अरुणेश शुक्ल का आलेख 'होना तो होने की तरह'
संजय मनहरण सिंह |
प्रेम जीवन का सबसे स्थाई और मजबूत राग है। जहां प्रेम है, वहां जीवन है। जहां प्रेम नहीं, वहां जीवन उस नैराश्य में तब्दील हो जाता है जो जीवन हो कर भी निर्जीव की तरह होता है। प्रेम के लिए व्यक्ति यानी कि देह जरूरी है। निर्गुण प्रेम की बात अलग है। इस बार अरुणेश ने अपने मूल्यांकन के लिए कवि संजय मनहरण सिंह का चयन किया है। संजय ऐसे कवि हैं जिनके लिए कविता एक ताप ही है जो देह के उहापोह के बीच प्यास का तिलिस्म रचती है। यानी कविता हमें जीवन में प्रेम व संवेदना रूपी जल की खोज की तरफ ले जाती है। देह के ऊहापोह के बीच प्यास का तिलिस्म। हाल ही में संजय का पहला कविता संग्रह 'देह की लोरियां' प्रकाशित हुआ है। बकौल अरुणेश शुक्ल इस संग्रह की कविताएं अनुभव एवं आस्वाद का अलग धरातल रचती हैं। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं कवि संजय मनहरण सिंह की कविताओं पर युवा आलोचक अरुणेश शुक्ल का आलेख 'होना तो होने की तरह'।
'होना तो होने की तरह'
अरुणेश शुक्ल
आज के इस कविता बाहुल्य समय में अच्छी, सघन और स्तरीय कविता किसी संग्रह के रूप में पा कर पढ़ लेना किसी विशिष्ट उपलब्धि से कम नहीं है। यह कविता की बहुलता का ही समय सिर्फ नहीं है बल्कि उसकी बहुतचालता का भी समय है। एक तो बाजार ने विज्ञापनों की तरह इतनी औसत और अत्यधिक कविताओं को हमारे सामने पेश कर रखा है कि हमें इसमें दिमाग खपाने की जरूरत ही नहीं और न ही इतना समय व ठहराव है कि कौन सी कविता अच्छी है, उसका पढ़ा जाना समाज व कविता के लिए जरूरी है, यह तय कर सकें और खुद चयन कर पढ़ सकें। हमारा काम सिर्फ इतना है जो सामने विज्ञापित है कविता के नाम पर प्रथमतः तो उसे कविता मान ही लें और चयन भी उन्हीं में से किसी का कर के पढ़ें। आज बाजार कविता की चमक को सिर्फ बढ़ा रहा है, उसे गहरा नहीं कर रहा। शायद यही कारण है कि विज्ञापन के एक स्लोगन की तरह पंक्तियां चेंप कर कविता करने का चलन बढ़ा है। अब जबकि कविता अपने सम्पूर्णता में नहीं वरन पंच लाइनों में गढ़ी और पढ़ी जा रही है तब ऐसी कविताएं पढ़ना जो अपनी पूर्णता में आस्वाद देती है और बिना एक भी शब्द इधर-उधर किए, बिना कुछ छोडे, कामा, फुलस्टाप, योजक चिह्न, पॉज आदि सबके साथ पढ़े जाने की मांग करती हों, एक अलग पाठकीय अनुभव, सुकून व कविता के प्रति आश्वस्ति भाव से भर उठना होता है।
दरअसल आजकल कविता में वाचालता इतनी है कि कवि सब कुछ कविता में ही कह देना चाहता है और वह भी लाउडनेस के साथ। मानो कविता नहीं किसी कंपनी का उत्पाद है जिसका चमकदार विज्ञापन जोरो-शोर से किया जाना लाभ हेतु, उपभोक्ताओं तक पहुँचने हेतु अनिवार्य है। पाठक आज कविता पढ़े जाने के लिहाज से उपभोक्ता है। ऐसे कठिन समय में युवा कवि संजय मनहरण सिंह की कविताएं पढ़ना हमें कविता के उस भावस्तर व आनन्द की अनुभूति तक पहुँचाता है, जो हिन्दी कविता का निजी वैशिष्ट्य रहा है। संजय की कविताएं कामनाओं का राग हैं तो अमूर्तन से संवाद पहले हैं। 'देह की लोरियां' संजय का पहला काव्य संग्रह है। इस संग्रह की कविताएं अनुभव एवं आस्वाद का अलग धरातल रचती हैं। संजय सपाटपन व नारेबाजी वाले कवि नहीं है। उनकी कविताओं में महीनपन है।
