सन्तोष चौबे के कविता संग्रह पर अन्नू श्रीवास्तव की समीक्षा।

 




गति प्रकृति का नियम है। ब्रह्माण्ड के सारे तारे, ग्रह, उपग्रह गतिमान हैं। जीवन के होने में भी गति का प्रमुख हाथ है। जीवन का गति से चोली दामन का सम्बन्ध है। जहां गति नहीं होती, वहां जीवन नहीं होता। लेकिन शर्त यह है कि गति अपनी होनी चाहिए। उसी गति के अपने मायने हैं। सन्तोष चौबे गति के कवि हैं। वे उस गति को अपनी कविताओं में रेखांकित करते हैं, जो कविताओं से प्रायः नदारद रखी जाती है। सन्तोष चौबे का हाल ही में एक नया कविता संग्रह 'घर-बाहर' प्रकाशित हुआ है। इस संग्रह की समीक्षा अन्नू श्रीवास्तव ने लिखी है। तो आइए आज पहली बार पर हम पढ़ते हैं सन्तोष चौबे के कविता संग्रह पर अन्नू श्रीवास्तव की समीक्षा।



'वैपरीत्य भाव की कविताएं'


अन्नू श्रीवास्तव


जिस समय कविताओं की श्रेष्ठता एवं फेसबुक के लाइक्स, इंस्टाग्राम के फॉलोअर्स से तय हो रही हो तब उसे पूरे घटाटोप या फेनामिना से इतर जा कर संतोष चौबे की कवितायें पढ़ना एक अलग संतोष का अनुभव करना ही है। रोजमर्रा की दैनिंदन भाषा, सहज-सरल शिल्प और अनुभव का अनूठापन उनकी कविताओं को विशिष्ट बनाता है। 'घर बाहर’ उनका नया काव्य संग्रह है। लम्बी प्रतीक्षा के बाद आया उनका यह संग्रह हमें एक नयी रचनात्मक काव्य ऊर्जा का अहसास कराता है। संतोष चौबे साहित्य व जीवन को किस नजरिये से देखते हैं उसे उनकी कविता 'एक नहीं’ से समझा जा सकता है। 


“हम देखते रहे हैं

कई तरह के वृत्त

मसलन

वामपन्थी एकता का वृत्त

वामपन्थ विरोधी एकता का वृत्त

ईमानदारी का वृत्त

घूसघोरों का वृत्त

कलाकारों का वृत्त

अकलाकारों का वृत्त।” 


ऐसे ही वह तमाम वृत्तों की लम्बी सूची गिनाते हैं जिसमें बीमा एजेण्ट, दवा बेचक, पुरस्कृत लोग आदि के वृत्त हैं। दरअसल यह खेमेबन्दी समाज में हर स्तर पर व्याप्त है। साहित्य भी इससे अछूता नहीं है। यहाँ भी कलावाद, मार्क्सवाद, दलित, स्त्री, गौरा काले, अल्पसंख्यक, थर्ड जेंडर आदि के कई विमर्श अलग-अलग खांचों में चल रहे हैं। सबकी अपनी राजनीति है, अपने इंट्रेस्ट हैं। ऐसे में इन तमाम हदबन्दियों व गिरोहबाजियों से सबसे ज्यादा नुकसान भी समाज व साहित्य का ही हुआ है। 



एक ऐसा दौर भी हिन्दी साहित्य में तकरीबन सभी विधाओं में देखा है, जब मार्क्सवादी होना ही प्रगतिशील होना था। उसके अलावा आप चाहे जितनी भी समाज की चिन्ता करें, पक्षधरता रखें किन्तु आपको प्रतिक्रियावादी या कलावादी घोषित कर दिया जाता था। आपके साहित्य का न कोई सामाजिक मूल्य समझा जाता था ना ही साहित्यिक। संतोष चौबे अपनी इस कविता में इन सब बातों को समझते व संदर्भित करते हुए साहित्य व समाज को एक अलग आशावादी नजरिये से देखने की वकालत करते हैं। एक नये बिन्दु से चीजों को देखने की प्रस्थापना रचते हैं- 


“शुक्र है

कि क्वांटम थ्यौरी के आने के बाद

जरूरी नहीं रह गया है

किसी भी वृत्त में

गोल-गोल घूमना

और फिर भी

पाया जा सकता है

ऊर्जा का एक स्तर

रहने के लिए

सतत गतिमान।” 


