्टीडायमेंसनल बनाने में उनकी जरूरी भूमिका बने, इस आशा के साथ बधाई। मेरे लिए यह भी आनंदमय है कि इसी जरिये पुराने मित्रों से संबंध भी रिन्यू हो रहे हैं। शिवकुमार यादव हिंदी कथालेखन के चश्मदीद रहे हैं, संजीव के छायासंगी। पिछले 40 बरसों से हिंदी का जंक्शन रहा है, आसनसोल डिवीजन। सृंजय, नारायण सिंह, मनमोहन पाठक ने हिंदी का झाड़झंखाड़ सफाई अभियान जारी रखा... यतीश कुमार का आगमन बड़ी उम्मीद जगाता है... मैं इसे एक लाॅंग जर्नी के टर्निंग प्वाइंट की तरह भी देखता हूँ...

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  2. समीक्षा ने इस किताब को पढ़ने की लालसा जगा दी।

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