यह महीनपन उनकी शिल्प, संरचना और चीजों को देखने की दृष्टि में रेखांकित होता है। स्थूलता से उनकी कविताएं कोसों दूर हैं। अपनी कविता 'जल' में वे लिखते हैं,
'जब तुम्हें ईश्वर की तरह ढूंढता हूँ
किसी सूखे सपने के बीचो बीच
कि पूछ सकूँ किसने अपहृत कर ली मेरे रोने की क्षमता।
आँसू जिसे मैंने बरसों से नहीं बरता है
वह हो तुम ठोस और अदृश्य।
कितना पानी मिला है तुम्हारा प्रेम'
अर्थात व्यक्ति का संवेदनहीन होते जाना, उसके भीतर का पानी यानी अन्य को आत्मवत् बना लेने के भाव का क्षरण होते जाना, देखना कवि की पीड़ा के केन्द्र में है। हालत यह है कि 'जल' यानी आंसू या कि संवेदना को ईश्वर की तरह ढूंढना पड़ रहा है और वह भी कहाँ? किसी सूखे सपने के बीचों बीच। यह कविता में कवि की बहुव्यंजनात्मकता का प्रमाण है और बेहतरीन शिल्प का भी। ईश्वर दिखता नहीं पर होता हर जगह है। और हमारे समय में हमारे रोने की क्षमता अपहृत कर ली गयी है। किसने की है, इसका दोषी कौन है? कवि यह पूछना चाहता है हमारे समय से, कविता से व पाठकों से भी। हालत यह है कि सपना भी सूखा है, जहाँ वह जल या आंसू ढूंढ रहा है। यानी संवेदनशीलता या आत्मीयता या परदुखनसरता अब स्वप्न में भी नहीं रह गयी है। कवि जानता है कि आंसू ठोस रूप में उसके भीतर है, जिन्हें वह बरत नही सका है। यह पंक्ति सवाल की तरह है! कितना पानी मिला है तुम्हारा 'प्रेम'। यहाँ कविता बहुत धीरे से सामाजिक चिन्ता से निजी क्षणों में तब्दील होते हुए एक बार पुनः कविता में विराट प्रश्न पूछती है कि 'प्रेम' में कितना पानी मिला हुआ है। संजय इस पंक्ति में दोनों तरह का अर्थ भरते हैं कि प्रेम में संवेदना व आत्मीयता कितनी है या कि उसके भीतर का पानी यानी कि प्रेम ही सूख गया अथवा प्रेम भी अब शुद्ध नहीं रहा। कवि की खासियत यह है कि वह कविता में मिथक से बहुत कुछ कह देना चाहता है। इस क्रम में बहुत कुछ अनकहा रह जाता है। संजय के यहाँ यह जो अनकहा रह जाता है, वही हमें कविता के भीतर आत्म या स्व के साथ न सिर्फ प्रविष्ट कराता है, बल्कि व्यापक सामाजिक प्रश्नों व निजता से भी है जोड़ता है। संजय की यह कविता चाहती है कि जल जीवन में नमक और अस्थियों में उम्मीद की तरह लौट आये कि वनस्पतियों के आह्वान पर फुहारों का गीत गूँज जाये। सृजन के पक्ष में खड़ा होता हुआ कवि तमाम रचनात्मकता में ही उम्मीद देखता है। वह चीजों को नकारात्मक नहीं सकारात्मक ढंग से देखने की कोशिश करता है।
'जल तुम्हारा आखिरी नाम विप्लव तो नहीं
कि जब हम रोते हैं कुछ
तो समुद्र रचता ही है आँखों की कोर में
कि भरोसे की नाव का नाम धोखा ही है।'