अर्थात् आपको अपना काम करते रहने के लिए किसी खेमेबन्दी की जरूरत नहीं है। आप बिना अपने स्वीकृति-अस्वीकृति की चिंता किये अपनी रचनात्मक ऊर्जा का प्रयोग करते हुए सतत् गतिमान रहिये। अर्थात् रचना कर्म में रत रहिये। गति है तो वह महसूस भी होगी। वह अपने आस-पड़ोस या कि सृष्टि को भी हिला कर रख देगी। गति को इग्नोर नहीं किया जा सकता। यहाँ संतोष चौबे यह भी संकेत दे रहे हैं कि दलबन्दी या गिरोहबाजी गति के प्रवाह में प्रायः बाधक ही बनती है। वैसे भी सृजन के लिए खुला आसमान चाहिए होता है। कुएं के मेंढक बन जाने से उत्कृष्ट रचना कर्म कभी भी नहीं हो सकता। होगा भी तो उसकी सीमायें स्पष्ट रूप से दिखेंगी। साहित्य या कविता सीमाओं का अतिक्रमण ही तो सिखाती है हमें। अतः संतोष चौबे की कविता से जो सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण बात निकल कर सामने आती है वह यह कि वह हमें सीमाओं का अतिक्रमण करने का नैतिक साहस प्रदान करती है। वह एक व्यावहारिक व सैद्धान्तिक आधार भी इसका प्रदान करती हैं। 


संतोष चौबे की कविताओं में आशा-निराशा, स्वभाव, हताशा, सुख, दुख, स्नेह, राग-रंग, प्रतिरोध सब कुछ मौजूद है। वह अपनी कविता में कई बार एक खास किस्म का शिल्प प्रयोग करते हैं। यानी कविता जिस बिन्दु से शुरु की हो, ठीक उसके एकदम विपरीत बिन्दु पर लाकर खत्म करना। 'जब सब कुछ ठीक चल रहा हो’ कविता का शिल्प इसका उदाहण है। कविता की शुरुआती पंक्तियां हैं- 


“जब सबेरे समय पर खुली हो नींद

और सिर से गायब हो

कल का तनाव

जब चाय हाजिर हो मेज पर

साथ में ले कर

कुरकुरा अखबार” 


यानी कि जब सब कुछ ठीक से चल रहा है, यहाँ से कविता शुरु होकर धीरे-धीरे आगे बढ़ती है। अन्त में कविता को एक बिल्कुल विपरीत बिन्दु पर ले जाते हैं। किन्तु खासियत यह कि यह वैपरीत्य तभी अचानक से घटित होता है जबकि सब कुछ ठीक ठाक ही चल रहा होता है। आमतौर पर सरल व प्रचलित ढर्रा कविता का यह है कि स्थितियां ही एकदम उलट दी जाती यानी ऐसी चीजों का वर्णन किया जाता जिससे यह सिद्ध हो कि सब कुछ ठीक नहीं चल रहा है। ऐसे में यथार्थवादी ढर्रे के तहत निराशा का उपजना लाजमी है। और कवि निराश हो भी जाता। पर संतोष चौबे अपनी कविता में इस प्रचलित परिपाटी को ठीक उलट देते हैं- 


“जब दिन भर के काम की परची

पूरी तरह खाली हो

जब आसमान साफ हो

और हवा

दूर तक जाने को

बुलाती हो स

यानी जब सब-कुछ ठीक ठाक चल रहा हो

तभी न जाने क्यों

अचानक घेरती है निराशा।” 


यह जो अचानक तभी न जाने क्यों, घेरती है निराशा है, दरअसल यही कविता है। इस कविता में संतोष चौबे ने तनाव की धीरे-धीरे सृष्टि कर उसे एक बड़ी बिडम्बना में रूपान्तरित किया है। यही उनका श्रेष्ठ काव्य कौशल है। यह पंक्ति हमारे मस्तिष्क में मारा गया एक अमूर्त किन्तु ठोस व सघन स्ट्रोक है। यह पंक्ति यह भी बताती कि कविता से या कवि से सब कुछ की उम्मीद न करो। बहुत सारी ऐसी चीजें, भावनायें व मनोभाव हैं जिन्हें कवि खुद नहीं समझ पाता कि ऐसा क्यों हो रहा है? उसका यह न समझ पाना ही सही मायने में उसे कवि बनाये हुए है। अन्यथा वह ईश्वर ही क्यों न हो जाता? यह न समझ पाना ही, यह जो 'जाने क्यों’ है न यहीं से लगातार सृजनरत रखता है। सृजन प्रक्रिया का परिणाम होता है। 


