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आरती तिवारी की कविताएँ

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आरती तिवारी आज के समय में हमारे जीवन पर बाजारवाद का इतना गहरा असर है कि उससे अलगा कर किसी आधारभूत जरुरत को भी नहीं देखा जा सकता. कबीर ने कभी कहा था – ‘वृक्ष कबहूँ नहीं फल भखै, नदी न संचै नीर. परमारथ के कारने, साधुन धरा शरीर.’ बाजारवाद ने इस कविता को झूठा कर दिया है. फलदार वृक्षों के फल ऊंचे तबके के घरों में पहुँच जाते हैं. नदियों पर बड़े-बड़े बाँध बना कर उन्हें पंगु कर दिया गया है. पानी पहले ही बोतलबन्द हो चुका है. हवा (जीवनदायी आक्सीजन) को सिलेंडर में सिमेट दिया गया है. मोबाईल, लैपटॉप, इंटरनेट जैसी चीजों के बिना जीवन अब निःसार लगने लगा है. साधु अब सत्ता की हनक के लिए लोलुप हो उठे हैं. ऐसे में एक चीज है जो बाजार की परिधि से बाहर रह कर बाजार को आज भी लगातार मुँह चिढ़ा रहा है. सूर्य का प्रकाश इस बाजारवाद के लिए एक चुनौती की तरह है जो आज भी सभी वर्ग के लोगों के लिए समान रूप से उपलब्ध है. आरती तिवारी की कविता ‘धूप’ वस्तुतः सूर्य के प्रकाश की सर्वउपलब्धता को करीने से चिन्हित करती है. धूप आज भी पत्तियों में हरियाली बन रही है. कपडे सूखा रही है, रोशनी फैला रही है. सब निश्चिन्त हो ...