यह जानने के बावजूद कि आज के समय में भरोसा, धोखे का पर्याय हो गया है तब भी सृजन व सुन्दर की कामना कवि नहीं छोड़ता है। वह जानता है कि जल से सिर्फ विप्लव ही नहीं आता सृष्टि का निर्माण भी जल से ही हुआ है। वह इतने पाजिटिव हैं कि रोने में भी समुद्र रचना देख पा रहे। दरअसल रोना हमारे मनुष्य होने की निशानी है। पत्थर नहीं रोते। मनुष्य ही रोता है और कवि का दुःख तो समूची दुनिया का दु:ख व अपने में समेटे होता है। संजय जल को प्रेयसी की तरह पुकारते हैं तो सारे शब्द भाप छोड़ने लगते हैं। अर्थात् प्रेम में पानी और ताप, नमक सब कुछ बचा हुआ है। प्रेम जल ही दुनिया को बचायेगा। इसीलिए कवि के लिए कविता एक ताप ही है जो देह के उहापोह के बीच प्यास का तिलिस्म रचती है। यानी कविता हमें जीवन में प्रेम व संवेदना रूपी जल की खोज की तरफ ले जाती है। देह के ऊहापोह के बीच प्यास का तिलिस्म। यहाँ कवि चुपचाप कविता को एक सघन प्रेम कविता में रूपान्तरित कर देता है जहाँ देह की ऊहापोह के बीच प्यास का तिलिस्म है अर्थात प्रेम में देह व दैहिक कामनायें एक दूसरे से संपृक्त ही होती हैं। इस कविता में जल कई अर्थो व सन्दर्भों में प्रयुक्त हुआ है। पानी, आंसू, कामजल, आदि कई अर्थो व सदर्भों में। कविता इन सभी रूपों में जल को/ प्रेम को बचाये रखने की नाजुक सी कोशिश है।
दरअसल संजय की कविताओं के शीर्षक बहुत अर्थवाना बहुसंदर्भी व वैभर्शिक हैं। मृत्यु, जन्म, जल, वायु, अग्नि, आकाश, धरती, चिड़िया, वृक्ष, देह, गर्भ, रात आदि कवितायें अपने शीर्षक से ही कवि की दृष्टि को उद्घाटित करती है। एक तरफ जहाँ पंचतत्वों पर कविता लिख रहे हैं तो दूसरी तरफ उन पंचतत्वो से निर्मित प्रकृति मसलन, वृक्ष, रात, आदि पर भी लिखते हैं। मतलब संजय पर्यावरणीय विमर्श को कविता के माध्यम से हमारे सामने रचते हैं। प्रकृति के नाना-रूपों से हमारा साक्षात्कार कराते हैं। उनकी कविताएं मनुष्य को, देह को, प्रेम को सम्पूर्ण इकाई में समझने व प्रस्तुत करने का प्रयास करती है। मानव जीवन सम्बन्धी उनकी दृष्टि स्पष्ट करती कविताएं यह बताती कि मनुष्य का अमूल्य जीवन प्रकृति के साथ नाभिनालबद्ध है। प्रकृति से उसका जुड़ाव ही उसे मनुष्य बनाता है। कविता व मनुष्य दोनों के पारिवारिक चौहद्दी का विस्तार ही है प्रकृति। उससे छेडछाड नहीं होनी चाहिए। संजय यथार्थ को किसी आदर्श के खांचे में रख कर नहीं देखते। मानव जीवन व उसका यथार्थ जैसा है, उसी रूप में वह उन्हें स्वीकार है। 'देह' कविता में लिखते हैं।
'होना तो होने की तरह है
जितना देव उतना ही शैतान'।
यानी यथार्थ ब्लैक एंड व्हाइट नहीं बल्कि धूसर है, उसे उसकी धूसरता में समझा जाना चाहिए।