संतोष चौबे चीजों को उसकी प्रक्रिया में समझने का ही प्रयास करते हैं। निराशा के बीच ही आशा जन्म लेती है। शायद इसीलिए संग्रह में ठीक इसके बाद की अगली कविता है 'ठीक उसी समय’। दोनों कविताओं को साथ रख कर पढ़ने से संतोष चौबे की काव्य दृष्टि ज्यादा खुलती है। इस कविता (ठीक उसी समय) में लिखते हैं- 


'पता नहीं किस बात पर उत्तेजित

दूरदर्शन पर

बच्चों से चेहरे वाली समाचार वाचक

परोसती थी

युद्ध और धमाकों के समाचार

पूरी संजीदगी के साथ

बात करने की कोशिश हर तरफ

पर सम्वाद कहीं नहीं।’ 


आज रूस-यूक्रेन, इज़राइल-हमास, ईरान-पाकिस्तान आदि के बीच चल रहे संघर्षों व शांति स्थापना की हो रही तमाम वैश्विक कोशिशों के बीच यह कविता ज्यादा प्रासंगिक हो उठती है। सही है संवाद कहीं नहीं है। इसलिए संघर्ष भी नहीं खत्म हो रहे। संतोष चौबे की कविता इससे बाहर निकलने के रास्ते का संकेत करती है। संवाद कहीं नहीं के आगे की पंक्तियाँ हैं, 


'ठीक उसी समय

बन्द हुई बारिश

उड़ा सफेद पक्षियों का समूह

नीले आसमान की ओर

निकला सतरंगी इन्द्रधनुष

अपनी पूरी भव्यता के साथ

चली मदमाती हवा

धरती से बात करते हुए।’ 


यहाँ संतोष चौबे असुन्दर के बरक्श सुंदर को खड़ा करते हैं। इस कविता में जितनी असुन्दर चीजें या हिंसक बातें अथवा बुराईयाँ आई हुई हैं, वह सब मानव निर्मित हैं। इसीलिए संतोष चौबे मनुष्य को उसकी सीमा व तुच्छता दिखाने के लिए प्रकृति का सहारा लेते हैं। वह यह दिखाते हैं जब पूरी दुनिया में इतनी हिंसा व वर्चस्व की लड़ाइयां चल रही हैं, जब मनुष्य को अपनी वैज्ञानिक प्रगति पर बड़ा गुमान है, तब उसका नतीजा क्या है? रोजाना हजारों की मृत्यु और लाखों का विस्थापन। हमें प्रकृति से सीखना चाहिए व प्रेरणा लेनी चाहिए। लगभग आध्यात्मिक होते हुए संतोष प्रकृति का उपयोग यहाँ डिवाइन व दिव्य के अर्थ में करते हैं जो दुनिया को अब भी सुंदर बनाती है। जरूरत है, उस सुंदरता की तरफ देखने, पहचानने व महसूस करने की। आपातकाल में जहाँ नागार्जुन ने शासन की बंदूक के सामने कोकिला की कूक को खड़ा किया था तो वहीं आज के इस अतिशय क्रूर व हिंसक समय में युद्धोन्माद के सामने समूची प्रकृति का सौन्दर्य व वैभव रख देते हैं। एक तरह से हम यह भी कह सकते हैं कि समूची भारतीय काव्य परम्परा जो कि आरण्यक रही है, एक तरह से उसे ही ला कर खड़ा कर देते हैं। उनकी कविता प्रकृति से संवाद करती हुई तादात्म्य स्थापित करती है।



सन्तोष चौबे



संतोष चौबे की इसी संग्रह की एक अन्य महत्वपूर्ण कविता है, 'सफलता आक्रान्त करती है’ यह कविता अपने पूर्वार्द्ध में आज की दुनिया में सफलता क्या है? इसे बताती है- 