वैसे तो संजय के संग्रह का नाम 'देह की लोरियां' है पर यह कविताएं लोरियां नहीं कामनाओं की उद्दाम अभिव्यक्तियां हैं जिसमें प्रेम से देह अलग नहीं है। अगर आप सुन्दर से प्रेम करते हैं तो उसमें व्याप्त असुन्दर से भी करेंगे। दरअसल प्रेम में कुछ असुन्दर होता ही नहीं। संजय जानते हैं कि 'सुख के भरोसे के बीच एक चाकू रखा है या भरोसे की नाव का नाम धोखा है'। बावजूद इसके 'एकान्त के खून से लथपथ सम्भोग की उम्मीद से लिप्त। अस्थियों की श्वेत बेचैनी से जगमग और ढे़र सारी भरी हुई कामनाओं की बू से बजबजाती स्नायु' प्राण के मालिकाना हक से जब कि कुचली हुई है हर एक साँस, यानी कुछ भी स्वतंत्र या स्वायत्त नहीं रह गया है इस दरमियान जो सबसे ज्यादा उपेक्षित है, वही तो तुम्हारे प्रेम में मारा गया 'मैं' हूँ एक देह रूप में। यानी प्रेम में देह की कामनाओं को सबसे ज्यादा कुचला जाता है, सामाजिक नैतिक नियमों के नाम पर उसे उपेक्षित व दमित किया जाता है। यहां बहुत करीने से संजय देह पर सामाजिक नैतिकताओं के वर्चस्व के राजनीतिक विमर्श को भी उद्घाटित करते हैं। इस कविता में संजय का शब्द चयन व तेवर हमें धूमिल व राजकमल चौधरी के कविताओं की याद दिलाता है बस लहजा जरा नरम व संगीतात्मक लय वाला है।
संजय की एक कविता है 'जन्म'। इच्छा, स्वप्न व यथार्थ पर बात करती हुई यह कविता देह पर किये जा रहे प्रेम पर खत्म होती है। अर्थात संजय की कविताओं में देह सब कुछ होने की लीलास्थली है। प्रेम, समर्पण, इच्छा, स्वप्न, चिंता, सब अमूर्तन को मूर्त करने वाली है देह। अमूर्तन को मूर्त करते हुए संजय लगातार अमूर्त से कविता में संवाद करते हैं। यह कहन की वह शैली है जो अपने भीतर को हीलते हुए स्व की कामनाओं का न सिर्फ प्रकटीकरण करती है बल्कि उनका नैतिक स्वीकार भी करती है। देह संजय की कविता में टैबू नहीं है, बल्कि वह प्रेम, सृजन, सुन्दर, सुकोमल के होने का अर्थात दुनिया के सुन्दर होने का आधार है। उनकी कविता का सपना आँखों का नहीं बल्कि देखे जाने का हौसला है। यानी सपने देखना चाहे प्रेम, देह या समाज किसी का भी हो व्यक्ति के हौसले को दर्शाने वाला होता है। संजय की कविता में स्वप्न स्याह उफान में धीरे से वहीं उतर जाता है जहाँ 'जब कोई, किसी देह पर स्पर्श, चुम्बन, आलिंगन और प्रेम दर्ज कर रहा होता है'। कवि का स्वप्न और हो भी क्या सकता है, प्रेम और समर्पण जो घटित होता है देह के माध्यम से। संजय की कविताओं की एक खास बात यह भी है कि प्रेम पर, देह पर बात करते हुए वह आक्रमक, हिंसक, अभद्र, अश्लील व गाली-गलौज वाली शब्दावली का इस्तेमाल नहीं करते जैसा कि आम तौर पर देह की कामनाओं पर बात करने वाली कविताओं में होता है। वह 'देह की लोरियां' ही नहीं दैहिक कामनाओं, स्वप्नों का एक सौम्य राग सुनाते है हमें जिसमें कविता एक माध्यम रूप है, उसका और उसकी स्वायत्तता का पूरा ध्यान रखते हैं। संजय की कविता 'धरती' हमारे सामने पृथ्वी की उदारता, उसकी विराट सृजनशीलता का नया व कोमल औदात्य उद्घाटित करती है तो मनुष्य की क्षुद्रता व अहंकार को लताड़ लगाती हुई प्रकृति के सामने उसके औकात का भी बोध कराती है। 'पृथ्वी की त्वचा के नीचे आराम फरमा रहे हैं। वनस्पतियों के नन्हें सपने। कि कोई लोरी ऊपर से पुकारेगी तो हाथ बढ़ा देना है।' पानी पृथ्वी के भीतर सृजन अपार संभावनाओं व रूपों के साथ मौजूद है। संजय की कविता इस हिरण्यगर्भा से लोरी यानी ममतामयी व रागात्मक रिश्ता बनाने की बात है। सृजन तभी संभव है अथवा आधुनिक मनुष्य के अहंकार रूप व विकास के विनाशकारी मॉडल के चलते हम ग्लोबल वार्मिंग या तमाम प्राकृतिक आपदाओं को लगातार झेल ही रहे हैं। कविता में धरती जब अपनी संभावनाओं को डिकोड करती है तो जंगल मादर की थाप से झूम उठता है। तो धमनियों में महुआ की सुरसुरी बजती है।' अर्थात प्रकृति से सहकार में विकसित हुए व जी रहे आदिवासियों के जीवन में ही हमें प्रकृति का राग, उसकी करुणा, उसकी समूची संभावना सबके दर्शन होते हैं। वहाँ प्रकृति मनुष्य की रक्त-मज्जा का हिस्सा है। मनुष्य का जीवन प्रकृति सापेक्ष है, उसी प्रकृति सापेक्ष जीवन की वकालत व उसकी जरूरत को संजय की कविताएं रेखांकित करती है। वह कविता में यह समझते हैं कि सारा तिकडम जो हमने अपने अहंकार में चाहे, यानी खुद ने विजेता व श्रेष्ठ होना का तिकडम या भ्रम उसमें हम यह भूल जाते है कि हम मिट्टी के स्वप्न है, किसी पुहार में मिट जाने को अभिशप्त' यानी मानव जीवन की नश्वरता का बोध कराती संजय की कविताएं हमें हमारे आत्म के वास्तविक रूप के सामने खड़ा कर उससे हमारा एक बार फिर परिचय करती है। वह आत्म जो विराट प्रकृति का एक अंश मात्र है और जिसे हम विस्मृत है कर चुके हैं।
संजय की कवितायें अपने किस्म का एक अलग व सघन पर्यावरणीय विमर्श रचती हैं। उनके यहाँ पर्यावरण की चिन्ता फैशन रूप में नहीं है कि पेड़ों के नाम गिना दें या पहाड़ों का जीवन बता दें या जंगल की सैर करा दे। उनकी कविता में पर्यावरण यानी प्रकृति कविता की कथ्य और संरचना का अनिवार्य हिस्सा है जिसको उसकी बहुवचकता में सरफेस नहीं अपितु डिप नैरेशन मे ही डिकोड़ क़िया जा सकता है। कविता आधुनिक मनुष्य को उसकी शुद्धता का अहसास कराती चलती है। 'वृक्ष' कविता एक ऐसी कविता है जो वृक्षों की विशेषता के साथ-साथ कविता में उसके बरते जाने के विराट आशय को भी स्पष्ट करती है। 'कविताओं में ढेर सारे वृक्षों की हरहराहट से लदे।टहनियों में चुम्बनों की तरह जड़े हुए हैं पत्ते की।यही है पता सूरज का।' क्या सुन्दर दृश्य खींचा है कवि ने साथ ही प्रकृति का मानवीकरण भी। यह आपसी आवाजाही का दैहिक व ऐन्द्रिक बिम्ब कविता में निर्मित करता है। कविता की शुरुआत इस कोमल, प्रेममय, ऐन्द्रिक दृश्य से होती है। कवि स्पष्ट करता है कि 'उसकी पसलियों में सिर्फ आग ही नहीं बन्द/वहाँ
रहते हैं देव/ और/ न जाने क्यों आत्माएँ भी इस पर ही लटकी रहती हैं। जैसे दुनिया को सीधी कर रही हों।' दरअसल वृक्ष दुनिया को उदार हो कर जीना सिखाते हैं। इस उदारता व ममत्व में कमजोरी नहीं वरन नैतिक साहस का वास होता है। कवि कविता में यह नोट करता है। वह वृक्षों से सीखने की बात करता है। और कहता है,
'इस नमकहराम रवैये के समय में भी
वृक्ष खड़ा है सीधे तना हुआ
धरती पर अकेला।
हमारे वातानुकूलित वहम से दूर और बेपरवाह।'