“वह परीक्षा में पास हुआ

और लोगों ने कहा

सफल हुआ

फिर मिली उसे

अच्छी-सी नौकरी

और लोगों ने की

उसकी सफलता पर ईर्ष्या

वह घूमा विश्व में

अपनी सुन्दर पत्नी के साथ

और लोग बोले

सफल आदमी है।” 


कविता इसी के बाद एक टर्न लेती है। कविता का मूड और शेड दोनों बदल जाता है- 


'अच्छा होता अगर लोग

न देते उसे

अपने जीवन की आशा

न ढूँढ़ते उसमें

अपनी सफलता की परिभाषा

तब शायद वह

खोलता अपने दिल की बात

कि निकला वह

मगर पहुँचा नहीं

भरा वह

मगर बरसा नहीं

चमका वह

पर प्रकाशित नहीं कर सका

एक कोना भी धरती का

बताता वह उन्हें

अपनी असफलताओं के बारे में’ 


यह कविता हमें दुनियावी हकीकत से अवगत कराती है। जो लोग संतोष चौबे को उनके लेखन, कामों व ख्याति से जानते हैं वह यह कह सकते हैं कि यह उनकी खुद के बारे में लिखी गयी कविता है। यह उनका बड़प्पन है कि सामाजिक उद्यमी के रूप में शिक्षा जगत, विज्ञान, तकनीकी, साहित्य आदि को इतना सब कुछ देने के बावजूद उन्हें लगता है कि अभी उन्होंने कुछ भी समाज के लिए नहीं किया है। यह एक कवि की विनम्रता व बड़प्पन है। किन्तु यह कविता जितनी उनकी है, उतना ही उन्होंने इसको हम सबकी भी बना दिया है। एक कवि की सफलता भी इसी में निहित है कि वह आत्मानुभव को सबके अनुभव में रूपान्तरित कर दे। वह चीजों को, व्यक्ति को, समाज को अपनी नजर व धारणाओं से नहीं बल्कि उनकी विशिष्टताओं, उन्हें किस जगह से जानने की कोशिश करे। तभी तो व्यक्ति को उसकी पूरी इकाई व समाज को पूरी एक सांस्थानिक संरचना में रखा जायेगा। संतोष चौबे की यह कविता इसी जरूरत को रेखांकित करती है। समाज की हकीकत यही कि माता-पिता, परिवार अपने सपनों का बोझ बच्चों पर लाद देता है। यह जानने की कोशिश नहीं करता कि आखिर बच्चे की रुचि क्या है वह किस क्षेत्र में जाना चाहता है? समाज में सफलता के पैमाने अलग हैं। गाड़ी, बंगला, नौकरी, खूबसूरत पत्नी, बैंक बैलेंस आदि। पर क्या सफलता यही है? अगर सफलता यही है, फिर और ज्यादा का लोभ क्यों? रोजमर्रा के जीवन में तनाव, निराशा क्यों? चौबीसों घण्टों खुशियाँ व उल्लास क्यों नहीं? जाहिर तौर पर सफलता इससे इतर कहीं और होती। वह वहाँ होती, उसमें होती, जिसे आप करना चाहें और करके सुकून, प्रसन्नता व आत्मिक आनंद तथा संतोष प्राप्त होता, किन्तु आजकल तो बच्चे पैदा ही कैरियर के बैगेज के साथ होते हैं वह सो काल्ड सक्सेसफुल व ग्लोवल सिटीजन बनने की सामाजिक आकांक्षा के बैगेज के साथ बड़े होते हैं। पूरा जीवन वह ऊपर से नीचे तक मल्टीनेशनल कंपनी, ब्रांड व इस व्यवस्था के प्रोडक्ट बने रहते हैं। संतोष चौबे की यह कविता इस बड़ी साभ्यतिक विडम्बना व दुःखद त्रासदी को सामने लाती है। यह भी बताती कि समाज व परिवार संस्था का कितना क्षरण हुआ है? आखिर व्यक्ति को अपने जैसा क्यों बनाना? उसे ठीक से, उसकी जगह से समझना क्यों नहीं? एक तरह से सामाजिक संस्थाओं में व्याप्त संरचनागत मानसिक हिंसा को संतोष चौबे अपनी इस कविता में खोल कर रख देते हैं। संतोष चौबे घर-परिवार के कवि ज्यादा हैं। उनके यहाँ भाई, बहन, अम्मा, पत्नी, दोस्त आदि सब उपस्थित होते हैं। कहानियों व उपन्यासों की तरह कविताओं में भी वह गृहस्थ प्रेम, दाम्पत्य प्रेम का सुन्दर चित्रण करते हैं। छोटे-छोटे खुशनुमा पल, प्रेम से लबरेज संवेदनायें, एक-दूसरे की चिन्ता से भरे दृश्यात्मक वाक्य उनकी प्रेम कविताओं को एक निराली छटा प्रदान करते हैं। 'प्रेम’ शीर्षक कविता कोमल संवेदनाओं व दाम्पत्य प्रेम के घरेलू दृश्यों की एक सुन्दर कविता बन पड़ी है। 