यहाँ यह पंक्तियां हमारे समय के यथार्थ को मात्र चंद शब्दों 'नमकहराम रवैये के समय' और वातानुकूलित वहम। तथा 'वृक्ष के सीधा तन कर धरती पर अकेला' खड़े होने ही व्यंजित कर देती हैं। मनुष्य जब लोभ व लालच के चलते रीढ़हीन हो चुका हो, वैसे में वृक्ष का तन कर खड़ा होना अलग अर्थ देता है। कविता कोमलता से शुरू हो कर यहाँ आ कर खत्म होती है। यह कविता खुद कविता की भूमिका भी स्पष्ट करती है कि कविता में वृक्ष का इस वातानुकूलित समय (वातानुकूलित कविता समय) में तन कर खड़ा होना कविता के प्रतिरोधी चरित्र को भी रेखांकित करता है। प्रेम और प्रतिरोध हिंदी कविता का जातीय गुण है, संजय की कविताएं उसी परम्परा में खड़ी है।
संजय की कविताएं मानव आत्म को प्रकृति की विराटता के समक्ष खड़ा कर खुद के नैतिक आत्मपरीक्षण की कविताएं हैं। सृष्टि के तमाम रहस्य मंत्रों में यानी कविता में उद्घाटित हुए हैं। वह गद्य में हो भी नहीं सकता। कविता महसूस करने व कम बोलने की विधा है, जबकि गद्य ज्यादा बोलने व खोलने की विधा है। कविता में ज्यादा बोलना कविता का जादू टूट जाना होता है। संजय की कविताएं बिंबात्मकता के माध्यम से कम बोलते हुए दृश्यों व संकेतों के साथ बड़ी बात कहती है। संजय अपनी कविताओं में वह अनकहा कहते हैं जिसे हम आज जानबूझ कर कहना नहीं चाहते। अपनी कविताओं में संजय इनमाइडर क्रिटिक की भूमिका में है। वह जीवन, देह, प्रेम, प्रकृति सबका राग-रंग, आशा-निराशा समझते व चित्रित करते हैं। विम्वो की गत्यात्मकता व क्रियाओं की सांस्कृतिक आवाजाही उनकी कविता में सघनता पैदा करती है। वह कौतुक नहीं रचते बल्कि गहरे तक उत्तर कर कविता में आत्म तत्व की तलाश करते हैं। संजय की कवि के रूप में चिंता यह नहीं है कि वह क्या कह दें बल्कि यह है कि क्या न कहें? कहते-कहते जो अनकहा छूट जाये या छुटा रह जाये संजय के यहाँ वहीं कविता है। उनका काव्यात भाषिक आयोजन भाषिक सौन्दर्य व उसके अनुप्रयोग को नई ऊँचाई पर ले जाता है।
संजय प्रकृति का मानवीकरण करते हैं। पर यह मानवीकरण छायावादी कवियों वाला नहीं है। इसमें प्रेम को रहस्य के आवाज में नहीं गढ़ते, उसे उद्घाटित करते हैं, स्वीकार करते हैं और आधुनिक मनुष्य व जीवन की त्रासदी, पीडा, व नियति आदि सबको संजय वाणी देते हैं अपनी कविताओं में। 'समुद्र की बेटी को सम्बोधित' करते हुए कहते हैं कि
'मटमैली इच्छाओं से लबालब,
नदी की तलहटी छिप कर
लौटती है
समुद्र की बेटी।'
यह सिर्फ समुद्र की बेटी नहीं वरन तमाम स्त्रियों का सच है कि उन्हें अपनी कामनाओं, इच्छाओ, दैहिक आकांक्षाओं, स्वप्नों को छिपाकर या उनके साथ कहीं अनजाने में छुप कर रहना पड़ता है। बावजूद इसके यह कविता ही कह सकती कि
'लौटना एक सच है
होने के झूठ में।'
इस लौटने को हम आगे और स्पष्ट होता हुआ देखते है कि
'जब पुकारती है वह
तो भीतर की नदियों में आ जाता है उफान
धरती पर एक तिहाई वह
ईश्वर के आँसू की तरह।'
स्त्री का होना धरती के एक तिहाई पर ईश्वर के आंसू की तरह यह स्त्री विमर्श को एक नये ढंग से प्रस्तुत करता है, कि स्त्री के होने से ही पृथ्वी पर प्रेम व जीवन बचा हुआ है। संजय के यहाँ देह खूब है। वह हर जगह है स्वप्न में, यथार्थ में और स्मृति में भी। 'स्मृति के मद में। देखता हूँ तुम्हारी जाती हुई सांवली पीठ।' ऐंद्रिकता व उसकी स्वीकृति, उसका निव्याज प्रकटीकरण संजय के कविताओं का अलग औदात्य है।
'हमारा प्रेम
चुम्बनों से लिप्त समर्पण
लौट कर आने की दिलासा है पीठ
छाती का विलोम नहीं'
संजय अपनी कविताओं में बार-बार प्रेम करते हुए देह में ही लौट कर आते हैं। देह उनके लिए सुकून की जगह है तो प्रेम के सघनता का प्रमाण भी। कहने को तो वह देह की लोरियां सुना रहे हैं पर यह लोरिया सुलाती नहीं वरन् कामनाओं के वेग को और उद्दाम बना कर हमें उसे पाने की लालसा व पा लेने में अनिर्वचनीय सुख और उत्तर प्रेम से साक्षात्कार कराती है। संजय मृत्यु को भी देह और प्रकृति के मिलन से ही पूर्ण मानते है।
'देह और पेड़ दोनों मिल जाते अचानक
अपनी मृत्यु में
शव होने के लिए।'
संजय प्रेम के बाद की भी प्रेम कविता लिखते है। दरअसल प्रेम होने के बाद भी प्रेम ही बचा रह जाता है। वह बार-बार देह में लौट कर आता है। आखिर प्रेम बिना देह के निर्गुण है जिसका स्वाद कौन जाने। संजय के यहाँ प्रेम दैहिक है और सगुण है। वह चुम्बनों, स्पर्शों व मिलन में व्यक्त व पूर्ण होता है फिर से लौट आने के लिए। इसीलिए
'प्रेम करने के बाद का प्रेम
पानी को गीला करने की तरह है मौजूद
भीतर।'
संजय प्रेम को देह में जीते हैं। उसी की विस्तार समूची सृष्टि में पाते हैं। उनकी कविता में प्रभाव करने के तरीके व कथ्य से पैदा होता है, छपने के ढंग से नहीं। छपने के ढंग से तो कौतुक पैदा होता है, जिससे वह कोसों दूर हैं। उनकी कविता वाक्यांशों, चित्र, दृश्यों, बिंबों के बीच रहती है। जहाँ वह हमें भरपूर आत्मीयता से ले जाकर प्रेम, दैहिक प्रेम, विराट प्रकृति, खुद के आत्म आदि सबसे साक्षात्कार करते हैं। भाषा में सपाटबपानी नहीं वरन एक समर्पण भरी, समझदार अकुलाहट है जिसकी लय कविता को लालित्य भी प्रदान करती है। एकरैखिक सरलता के कवि नहीं है संजय, इनकी कविताओ को जिगजैग मोशन में पढ़ना पड़ता है, व अर्थ ग्रहण के लिए पर्याप्त श्रम करना पड़ता है। क्योंकि यह भावात्मक आधार की कविताएं है कथात्मक आधार की नहीं।
सम्पर्क
अरुणेश शुक्ल
असिस्टेंट प्रोफेसर
हिन्दी विभाग
क्राइस्ट चर्च कालेज
कानपुर (उ.प्र.)
मोबाइल : 6307508056
बहुत तार्किक और पठनीय मूल्यांकन के लिए अरुणेश जी को बधाई. असल में अच्छी आलोचना से रचनाकार और पाठक दोनों के सामने नये रास्ते खुलते हैं. इस मूल्यांकन में यह पूर्ति हो रही है, यह कोई मामूली बात नहीं है.
जवाब देंहटाएंआशुतोष
बहुत अच्छी आलोचना, ऐसे लेख से पाठक और लेखक दोनों को बड़ा सकून मिलता है।
जवाब देंहटाएंशुक्ल जी धार में धार बनी रहे , शुक्ल पक्ष में धारदार चलते रहे
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