'ठीक खाने के समय पर

खाना मिलेगा

और ऐन पीने के समय

पीने पर लगा दी जायेगी रोक

कपड़े धुले मिलेंगे

साफ शफ़्फाक

और एकदम सही जगह पर

रखे मिलेंगे कुरते-मोजे और रुमाल।’ 


इसी तरह से वह रोजमर्रा में घटित होने वाली चीजों का विवरण देते हैं कि बीमार होने पर चिन्ता की जायेगी, घर पहुँचने पर तकलीफ पहुँचाने वाली सूचनायें छिपा ली जायेंगी आदि-आदि। यानी प्रेम व दाम्पत्य प्रेम जहाँ कहीं भी 'प्रेम’ होगा वहाँ अपने से ज्यादा फिक्र दूसरे की होती है। और दूसरा जब इस फिक्र को समझ लेता है, उस हृदय को समझ लेता है तो प्रेम मुकम्मल हो जाता है। कोई दूसरा रह ही नहीं जाता। इसी लिए कविता की अंतिम पंक्तियां हैं-


'फिर रात में पहुँचेंगे हम

चाँदनी से नहाये बिस्तर पर

एक साथ

कुछ देर पढ़ने के बाद

लेंगे एक दूसरे का चुम्बन करीने से

प्रेम ही होगा

बिला शक

जब किये जा रहे हों

ये सारे काम

इतने करीने से।’ 


यानी प्रेम यही होता। संतोष चौबे की यही खासियत है कि वह प्रेम को समझते हैं, खालिस प्रेम को। वह अपनी कविता में इस प्रेम को, दाम्पत्य को, सम्बन्धों की मधुरता, ऊष्मा व सहजता को बचाये रखना चाहते हैं। अन्यथा बड़ी आसानी से वह प्रेम के नाम पर किये जा रहे स्त्री शोषण की कविता इसे बना सकते थे। पर उसमें प्रेम नहीं रह जाता। संतोष मूलतः प्रेम के कवि हैं। वह प्रेम बांटना और बचाना चाहते हैं। उनकी कवितायें बहुरंगी हैं। शिल्प भी एक रैखिक न है। हाँ यह जरूर है कि उनकी कवितायें पाठकों को नितान्त अपनी सी लगती हैं। बच्चा, बूढ़ा, युवा हर कोई उनकी कविता में खुद का अनुभव व सपने, आकांक्षायें सहज ही शामिल पाता है। भाषा सहज संप्रेषणीय है जिनमें क्लिष्ट शब्दों का प्रयोग न के बराबर है। उनके इस संग्रह का स्वागत किया जाना चाहिये क्योंकि यह संग्रह कविता को जीवन की ओर, आशा व प्रेम की तरफ लौटाता है।



'घर बाहर’

संतोष चौबे

आईसेक्ट पब्लिकेशन, भोपाल

प्रथम संस्करण-2023

मूल्य-200, पृष्ठ 156.


        

               

सम्पर्क                          

अन्नू श्रीवास्तव       

अतिथि शिक्षक 

हिन्दी विभाग 

क्राइस्टचर्च कॉलेज, 

कानपुर




टिप्पणियाँ

इस ब्लॉग से लोकप्रिय पोस्ट

मार्कण्डेय की कहानी 'दूध और दवा'

प्रगतिशील लेखक संघ के पहले अधिवेशन (1936) में प्रेमचंद द्वारा दिया गया अध्यक्षीय भाषण

शैलेश मटियानी पर देवेन्द्र मेवाड़ी का संस्मरण 'पुण्य स्मरण : शैलेश मटियानी'